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श्री आदिनाथ प्रभु
श्री पार्श्वनाथ प्रभु
श्री वीर प्रभु
श्री देवकुलपाटक तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री आदिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 105 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल * देलवाड़ा गाँव के बाहर पहाड़ी की ओट में ।
प्राचीनता ® इस तीर्थ की सही प्राचीनता का पता नहीं लग रहा है । वि. सं. 1469 में जीर्णोद्धार होकर पुनः प्रतिष्ठा होने का उल्लेख है ।
यह क्षेत्र पहिले 'देवकुलपाटक' के नाम से विख्यात था । किसी समय यह एक विराट नगरी थी । वि. सं. 1746 में रचित 'तीर्थ माला' में इसका वर्णन आता है ।
वि. सं. 1954 में अंतिम जीर्णोद्धार होने का उल्लेख है ।
विशिष्टता * यह स्थान मेवाड़ की पंचतीर्थी का एक तीर्थ स्थल माना जाता है । कहा जाता है किसी वक्त यहाँ 300 जिन मन्दिर थे । यहाँ दो पर्वतों पर शत्रुजयावतार व गिरनारावतार की स्थापना की हुई थी। यहाँ से नागदा तक सुरंग थी, ऐसा उल्लेख है । 'संतिकरं' स्तोत्र की रचना यहीं पर हुई थी । श्री आदिनाथ प्रभु की इतनी सुन्दर प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं । आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरीश्वरजी महाराज अनेकों बार अपने विशाल साधु समुदाय के साथ यहाँ पधारे ऐसा 'सोम सौभाग्य काव्य' में वर्णन आता है । यहाँ की शिल्पकला देखते ही आबू व राणकपुर याद आ जाते हैं, क्योंकि यहाँ की शिल्पकला भी अपने-आप में अलग स्थान रखती हैं । शिखर की बाह्य कला अपना विशिष्ठ स्थान रखती है ।
अन्य मन्दिर इस मन्दिर के अतिरिक्त तीन
श्री आदिनाथ जिनालय-देवकुलपाटक
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