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श्री स्वर्णगिरि तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री महावीर भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 100 सें. मी. (श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल जालोर शहर के समीप स्वर्णगिरि पर्वत पर जालोर दुर्ग में । प्राचीनता यह स्वर्णगिरि प्राचीन काल में कनकाचल नाम से विख्यात था । किसी समय यहाँ अनेकों करोड़पति श्रावक रहते थे । तात्कालीन जैन राजाओं ने 'यक्षवसति' व अष्टापद आदि जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया था, ऐसा उल्लेख मिलता है । उल्लेखानुसार विक्रम सं. 126 से 135 के दरमियान राजा विक्रमादित्य के वंशज श्री नाहड़ राजा द्वारा इसका निर्माण हुआ होगा । ऐसा प्रतीत होता है ।
श्री मेरुतुंग सूरिजी द्वारा रचित 'विचार श्रेणी' में व लगभग तेरहवीं सदी में श्री महेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा रचित 'अष्टोत्तरी तीर्थमाला' में भी इसका उल्लेख मिलता है । 'सकलार्हत् स्तोत्र' में भी इसका कनकाचल के नामसे उल्लेख है । कुमारपाल राजा द्वारा वि. सं. 1221 में 'यक्षवसति' मन्दिर के उद्धार करवाने का उल्लेख है ।
स्वर्णगिरि में कुमारपाल राजा द्वारा निर्मित श्री पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिर 'कुमारविहार' की प्रतिष्ठा सं. 1221 में श्री वादीदेवसूरिजी के सुहस्ते सम्पन्न होने का उल्लेख है । वि. सं. 1256 में श्री पूर्णचन्द्रसूरिजी द्वारा मन्दिर में तोरण की प्रतिष्ठा, वि. सं. 1265 में मूलशिखर पर स्वर्णदण्ड व वि. सं. 1268 में संस्कृत भाषा में 7 द्वात्रिशिका के रचयिता श्री रामचन्द्रसूरिजी द्वारा प्रेक्षामध्यमण्डप पर स्वर्णमय कलश की प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । वि. सं 1681 में स्वर्णगिरि पर सम्राट अकबर के पुत्र जहाँगिर के समय में यहाँ के राजा श्री गजसिंहजी के मंत्री मुहणोत श्री जयमलजी द्वारा एक जिन मन्दिर बनवाने व अन्य सारे मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है । मंत्री श्री जयमलजी की धर्मपत्नियां श्रीमती सरूपद व सोहागद द्वारा भी अनेकों प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है, जिनमें से कई प्रतिमाएँ विद्यमान है । श्री महावीर भगवान के इस मन्दिर का जीर्णोद्धार मंत्री श्री जयमलजी द्वारा करवाकर
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श्री जयसागर गणिजी के सुहस्ते प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । कहा जाता है यही 'यक्षवसति' मन्दिर है जिसका श्री कुमारपाल राजा ने भी पहिले उद्धार करवाया था । अन्तिम उद्धार श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी के उपदेश से सम्पन्न हुआ था ।
स्वर्णगिरि की तलहटी में जाबालिपुर (जालोर) भी वक्रम की लगभग दूसरी सदी में बसे का उल्लेख मिलता है । विक्रम सं. 835 में जाबालिपुर में श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में आचार्य श्री उद्योतनसूरिजी द्वारा 'कुवलयमाला' ग्रंथ की रचना पूर्ण करने का उल्लेख है । उस समय यहाँ अनेकों मन्दिर थे । उनमें अष्टापद नाम का एक विशाल मन्दिर था । इसका वर्णन आबू के लावण्यवसहि मन्दिर में वि. सं. 1296 के शिलालेख में भी है ।
वि. सं. 1293 में राजा श्री उदयसिंहजी के मंत्री दानवीर, विद्वान व शिल्प विद्या में निष्णांत, श्री यशोवीर द्वारा श्री आदिनाथ भगवान के मन्दिर में अद्भुत कलायुक्त मंडप निर्मित करवाने का उल्लेख है ।
खतरगच्छ गुर्वावली के अनुसार राजा श्री उदयसिंह के समय वि. सं. 1310 के वैशाख शुक्ला 13 शनिवार स्वातिनक्षत्र में श्री महावीर भगवान के मन्दिर में चौबीस जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा महोत्सव अनेकों राजाओं व प्रधान पुरुषों के उपस्थिति में महामंत्री श्री जयसिंहजी के तत्वाधान में अति ही उल्लासपूर्वक सम्पन्न हुवा था । उस अवसर पर पालनपुर, वागड़देश आदि जगहों के श्रावकगण इकट्ठे हुए थे ।
वि. सं. 1342 में श्रीसामन्तसिंह के सान्निध्य में अनेकों जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है । वि. सं 1371 ज्येष्ठ कृष्णा 10 के दिन आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी के विद्यमानता में दीक्षा व मालारोपण उत्सव हुए का उल्लेख है । इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी द्वारा यहाँ के मन्दिरों को भारी क्षति पहुंची व कलापूर्ण अवशेष आदि मस्जिदों आदि में परिवर्तित किये गये जिनके आज भी कुछ नमूने नजर आते हैं। कुछ पर प्राचीन जैन शिलालेख भी उत्कीर्ण हैं । वि. सं. 1651 में यहाँ मन्दिरों के होने का उल्लेख मिलता है । आज यहाँ कुल 12 मन्दिर हैं ।
विशिष्टता वि. की दूसरी शताब्दी से लगभग आठारहवीं शताब्दी तक यहाँ के जैन राजाओं, मंत्रियों व श्रेष्ठियों द्वारा किये धार्मिक व सामाजिक कार्य