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पदार्पण हुआ, तब व्यवस्था में शिथिलता के कारण होती हुई आसातना को देख उन्हें दुःख हुआ । शीघ्र ही अपने पूर्ण प्रयास से जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ करवाकर मन्दिर की सुव्यवस्था की । वि. सं.1975 माघ शुक्ला वसंत पंचमी के दिन आचार्य श्री के सुहस्ते पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । पहले इस चौ-मंजिले चतुर्मुख मन्दिर में श्री स्वयम्भू पार्श्वनाथ भगवान की एक प्रतिमा ही थी । इस प्रतिष्ठा के समय अन्य 15 प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठित करवाई गई। आचार्य श्री का प्रयास व तीर्थ सेवा अति ही उल्लेखनीय हैं ।
विशिष्टता * भंडारी गोत्र के श्री भानाजी, राजा गजसिंह जी के राज्यकाल में जोधपुर राज्य में जेतारण परगने के हाकिम थे । किसी कारणवश उनपर राजा कोपायमान होकर उन्हें जोधपुर आने का आदेश दिया। भयाकुल श्री भन्डारीजी जोधपुर के लिए रवाना हुए । मार्ग में कापरड़ा ठहरे । भंडारीजी को प्रभु-प्रतिमा का दर्शन करके ही भोजन करने का नियम था । गाँव में
तलाश करने पर वहाँ उपाश्रय में विराजित एक यतिवर श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ मन्दिर-कापरड़ा
के पास प्रभु प्रतिमा रहने का पता लगा । भन्डारीजी प्रभु का दर्शन करके जब जाने लगे तब निमित्त शास्त्र के जानकार यतिजी ने भंडारीजी से जोधपुर जाने का कारण सुनकर कहा कि यह आपकी कसौटी है, धैर्य
रखना । आपको वहाँ जाने पर राजा द्वारा सम्मान तीर्थाधिराज ॐ श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ भगवान,
मिलेगा, क्योंकि आप निर्दोष हैं । इधर राजा को स्वप्न पद्मासनस्थ, चाकलेट वर्ण, लगभग 55 से. मी.
में संकेत मिला कि जेतारण के हाकिम निर्दोष हैं, सुनी (श्वे. मन्दिर) ।
हुई सारी बातें झूठी हैं । राजा द्वारा पूछताछ करवाने तीर्थ स्थल कापरड़ा गाँव में ।
पर भानाजी निर्दोष मालूम पड़े, जिससे भानाजी के प्राचीनता कापरड़ा गाँव की स्थापना कब हुई। जोधपुर पहुंचने पर उन्हें राजा द्वारा सम्मान दिया गया उसका पता लगाना कठिन-सा है । इसके प्राचीन नाम व उन्हें पाँच सौ रजत मुद्राएँ उपहारस्वरूप भेंट कर्पटहेडक व कापडहेडा थे ऐसा उल्लेख मिलता है । दी गई। चमत्कारिक घटनाओं के साथ वि.सं.1674 पौष कृष्णा
भन्डारीजी खुश होकर जेतारण जाते वक्त पुनः 10 को प्रभु के जन्म कल्याणक के शुभ दिन भूगर्भ यतिजी से मिले व सारा वृत्तान्त कहा । यतिजी ने यहाँ से यह प्रतिमा प्रकट हुई थी । जेतारण के हाकिम श्री
सुन्दर मन्दिर बनवाने की प्रेरणा दी । इस पर भंडारीजी भानाजी भन्डारी द्वारा निर्मित चौमंजिले अद्भुत भव्य
ने कहा कि उपहार प्राप्त पाँच सौ मुद्राएँ सेवा में अर्पित जिनालय में वि. सं. 1678 वैशाख शुक्ला पूर्णिमा
हैं और जो बनेगा जरूर करूँगा । यतिजी ने प्रसन्नता सोमवार के दिन आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी के सुहस्ते
पूर्वक मुद्राओं को एक थैली में भरकर ऊपर वर्धमान इस प्रभु प्रतिमा की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुए का लेख
विद्या सिद्ध वासक्षेप डालकर भंडारीजी को सौंपते हुए प्रतिमा के नीचे उल्लेखित है ।
कहा कि थैली को उल्टी न करना, मन्दिर की _ वि. सं. 1975 के लगभग जब तीर्थोद्धारक, शासन आवश्यकता पूरी होती रहेगी । भन्डारीजी फूले न सम्राट, आचार्य श्री नेमिसूरीश्वरजी महाराज का यहाँ समाये । 270
श्री कापरड़ा तीर्थ