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विशिष्टता यह क्षेत्र श्री जैसलमेर पंचतीर्थी का एक तीर्थ-स्थान माना जाता है। यहाँ से लगभग 1 कि. मी. दूर दादा श्री जिनकुशलसूरीश्वरजी का स्थान व कुन्ड हैं । जन श्रुति के अनुसार लूणिया गोत्र के एक सेठ देराउर गाँव में यवनों द्वारा बहुत सताये जाते थे । गुरुदेव ने सेठ को राजस्थान जाने को कहा और कहा कि पीछे नहीं देखना । लूणिया परिवार ऊँटों पर सामान आदि लादकर चले । इस स्थान पर पहुँचने पर उजाला देखकर पीछे की ओर देखा तो गुरुदेव वहीं रुक गये व आशीर्वाद देकर कहा कि अब मैं जाता हूँ। तुम डरना नहीं, पास ही ब्रह्मसर गाँव में चले जाओ। जिस पाषाण पर गुरुदेव ने खड़े होकर दर्शन दिये थे उसी पर गुरुदेव के चरण उत्कीर्ण करवाकर छत्री में स्थापित किये । वे चरण आज भी विद्यमान हैं । दादावाड़ी का निर्माण भी हुवा दादावाड़ी में एक कुन्ड है जो अकाल में भी हमेशा निर्मल जल से भरा रहता है । यह स्थान बहुत ही चमत्कार-पूर्ण व देखने योग्य है। ___ इसके निकट ही वैशाखी नाम का वैष्णवों का तीर्थ स्थान है, जो बौद्धकालीन माना जाता है । वैशाखी व ब्रह्मसर के बीच 'गडवी' नामक एक कुआँ हैं दुष्काल के समय जैसलमेर की पनिहारिनियाँ यहाँ से पानी ले जाया करती थी, ऐसा कहा जाता है ।
अन्य मन्दिर वर्तमान में इसके अतिरिक्त लगभग 1/2 कि. मी. दूर एक दादावाड़ी है, जिसका वर्णण विशिष्टता में किया है ।
कला और सौन्दर्य ® मन्दिर के सामने उपाश्रय के दरवाजे पर कुछ विशिष्ट कला के नमूने उत्कीर्ण हैं। __ मार्गदर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन जैसलमेर लगभग 13 कि. मी. दूर है, जहाँ से टेक्सी व आटो की सुविधा है । यह स्थान जैसलमेर बागसा मार्ग में स्थित है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । लोद्रवा तीर्थ इस स्थान से लगभग 13 कि. मी. हैं।
सुविधाएँ ठहरने के लिए मन्दिर के पास छोटीसी धर्मशाला है, जहाँ पानी बिजली का साधन है। यहाँ से लगभग 17 कि. मी. दूर दादा जिनकुशलसूरि ट्रस्ट द्वारा संचालित उक्त उल्लेखित दादावाड़ी के परिसर में सर्वसुविधायुक्त बड़ी धर्मशाला है जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है । यात्रियों को जैसलमेर या लोद्रवपुर में ठहरकर यहाँ आना सुविधजनक है या उक्त
श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान-ब्रह्मसर
श्री ब्रह्मसर तीर्थ
तीर्थाधिराज * श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल जैसलमेर से 13 कि. मी दूर छोटे से ब्रह्मसर गाँव में ।।
प्राचीनता यहाँ के श्रेष्ठी श्री अमोलखचन्दजी माणकलालजी बागरेचा ने इस मन्दिर का निर्माण करवाकर वि. सं. 1844 माघ शुक्ला 8 के शुभ दिन प्रतिष्ठा करवायी ।
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