Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3924 श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयविरचित स्याद्वादकल्पलता व्याख्या समलंकृत मुनिपुरंदर तर्कसम्राट् जैनाचार्य श्री हरिभद्रसूरिविरचित + शास्त्रवासिमुच्चय 5 स्तबक ८ [ वेदातमत समीक्षा हिन्दी विवेचन सहित अभिवीक्षक :न्यायदर्शनतत्त्वज्ञ धर्मसंरक्षक जैनाचार्य श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज हिन्दी विवेचक :पंडितराज षड्दर्शनविशारद न्यायाचार्य श्री बदरीनाथ शुक्ल भूतपूर्व कुलपति संपूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय, बनारस (यू. पो.) प्रकाशक : दिव्य दर्शन ट्रस्ट ६८, गुलालबाड़ी, यम्बई-४००००४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 प्रास्ताविक संवेदन 5 दार्शनिक चर्चाएँ आर्यावर्त के मनीषीयों की एक अद्भुत देन है। इन चर्चाओं को पढ़ने से पता लगता है कि हमारे पूर्वी किसी एक का निर्णय करने के लिये जब अपनी प्रतिभा के चक्रों को गतिमान करते थे तब कितनी महराई में उतर जाते थे और कितना मधुर तत्त्वजल बाहर लाते थे जिसके रसास्वाद से आज भी हम दिव्य तृप्ति का अनुभव कर सकते हैं। 'शास्त्रवार्त्ता समुच्चय' यह एक ऐसे ही बड़े मनीषी को अमर कृति है जिसमें चार्वाक सहित सभी दर्शनों के शास्त्र सागर का आलोकन करके लाचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने घवल उज्ज्वल अमृत ही भर दिया है । उपा० श्रीमद् यशोविजय महाराज ने नवीनतर्कालंकृत स्यादुवादकल्पलता व्याख्या बना कर इस ग्रन्थरत्न की श्रीवृद्धि में चार चांद लगा दिये हैं । इस विभाग में शास्त्रवार्त्ता का पूरा आठवों स्तबक उसकी व्याख्या और उसके हिन्दी विवेचन के साथ प्रस्तुत है। मूल ग्रन्थ अति संक्षिप्त है । सिर्फ १० ही कारिका में मूल ग्रन्थकार ने समूचे वेदान्तमत का प्रतिपादन, उस मत की निष्पक्ष समालोचना और वेदान्त संप्रदाय के मूल संस्थापक का इस मत की स्थापना में गर्भित शुभाशय को अनावृत कर दिया है । मूल कारिकाओं के अन्तर्निहित आशय को उद्भासित करने के लिये मनिषीरत्न यशोविजय महाराज ने जो कलम चलायी है इससे लगता है- वेदान्त समुद्र के लिये वे अगस्त्य ऋषि बन गये होंगे । वेदान्तमत - पूर्वपक्षवार्ता के निरूपण में उन्होंने अपने काल तक प्रचलित वेदान्त के किसी भी मत को अछूता नहीं रखा है। कई मत तो ऐसे भी उल्लिखित है जिसका अन्यत्र पता लगाना भी कठिन है, यही कारण है - इस के हिन्दी विवेचन के समय पर काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । प्रथम कारिका की व्याख्या के प्रारम्भिक अंश में अद्वैतवाद का उपस्थापन किया गया है उसके बाद ब्रह्माद्वैत, प्रपच को अनिर्वचनीयता ब्रह्म की सजातीय विजातीय भेदशुन्यता, अविद्या या अज्ञान की सिद्धि, मूलाज्ञान और तुलाज्ञान, पारमार्थिकस व व्यावहारिकसत्त्व और प्रतिभासिक्सत्त्व प्रतीतिजनक तीन शक्तियाँ, जोब-ईश्वरादि प्रपख, जोव के विषय में प्रतिबिम्बवाद और आभासवाद, जीवों की अनेकता, हिरण्यगर्भादि की उपासना, सायुज्य मुक्ति के विभिन्न मत, एकजीववाद, अन्तःकरण की वृत्ति, ईश्वर में मायावृत्ति, पंचीकरण सिद्धान्त इत्यादि विषयों पर विस्तार किया गया है । द्वितीय कारिका में केशादि की संकीर्णता से आकाश में अनुभूयमान भेदप्रतीति के दृष्टान्त से तृतीय कारिका में ब्रह्म सम्बन्धी भेद प्रतीति का उपपादन किया है। व्याख्याकार ने यहाँ अविद्यानिर्वत्त वेदान्तवाक्य अध्ययन विधि की नित्यता के उपर विस्तृत परामर्श प्रदर्शित किया है । उसके बाद अन्तःकरण शुद्धि यज्ञदानादि की कर्त्तव्यता नित्यानित्यविवेक वैराग्य- शमदमादि 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुमुक्षा, अधिकार संपादन, संन्यास की अधिकारिविशेषणता, आतुरसंन्यास और उसका फल, तत्त्वज्ञान के बाद प्रारक इत्यादि विषयों पर पर विवेचन किया है। ४-५-६ कारिका से वेदान्तमत विरुद्ध उत्तर पक्ष का प्रारम्भ किया है-अविद्या सत् से पृथक न होने से भेदाध्यवसाय की आकस्मिकता की आपत्ति, अभेदरूप अविद्या से भेदप्रतीति में प्रमाण का अभाव और प्रमेयष्यतिरिक्त प्रमाणाभ्युपगम में अद्वैत भंग की आपत्ति प्रदर्शित की गयी है । ७वीं कारिका को व्याख्या में अद्वैतवाद की विस्तार से समालोचना प्रस्तुत है। बीच-बीच में वेदान्ती की ओर से की गई अवशिष्ट शंकाओं का भी समाशन किया गया है । महाविद्या अनुमान का विस्तार से निरूपण और उसका निराकरण बोधप्रद है । प्रपञ्च मिथ्यात्व साधक अनुमान का भी अन्त में निराकरण करके प्रपश्च में ब्रह्मवत् परमार्थसत्त्व की प्रतिष्ठा की गयी है। आठवीं कारिका में अद्वैतवाद देशना का मूल आशय व्यक्त करते हुये कहा गया है कि वेद जिसका प्राचीनतम नाम जैनों के मत से श्रावकप्रज्ञप्ति है, उसमें शत्रु-मित्रादि में द्वेष और राग को निमल करके समभाव की प्रतिष्ठा के लिये केवल ब्रह्म की पारमार्थिक एकमात्र सत्ता की भावना के उपर भार दिया गया है, 'ब्रह्म' से अतिरिक्त वास्तव में कोई तत्त्व ही नहीं है-ऐसा उसका आशय नहीं है। ९वीं और १०वीं कारिका में क्रमशः उस गभित आशय की उपपत्ति और विपरीत कल्पना में बाधकापत्ति प्रदर्शित की गयी है। संसार और मोक्ष का द्वैत वास्तविक होने पर ही मुमुक्षुओं का तदर्थ यत्न सार्थक हो सकता है । यदि अद्वैत देशना समभाव साधना के लिये न होकर वास्तविक प्रतिष्ठा के आशमवाली मानी जाय तो फिर मोक्षार्थी के सभी अनुष्ठान व्यर्थ हो जाने की आपत्ति अटल रहेगो। १०वीं का० की व्याख्या में विपरीत कल्पना में बाधक आपत्ति का सपूर्वपक्षउत्तरपक्ष से विस्तृत मीमांसा की गयी है। महोपाध्यायजी की तीक्ष्ण प्रज्ञा का हमें यहां परिचय मिल जाता है। चरम तीर्थङ्कर भगवान महावीर देव, प० पू० कर्मसाहित्य निष्णात सिद्धान्त महोदधि स्व. आचार्यदेव श्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज एवं न्यायविशारद उपविहारी गुरुदेव आचार्य भगवंत श्री विजयभुवन भानुसूरीश्वरजी महाराज की महतो कृपा इस ग्रन्थ के सम्पादन में साद्यन्त अन्वित रही है । एवं प० पू० स्व० गुरुदेव शान्तमूर्ति मुनिराजश्री धर्मघोषविजयजी महाराज के शिष्यावतंस गीताधरल गुरुदेव प० पू० पं० श्री जय घोषविजय जो महाराज ने दिलचस्पी से इस ग्रन्थ के सम्पादन कार्य में उदार सहायता प्रदान की है-किन शब्दों से इन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की आय-यह मैं नहीं जानता । अधिकृत मुमुक्षु वग इस ग्रन्थ के पटन-पाठन से सम्यग्दर्शन को विशुद्ध बना कर आत्मकल्याण के पथ पर अग्नसर बन यही शुभेच्छा। सं० २०३८ अषाढ शुक्ला ११ पालनपुर (बनासकांठा) -जयसुन्दर विजय Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + विषयानुक्रम ॥ विषय पृष्ठ वर्द्धमानस्वामी की स्तवना पार्श्वनाथ प्रभु की ,, जिनवाणी की उपासना का० १-वेदान्तमत के सिद्धान्त .... अद्वैत शब्द की विविध व्युत्पत्तियो.... एकमात्र ब्रह्म सत्ता का उपपादन .... ब्रह्म में स्वगतद्वितीयभेदशून्यता .... भेद वस्तुस्वभावरूप या अर्थान्तररूप होने पर। द्वैत की सिद्धि ... .... भेदात्मक स्वभाव का व्यवस्थापक मात्र हेतु नहीं है अर्थक्रिया में प्रतियोगि निरपेक्षता .... पुत्रत्व-पितृत्वादि भेद कल्पित ... ६ अर्थ क्रिया भेद से वस्तुभेद असिद्ध .... ६ 'घट: सन्' प्रत्यक्ष से सन्मात्ररूपता की सिद्धी ७ घटाभेद सिद्ध न होने से उसका निषेध अशक्य ७ आकाशपुष्प के निषेध में मतान्तर .... ८ भेद-अभेद में भेद मिथ्या पृथ्वी में गन्धवत्ता की तरह चित् में ही सत्ता ६ आत्मतत्त्व के दर्शन से प्रपञ्च का भ्रमज्ञान ६ आत्माऽज्ञान जन्यतावच्छेदक दृश्य दर्शनत्व १० ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का काल्पनिक तावात्म्य १० प्रपञ्च सदसद्रूप से अनिर्वचनीय .... ११ रज्जु में भासित सर्प की अन्यत्र सत्ता में प्रमाणाभाव रज्जुसपं-वास्तवसर्प दो में एक अवाच्य, अन्य वाच्य कैसे? .... अनुभवमात्र की वस्तु साधकता में लाघव १२ देशान्तर स्थित सर्प की रज्जु में प्रतीति मानने में गौरव विशेषादर्शन की अपेक्षा विशेष विषयक अज्ञान की कारणता में लाघव विषय स्वाश्रय में स्थात्यन्ताभाव विरुद्ध होने का आक्षेप रज्जुसर्प व्यवहार प्राप्त होने की आपत्ति मिथ्या ब्रह्म सवजातीय-विजातीयभेद शून्य अन्तःकरणभेद से सुखादिवैचित्र्य की उपपत्ति १५ सर्वग्राहो नित्य एकात्मस्वरूप म्फुरण की सिद्धि समस्त कार्यों का उपादान कारण एक नित्य ज्ञान अज्ञान सापक प्रतीतियों 'अर्थ न जानामि' प्रतीति की विषय मीमांसा १७ अज्ञान आश्रय और विषय चतन्य हैविवरणाचार्य मत ..... चैतन्य निष्ठावरण साक्षि से सिद्ध .... "अज्ञातो घट: इस व्यवहार की उपपत्ति का प्रश्न शुक्ति-रजत में बाघ व्यवहार की उपपत्ति का बीज बाध और निवृत्ति के बीच अंतर .... २० 'अज्ञातो घट:' की उपपत्ति में अन्य पक्ष २० "अज्ञातो घटः' की उपपत्ति में तृतीय पक्ष २२ " " " तुलाज्ञानवादी पक्ष २२ मूलाज्ञानशक्तिरूप तूलाज्ञान अनादि है-इसका खण्डन अज्ञान का आश्रय जीव, विषय ब्रह्म परमार्थसत्त्व, व्यवहारसत्त्व, प्रतिभास सत्त्व प्रतीतिजनक तीन शक्तियाँ .... २६ तत्वज्ञान के बाद प्रारब्धक्षय होने पर अज्ञान की निबत्ति .... .... २७ जीवेश्वरादि प्रश्न विषय में बिवरणाचार्यमत २८ अविद्यावच्छिन्न चैतन्यरूपजीव की आशंका २८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ३ विषय विषय प्रतिबिम्ब जीव का बिम्ब शुद्ध चैतन्य २६ जीवचैतन्य-विषय चैतन्य में अभेद अवश्य अज्ञान विशिष्ट चैतन्य ही जीव-वाचस्पति २६ मन्तव्य अज्ञान में आभासित चैतन्याभिन्न चैतन्य ही वृत्तिबहिनिर्गमन के अन्य प्रयोजन की जोष है-माभासबाद .... ..... ३० आशंका मादर्श में अन्य मुखोत्पत्ति नहीं होतो लोहित्य-अपरोक्षता की तरह घट अपरोक्षता । प्रतिबिम्बवाव ३२ की उपपत्ति की आशंका ..... ४५ भ्रमाधिष्ठान मुख नहीं, आदर्श है-शंका ३२ वृत्ति का प्रयोजन-मतान्तर .... ४६ सोपाधिक-निरूपाधिक भ्रमविभाग उच्छेद अभेदापत्ति पर पुनः आक्षेप-समाधान ४६ की आपत्ति-समाधान में अग्नि कीपरोक्षता की उपपत्ति ४७ प्रत्यभिज्ञा होने पर भी उपाधि भ्रमस्थल में इदमंश की अपरोक्षता ४० भेदाध्यास .... .... ३३ अनिर्वचनीय रजतसंसर्ग की उत्पत्ति पर जीय संस्था का है आक्षेप-समाधान हिरण्य गर्भादि की उपासना के सूचक रजताकारवृत्ति अनावश्यक का आक्षेप ४६ शास्त्र वचनों की उपपत्ति , की आश्यकता का समर्थन ४६ सालोक्यादि चार मेव से क्रममुक्ति अज्ञानादि के भान के लिए वृत्ति अनावश्यक सायुज्य-उपास्य के देह में सहावस्थान (१) ३६ मतान्तर , -अधिकशक्ति संपन्नलिंगशरीर विषय विशेषज्ञान दशा में समस्त विषय प्राप्ति (२) .... .... ३६ ।। विशेषित अज्ञान का भान स्वीकार्य , -दूसरे स्वरूप में किसी की एक का शुक्तिरजतस्थल में वृत्ति आवश्यक ५१ अयस्थान (३) घटसाक्षात्कारवत्ति शरीराच्छेदेन क्यों? ५३ , -अपरिच्छिन्न लिंग की प्राप्ति (४) ३७ ईश्वर में सर्षाकार एफ मायावृत्ति का । - के साथ तादात्म्य (५)३७ स्वीकार .... ५३ उपास्य-उपासक का अनिर्वचनीय रजतवृत्ति की अपेक्षा, देहपर्यन्त मज्ञानादि तादात्म्य (६) सिद्धान्तमत ३८ की नहीं उपासना के परिपाक-अपरिपाक शरीर केवलसाक्षिवेद्य कसे? ... अपूर्णता के विविध प्रभाव .... ३८ भिन्न भिन्न रूप से जीव ब्रह्म में अध्यस्त ५४ उपाधिभूत अज्ञान एक होने से जोवैक्य ३९ साक्षित्व में उपाधि अज्ञान या अन्त:करण ? ५५ 'अहं' बुद्धि का उत्पादक अन्तःकरणाध्यास ४० साक्षि अज्ञानादि के स्फुरण में नहीं, स्मरण अज्ञानादि की प्रतीति तदुपहित चैतन्यरूप में प्रयोजक .... .... साक्षिसे .... ४१ सुषुप्ति में प्राज्ञ-आनन्दमय अवस्था ईश्वर और जोव के प्रति घटादि की अपरो प्राणमयादि तीन कोशों की कार्य प्रक्रिया ५७ क्षता का उपपादान .... ..... ४२ समष्टि लिग और उपासना का फल अपरिच्छिन्न जीव पक्ष में घटादि को अपरोक्षता ४३ व्यष्टि लिग-विराट आदि बहुभेव ५८ अन्तःकरणवृत्ति के साथ जीव संबंध का पंच भूत, पंच इन्द्रिय, वाग् आदि प्रपंच ५६ स्पष्टीकरण ४३ श्रोत्रेन्द्रिय आकाशरूप नहीं है ..... ५६ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ८० ८२ " विषय पृष्ठ विषय भूत पश्चीकरण प्रक्रिया संन्यास श्रवणादि के अंग होने का समर्थन पंचीकरण के सम्बन्ध में मतान्तर ६१ संन्यास ज्ञानांग न होने का कारण जन्मान्तरीय संन्यास भी उपयोगी केवल साक्षि द्वारा आकाश की अपरोक्षता ६२ से श्रवणादि अधिकार आकाश-अपरोक्ष न होने की पूनःशंका सिद्धि का असंभव ८२ केशादिसंकीर्णता का प्रत्यक्ष भ्रम कैसे? ६३ पातुर संन्यास वाक्य से किसका विधान ? ८३ का० ३-अविद्या से ब्रह्म में भेव प्रतीति ६४ , , से कमन्तिर का विधान ८३ अध्ययन विधि नित्य न होने की आशंका ६५ . का फल क्या? .... ८४ ऋणश्रुति और शूद्रत्व-स्मृति से बेदाध्ययन 'प्राप्य पुण्य कृतान्' इस बचन का विषय की फलतः नित्यता सिद्धि .... ६६ कौन ? स्वरूपनित्यत्व किसको कहते हैं? ६६ स्मृति से आतुर संन्यास फल का निर्णय ८५ वेदाध्ययन का फल वेदप्राप्ति .... यद्यातुर बाक्य से विहित संन्यास में आपात यानी संशयाविरोध मतान्तर प्रमानिश्चय प्रतिबन्धकता में दोष विशेष वाणी और मन अर्थतः प्राप्त होने की शंका की उत्तेजकता .... और उत्तर अप्रामाण्यज्ञान को उत्तेजकता असं भवित ६९ ब्रह्मलोक प्राप्ति आदि संन्यास का फल नहीं ८७ असंभावना दोष रहने पर संदेह का संभव ६६ श्रवण-मनन-निदिध्यासन की व्याख्या विहित कर्मों से अन्तःकरणशुद्धि की मीमांसा ७० ., आदि का विधि नियमात्मक है ०९ संयोग पृथक्त्व. न्याय से काम्यकमों से । तत्-त्वम् पदों का वाच्यार्थ .... अन्तःकरणशुद्धि की सिद्धि .... ७० तत्वमसि वाक्य में सामानाधिकरण्यमीमांसा ९० अन्तःकरण शुद्धि फलक यज्ञादि काम्यकर्म । यज्ञादि से भिन्न है ?..... .... ७१ 'तत्त्वमसि' वाक्य में शुद्ध चैतन्य में लक्षणा ९२ कर्मान्तर की कल्पना अस्वीकार्य..... ७१ विशेष्यरूप वाच्य एक देश में तत्-त्वम् पदों यज्ञदानादि कर्तव्य विकल्परूप से या समुच्चय । की लक्षणा रूप से? ..... शक्ति से शुद्ध चैतन्योपस्थिति का असभव ९२ समुच्चयरूप में यज्ञदानादि की कत्र्तव्यता ७३ , द्वारा उपस्थित अर्थों का मांशिक धंयक्य से एक वाक्यता प्रस्तुत में नहीं ७३ वोघ अमान्य यज्ञदानादि अनेक कर्म विधान में वाक्यभेद गो-पद की लक्षणा के प्रयोजन की शंका प्रसक्ति और उत्तर यशदानादि का यथासम्भव समुश्चय ७५ आत्मज्ञान से कर्म बन्धनों का विनाश सम्भवत्समुच्चय की दूसरे ढंग से उपपत्ति ७६ । तत्त्वज्ञान के बाद त्वरित देहनाश में नित्यानित्यविवेक-विराग-शमादि-मुमुक्षा ७७ प्रारब्ध का प्रतिबन्ध .... ९४ केवल मुमुक्षा अधिकार सम्पादक नहीं है ७८ तत्त्वज्ञानी की अन्तकालीन दशा.... संन्यास अधिकारिविशेषण माने या नहीं? ७६ मृत्युकाल में फलोन्मुख कर्मों की प्रारब्धता ६६ ॥ श्रवणादि का अंग नहीं हो सकता ७६ तत्वज्ञानी को नये देहधारण की अनुपपत्ति ९६ १० ७२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह विपय विषय पृष्ठ का०४-वेदान्तमत निरसन-उत्तर पक्ष निर्वचन के निमित्तविरह की बात गलत ११४ प्रारम्भ इदमाकार-रजताकार वृत्तिभेद मानमे फा० ५ द ए मतिया में प्रमाणाभार ९८ पर आपत्ति का०६-प्रमाण-प्रमेय भेदापत्ति ..... ९५ स्वप्न में भासमान रथादि अनिर्वचनीय का०७-अद्वैतवाद में स्वशास्त्रबाट ९९ नहीं ११५ 'विद्यां च.' इत्यादि श्रुति का अन्य अर्थ १०० मलाज्ञान से स्वप्नादि उत्पत्ति की आशंका ११५ साध्य-सिद्धि में भेद होने से अद्वं तबाध १०० मिथ्यात्व प्रतीति के अभाव की आपत्ति ११६ 'तत्त्वमसि' वाक्य में उपासनार्थता का स्वप्नज्ञानीय पदार्थ में सर्वत्र मिथ्यात्व की बुद्धि असिद्ध ... वेदों का अर्थ सुनिश्चित नहीं है दृष्टि सृष्टिवादी वेदान्तो का पूर्वपक्ष ११८ युक्तिसंगत अथे में वेदवाक्यप्रामाण्यशंका १०१ देवता शरीरवत् दृष्टिवाद में दृश्य का अद्वैतवाद में अनुभवबाध अनिवार्य अभाव ११६ प्रत्यक्ष केवल विधात नहीं है .... १०३ । दृष्टिसृष्टिवाद का प्रतिक्षेप-उत्तर पक्ष १२० भेदप्रत्यक्षानुपपत्ति शंका का उत्तर १०३ ।। एक ही काल में अज्ञान से सकल कार्य देशकालभेदमूलकता में अनवस्था का आपत्ति प्रतिक्षेप १०४ दृष्टि गृष्टिवाद में दोषपरम्परा १२१ अभेदमिथ्यात्व कल्पना में लाघव भ्रमोत्पादयः अज्ञान से अधिष्ठान ज्ञान का अनुगत न होने से भेद अपारमाथिक होने असंभव १२२ की शंका का उच्छेद .... १०५ स्वप्नवत याग से स्वर्गोत्पाद प्रसक्ति विषय में सत्त्व की कल्पना अनिवार्य १०५ परचित्ताग्रहण का अनिष्ट ..., १२४ प्रपंच प्रतिभास भ्रान्त होने से उसके प्रविद्या में प्रमाणाभाव १२४ मिथ्यात्व को शंका का उच्छेद..... अज्ञान सर्वात्मना स्वरूपज्ञानाभावरूप नहीं १२५ सर्वज्ञताभिमानी पुरुष में योगितुल्यता की वेदान्तीनओं का महाविद्यानुमान-पूर्वपक्ष १२६ आपत्ति .... .... धारावाहिक ज्ञानस्थल में बानिवारण १२७ स्वाभावसामानाधिकरण्यरूप मिथ्यात्व अनुमितिज्ञान में बाध निवारण १२७ की घट में भो आपत्ति .... 'पीतः शंख:' भ्रम की उच्छेदका का सत्त्वांश में सत्त्वान्तरोत्पत्ति की आपत्ति १०६ निवारण .... .... १२८ लोक-शास्त्र प्रसिद्ध कार्यकारणभाव का 'स्वप्रागभावव्यतिरिक्त विशेषण सार्थकता १२९ भङ्ग १०६ 'स्वनिबत्य' विशेषण की सार्थकता १२९ बाधित के व्यवहार की आपत्ति.... ११० स्वदेशगत विशेषण की भ्रमानुमिति में वह्नि अपरोक्षता की 'अप्रकाशित १३० आपत्ति ..... .... हेतु-असिद्धि शंका का निवारण इदंस्वविषयक वृत्ति मानने पर आपत्ति ११२। दृष्टान्त में हेतु-असिद्धि शंका का बारण १३० 'इमे शुक्तिरजते' इस भ्रमज्ञान में प्रामा स्मृतिस्थल में अनैकान्तिक दोष का, १३१ ण्यापत्ति ..... .... ११२ आय विशेषण व्यर्थता की शकाका बारण १३१ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पृष्ठ .... १ विषय हेतुत्व चरमकारणत्वरूप होने से व्यभिचार निरबकाश १३२ 'वस्स्वन्तर' शब्द से असम्भावनादि के ग्रहण पर सिद्ध साधन .... १३२ महाविद्या के अनुमान में दोष-उत्तरपक्ष विशेषणभेद करने पर अतिप्रसंग तुलाज्ञानविशिष्ट चतन्यविषयक अज्ञान की असिद्धि .... तुलाज्ञान साधक अनुमान में हेतु-असिद्धि १३४ हेतु अप्रसिद्धि की आपत्ति .... दृष्टान्त में साध्यासिद्धि दोष .... जीव-ईश्वरादि के विभाग की अनुपति आपत्ति और अनुपपत्ति के बचाव की आशंका .... .... अरूपी वस्तु प्रतिविम्ब का असंभव द्वित्वरूप प्रतिबिम्बोत्पत्ति का भयोग उपाधिभेद से जीव-ईश्वर विभाग की अनुपपत्ति १३८ वास्तव-अवास्तब की प्रमाणशून्य कल्पना अनुचित 'तस्याभिध्यानाद्' श्रुति का विशिष्टार्थ १३९ प्रपंचमिथ्यात्वसाधक अनुमान की दुर्बलता १४० अनुमान से प्रत्यक्षबाध न होने की शंका का निराकरण .... .... १४० दृश्यत्य हेतु में दोषपरम्परा .... का ८ अद्वैतवाद ब्रह्म का उपदेश समभाव की सिद्धि के लिये .... १४२ ईश्वरवेशवादी नैयायिक मत की अशोभा १४३ का० ६ समभाव सिद्धि का विषय अबाधित है .... .... का० १० विपक्ष आशय में बाधोपस्थिति १४४ अद्वैतवाद में यम-नियमादि की व्यर्थता १४४ अविद्यानिवृत्ति के लिये मोक्षार्थी का प्रयत्न अयुक्त .... विषय अविद्यानिवृत्ति अनिर्वचनीय नहीं हो सकती तत्त्वज्ञोपलक्षित चैतन्य अविद्यानिवृत्तिरूप कैसे? .... .. अज्ञान निवृत्ति अज्ञानात्यन्ताभावरूप है-पूर्वपक्ष ..., १४८ मुक्त से पुरुषार्थत्व को हानि नहीं है वेदान्ती का समूचा निर्माण भ्रान्तिमूलक है १४८ प्रश्नद्वय के उत्तर में समाधि की प्रक्रिया १४६ समाधिद्वय में विलक्षणता की असिद्धि १५० आमनिवास बार पुनः भ्रमोदय प्रचत्ति की उपहास्यता-उत्तरपक्ष १५१ वेदान्तमत में मोक्ष-पुरुषार्थ की अनुपपत्ति .... .... १५२ सालोक्यादि चार भेद से क्रममुक्तियाँ १५३ भज्ञानात्यन्ताभावबोध का क्या स्वरूप है ? १५३ लय की व्याख्या वेदान्ती के लिये दुःशक्य १५३ लय कारणक्रम से निवृत्तिरूप नहीं है १५४ मुक्ति में प्रपंच की सुक्ष्म रूप से सत्ता की आपत्ति .... देदान्ती को जनमत में प्रवेशापत्ति १५५ ज्ञान-सुखादि आत्मा के धर्म हैं १५५ ब्रह्म में संसार की आपत्ति १५६ प्रागभाब और ध्वंस का अपलाप अशक्य १.६ ब्रह्मात्यन्ताभाव न होने की शंका का उत्तर १५७ शून्यवाद की आपत्ति मात्र वेदान्त वाक्यों का श्रवण अनुपयुक्त १६२ अनेकान्तवाद में दोषाभाव .... स्वरूप-पररूप से सत्त्वासत्व .... १६७ अन्तिम वक्तव्य * समाप्त* Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शुद्धिप्रदर्शिका : पृष्ठ पंक्ति ८ १८ १६ २८ १७ २७ २२ १ २३ १२ २७ २७ ३० ११ अशुद्ध भेदबद्धि भेदबुद्धि प्रीतीति प्रतीति पृथ्वोव्या पृथीच्या महीं ह नहीं है अक्षण्ण প্রসূ वेदान्द वेदान्त क्वचित् 'क्वचित् स्त्रंत्र सर्वत्र चतत्य चैतन्य मूल ज्ञान मूलाज्ञान मत है ति मत है कि घंट ज्ञानस्य घंटाऽज्ञानस्य सात्व सत्त्व प्रातांबम्ब प्रतिबिम्बार अस्मतपद अस्मस्पद प्रतीसंधीयते प्रतिसंधीयते बिम्भभूत बिम्बभूत अंश में मुखभाव मुखाभाव व्यव था व्यवस्था शक्तिकों शक्तियों (=ब्रह्मा ने मन) ब्रह्म ने मन पाप्म दि पाप्मादि उन के उन का हीप्रतिपादन ही प्रतिपादन उपाघरे- उपाधेरचक्षुइः' चक्षुः'इअपात्ति आपत्ति वह्न, युशे वह न्यशे एवैश्वरस्यापि एवेश्वरस्यापि । हो होता ही होता भाव के भान के र्गाद्यत्वेन ग्राह्यत्वेन पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ५८ ६ पासना उपासना श्रुत्वा श्रुत्या ७१ २४ अनुगठन अनुष्ठान विदेश विशेष बाक्यक्वा वाक्यकवा ९१ २० वह दुःशक्य है, क्योंकि xxxx विशिण्ट विशिष्ट इय भेव इयमेव १२ २६ अभेदा अभेद ६६ २७ पदर्थाभ्यां पदार्याभ्यां १०० २९ साक्षात्, साक्षात् १०० ३० श्मनिवा श्मनि वा त्रयाँ प्रपा १०४ २१ ह्यात्मक द्वयात्मक १०६ १७ तायाज्ञान ताया ज्ञान १०७ १० मिथ्यात्वनिमित्तं मिथ्यात्वं मिथ्यात्वे निमित्तमिथ्यात्वे १०८ १ विषयक के विषय के सर्पोत्पत्त्य १०८ २१ विवयन्दे विषयत्वे ११० ६ लक्षण लक्षणा ११२ २० इदमेव इदमेव ११७ ८ भेकत्वे मेकत्वे १२० ३२ तब जो तब तो १२२ ७ प्रतीत्याग प्रतीत्य याग १२३ २७ नामक नात्मक १२५ २१ स्वफुरणसभा स्फूरणस्वभा १२५ २४ उस से उस के १२८ १२ ग्रहेणे ऽग्रहेण १३२ ३-४ इश्वरादि में और प्रतियोगिविधया स्वविषयावरण अंश ३२ १८ ३२ २२ ३२ ३२ ३४ २७ ३६ २८ ४० १४ ४२ १६ ४६ १६ ४६ २८ ५३ ३२ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चाद् स्पट पाठ पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध निवृत्ति के प्रति १५४ १५ निमर्थ किमर्थ योगिभूत xxx १५६ १२ पवाद् १३२ ९ व्यभिचार व्यभिचारी १५७ १२ त्यन्ताभाव त्यन्ताभाव १३४ ३२ से शब्द से शब्द से १५८ १६.१८ नियंत्व निवर्त्यत्व १३५ ३२ आदर्गस्थत्वस्थ आदर्शस्थत्वरय १५९ ९ लक्षणा लक्षणा २३६ ३ प्रतिबिम्बा प्रतिबिम्ब १५९ २७ लक्षण लक्षणा १३८ ७ जोश्वेश्वर जीवेश्वर १६० १२ निविकल्प निविकल्प १३० २५ वस्तु का वस्तु का जो १६२ ३४ प्याम प्यात्म १४० समयद्दष्टि सम्यग्दृष्टि १६५ २० निरस्तं निरस्त ? १४७ २ नात्येज्ञा नास्त्येवाज्ञा १६६ १ स्पट स्पष्ट १४८ ३० प्रवत्त प्रवृत्त १६६ ३५ हेतुत्वादेव हेतुत्वादेव १५३ १५ दर्शन को दर्शन का १६७ ३१ बन्ध का भाव वन्धकाभाव स्तबक की मूलकारिका अन्ये त्वद्वतमिच्छन्ति सद्ब्रह्मादि व्यपेक्षया । सतो यर्दोदकं नान्यत्तच्च तन्मात्रमेव हि ॥१|| २ यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः ।। संकीर्णमिव माििभन्नाभिरभिमन्यते ||२|| तथेदम मलं ब्रह्म निविकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते ॥३॥ ६४ अत्राप्यन्ये बदन्त्येवमविद्या न सतः पृथक् ।। तच्च तन्मात्रमेवेति भेदाभासोऽनिबन्धनः ॥४॥ सेवाथाऽभेदरूपापि भेदाभासनिबन्धनम् । प्रमाणमन्तरेणतदवगंतु न शक्यते ॥५॥ भावेऽपि च प्रमाणस्य प्रमेयव्यतिरेकत: । ननु नातिमेवेति तदभावेप्रमाणकम् ॥६॥ विद्याऽविद्यादिभेदाच्च स्व-तन्त्रेणव बाध्यते । तत्संशयादियोमाच्च प्रतीत्या च विचिन्त्यताम् ॥७॥ अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये । अद्वैत देशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः ॥८॥ १४२ न चतबाध्यते युक्त्या सच्छास्त्रादिव्यवस्थिते ।। संसारभावमोक्षाच्च तदर्थ यत्नसिद्धितः ।। १४३ अन्यथा तत्त्वतोऽद्वैते हन्त ! संसार-मोक्षयोः । सर्वानुष्ठानवैयर्थ्यमनिष्टं संप्रसज्यते ॥१०॥ १४४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहं ॥ हिन्दी विवेचनालंकृत स्याद्वादकल्पलताब्याख्याविभूषित जशास्त्रवार्तासमुच्चय॥ अष्टमः स्तबकः [ व्याख्याकारमंगलाचरणम् ] समवसरणभूमौ रस्म गीर्वाणकीर्णा, सुमततिरतिशोमा जानुघ्नी ततान । जितकुसुपशरास्त्रत्यागपर्थापयन्ती, स जयति यतिनाथ: शहरो वर्धमानः ॥ १॥ स्मरणमपि यदीयं विघ्नवल्लीकुठारः, श्रयति यदनुरागाव संनिघानं निधानम् । तमिह निहतपापच्यापमापद्भिदायामतिनिपुणचरित्रं प्राश्वनाथं प्रणौमि ॥२॥ हंसीव बदनाम्मोजे, या जिनेन्द्रस्य खेलति बुद्धिमांस्तामुपासीत, न कः शुद्धां सरस्वतीम् ॥ [वधमानस्वामी की जय हो ] व्याख्याकार श्री यशोविजयजी महाराज ने अपने पाठवें स्तबक को व्यालमा के प्रारम्भ में दो मंगल पद्यों की रचना की है जिनमें प्रथम पद्य में भगवान महावीर के उत्कर्ष का मङ्गलमय वर्णन किया गया है। इसका भावार्थ यह है कि देवनिर्मित उपदेशपीठ से अलकृत तीन किल्लेमय समवसरण नाम की विशिष्ट रचना की ऊपर की भूमि पर जब भगवान् वाणी बरसाते हैं तो देवगण हर्षातिरेक से उस भूमि पर पुष्पों की वर्षा करते हैं। बरसाई गई पृष्पराशि आनु की ऊंचाई तक पहुँच जाती है और उन पुष्पों से उपवेश भूमि की निरतिशय शोभा का विस्तार होता है। भगवान के आगे प्रसरो हुई पुष्पराशि से ऐसा लगता है कि भगवान ने जो पुष्पधन्वा-कामदेव पर विजय प्राप्त की है उसके कारण उसने आत्मसमर्पण के रूप में अपने समस्त पुष्पास्त्रों का भगवान के सामने त्याग कर दिया है। इस प्रकार पुष्पसमूह से आच्छादित उपदेशमूमि में विराजमान और अहिंसासत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य ओर परिग्रह इन यमों का पालन करने वाले यतियों के स्वामी एवं जगत् के प्राणीमात्र का कल्याण करने वाले वर्षमान भगवान महावीर आत्मोकर्ष के उच्चतम शिखर पर बिराजमान हैं ॥१॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पार्श्वनाथ भगवान को प्रणाम ] दूसरे यय में उन्होंने भगवान् पाश्वनाथ का अभिवादन किया है जिसका भावार्थ यह है किजिन भगवान् का स्मरणमात्र हो विघ्नों के बेसुमार लतासमूह के लिये कुठार स्वरूप है और जिनके अनुराग से अर्थात् जिसके चरणों में प्रीति करने से सम्पूर्ण निधि सन्निहित होती है, एवं जिन्होंने पाप के प्रसार को पूर्ण रूप से निरज कर दिया है, तथा जिनका चरित्र समस्त प्रापत्तिओं के परिहार में पूर्ण समर्थ है वे भगवान् सारे विश्व के लिये प्रणम्य हैं ॥२॥ [जिनेश्वर वाणी की उपासना ] तीसरे पद्य में व्याख्याकार ने जिनेश्वर की वाणी की सर्वग्राह्यता बतायो है। आशय यह है कि-विशुद्धवर्णा सरस्वती याणी जिनेश्वर भगवान के मुखकमल पर उसी प्रकार क्रीडा करती है जिस प्रकार कमल वन में राजहंसी क्रीडा करती है । भगवान की इस वाणो की उपासना कोन समझदार व्यक्ति नहीं करेगा? वह कि पुद्धिमान मनुका गो भयानके उपदेश-वचनों का अनुसरण करना चाहिये ॥३॥ ___इस आठवे स्तबक में वेदान्त मत की समीक्षा की जाने वाली है इसलिये प्रथम कारिका में वेदान्त सिद्धान्त की चर्चा का उपक्रम किया गया है-- वार्तान्तरमाहमूलं-अन्ये त्वद्वैतमिच्छन्ति सद्ब्रह्माविव्यपेक्षया । सतो यझेदकं नान्यत्तच्च तन्मात्रमेव हि ॥१॥ अन्ये तु = वेदान्तिनः सब्रह्मव = परब्रह्म व आदिः = सकलव्यवहारकापणं, तद्वयपेक्षया - तदाश्रयणेन, अद्वैतमिच्छन्ति - एकमेव तत्वमुपयन्ति । द्वाभ्यामितं द्वीतं, द्वीते मयं द्वैतं, न द्वैतमद्वमिति योगार्थः । कुतः ? इत्याह-यत् = यस्मात्, सतः = परमब्रह्मणः, अन्यत् = स्वातिरिक्तम्, न भेदकम् । तच = भेदकत्वाभिमतं नीलादि च तन्माः मेव = ब्रह्ममात्रमेव, अनवच्छिन्नस्याकाशस्य घट-पटाद्युपाधिमिरिय, अनवच्छिन्नस्य ब्रह्मणो नीलादिभिभदायोगात् । [वेदान्तमत का सिद्धान्त कलाप ] अन्य विद्वान-जो येवों के शोष तुल्य उपनिषद् भाग का परिशीलन करने के कारण 'वेदान्ती' कहे जाते हैं, उनका मंतव्य यह है कि-अद्वैत ब्रह्म ही परमार्थरूप में सत् है। कारण यह कि वह सम्पूर्ण जागतिक व्यवहारों का कारण है, क्योंकि वही सम्पूर्ण जगत् का कारण है। प्रतः उससे भिन्न किसी वस्तु की सत्ता पारमाथिक नहीं है। प्राशय यह है कि ब्रह्म अनादिकाल से अविद्या से संश्लिष्ट है। अविद्या में वो शक्ति होती हैं (१) आवरणशक्ति और (२) विक्षेप शक्ति । आवरणशक्ति से अविद्या ब्रह्म के स्वरूप को आच्छादित कर देती है और यह पाच्छावन वस्तुतः ब्रह्म का न होकर जीव Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दृष्टि का प्राच्छादन होता है किन्तु जोव अज्ञानवश अपनी दृष्टि का प्राच्छादन न मान कर ब्रह्म का आच्छावन मानता है। इस आच्छादन से ब्रह्म के शद्ध स्वरूप का स्फरण नहीं हो पाता। दूसरी शक्ति से ब्रह्म में जगत् का विक्षेप अर्थात् जगत की उत्पत्ति और प्रतीति का प्रवाह प्रवृत्त होता है। इस प्रकार ब्रह्म जगत् प्रवृत्ति को सापेक्ष होने से ब्रह्म (१) जगत् का अपने अविद्यात्मक शरीर से उसका उपादान और (२) अपने चतन्यात्मकस्वरूप से उसका निमित्त कारण होता है-यह बात ठीक उसी प्रकार उपपन्न होती है जैसे लता (मकरी नामक कीड़ा) अपने शरीर से तन्तुजाल का उपादानकारण और अपने ज्ञान एवं प्रयत्न से उसका निमित्त कारण होती है । इस प्रकार ब्रह्म जगत का निमित्त -उपादान होने से ब्रह्म की हो परमार्थ सत्ता मानी जाती है। (३) अविद्या विषय और प्राश्रय के रूप में ब्रह्म की मुखावेशनी होतो है अत एव उसकी पारमाथिक सत्ता नहीं होती। वह उस समय समाप्त हो जाता है जब ब्रह्म के वास्तव-स्वरूप का मनुष्य को साक्षात्कार होता है। इसी अभिप्राय से वेदान्तो ने ब्रह्म को अद्वैत कहा है। [ प्रद्वैत शब्द की विविध व्युत्पत्तियाँ ) ध्याख्याकार ने अवैत शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार बतायी है 'द्वाभ्याम् इतम्-द्वीतम्, द्वीते भवं हुँतम्-न तम्-प्रतम् ।' इस व्युत्पत्ति से प्रतीत होने वाले उनके अभिप्रायानुसार इसका यह अर्थ किया जा सकता है-द्वाभ्याम् सम्बन्धिभ्याम, इतं जातं द्वीतम्, अर्थात दो सम्बन्धिनों से ज्ञात होने वाला सम्बन्ध द्वीत है और उसमें स्वप्रतियोगिफत्व और स्वानुयोगिकरव से विद्यमान होने वाला सम्बन्धी द्वैत है-जो ऐसा नहीं है वह अद्वैत है। इस प्रकार अन्वत शब्द का अर्थ होता है प्रसंसृष्टअसङ्ग । इससे यह सूचित होता है कि ब्रह्म का किसी के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। दूसरा अर्थ हो सकता है कि द्वाभ्यां - विशेष्यविशेषणाभ्यां इतम-ज्ञातम्-द्वीतम्, अर्थात् विशेष्यविशेषण से ज्ञात होने वाला विशिष्ट, उसमें घटक होकर विद्यमान होने से विशेषण और विशेष्य का द्वैत है । ब्रह्म उनसे भिन्न होने से अहं त है। इससे यह सूचित होता है कि ब्रह्म विशेष्यरूप अथवा विशेषणल्प अथवा विशिष्ट रूप न होकर इन सभी से परे है। तीसरा अर्थ यह हो सकता है कि सजातीय ओर विजातीय से होने वाला ज्ञान द्वीत; और उसमें विषयता सम्बन्ध से रहने वाला है सजातीय और विजातीय । उससे भिन्न होने के कारण ब्रह्म प्रवत है । इससे यह सूचित होता है कि ब्रह्म किसी का सजातीय और विजातीय नहीं है। अथवा देत का यह अर्थ किया जा सकता है कि दो प्रतियोगि-अनुयोगो से ज्ञात होने वाला भेद है द्वील; और उसमें आधेयता सम्बन्ध से विद्यमान होने से 'भिन्न' हुआ वैत । किसी से भिन्न न होने से ब्रह्म हुआ प्रत । इस प्रकार अद्वत शब्द की उक्त व्युत्पत्ति देकर व्याख्याकार ने ब्रह्मा की असंगता, अखण्डता-सजातीय-विजातीयशून्यता एवं प्रभिन्नता सूधित को है। अद्वत शब्द की अन्य ग्रन्थों में भी कुछ व्युत्पत्ति प्राप्त होती है जिसमें एक यह है-'योर्भावः द्विता, द्विता अस्ति अस्येति द्वैतम् न चैतम्-अद्वतम्'-इस व्युत्पत्ति के अनुसार अद्वैत शब्द का अर्थ है द्विस्व का अनाथय । इससे ब्रह्म का द्वितीयराहित्य सूचित होता है। दूसरी व्याख्या यह है'तयोः इसम्-वीतम्, द्वौतमेव द्वैतम् न तं यत्र तद् अद्वैतम्'-दो में आश्रित होने से अर्थात् द्वयसापेक्ष Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने से देत का अर्थ है मेद और जिसमें भेद न हो वह है अद्वत । कहने का तात्पर्य यह है कि अद्वैत शब्द की अनेक व्युत्पत्ति की जा सकती है किन्त सभी के अनुसार ब्रह्म को अद्वैत कहने से उसकी परमार्य रूप में एकमात्रता सूचित होती है। [ एकमात्र ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता का उपपादन ] व्याख्याकार ने ब्रह्म को अद्वैत कह कर जो प्रबैत शब्द की व्युत्पत्ति की है उसकी, ब्रह्म के प्रतित्व समर्थन में उक्त हेतु से अभिन्नार्थकता प्रतीत होती है। अर्थात्-व्याख्याकार ब्रह्म को प्रखंत कह कर ब्रह्म को भेवरहित बताना चाहते हैं । उनका प्राशय यह है कि मूल ग्रन्थकार ने अद्वैत शम्द से ब्रह्म का मेदराहित्य यह अर्थ बताकर सूचित किया है कि ब्रह्म से भिन्न कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो ब्रह्म को भिन्न सिद्ध कर सके: क्योंकि नोल-पीतादि जो अन्यों को भेवकरूप से अभिमत है वह भी ब्रह्ममात्र ही है-ब्रह्म से अतिरिक्त उनकी सत्ता नहीं है। इस कथन का समर्थन ध्याख्याकार ने यह कहते हुये किया है कि जैसे निसर्गतः अनवच्छिन्न-अपरिमित प्रकाश का घट-पटादि उपाधिनों से भेव नहीं होता, उसी प्रकार नीलपीतादि पदार्थों से भी निसर्गतः निस्सीम होने से ब्रह्म का भी भेद नहीं हो सकता। इस कथन से यह स्पष्ट है कि ब्रह्म में ब्रह्म का भेद कथमपि सम्भव नहीं है। फलतः वह सजातीयद्वितीय से रहित है। [ब्रह्म स्वगत द्वितीयभेद से भी शून्य है ] इस के अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि वह केवल सजातीय द्वितीय से हो रहित नहीं है अपितु विजातीय और स्वगत द्वितीय से भी रहित है । अर्थात-जैसे ब्रह्म से अतिरिक्त ब्रह्म की कोई सजातीयवस्तु न होने से उसमें सजातीय भेद का अभाव है उसी प्रकार ब्रह्म से विजातीय भी किसी की परमार्थसत्ता न होने से उसमें घिजातीय भेद का भी अभाव है एवं ब्रह्म के निरंश और निधर्मक होने से इसमें कोई ऐसी भी यस्तु नहीं है जो धर्मरूम से या घटकरूप से अथवा आश्रितरूप से ब्रह्म गत कहा जाय और ब्रह्म उस से भिन्न हो । अतः ब्रह्म में स्वगत का भी भेद नहीं है, जैसा कि वृक्ष में वृक्षगत शाखा-पत्रादि का और रूपस्पर्शादि का भेद होता है। इस प्रकार ब्रह्म सजातीय विजातीय और स्वगत, इन तीनों के भेद से शून्य है । इस विविध शून्यता को बताने के लिये ब्रह्म के विषय में 'एकमेवाद्वितीयम्' इन शब्दों का प्रयोग उपनिषदों में किया गया है। इस तथ्य का निरूपण करते हुये व्याख्याकार ने वेवान्तीनों की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया है कि किञ्च, भेदस्य वस्तुस्वभावत्वे तस्यैकस्यानेकवृत्तित्वाद् वस्तुनामपि भेदो न स्यात् । नैकस्मादमिनमभिन्नस्वभावं भिन्नं युज्यते । अर्थान्तरत्वे च तस्य वस्त्वरूपत्वात् स्वरूपेण मावा न व्यावृताः स्युः । कल्पितात्तु मेदात् कल्पितमेव नीलादिनानात्वम्, न तु पारमार्थिकम् । अप परापेक्षं वस्तुनो भिन्नत्वं, स्वरूपेण वेकत्वमिति न दोष इति चेत् न, न हि वस्तु स्वहेतुपलोदितं स्वभावव्यवस्थितये परमपेक्षत इति पुरुषप्रत्ययधर्म एव परापेक्षत्वमिति न ततो वस्तुभेदः । यदि च भेदस्वरूपो भावः प्रतियोग्यपेक्षः स्यात् । स्वहेतोरविकलस्य तस्योत्पत्तिर्न Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 I स्पात् | 'स्वहेतोरेव प्रतियोग्यपेक्ष मेदाख्यरूपस्तदनपेक्ष स्वरूपश्च भाव उत्पन्न' इति वेद । ननु कापेतार्थः ९ । न तावदुत्पत्तिः स्वहेतुत एव तदुदयात् । नाप्यर्थक्रिया, प्रतियोग्यसंनिधानेऽव्यर्थक्रियादर्शनात् । प्रतीतिश्चेत् तहिं रूपादेः स्वरूपस्य चक्षुरादित इव मेदस्यापि ज्ञानाद प्रतियोगिनः प्रतीतावपि न सापेक्ष स्वभावत्वम् । 'कथं त कत्रापि पितृत्वादयः' १ इति चेत् १ ear ह्रस्व-दीर्घत्वादिवत् कल्पिता एव । [ भेद वस्तु स्वभावरूप और अर्थान्तररूप होने पर द्वैत की सिद्धि ] भेद द्वारा ब्रह्म की एकमात्रता का भङ्ग नहीं हो सकता, क्योंकि भेद यदि वस्तुस्वभाव होगा तो वह एक ही अनेकवृत्ति हो और उस स्थिति में वस्तुओं का परस्पर मेव सिद्ध न हो सकेगा क्योंकि सभी का मेदात्मक एकस्वभाव होते से सभी में अभेद हो जायेगा, क्योंकि यह नियम है कि ओ वस्तु जिसके साथ अभिन्नस्वभाव होती है वह उससे भिन्न नहीं होती । यदि भेद को वस्तुस्वभाव म मान कर अर्थान्तर माना जायगा तो वस्तुनों में परस्पर स्वरूप से भिन्नता की सिद्धि नहीं होगी । क्योंकि वे वस्तुस्वरूपानात्मक भेद द्वारा कैले व्यावृत्त होंगे ? यदि भेद को वस्तुस्वभाव तथा वस्तु से भी fe अर्थान्तर में मान कर कल्पित माना जाय तो नील पीतादि का जो परस्पर में भेद है वह काल्पनिक हो जायगा, पारमार्थिक नहीं होगा । अतः ब्रह्म को भेद से किसी भी प्रकार भिन्नता सम्भव न होने से उसकी अद्वैतरूपता प्रक्षुण्ण रहती है। यदि यह कहा जाय कि 'वस्तु की भिन्नता परापेक्ष है और एकरच स्वरूप-निबन्धन है इस प्रकार आत्मा में परापेक्ष भिन्नता और एकता दोनों सिद्ध हो सकती है। ग्रतः व्रह्म को स्वरूपतः एक और परापेक्षया भिन्न मानने में कोई दोष नहीं है'तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अपने हेतुत्रों के बल से उत्पन्न होने वाली स्वस्वभाव की व्यवस्था वस्तु, के लिये अन्य की अपेक्षा नहीं करती किन्तु उसका स्वभाव उसके उत्पादक हेतुकों से हो व्यवस्थित होता है। अतः भेद के सम्बन्ध में जो परापेक्षता प्रतीत होती है वह मेदगत न होकर पुरुष के ज्ञान का धर्म होती है । अर्थात् वस्तुनिष्ठभेद परापेक्ष नहीं होता, किन्तु उसका ज्ञान परापेक्ष होता है । अतः भेद को परापेक्ष कह कर वस्तुभेद की सिद्धि नहीं की जा सकती । [ भेदात्मकभाव का व्यवस्थापक मात्र हेतु नहीं ] afar यह कहा जाय कि- "मेवस्वरूपभाव प्रतियोगिसापेक्ष होता है अतः उसके हेतुमात्र से उसके भेदात्मक स्वभाव की व्यवस्था नहीं हो सकती, उससे केवल उसको उत्पति होती है । किन्तु यह स्वभाव प्रतियोगी की अपेक्षा से ही निष्पन्न होता है" तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भाव के हेतु से भाव की प्रांशिक उत्पत्ति होगी, पूर्ण उत्पत्ति न हो सकेगी। जब कि ऐसी उत्पत्ति अनुभवविरुद्ध है। यदि यह कहा जाय कि 'भाव प्रपने हेतु से ही प्रतियोगिसापेक्ष arre और प्रतियोगिनिरपेक्ष मेदान्य स्वस्वरूप से सम्पन्न ही उत्पन्न होता है और यह उत्पत्ति उसकी पूर्ण उत्पत्ति है ।" तो यह भी ठीक नहीं है, कारण, उसके मेदात्मक रूप में जो प्रतियोगिसापेक्षता है उसका निर्वाचन नहीं हो सकता, क्योंकि यदि अपेक्षा का अर्थ उत्पत्ति हो तो उसमें प्रतियोगी की कोई उपयोगिता न होगी क्योंकि भाव के रूप की उत्पत्ति भाव के हेतु से ही होती है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः जब भेद भाव का रूप है तो उसकी भाव के हेतु से हो उत्पत्ति होगी। प्रतियोगी उसके लिये आवश्यक न होगा। [ अर्थकिया प्रतियोगिनिरपेक्ष हो सकती है ] यदि यह कहा जाय कि-'अपेक्षा का अर्थ है अर्थ किया।' अतः उसके लिये प्रतियोगी अवश्य उपादेय होगा, क्योंकि भाय स्वेतरभिन्नरूप से ही अपनी अर्थ क्रिया का सम्पादक होता है। स्वेतरभिनता स्वेलरात्मक प्रतियोगी से ही सम्पन्न होती है ।' तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि प्रतियोगी के असंनिधान में भी अर्थक्रिया देखी जाती है। यदि यह कहा जाय कि-'प्रक्रिया का अर्थ है प्रतीति अतः भेदप्रतीति ज्ञात होते हुए प्रतियोगी से साध्य होने के कारण भेदस्वरूप की प्रतियोगीसापेक्षता निर्वाध सम्भव है"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे घटादिआत्मक प्रभाव का रूपादिकात्मकस्वरूप चक्षु आदि से ज्ञात होता है उसी प्रकार उसका भेदात्मक स्वरूप भी उन्हीं से ज्ञात हो सकता है। अतः प्रताति द्वारा भी भाव में प्रतियोगिसापेक्षस्वभावता नहीं हो सकती। [ पुत्रत्व-पितृत्वादि भेद कल्पित हैं ] __ यदि यह शंका की जाय कि 'अगर वस्तुओं में विविधता नहीं है तो एक व्यक्ति में पितृत्व प्रावि कसे सम्भव होगा? एक ही व्यक्ति अपना ही पिता और पुत्र नहीं हो सकता' तो-इसका उत्तर यह है कि जैसे एक ही वस्तु में हुस्वत्व-वीर्घत्व कल्पित है उसी प्रकार एक ही व्यक्ति में पितृत्व-पुत्रत्यादि भी कल्पित है और कल्पित वस्तु के अनुरोध से अकल्पित वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। आशय यह है कि हस्वत्व और दीर्घत्व वास्तव न होकर कल्पित है, उसी प्रकार पितृत्व और पुत्रत्व को उपपत्ति परस्परापेक्ष होने से कल्पित है। अतः उसके अनुरोध से वास्तव विविधता की कल्पना नहीं हो सकती किन्तु एक ही व्यक्ति में अज्ञानवश वैविध्य को कल्पना से वस्तुष्टया उसी व्यक्ति में पितृत्वपुत्रत्वादि का व्यवहार होता है। स्यान्पतम्, 'अर्थक्रियामेदाद् यस्तुभेदः स्यादिनि । न, दाह-पारिभागेनापि कशानोरभेदात् । 'तत्रादृष्टयाऽर्थक्रिययाऽर्थभेदः, यथा चक्षष्मत्यपि वधिोऽदृष्टया शब्दबुद्ध्येन्द्रियभेद' इति चेत् ? नाद्वैते किश्चिदेकवाऽदृष्टं नाम । ततश्च तत्रादृष्टार्थक्रियासिद्धौ तभेदसिद्धिः, सिद्धे च भेदे तत्रादर्शनमितीतरेतराश्रयः । अपिच, सन्मात्रे सर्वत्र प्रत्यक्षाद् निश्चिते तत्र भेदानवकाशः, कालभेदाभावेन 'सोऽयम्' इत्यवमर्शाभावेऽपि निर्विकल्पकलब्धविधिरूपाबाधाद, अलन्धरूपस्य चानिषेधात्, खपुष्पादिनिषेधेऽपि सिद्धेषु खादिष्वेव पुष्पादीमा निषेधात् । 'कुतश्चिद् निमित्तान घुद्धौ लन्धरूपाणां तेषां महिनिषेधः' इत्यन्ये । [ अर्थ क्रिया मेद से वस्तुभेद सिद्ध नहीं है। यदि यह कहा आय कि-'अर्थ क्रिया के भेद से वस्तु में मेव की सिद्धि प्रावश्यक है क्योंकि एक ही कारण से समस्त अर्थ क्रियाओं का उदय युक्तिसंगत नहीं है। तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि एक हो अग्नि से दाह-पाकादि विभिन्न अर्थ क्रियाओं का उदय होता है। अतः अर्थ क्रिया का भेद वस्तुमेव Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साधन में व्यभिचरित है। यदि यह कहा जाय कि- 'जैसे चक्षुष्मान बधिर में अनुपलब्ध शब्द श्रवणरूप अर्थ क्रिया से चक्षु में शब्दग्राहक इन्द्रिय का भेद सिद्ध होता है उसी प्रकार पाक और दाह के कारण भूत अग्नि में दाह और पाक के भेद की सिद्धि न होने पर भी जो अर्थक्रिया उस अग्नि से नहीं उपलब्ध होती उस अर्थ क्रिया के द्वारा उसमें भी भेवसिद्धि आवश्यक है।"-तो यह भी ठीक नहीं है, कारण कि अद्वैत सिद्धान्त में कोई कार्य एकत्र अदृष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि एकत्र अदृष्टता अन्यत्र इष्टता पर निर्भर है, अतः अमुक कारण से अमुक प्रक्रिया अदृष्ट है यह सिद्ध होने पर ही अमुक कारण में अमुक अर्थक्रिया के कारण का भेद सिद्ध होगा और उस भेद के सिद्ध होने पर ही अमुक कारण से अमुक अर्थक्रिया का प्रदर्शन सिद्ध होगा। अत: अदृष्ट अर्थक्रिया के भव से अर्थभेद को सिद्धि अद्वैतवाद में परस्पराश्रय (अन्योन्याश्रय नामक दोष से) ग्रस्त है। [ 'घटः सन्' इत्यादि प्रत्यक्ष से सन्मात्ररूपता की सिद्धि ] दूसरी बात यह है कि-'घटः-सन्' 'पट:-सन्' इत्यादि प्रत्यक्ष प्रतीति से घटपटादि समस्त पदार्थ केवल सन्मात्र रूप सिद्ध हैं । अत एव उनमें मेदसिद्धि का कोई अवसर नहीं है। यधपि अद्वैतवाद में कालभेद न होने के कारण 'सोऽयम्' इस बार को बुक सभा नहीं है। इस सुद्धि में 'अयं न सः' इस प्रकार की भेद बुद्धि का बाध सम्भव न होने के कारण भेदसिद्धि का सम्भव प्रतीत होता है। तो भी भेदबुद्धि की निरवकाशता निदियाद है, क्योंकि निविकल्पक अर्थात् अप्रामाण्यसंशय से अनास्कन्वित 'घटः सन्' 'पटः सन्' इत्यादि प्रत्यक्ष निश्चय से घट-पटावि पदार्थों का विधिरूप यानी सन्मात्रात्मकता सिद्ध है, अतः भेदबुद्धि से उसका बाध नहीं हो सकता और घटपटादि का सत् स्वरूप से अतिरिक्त स्वरूप द्वारा अभेद प्राप्त नहीं है, फलतः भवद्धि से उसका भी निषेध नहीं हो सकता, प्रतः भेवबुद्धि निष्प्रयोजन होने से निरवकाश है। यदि यह कहा जाय कि-'जसे प्रसिद्ध मी आकाशपुष्पादि का 'प्राकाशपुष्पं नास्ति' इसो प्रकार निषेध होता है उसी प्रकार सतस्वरूपता अतिरिक्त स्वरूप से घटपटादि के असिज अभेद का भी 'घटायभिन्नः पटादिः न' इस प्रकार निषेध हो सकता है । अतः भेदद्धि निष्प्रयोजन होने से निराश नहीं हो सकती।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'आकाश पुष्पं नास्ति' 'आकाशपुष्पं नास्ति', यह आकाश पुष्प का निषेध नहीं है, किन्तु 'आकाशे पुri नास्ति' इस प्रकार आकाश में पुष्प का निषेध है। अतः उक्त दृष्टान्त से घट-पटादि के असिद्ध अभेव के निषेध की उपपत्ति नहीं की जा सकती। यदि यह कहा जाय कि-'घटाभिन्नः पटोन' इस निषेध को भी 'पटः न घटाभिन्नः' इस रूप में व्याख्या की जा सकती है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि पुष्प अन्यत्र सिद्ध है अतः प्राकाश में उसका निषेध हो सकता है किन्तु घटाभेद कहीं ऐसे पदार्थ में सिद्ध नहीं है जिसका निषेष पट में किया जा सके। [ घटाभेद किसी भी प्रकार सिद्ध न होने से निषेध अशक्य ] __ यदि यह कहा जाय कि-'घटाभेद घट में सिद्ध है अतः पट में उसका निषेध हो सकता हैतो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'घटो घटः' इस प्रकार को बुद्धि न होने से घट में भी घटाभेद सिद्ध नहीं विमत्त्यरूप से घटमें घटाभेद - - - जायक-'कम्यमानादिमामयट .. -'कम दिमान घट Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धि है अतः पटादि में उसका निषेध किया जा सकता हैं'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे कम्बुनीवादिमत्त्वरूप से घटाभेद सिद्ध होने के कारण कम्बुग्रीवादिमत्त्वावच्छिन्न में घटाभेद का निषेध नहीं होता, उसी प्रकार घटपटादि में सत्त्वरूप से परस्पराभेद सिद्ध होने से पट में घट के अभेद का निषेध नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-'सत्त्यरूप से घर में घराभेद सिद्ध होने पर भी पटत्यविशिष्ट में घटामेव का निषेध हो सकता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भेद व्याप्यवृत्ति होने से कोई वस्तु एक हो वस्तु से भिन्न और अभिन्न नहीं हो मकती। एवं दूसरी बात यह है कि घटस्वपटत्या समर्म एफ ही सत् पदार्थ में कल्पित है, अतः जनमें विरोध न होने से एक धर्मावच्छिश्न में अन्य धर्मावच्छिन्न का भेद नहीं हो सकता। लोक में जो 'घटः पटो न' 'घट यह पट नहीं है इस प्रकार का व्यवहार होता है वह काल्पनिक है, इसलिये उससे अद्वैत को वास्तविकता का भङ्ग नहीं हो सकता। [आकाश पुष्प के निषेध में मतान्तर की चर्चा ] इस संदर्भ में व्याख्याकार ने आकाश पुष्प निषेध के सम्बन्ध में एक अन्य मत की चर्चा की है जिसका प्राशय यह है कि किसी निमित्त विशेष से बुद्धिगत होने वाले आकाश पुष्पादि का 'आकाशपुष्पं नास्ति' इस रूप में बाह्यवेश में निषेध किया जाता है। जिसका तात्पर्य यह है कि आकाशपुष्पादि की केवल बौद्धिक सत्ता है, बाह्य सत्ता नहीं है । इस मत के उल्लेख से यह सूचित होता है कि प्रस्तुत विषय में घटपटादि के अभेद के निषेध को उस प्रकार भो उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि घटपमादिका घटक महानिरूप अमेत हिसी निमित्त विशेष से बुद्धिगत भी नहीं है। अतः अद्वैतवाद में भेदबद्धि नितान्त निष्प्रयोजन होने से निरवकाश है। किञ्च एकस्य व्यात्मकस्याभावात् , भेदा-ऽभेदयोरेफतरस्य मिथ्यात्वनियमे मेदानामेव तत्वकल्पनमुचितम्, सर्पादिप्रतीती(तत्)दर्शनात् न तु वस्तुपात्रस्य । अपि च, गन्धसमवायिकारणतावच्छेदकं यथा पृथिवीत्वमेवेति तत्रैव गन्धः, तत्संबन्धादेव च जलादी गन्धवस्वव्यवहारः, तथा सत्वाश्रयतावच्छेदकमपि चिवमेवेति चिदेव सती तदधानत्वात् सर्वव्यवहारस्य, तत्संबन्धादेव च प्रपञ्चे सस्यव्यवहारः । (भेदाभेद में से मेद ही मिथ्या है) इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि, एक वस्तु द्वयात्मक-द्विरूप अर्थात् भिन्न अभिन्न नहीं हो सकती। इसलिये भेद और अमेव में किसी एक को मिथ्या मानना आवश्यक है। तब अभेद को मिथ्या मानने की अपेक्षा भेद को ही मिथ्या मानना उचित है, जैसे कि, रज्जु में प्रतीयमान होने पाले सर्प में रज्जुसत्ता से अतिरिक्तसता शून्यत्वरूप रज्जु का अभेद मिथ्या नहीं होता किन्तु रज्जुसत्ताऽतिरिक्तसत्ता रूप रज्जुभेद ही मिथ्या होता है, अत: रज्जु और सत्मिक वस्तुमात्र मिथ्या नहीं होता उसी प्रकार वस्तु में प्रतीत होने वाले भेदाभेव में भेद ही मिथ्या होता है-प्रमेव एवं अभिन्नरूप में प्रतीत होने वाली वस्तु यह सब मिभ्या नहीं होता। अतः वह अवेत वस्तु प्रामाणिक है, जिसमें भेदाभेद बुद्धियों का उदय होता है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० का ० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] & [ पृथ्वी में गन्धवचा की तरह में ही रूम ] यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि, जैसे समवाय से गन्ध के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से पृथ्वी कारण होती है ओर पृथ्वी में विद्यमान गन्धसमवायिकारणता का पृथ्वीत्व अवच्छेदक होता है, कहते भी हैं कि पृथ्व्यां पृग्योत्वावच्छेदेन गन्धसमवायिकारणता है, अत एव पृथ्वी में हो गन्ध होता है किन्तु गन्धाश्रय पृथ्वी के सम्बन्ध से जल आदि में वास्तव गन्ध नहीं, वहां औपाधिक गन्धवत्त्व का व्यवहार होता है उसी प्रकार सत्ता के आश्रयता का चित्व अवच्छेदक होता है अत एव चित् ही सत् होता है, जगत का सम्पूर्ण व्यवहार चित् के अधीन होता है । जगत् की समस्त वस्तुओं के साथ सताश्रय चित् का सम्बन्ध होने से जगत् सत्व व्यवहार होता है। इस प्रकार जगत में, उसके afteriage चित् को सत्ता से ही सरषव्यवहार की उपपत्ति हो जाती है, अतः जगत में स्वतन्त्र ससा मानने में कोई युक्ति नहीं है । अपि च पराभिमतात्मविशेषादर्शनान्यय- व्यतिरेकानुविधावित्दात् प्रपञ्चप्रतिभासस्य भ्रमत्वम् । न च तदन्वयव्यतिरेकयो दद्दतादात्म्यप्रतिभा सेनाऽन्यथासिद्धिः, विनिगमकाभावात्, मुक्तौ देवतादात्म्याऽप्रतिभासवत् प्रपञ्चाऽप्रतिभासनाद, संसारदशायां देहतादात्म्यप्रतिभासवत् प्रपश्च प्रतिभासनाच्च । वस्तुत आत्म विशेषाऽदशेनजन्यतावच्छेदकं नात्म- देहतादात्म्यभ्रमत्वम्, गौरवात्, किन्तु दृश्यदर्शनस्त्रमेव, लाघवात् । अत एव ब्रह्मणः सकलप्रपञ्चविषयत्वं संयोगादिस म्वन्धाऽनिरूपणात् स्वरूपस्य च संबन्धत्वाभावात् काल्पनिकज्ञेयतादात्म्याश्रयणेनोपपद्यत इति युक्तम् । [ आत्मतच्च के अदर्शन से प्रपञ्च का अपज्ञान ] यह भी ज्ञातव्य है - जगत् का जो प्रतिभास होता है । वह, पर ( वेदान्ती) को अभिमत जो आत्मा है, उस के अदर्शन के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान करता है । अर्थात् जब तक आत्मा का अज्ञान रहता है तब तक जगत् की प्रतीति होती है और जब श्रात्मा का तत्त्वदर्शन होने पर उस अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है तब जगत् की प्रतीति नहीं होती । अत एव जगत् की प्रतीति उसी प्रकार भ्रम रूप है जैसे रज्जु के वास्तव स्वरूप के अदर्शन के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान करने वाला रज्जु में सर्पज्ञान भ्रम होता है । यदि यह कहा जाय कि - 'आत्मा के अदर्शन का जो अन्वयव्यतिरेक है वह आत्मा में देहतावात्म्य के प्रतिभास का निमित्त होता है । अत एव वह प्रपन की प्रीतोति के साधन में अन्यथा सिद्ध है । तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह क्या देहात्मतात्म्य के प्रतिभास का साधक है ? या प्रश्वप्रतीति का साधक है ? इसमें कोई विनिगमक नहीं है, क्योंकि मोक्ष होने पर जैसे देहात्मतादात्म्य के प्रतिभास का अभाव होता है उसी प्रकार प्रवश्वप्रतिभास का भी अभाव होता है । एवं संसार दशा में जैसे देहात्म-सादात्म्य का प्रतिभास होता है उसी प्रकार प्रपश्व का भी प्रतिभास होता है । अतः देहात्मतादात्म्य प्रतिभास और प्रपश्व प्रतिभास दोनों में श्रात्मतत्त्व के अज्ञान का अन्वयव्यतिरेक समान होने से यह कहना असङ्गत है कि वह देहात्मतादात्म्यप्रतिभास का ही हेतु है - प्रपप्रतिभास का नहीं । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवाति श्लो०१ [ आत्माऽज्ञान जन्यतावच्छेदक दृश्यदर्शनत्व होने में लाधव ] सच बात तो यह है कि यदि प्रात्मतत्व के अज्ञान को देहात्म-तादात्म्यक्रम के प्रति कारण माना जायगा तो उसका जन्यतावच्छेदक देहात्मतादात्म्यभ्रमत्व होगा अतः कार्यतावच्छेदक कुक्षि में आत्मा और देह तथा उन के तादात्म्य का प्रवेश होने से गौरव है। अतः लाघध से दृश्य-दर्शन के प्रति ही उसको कारण मानना उचित है, पयोंकि दृश्य-दर्शनत्व को कार्यतावच्छेदक मानने में लाघव है । यदि यह कहा जाय कि 'दृश्य-दर्शन में विद्यमान कार्यता के अवच्छेदक कोटि में दृश्य का दृश्यत्व रूप से प्रवेश होता है और दृश्यत्व वत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यविषयत्वरूप है, अतः दृश्य-दर्शनाव की कुक्षि में भी वृत्तिप्रतिबिम्ब और चैतन्य का प्रवेश होने से कुछ भी लाघव नहीं हैं तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दृश्यदर्शनत्व की कुक्षि में दृश्य का वृत्तिप्रतिबिम्बितचैतन्यविषयत्व रूप से प्रवेश न कर आरमभिन्नत्थरूप से उसका प्रवेश करने पर साघव निर्विवाद है। [ ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का काल्पनिक तादात्म्य है ] आत्मतत्त्व का अदर्शन प्रात्मभिन्न सम्पूर्ण वस्तु के दर्शन का कारण होता है, इसीलिये ब्रह्मस्वरूप दर्शन में सकलप्रपश्वविषयत्व की उपपत्ति उसमें प्रपञ्च का काल्पनिक तादात्म्य मानने से सम्भय होती है, अन्यथा ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का कोई अन्य सम्बन्ध सम्भव न होने से उसमें सकलप्रपञ्च-विषयत्व की उपपत्ति नहीं हो सकती। प्रश्न में प्रपञ्च का काल्पनिक तादात्म्य से अतिरिक्त कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट है, क्योंकि ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का संयोग सम्बन्ध सम्भव नहीं है, कारण, प्रपञ्च ब्रह्म में ही प्रदुत होने कारण महासे असा नहीं है। अप्राप्त की प्राप्ति ही संयोगरूप है अतः ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का सम्भवित सम्बन्ध अप्राप्तिपूर्वक न होने से वह संयोगरूप नहीं हो सकता। इसी प्रकार ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का समवायसम्बन्ध भी नहीं हो सकता | क्योंकि समवायसम्बन्ध नियुक्तिक है । 'नित्येषु कालिकाऽयोगात्'- नित्यपदार्थों में कालिक संबन्ध नहीं लगता इस नियम के कारण नित्य ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का कालिक संबंध नहीं हो सकता । स्वरूप सम्बन्ध भी उन दोनों के बीच सम्भव नहीं है। क्योंकि स्वरूप को सम्बन्धता ही नियुक्तिक है। अतः अन्य कोई गति न होने से ब्रह्म के साथ प्रपश्व का काल्पनिक तादात्म्य ही मानना होगा। क्योंकि, प्रपञ्च ब्रह्म में प्रादुर्भूत होता है, ब्रह्म प्रपश्च का निमित्त कारण होने के साथ ही उपादान कारण भी होता है और उपादानकारण वही होता है जिस में कार्य का तादात्म्य हो, जहाँ कार्यकारण की सत्ता में साम्य होता है वहां उपादान कारण के साथ वास्तय तादात्म्य होता है, जैसे सुवर्ण के साथ कुण्डलादि का और मिट्टी के साथ घटशरावादि का। किन्तु जहाँ उपादान कारण में कार्य का वास्तवतादात्म्य सम्भव नहीं है वहां कल्पित तादात्म्य मानना आवश्यक है । ब्रह्म नित्य और निविकार है एवं प्रपश्च अनित्य और सविकार है अत: उन दोनों में कल्पित ही तादात्म्य हो सकता है। इस का अभ्युपगम इस लिये प्रावश्यक है कि इस कल्पित तादात्म्य के विना ब्रह्म में प्रपञ्च की उपादान कारणता नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि-बाह्य में प्रपञ्च का यदि वास्तव तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है तो ब्रह्मा को प्रपञ्च का निमित्तकारण ही माना जाय उपादान न माना जा."-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि ब्रह्म प्रपञ्च का उपादान कारण न होकर निमित्त कारण ही होगा तो प्रपञ्च में अपने अस्तित्व पर्यन्त जो सदरूप से ब्रह्म का अन्वय-सम्बन्ध होता है उसकी उपपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि कार्य में उपादान कारण का ही अन्यय सर्वत्र उपलब्ध होता है । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] अपि च, आत्म-खपुष्पयदुत्पत्ययोगान सच्चाऽसयाभ्यामनिर्वचनीयः प्रपञ्चः, रजौ सपंवत् । न हि मन्नेव सः, बाधानुभवात् । नाप्यसन, अपरोक्षानुभवात् । 'देशान्तरे सन्नेवेति चेत् १ न, मानाभावात्, तत्र प्रतीयमाने सर्प देशान्तरसत्यस्य प्रत्यक्षेणाऽप्रतीतेः । 'कल्प्यते' इति चेत् ! यत्र प्रतिपन्नं तत्रव किमिति न कल्प्यते । 'वाधानुभवादिति चेत् ? पाधयोन्यं वहिं कल्प्यताम् । युक्तं तद् यद् यथा प्रतीयते तत् तथैवाम्धुपगम्यत इति । 'सर्पसत्त्वे तल्येऽपि कथमेको गच्यो नाप' इति चेत् ? कथं प्रतीतितुल्यत्व एकत्र मुखमपरत्राऽसत्वम् ! 'वाधप्रतीतेरिति चेत् । तुल्यं ममापि । [ प्रपञ्च सत् नहीं, असन् नहीं, अनिर्वचनीय है ] इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि प्रपञ्च को सत् अथवा असत् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रपञ्च यदि सत् हो तो जैसे आत्मा की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार उसको भी उत्पत्ति नहीं होनी चाहिये । यदि असत् हो तो जैसे असत आकाश पुष्प की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार प्रपञ्च की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती। किन्तु प्रपन्च की उत्पत्ति होती है, अत: रज्जु में उत्पन्न और प्रतीत होने वाले सर्प के समान प्रपञ्च को सत और असत् से विलक्षण मानना अनिवार्य है। ___ यदि यह कहा जाय कि-"सदसद् रूप में प्रपञ्च की अनिर्वचनीयता के साधन में रज्जु-सर्प का दृष्टान्त उचित नहीं है क्योंकि रज्जु-सर्प को केवल सत् अथवा असत माना जा सकता है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि रज्जु में प्रतीयमान सर्प को केवल सत् मानने पर उसका बाध नहीं होना चाहिये, जब कि-'अयं न सर्पः' इस प्रकार रज्जु में सर्प का बाध अनुभव सिद्ध है। उसी प्रकार उसे असत् भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसका अपरोक्ष अनुभव होता है। प्रतः सत-असत् रूप में अनिर्वचनीय होने के कारण रज्जु-सर्प का दृष्टान्त रूपेण प्रयोग सङ्गत है । [ रज्जु में भासमान सर्प अन्यत्र सन हो-इसमें प्रमाणामाव । यदि यह कहा जाय कि-'रज्जु में प्रतीत होने वाला सर्प रज्जुस्थल में यद्यपि सत् नहीं है किन्तु अन्य स्थान में बन आदि में वह सत् ही है, अत: उसे सत्-असत् रूप से अनिर्वचनीय नहीं कहा जा सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'रज्जु में प्रतीत होने वाला सर्प अन्य स्थान में सत् है। इसमें कोई प्रमाण नहीं है। क्योंकि, रज्जु में सर्वप्रतीतिकाल में उसमें देशान्तरसत्य की प्रत्यक्ष प्रतीति नहीं होती। पदि यह कहा जाय कि- देशान्तरसत्व की यद्यपि प्रत्यक्षाप्रतीति नहीं होती है, किन्तु उसमें उसकी कल्पना होती है तो यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि यदि रज्जु-सर्प में अस्तित्व की कल्पना ही करनी है तो अन्यदेश में अस्तित्व की कल्पना करने की अपेक्षा जिस देश में वह दिखाई दे रहा है उसो देश में उसके अस्तित्व की कल्पना ही उचित है। यदि यह कहा जाय कि-'रज्जु-वेश में प्रलोयमान सर्प का रज्जुदेश में सत्य होने की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि उस देश में उसके बाध का अनुभव होता है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि बाघयोग्य सत्त्व की कल्पना में कोई बाधक नहीं है, प्रत्युत यही उचित भी है कि जो वस्तु जैसी प्रतीत होती है उसका उसी रूप Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ [ शास्त्रवार्ता० श्लो०१ में अभ्युपगम किया जाय । अतः रज्जुसर्प में ऐसे रज्जुदेशास्तित्व की प्रतीति होती है जिसका उत्तरकाल में बाध हो जाता है-यही मानना उचित है अतः रज्जुसर्प का किसो देश में अबाधितसत्त्व नहीं है किन्तु रज्जुदेश में बाधित हो सत्त्व है। [रज्जुसर्प-वास्तवसर्प दो में एक अवाच्य, अन्य वाच्य कैसे १] यदि यह प्रश्न किया जाय कि-'यदि रज्जुसर्प को भी सत् माना जायगा तो रज्जुसर्प और व्यावहारिक वास्तवसर दोनों में समान सत्त्व होने से यह कहना कसे सम्भव होगा कि व्यावहारिक वास्तव सर्प वाच्य है और रज्जुसर्प अवाच्य है ?'-तो यह प्रश्न मलविहीन है, क्योंकि इस प्रकार का प्रश्न रज्जु सर्प को सत् न मानने पर भी ऊठ सकता है-जैसे व्यावहारिक वास्तवसर्प की प्रतीति होती है उसी प्रकार रज्जुसर्प को भी प्रतीति होती है अत: दोनों प्रतीतियों में साम्य होने पर व्यावहारिक वास्तव सर्प की प्रतीति सत्य है और रज्ज सर्प को प्रतीति असत्य-अप्रमा कथन कैसे सम्भव होगा? इस प्रश्न के उत्तर में यदि कहा जाय कि-'रज्जु-सर्प प्रतीति के बाद रज्जुसर्प के बाध को भी प्रतीति होती है अतः यह प्रतीति असत्य होती है और व्यावहारिक वास्तवसर्प की प्रतीति में बाध न होने से यह प्रतीति सत्य होती है तो इस प्रकार का उत्तर खजुसर्प को सत् मानने के पक्ष में भी दिया जा सकता है, अर्थात् यह कहा जा सकता है कि व्यावहारिक वास्तवसर्प में सत्त्व का घाघ-ज्ञान न होने से वह सर्प सप से वाच्य होता है और रज्जुसर्प में सत्त्व के बाध की प्रतीति होने से रज्जुसर्प सप से अवाच्य होता है। किय, सायकल चा अमानुभवत्वम् , गौरवात् ; किन्त्वनुभवत्वम् , लाघवात् । ततश्चावच्छेदकलाघवेन पुरोत्र तिनि सर्पसिद्धिा, तस्य च मिथ्यात्वमनुभवादेव 'मिथ्या सर्पः इति । 'अज्ञानाधुपादानकल्पनागौरवप्रसङ्ग एवं' इति चेत् १ न, अवच्छेदकलाघवेन तस्य फलमुखत्वात् । वस्तुतस्तु विपरीतमेव गौरवं परेषाम् , अत्र प्रतिपन्ने देशान्तरसत्यस्याऽप्रत्यासन्नस्याऽपवित्वस्य ज्ञानस्य प्रत्यासत्तित्वस्य दोषस्य ताइक्सामर्थ्यादेः कल्पनात् । [ अनुभवमात्र वस्तुसाधक मानने में लाघव ] दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि वस्तु को सिद्ध करने वाला प्रमानुभव है यह न मान कर अनुभव सामान्य है यह मानना उचित है, क्योंकि प्रथमपक्ष में प्रमानुभवत्व को वस्तु की साधकता का अवच्छेदक मानने में गौरव होगा और द्वितीयपक्ष में अनुभवत्वमात्र को साधकतार चछेदक मानने में लाघव होगा। इस प्रकार जब अनुभवत्वरूप से अनुभवमात्र वस्तु का साधक है तब पुरोवौ रज्जु में सर्प का अनुभव होने से उसमें भी सर्प को सिद्धि निर्बाध है। अनुभव द्वारा उसके सि.नु होने पर मी वह मिथ्या इसलिए होता है कि जैसे सर्पानुभव से सर्प सिद्ध है उसी प्रकार 'सर्पः मिथ्या' इस रूप में सर्प में मिथ्यात्व भी सिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि-'रज्जुसर्प का अस्तित्व मानने पर उसको उत्पत्ति के लिये उसके उपादान कारणादिरूप में अतिरिक्त प्रज्ञानादि को कल्पना करनी पडेगी, क्योंकि जिन कारणों से व्यावहारिक वास्तव सर्प को उत्पत्ति होती है वे कारण रज्जुदेश में अनुपस्थित है । अतः रज्जु सर्प की सत्ता मानने पर उसके अतिरिक्त कारणों की कल्पना आवश्यक होने से गौरव हैं'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रमानुभवस्वरूप से वस्तु की साधकता मानने की अपेक्षा अनुभवत्व Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० फा० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] रूप से वस्तु की साधकता मानने में लाघव होने के कारण जब अनुभवबल से रज्जु सादि की सिद्धि अपरिहार्य है तो उसके बाद जो उसके कारणादि की कल्पना के प्रश्न से गौरव उपस्थित होता है यह फलमुख होने से अर्थात् रज्जु सर्प के सत्व को सिद्धि के बाद में उपस्थित होने से रज्जुसप के सत्त्व को सिद्धि में बाधक नहीं हो सकता । [ देशान्तरस्थित सर्प की रज्जु में प्रतीति मानने में गौरव ] सत्य बात तो यह है कि रज्जु-सर्प को प्रतीतिकाल में अतिरिक्त रज्जु-सर्प को सत्ता न मानने में ही गौरव है। क्योंकि जब रज्जुस्थल में अतिरिक्त सर्प को प्रतीति न मानकर देशान्तरस्थ सर्प की प्रतीति मानी जायगी तो रज्जुस्थल में प्रतीयमान सर्प में देशान्तरसत्त्व, और प्रसंनिकृष्टसर्प में अपरोक्षत्व, और ज्ञान में इन्द्रियसंनिकर्षच, तथा सादृश्यज्ञानादिरूप दोष में ज्ञानात्मकसंनिकर्ष द्वारा सन्निहित वस्तु के प्रत्यक्ष जनन का सामर्थ्य इत्यादि की कल्पना करनी पड़ेगी। किच, परैरपि विशेषाऽदर्शनस्य भ्रमहेतुत्वमुपेयते । तत्र तैरभावत्वं कल्भ्यते, अस्माभिस्तु भावत्वं लघुभूतम् । तैश्च निमित्तत्वं कल्प्यते अस्माभिस्त्वन्तरङ्गमुपादानत्वम् इति । 'स्वाश्रयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपं कथं मिथ्यात्वम् , सर्पस्य स्वाभावसामानाधिकरण्यविरोधाद्' इति चेत् १ न, पृथिव्या रूपे गन्धसामानाधिकरण्याऽविरोधवद् रज्जो सर्प स्वाभावसामानाधिकरण्यस्याप्यविरोधात् । 'कथं तहि भ्रान्तिस्यम्' इति चेत् १ स्वाभाशश्रये सस्यात् । परेषा स्वाभावाश्रये सच्चावगाहित्वं भ्रान्तित्वप्रयोजकम् , अस्माकं तु स्वामावाश्रये सत्त्वम् इति लाघवम् । 'पुरोवर्तिनि सर्पसत्त्वे व्यवहारः स्याद्' इति चेत् १ भ्रमदशायां स्यादेवबाघदशायां तु बाघस्य प्रतिवन्धकवादेव, अन्यदा च सामग्री विरहादेव न स्यादिति । तदेवमनिर्वचनीयस्य सर्पस्य रज्जुखि अनिर्वचनीयस्य प्रपञ्चस्य ब्रय व तचम् ।। [विशेषाऽदर्शन की अपेक्षा विशेषविषयक अज्ञान की काग्यता में लाघव ] इस के अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि नैयायिकादि अन्य दिवान् भी विशेषावर्शन अर्थात् भ्रम-अधिष्ठान असाधारण धर्म के अदशन को भ्रम का कारण मानते हैं, जैसे रज्जुस्व का अज्ञान सर्प भ्रम का और शुक्तित्व का प्रज्ञान रजत भ्रम का कारण होता है। यह विशेषाऽदर्शन उनके मत में विशेषदर्शनाभाव रूप होता है, अतः विशेष दर्शनाभावत्वरूप से भ्रम के प्रति कारणता मानने में कारणतावच्छेवक में गौरव होता है। अब वेदान्ती के मत में विशेषादर्शन विशेषविषयक भावात्मक प्रज्ञानरूप होता है । अत एव विशेष विषयक अज्ञानत्वरूप से कारण मानने में लाव होता है। दूसरी बात यह है कि नयायिकादि विशेषादर्शन को निमित्त कारण मानते हैं, अतः वह भ्रम का बहिरङ्ग कारण है प्रोर वेदान्ती उसे भ्रम का उपादान कारण मानते हैं अत एव अन्तरङ्ग कारण होता है। इस प्रकार नैयायिकादि के मत में विशेषावर्शन और भ्रम इन दोनों में भेद होता है और वेदान्ती के मत में विशेषादर्शन और भ्रम में तादात्म्य होता है अतः वेदान्तमप्त में लाघव स्पष्ट है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ [ शास्त्रवा० श्लो०१ { स्वाश्रप में स्वात्यन्ताभाव विरुद्ध होने का आक्षेप ] यदि वेदान्तमत के सम्बन्ध में यह आक्षेप किया जाय कि वेदान्ती द्वारा वस्तु को मिथ्या मानना असङ्गत है, क्योंकि स्वाश्रय में विद्यमान प्रत्यन्ताभाव का प्रतियोगित्व हो वेदान्तमत में मिथ्यात्व है किन्तु यह किसी भी वस्तु में सम्भय नहीं है, क्योंकि भावाभाव में परस्पर विरोध होने से सर्वावि के आश्रम में सर्वादि का अत्यन्ताभाव सम्भव न होने के कारण उस में स्वाश्रयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्व असम्भव है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसे पृथ्वी में रूप में गन्धसामानाधिकरपय होने में कोई विरोध नहीं है उसी प्रकार रज्जु स्थलीय सर्प में भी स्याभाव के सामानाधिकरण्य में कोई विरोध नहीं है । अर्थात् रज्जु में सर्प और उसका प्रभाव दोनों रह सकता है । अत एव सर्प में स्वाश्रयनिष्ठ अत्यन्ताभावप्रतियोगित्व अक्षण है। इस पर यदि यह शंका की जाय कि रज्जु में यदि सर्प का भी अस्तित्व है ता रज्जु में प्रतीयमान सर्प भ्रान्त यानी भ्रम का विषय कसे होगा? तो इसका उत्तर यह है कि सर्प स्वाभाव के आश्रय रज्जु में विद्यमान होने से भ्रम का विषय है। नैयायिकादि भी स्वभाव के प्राश्रय में सत्त्वेन ज्ञायमानत्व को ही नास्तित्व का प्रयोजक कहते हैं। उसकी अपेक्षा वेदान्त में स्वाभायाश्रय में सत्य को हो भ्रान्तिस्व का प्रयोजक मानने में लाघव है । [रज्जुस के व्यवहारापन्न होने की आपत्ति मिथ्या । रज्जु में सर्पसत्ता मानने पर यदि यह शंका की जाय कि-पुरोवती रज्जु में सर्पसत्ता है तो उसमें सर्प का व्यवहार होना चाहिये-तो इसका उत्तर यह है कि श्रम दशा में यह आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि भ्रमदशा में यह व्यवहार होता ही है और बाधदशा में भी वह आपत्ति नहीं है, क्योंकि उस समय बाद ही उसका प्रतिबन्धक हो जाता है । तथा भ्रम और बाध दोनों की प्रभाव दशा में भी उक्त व्यवहार की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उस दशा में व्यवहार के कारणभूत ध्यवर्तव्य ज्ञानादि सामग्री ही नहीं होती। तो इस प्रकार उक्त युक्तिओं से यह निविघाबरूप से सिद्ध होता है कि जैसे रज्जु में प्रतीत होने वाला सर्प सत् असत् रूप से अनिर्वचनोय होता है, अतः रज्जु ही उस का तात्त्विक रूप है, उसी प्रकार प्रपञ्च भी सत्-असत् रूप से अनिर्वचनीय है और ब्रह्म हो प्रपञ्च का तात्त्विक रूप है। तचाऽद्वितीयम् , प्रपश्चाऽसिद्धया विजातीयभेदशून्यत्वात् । अखण्डमपि, सजातीयभेदशून्यत्वात् । तथाहि-न तावच्वेतनभेदः प्रत्यक्षसिद्धः । न हि चेतना घटादय इव भेदेनानुभूयन्ते । 'तत्तच्छरीरप्रवृत्त्या भिन्नाः कल्प्यन्ते' इति चेत् १ न, एकेनैव तत्तच्छरीरप्रकृत्युपपत्ताबनेककल्पनानुपत्तः । 'सुख-दुःखादिवैचित्र्यादनेकत्वं' इति चेत् ? न, तस्याप्युपाधिभेदत एवोपपत्तः । दृष्टं हि गगनस्यैकस्यैव भेरी-कर्णाधुपाधिभेदेन शब्दविशेषहेतुत्वशब्दग्राहकत्यादि. वैचित्र्यम् । इष्यत एव चानेकात्मवादिभिर्राप प्रतिचेतनमन्तःकरणेन्द्रियादिभेदः । ततस्तदुपाधित एव सुख-दुःखादिवैचित्र्योपपत्तिः, भानाऽभानव्यवस्थापि तेनैवोपपद्यते । [बन्न सर्वसजातीय विजातीय भेद शून्य है ] उक्त विचारों से प्रपत्र के जपावानकारण रूप से जो ब्रह्म सिद्ध हुआ वह अद्वितीय है, क्योंकि प्रपञ्च ब्रह्म से विजातीयरूप में सिद्ध न होने से ब्रह्म में विजातीयमेद का अभाव है। एवं ब्रह्म प्रखण्ड Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] भी है, क्योंकि ग्रह का ब्रह्म से भिन्न कोई सजातीय पदार्थ न होने से उस में सजातीयभेद का मी प्रभाव है। बहर का सजलीय कोई नहीं है इस विषय में शंका करने का कोई अवसर नहीं है, क्योंकि ब्रह्म से भिन्न ब्रह्मसजातीय का कोई साधक प्रमारण नहीं है । अर्थात यह नहीं कहा जा सकता कि चेतनों में परस्परभेव का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि जैसे घटादि का परस्पर भिनतया अनुभव होता है उस प्रकार चेतन के परस्परमेद का अनुभव नहीं हाता । यदि अनेकात्मवादी की ओर से यह कहा जाय कि' तत्तच्छरीर में भिन्न-भिन्न चेतन को कल्पना आवश्यक होने से चेतन का परस्पर भेव सिद्ध होना आवश्यक है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सभी शरीरों में एक चेतन के द्वारा हो प्रवृत्ति की उपपत्ति सम्भव होने से शरीरों में शरीरमेव से खेतनभेद की कल्पना असङ्गत है । [ अन्तःकरण ( उपाधि) भेद से सुखादिवैचित्र्य की उपपत्ति ] सुख-दुःखादि के वैचित्र्य से भी चेतन में अनेकत्व का अनुमान नहीं हो सकता किन्तु विभिन्न अन्तःकरणरूप उपाधि के भेव से एक चैतन्य में हो सुख-दुःखादि के चित्र को उपपत्ति हो सकती है, अर्थात् यह कहा जा सकता है कि सुख-दुःखादि विभिन्न अन्तःकरणों में प्रादुभूत होता है । अतः दिन अन्यकम में नुख होता है तकरण द्वारा उपहित चैतन्य सुखी होता है और जिस अन्तःकरण में दु:ख उत्पन्न होता है उस अन्तःकरण द्वारा उपहित चैतन्य दुःखी होता है । यह तथ्य श्राकाश के दृष्टान्त से सुखबोध्य है यह स्पष्ट है कि एक ही प्राकाश न्यायिक मत में भेरी (वाद्यविशेष) रूप उपाधि के द्वारा शब्दविशेष का उपादान कारण भी होता है और कर्णरूप उपाधि द्वारा शब्दग्राहक भी होता है । तथा अनेकात्मवादी भी प्रत्येकात्मा के लिये विभिन्न अन्तःकरण और विभिन्न इन्द्रिय आदि स्वीकार करते ही हैं। अतः जब विभिन्न अन्तःकरण आदि का अभ्युपगम श्रनिवार्य है तो उसी को आत्मा की उपाधि मान लेने से उन उपाधियों के भेद से एक आत्मा में भी सुख-दुःखादि के वैचित्र्य की उपपत्ति तथा एककाल में एक वस्तु के ज्ञान और प्रज्ञान की व्यवस्था हो सकती है तो आत्मभेद की कल्पना गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है । किश्च घटादयः, शरीरादयः, बुद्ध्यादयः तदाधारथ स्फुरन्तीत्यविवादम् । स्फुरणं चोपाधिभेदं विनाऽविभाव्यमानभेदतया लाघवेन चैकम् । ततश्च परेषामनुव्यवसायशब्दाभिधेयं स्फुरणं नित्यमेकमात्मेत्युच्यते । तच्च न सुखादिमत्, तद्विषयन्वात्, अननुभवाच । एवं च सुखादिवैचिश्येण तदाधारभेदेऽपि न स्कुरणभेदः । इष्यते च नैयायिकैरपि व्यापकमेकं नित्यमीश्वरज्ञानम् । वस्तुतः कार्यमात्रोपादानतया नित्यैकज्ञानस्यैव सिद्धि:, न तु तदाश्रयस्यापि, तस्यैव च तत्तदुपाधिभेदप्रतिभाससंभवे सुखादिवैचित्र्य-बद्धमोक्षादिव्यवस्थोपपत्तौ न पारमार्थिकभेदकल्पनावकाशः, जीवेश्वरादिभागस्याप्यज्ञानोपाधिकत्वात् । [ सर्वग्राही नित्य एकात्मस्वरूप स्फुरण की सिद्धि ] इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि घटादि असन्निहित पदार्थ, शरीरादि समितिपदार्थ, बुद्धि आदि श्रान्तरपदार्थ और उनका आधार द्रव्य इन सभी का स्फुरण होता है इसमें किसी को विशव नहीं है। अब इस स्फुरण में घटादिविषयरूप उपाधिभेद के बिना भेद का ज्ञान नहीं होता, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० श्लो०१ अत: लाघव से एक स्फुरण सिद्ध होता है। अतः नैयायिफावि जिस स्फुरण को 'अनुव्यवसाय' शब्द से बहुत करते हैं वह वेदान्दमत में नित्य एक प्रात्मस्वरूप है। प्रात्मस्वरूप स्फुरण ही घटादि विषयों को और उसके अन्तःकरणवत्तिरूप प्रतिभासों को ग्रहण करता है। जैसे, न्याय मत में अनुव्यवसाय घटादि के ज्ञान को और ज्ञान के विशेषणरूप घटादि को ग्रहण करता है। यह स्फुरणस्वरूपात्मा सुखादि का प्राश्रय नहीं है क्योंकि सुखादिविषयक है, जो यद्विषयक होता है वह उसका प्राश्रय नहीं होता-यह नैयायिकादि को भी मान्य है। दूसरी बात यह है कि, स्फुरण में सुखादिमत्त्व का 'स्फुरणं सुखादिमत्' ऐसा अनुभव नहीं होता है। इस प्रकार सुखदुःखादि के वैचित्र्य से उसके प्राधार में मेव होने पर भी जो उनका स्फुरण है उसमें भेद नहीं है। एवं यह सर्वग्राही एक नित्यज्ञान की वेदान्सीनों की कल्पना सर्वथा अपूर्व भी नहीं है, क्योंकि नैयायिकादि भी ईश्वरज्ञानरूप में ऐसे ज्ञान का प्रभ्युपगम करते हैं। [समस्त कार्यों का उपादान कारण एक नित्य ज्ञान ] सब बात यह है कि कार्यमात्र के कारण रूप में एक नित्यज्ञान को सिद्धि होती है । ज्ञान के आश्रय को कार्यमात्र के कारण रूप में सिद्धि नहीं होती। जो नित्य एकज्ञान कार्यमात्र के कारणरूप में सिद्ध होता है उसमें विभिन्न उपाधि के भेद से विविधप्रतिभास सम्भव है अतः जैसे एक हो चेतन में उपाधिवैचित्र्य से सुख-दुःखादि का वैचित्र्य उपपन्न होता है, उसी प्रकार एक ही में बन्ध-मोक्षादि की व्यवस्था भी उपपन्न हो सकती है। अत एव आत्मा में औपाधिक हो भेद होता है। उसमें पारमाथिकमेव कल्पना का कोई प्रयोजन नहीं है। जीव-ईश्वरादि का जो विभाग है वह भी प्रज्ञानोपाधिमूलक है । अर्थात् अज्ञानसमष्टि से उपहितारमचैतन्य ईश्वर है और अज्ञानव्यष्टि से उपहितात्मचैतन्य जीव है। अज्ञान में व्यक्तिगत भेद होने से तत्तव अजान से उपहित जीव चैतन्य में भी औपाधिक भेद होता है। किन्तु ईश्वर एक ही होता है क्योंकि समस्त अज्ञानों को एक समिट से यह उपहित होता है । अतः ईश्वर को उपाधि में भेव न होने से ईश्वर में औपाधिक भेद भी नहीं होता । अज्ञानं च मायाऽविद्यादिशब्दाभिधेयम् । मानं च तत्र-'अहमज्ञः', 'मामन्य च न जानामि', 'त्वदुक्तमर्थ न जानामि', 'शास्त्रार्थ न जानामि', इत्यायनुगतः प्रत्ययः, अनुगत. विषयं विना तदनुपपत्ते, अन्यथा सत्तादिसामान्योच्छेदप्रसङ्गात् , 'झानसामान्याभावोऽत्र विषय' इति चेत् ? न, आत्मनि तस्याभावात् , अर्थेन सहानुभशाच्च ।-'अर्थ न जानामि' इत्यर्थगतसंख्याज्ञानाभावो विषय इति चेत् ? न, 'संख्यां न जानामि' इत्यत्राऽगतेः । 'तत्रापरोक्षज्ञानाभावो विषय' इति चेत् १ न, 'शास्त्रार्थ न जानामि' इत्यत्रानुपपत्तेः । कचित् संख्याज्ञानाभावः, क्वचिदपरोक्षज्ञानाभावः, क्वचिद् निश्चयाभावो विषय' इति चेत् ? न, अननुगमात् । 'तञ्च चिन्मात्राश्रयविषयमिति विवरणाचार्याः, आश्रयविषयभेदकल्पनायां गौरवात् । कल्पितं घेदम्, तेनाखण्डत्वादेवस्तुतश्चिद्र्यत्वात् , चिद्रूपस्य चानावृतत्वाद् नानुपाचा, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] 'वेतन्यं स्फुरति नाखण्डत्वादि' इत्येवं तेनावरणेन भेदकल्पनात् । 'आश्रयमेव कथमावृणोति तत् ।' इति चेत् ? सत्यम् . अन्धकारे तथादर्शनात् । [मझानसा प्रतीशियाँ 'मैं अज्ञानी हूँ' इत्यादि ] वेदान्तदर्शन में स्वीकृत प्रज्ञान यह माया-अविद्यादि शब्दों से अभिहित होता है । अहमज्ञः-- मैं अज्ञानी हूं' 'मां अन्यं च न जानामि = 'मैं अपने को और अन्य को नहीं जानता हूं', बटुक्तमर्थ न जानामि- 'मैं तुम से कथित अर्थ को नहीं जानता हूं,' शास्त्रार्थ न जानामि = शास्त्र का अर्थ नहीं जानता इत्यादि अज्ञानांश में अनुगत प्रतीति अज्ञान के अस्तित्व में प्रमाण है। क्योंकि ये प्रतीति अनुगत है और प्रतीति का अनुगम विषय के अनुगम के बिना उपपन्न नहीं हो सकता । यदि विषयानुगम के बिना भी प्रतीति का अनुगम माना जायगा तो सत्ता प्रादि सभी सामान्यों का उत्र होगा। यदि यह कहा जाय कि- 'उक्त प्रतीति का विषय ज्ञान सामान्य का अभाव है और यह अनुगत है अत एव उससे इन अनुगत प्रतीतियों की उपपत्ति हो सकती है ।'-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि आत्मा में शानसामान्याभाव नहीं रहता। अतः आत्मा में ज्ञानसामान्याभाव का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो सकता। अर्थ न जानामि' इस प्रकार अर्थ के साथ ही अज्ञान का अनुभव होता है, प्रतः यह नहीं कहा जा सकता कि-'जिस समय किसी अर्थ का ज्ञान नहीं है उस समय ज्ञानसामान्याभाव आत्मा में रहता है अतएव उस समय आत्मा में ज्ञानसामान्याभाय का प्रत्यक्ष हो सकता है।' [ 'अर्थ न जनामि' इस प्रतीति का विषय क्या है ? ] यदि यह कहा जाय कि-"अर्थ के साथ अज्ञान का जो 'अर्थ न जानामि' इस प्रकार अनुभव होता है उस का विषय अर्थगत संख्या के ज्ञान का अभाव है। अतः अर्थ के अनुभव के साथ ज्ञानाभाव के भी अनुभव में बाधा नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि फिर भी 'संख्यां न जानामि' इस अनुभव को उपपन्न करने के लिये कोई गति-मार्ग नहीं है । क्योंकि यह अनुभव संख्याविषयक है । अत एव इस अनुभवकाल में संख्याज्ञान का प्रभाव न रहने से इसे संख्याज्ञानाभावविषयक नहीं माना जा सकता। यदि कहा जाय कि--"यह अनुभव संख्या के अपरोक्षज्ञानाभाय को विषय करता है अतः इसकी उपपत्ति में बाधा नहीं हो सकती। क्योंकि इस अनुभव के काल में संख्या का अपरोक्षज्ञान नहीं रहता।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर 'शास्त्रार्थ न जानामि' इस अनुभव की उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि शास्त्रार्थ का अपरोक्षकान ज्ञात न होने से उसके अभाव का भी अनुभव नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि उक्त सभी अनुभव में स्वत्र एक ही प्रकार का ज्ञानाभाव विषय नहीं है किन्तु कहीं पर संख्याज्ञानाभाय-जैसे 'प्रथं न जानामि' इस अनुभव में, कहीं पर अपरोक्षशानाभात्र जैसे 'संख्यां न जानामि' इस अनुभव में, और कहीं निश्चयाभाव जैसे 'शास्त्रार्थ न जानामि' इस अनुभव में, विषय है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर उक्त प्रतीतियों में न जानामि' इस अंश में अनुगताकारता को उपपत्ति न हो सकेगी । अतः उस अंश में अनुभवसिद्ध अनुगताकारता के अनुरोध से एक अनुगत अज्ञान की कल्पना आवश्यक है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०१ [ अज्ञान का आश्रय और विषय चैतन्य है-विवग्णाचार्य] अनुभवों से जो अभावविलक्षण अज्ञान सिद्ध होता है उस विषय में विवरणाचार्य का यह मत है कि उस प्रज्ञान का आश्रय और विषय चैतन्यमात्र है। क्योंकि यदि उसके आश्रम और विषय में मेव माना जायगा तो दो एवार्थ की कल्पना में गौरव होगा। चतत्य में आश्रित चैतन्य विषयक प्रज्ञान कल्पित है अतः उसके कारण चैतन्य के अखण्डत्व प्राधि को अनुपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि अखण्डत्वादि वस्तुतः चैतन्यरूप ही है और वह चैतन्यरूप प्रज्ञान से प्राबूत नहीं होता। अखण्डत्व के चैतन्यरूप होने पर भी 'चंतन्यं स्फुरति नाखण्डत्वादि' चैतन्य का स्फुरण होता है किन्तु उसके वादि का स्फूरण नहीं होता'-यह व्यवहार अज्ञानात्मक आवरण से चैतन्य और अखप्उत्वादि में भेद की कल्पना से उपपन्न होता है । यदि यह प्रश्न किया जाय कि 'अज्ञान का प्राश्रय यदि बैतन्य है तो यह अपने आश्रय का ही प्रावरण कैसे करता है ?" तो इस का उत्तर यह है कि-यह सत्य है कि अपने आश्रम को ही अपने द्वारा आवृत करने में कुछ असमञ्जसता प्रतीत होती है किन्तु यह बुर्घट नहीं है, क्योंकि अन्धकार में अपने आश्रय की ही आवारकता देखी जाती है । अथ चैतन्यनिष्ठावरणे मानसरचे तदसत्वे वावरणाऽनिवृत्ति तदसिद्धिप्रसङ्ग इति चेत् ? न, साचिसिद्धत्वात् तस्य, 'अहं मां न जानामि' इत्यनुभवात् । अत्र च 'माम्' इति द्वितीयार्थस्य विषासमाझानागावर हसानिमालियामोल्लेखात् । ननु चिन्मात्रनिष्ठ आवरणे 'घटोऽज्ञातः' इति कथम् । 'अस्ति' 'प्रकाशते' इति स्वतः स्फुरति चतन्ये ब्रह्मपि तथाव्यवहारप्रसक्ती 'नास्ति' 'न प्रकाशते' इति व्यवहारार्थमेवावरणकल्पनात घटादौ तु स्वतो. ऽप्रकाशे तस्य व्यर्थत्वादिति चेत् ? ___ अत्राहुः 'विषयः सहाझानस्य साचि चैतन्येऽभ्यासात् प्रतिभासः' इति । अस्यार्थ:ईश्वरस्योपाधिषशाद् विष्ण्वादि विध्यवत् साक्षिण एव ततो जीवेश्वरभावेन द्वैविध्यात् , साक्षिणीश्वरत्वावच्छेदेन तत्र सस्वाद् विषयनिष्ठतयाऽानावरणप्रतीतिः 'अज्ञातो घटः' इति, यथा लौहित्य-मुखयोः स्फटिकाचलपतिविम्वितयोः 'लोहितं मुखम्' इति परस्परसंसों भासते । तेन कुसुमादिनिष्टलौहित्यसंसर्ग इव मुखे चिनिष्ठावरणसंसर्गो घटादावनिर्वचनीयः, अन्यथाऽन्यथाख्यात्यापनः । अत एवं घटादेश्यज्ञानविषयत्वम् , अज्ञानअन्यावरणसंसर्गरूपातिशयशालित्वात् । स चायमावरणसंसर्गो घटज्ञानेन नश्यति, घटज्ञानदशायाम् , 'अज्ञातो घट:' इत्यननुभवात् । अस्मिन् पसे मूलाज्ञानादेवोक्तविधया शुक्तिविषयाद् रजतोत्पत्तिः, शुक्तिज्ञानेन चावरणसंसर्गनाशे शुक्तिविषयता मूलाज्ञानस्य नहा, इति विशिष्टाशाननाशात् सदिलासाझाननिसिरूपबाधन्यवहारः, न त्वज्ञाननिवृतिः । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था- ० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ चैतन्यनिष्ठ आवरण साक्षि सिद्ध है ] यदि यह शंका हो कि 'आवरण को चैतन्यनिष्ठता में यदि प्रमाण होगा तो उस आवरण की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रमाणसिद्ध का निषेध नहीं होता। यदि प्रमाण न होगा तो उसको सिद्धि हो नहीं हो सकती है। अतः यह कहना कि 'चैतन्यविषयक अशान सय में ही आश्रित है-ठोक नहीं है तो इस शंका का उत्तर यह है कि-चैतन्य में प्रज्ञान का भावरण साक्षिप्रमाण से सिद्ध है क्योंकि अमां न जानामि-यह अनभव होता है और इस अनुभव के प्रति चाक्य में जो 'मां' शब्द है उसमें द्वितीया का अर्थ होता है विषयत्व और वह विषयस्य अज्ञानजन्य प्रावरण रूप अतिशयस्वरूप है। इस प्रकार 'अहं मां न जानामि का अर्थ है-मैं आत्मनिष्ठावरणजनक अज्ञान का आभय हूं। अतः इस अनुभव से चैतन्य में अज्ञानजन्यावरण की सिद्धि स्पष्ट है। [ अज्ञातो घट:-इस व्यवहार की उपपत्ति का प्रश्न ] कर्म कारक में अम् प्रत्ययका अज्ञानजन्याचरणरूप अतिशय । अर्थ मानने पर यह प्रश्न हो सकता है कि अज्ञानजन्य आवरण तो चिन्मात्र निष्ठ ही होता है तो 'घटोऽज्ञात्तः' यह व्यवहार कैसे उपपन्न होगा? प्रश्नकार का आशय यह है कि ब्रह्म चैतन्य स्वतः प्रकाश है। अतः उस में सर्वदा 'अस्ति' 'प्रकाशते' इस व्यवहार की प्रसक्ति होती है और 'नास्ति' 'न प्रकाशसे यह सर्वसम्मत व्यवहार को अनुपपत्ति प्रसक्त होती है। अत: 'अस्ति-प्रकाशते, इस व्यवहार का अभाव और 'नास्ति' मप्रकाशते' इस व्यवहार को उपपत्ति के लिये ब्रह्मचैतन्य अज्ञानजन्यावरण की कल्पना तो युक्तिसंगत है-किन्तु घटादि तो स्वप्रकाश है नहीं, अतः उसमें सवा 'अस्ति' 'प्रकाश' इस व्यवहार की प्रसक्ति न होने से 'नास्ति' 'न प्रकाशते' इस व्यवहार के होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। अतः घटादि में अज्ञानअन्यावरण को कल्पना व्यर्थ है। अतः यदि 'अज्ञात' शब्द का प्रज्ञान जन्यावरणाश्रयत्व अर्थ होगा तो 'घटोऽज्ञातः' इस व्यवहार की उपपत्ति कैसे हो सकेगी ? -इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्ती विद्वानों का यह कहना है कि साक्षिचैतन्य में विषयों के साथ अज्ञान का प्रध्यास होने से विषयों में अज्ञानजन्य प्रावरणाश्रयत्यरूप अज्ञातत्व वा प्रतिभास हो सकता है। वेदान्तीयों के इस प.थन का तात्पर्य यह है कि जसे एक ही ईश्वर सत्यप्रधान अविद्या, रजःप्रधानाविद्या एवं तमःप्रधानाविद्या रूप उपाधि के भेद से 'यिष्णु-मह्मा और रुत' ऐसे तीन प्रकार का होता है, उसी प्रकार साझिञ्चतन्य जोव और ईश्वरभाव से दो प्रकार का होता है, अर्थात साक्षी के दो भेद होते हैं-जोवसाक्षो और ईश्वरसाक्षी। ईश्वरसाक्षी में ईश्वरत्वावदेवेन विषयों का प्रयास होता है-ज्ञान और आवरण भी चिम्मात्रा होने से साक्षी में विद्यमान होते हैं। अतः साक्षो में अध्यस्तरूप से विद्यमान विषय में प्रज्ञानावरण को 'अज्ञातो घटः' इस प्रकार प्रतीति हो सकती है । यह ठीक उसी प्रकार सम्भव है जैसे स्फटिकशिला में संनिहित रक्तकुसुम के लौहित्य और संनिहित मनुष्य के मुख का प्रतिबिम्ब होने पर 'लोहितं मुखम्' इस प्रकार मुख में लोहित्य के संसर्ग का भान होता है। तो जैसे मुख में कुसुम के लोहित्य का संसर्ग अनिर्वचनीय होता है, उसी प्रकार घटादि विषय में चिनिष्ठावरण का संगर्स भी अनिर्वचनीय होता है। यवि ऐसा न मानकर मुख में कुसुमस्थलौहित्यसंसर्ग का ही और घटादि में चिद् में विद्यमान आवरण संसर्ग का ही भान माना जायगा तो अन्यथास्याति को प्रापत्ति होगी। जो युक्तिसंगत न होने से वेदान्ती को मान्य नहीं है। अतः उक्त रीति से घटादि में अज्ञानजन्य आवरणसंसर्गरूप अतिशय के Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवारी स्त० ८ श्लो०१ होने से घटादि में भी अज्ञानविष्यता हो सकती है। इसलिये घटोऽज्ञात: इस व्यवहार के होने में कोई बाधा नहीं है। चिन्मात्र में विद्यमान अज्ञानजन्यावरण का जो अनिर्वचनोय संसर्ग घट में उत्पन्न होता है उसका घटज्ञान से नाश हो जाता है क्योंकि घट ज्ञानदशा में 'घटोऽज्ञातः' इस प्रकार अनुभव नहीं होता। [शुक्ति रजत में बाघव्यवहार की उपपत्ति का बीज] इस पक्ष में शुक्तिरजत स्थल में उक्तरीति से शुक्तिविषयक मूलाज्ञान से ही रजत की उत्पत्ति होती है और शक्तिशान से शक्तिरजतअनिर्वचनीयावरणसंसर्ग का नाश होने पर मुलाशा विषयत्व का नाश हो जाता है। शुक्तिविषयकत्व का नाश होने से विशेषणनाश से विशिष्टनाश की मान्यता के कारण शुक्तिविषयकत्वविशिष्ट लाज्ञान का भी नाश होता है। अतः शुक्तिविषयकत्वविशिष्ट मूलाज्ञान में उपादान के साथ शक्तिरजात की निवृत्ति होने से उस में बारव्यवहार होता हैक्योंकि कार्यसहित कार्योपादान की निवृत्ति ही कार्य का बाध कहा जाता है। इसप्रकार स्पष्ट है कि शुक्तिज्ञान होने पर रजत के उपावानभूत मूलाज्ञान को स्वरूपतः निवृत्ति नहीं होती किन्तु शुक्तिविषयकत्वरूप जिस विशेषण से विशिष्ट होने से मूलाज्ञान शुक्तिरजत कर उत्पादक होता है उस विशेषण के नाश से विशिष्टमूलाज्ञान को ही निवृत्ति होती है। [बाध और निवृत्ति के बीच अन्तर ] उस संदर्भ में इतना ध्यान रखना आवश्यक है कि बेदान्तमत में निवत्ति और वाघ में अन्तर है । निवृत्ति का अर्थ होता है कार्य का स्वरूपेण अभाव और बाध का अर्थ होता है उपादानसहित कार्य का अभाव । अतः शुक्ति आदि का साक्षात्कार होने पर शुक्तिरजतादि का बाध होता है क्योंकि शुक्तिरजत को नित्ति के साथ शक्तिविषयकवविशिष्ट मूलाज्ञानरूप शक्तिरजतोपादान को भी निवृत्ति होती है। किन्तु व्यावहारिक रजतादि को छोनी से काटने पर अथवा आग में जलाने पर रजत की निवृत्ति होती है किन्तु उस का बाध नहीं होता, क्योंकि व्यवहारिक रजतादि का उपादान चिन्मात्रविश्यक अज्ञान होता है उस की निवृत्ति तब तक नहीं होती जब तक चिन्मात्र का अपरोक्षज्ञान नहीं होता। ____ अथवा, तद्विषयवृत्यभाव एव घटोऽज्ञात इति ज्ञान विषयः । अस्मिन्नपि पक्षे मूलाज्ञानकार्यमेव रजतम् , शुक्तिविषयवृत्यभावस्त्वन्वय व्यतिरेकाभ्यां मृलाज्ञानाद् रजतोत्पत्ती फलोपधानावच्छेदकत्तया प्रयोजकः, न तु कारणम् , अभावस्य कारणत्वाभावात् । शुक्तिज्ञानेन रजताध्यासस्य स्वकारणे प्रविलयमा क्रियते, नाज्ञाननिवृत्तिा, घटादिवृत्तिश्चिदुपगगार्था नावरण संसर्गनिवृत्यर्था, घटेऽनिर्वचनीयावरणसंसर्गे मानामावात , अडत्वेन चावरणाभावात् । [ 'अज्ञातो घट:' इसकी उपपत्ति में दूसरा पक्ष ] अथवा 'धटोऽज्ञातः' इस ज्ञान का विषय प्रज्ञान जन्यावरण न होकर घटविषयकवृत्तिस्वरूप शान का अभाव है। इस प्रकार 'घटोऽज्ञातः' का अर्थ है घट वृत्तिरूपज्ञान की विषयता से शून्य है। जिस समय घटाकारवृत्तिरूपज्ञान नहीं होता उस समय घट में वृत्ति इस ज्ञान विषयत्व का अभाय Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विषेचन ] होता है अतः घट में अबाधित होने से उसका ज्ञान हो सकता है। इस पक्ष में भी शुवितरजत मूलाज्ञान का ही कार्य है। किन्तु उसमें मूलाजान से रजत की उत्पत्ति में शुक्तिविषयक बृत्ति का प्रभाव प्रन्ययव्यतिरेक से फलोपधान का अबस्छेक होने से प्रयोजक है, कारण नहीं है, क्योंकि अभाव कारण नहीं होता । आशय यह है कि यद्यपि मूलाज्ञान शुषितरजत पा उपादान है, किन्तु शुद्धमूलाझानत्व स्वरूप से नहीं किन्तु शुषितविषयक वृत्त्यभावविशिष्ट भूलाज्ञानत्र रूप से । अतः जब शुक्ति का वृत्तिरूप ज्ञान नहीं होता तभी शुषितरजत की उत्पत्ति होती है और जन शुक्तिज्ञान होता है तब मूलाजानरूप कारण में रजताध्यास का विलय हो जाता है । किन्तु उसके उपादानमूत मूलाजान की निवृत्ति नहीं होती। किन्तु शुक्तिविषयकवृत्ति का अभाव हो जाने से तादृशाभावविशिष्ट भूलाज्ञान की निवृत्ति होने से शुविसरजत का बापव्यवहार होता है। इस संदर्भ में इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि इस में घटायाकार जो अन्तःकरणवृत्ति होती है वह विषयनिष्ठ अनिर्वचनीय आषरणसंसर्ग की निवृत्ति के लिए नहीं होती, क्योंकि घटादि में अनिर्वचनीय प्रावरणसंसर्ग होता है इस में कोई प्रमाण नहीं है। अपितु घटादि के जड होने ले प्रयोजनाभाव से उन में प्रावरण का अभाव ही होता है। प्रत. इस मत में घटादिनाकारक्ति घादि के साथ चैतन्य का जपराग-संबंध स्थापित करने के लिये होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब तक घटादि के साथ प्रमाता का सम्बन्ध नहीं होगा तब तक उसका ज्ञान नहीं हो सकता। क्योंकि प्रमाता से सर्वथा असम्बद्ध वस्तुओं का प्रमाता को ज्ञान नहीं होता । अतः घटादि के साथ प्रमातृ-चैतन्य का सम्पर्क आवश्यक होता है, क्योंकि जिस वस्तु के साथ प्रमाता का सम्पर्क नहीं होता उस वस्तु का ज्ञान नहीं होता। अतः विषय के साथ प्रमाता-चैतन्य का सम्पर्क स्थापित करने के लिये विषयाकार वृत्ति का प्रभ्युपगम नावश्यक है । वृति मानने पर विषय के साथ प्रमातृ-चैतन्य का सम्पर्क सुघट हो जाता है क्योंकि अन्तःकरणावछिन्न चैतन्य ही प्रमाता है अतः जब अन्तःकरण को घटादिविषयाकार वृत्ति होती है तो अन्तःकरण में प्राकारात्मना घटादि विषयों का संनिधान होने से अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य का उस के साथ सम्बन्ध बन जाता है और इस सम्बन्ध से अन्तःकरणावछिन्नचैतन्यरूप प्रमाता के द्वारा घटादि का ज्ञान सम्पन्न होता है। किन्तु यह सम्पर्क विषय के परोक्षज्ञान के लिये ही प्राप्त होता है । अपरोक्षशान के लिये आकारात्मना विषय के साथ प्रमाता का सम्बन्ध पर्याप्त नहीं होता, किन्तु सोधे पूरोषर्ती विषय के साथ उस का सम्बन्ध अपेक्षित होता है। जब घटादि विषयाकार अन्तःकरण को वृत्ति चक्षुरादि इन्द्रियों के मार्ग से विषय देश में जाती है तो वहाँ अन्तःकरण और अन्तःकरण को बत्ति तथा घटादि विषय एकदेशस्थ हो जाते हैं अतः एकवेशस्थ होने के नाते प्रमात-चैतन्य का विषय के साथ सीधा सम्बाध हो जाता है क्योंकि यहां प्रमात-चतग्य प्रमाण चैतन्य और विषयचंताय अभिन्न हो जाते हैं। इस प्रकार इस मत में विषय के साथ बैतन्य का सम्बन्ध रथापित करने के लिए विषयाकारवृत्ति की अपेक्षा होती है । यद्वा, 'मां न जानामि' इत्यनुभूयमानं मूलाज्ञानाचरणं चैतन्यनिष्टपन्यदेव 'तत्त्वमसि' आदिवाक्यजन्यतत्वज्ञाननिवर्त्यम् । अन्यष घटायच्छिवतन्यनिष्ठमावरणं मूलाझानकृतम् । ततश्च घटावच्छिन्नचैतन्यस्य मूलाज्ञानजन्यावरणान्तरशालित्वात् तद्विषयत्वम्, घटस्य तु जडत्त्वादावरणामावेऽप्यद्रविप्रकर्षात् विषयत्वम् । तस्मादावरणान्तरमादाय 'अज्ञातो घटः' इति Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो० १ प्रतीतिः घटज्ञानेन चावरणान्तनिवृत्तिः। अस्मिन्नपि पक्षे मूल ज्ञान कार्यमेव रजतम् , आवरणसंसर्गपक्षवद् वाधव्यवहार । { 'अनाठो घटः' इसकी उपपत्ति में तीसरा पक्ष ] अथवा यह कहा जा सकता है कि-'अहं मां न जानामि' इस प्रकार जिस चैतन्यनिष्ठ मूलाज्ञानजन्य आवरण का अनुभव होता है वह एक भिन्न ही आवरण है जिसको निवृत्ति 'तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्यों से आत्मतत्व का अपरोक्ष ज्ञान होने पर ही होती है। किन्तु मूलाज्ञामजाय उससे भिन्न एक और भी प्रावरण है जो घटावद्यपिछन्न चतन्य में आश्रित होता है। उसीसे घटादि विषयों में अज्ञानविष्यता की उपपत्ति होती है क्योंकि घटावच्छिन चैतन्य में मूलाज्ञानजन्य वरण रहता है और उसी तन्य में घट भी प्रध्यस्त है। प्रतः घट के जड होने से उसमें प्राधरण का अभाव होने पर भी चैतन्यगत अवरण का दूरविप्रकर्ष-वैशिकविप्रकर्ष न होने से घर में भी उस प्रावरण की विषयता हो जाती है। प्रतः चैतन्यमात्रनिष्ठावरण से भिन्न जो घटाधवस्छिन्न चिद् में मूलाज्ञानअ.न्यावरण होता है उसके द्वारा 'अज्ञातो घटः' इस प्रतीति को उपपत्ति हो सकती है। इस प्रावरण की निवत्ति घटादि ज्ञान से होती है। इस पक्ष में भी शक्तिरजतादि मलाज्ञान काही कार्य है इस पक्ष में उसमें बारव्यवहार भी उसी प्रकार उपपन्न होता है जिस प्रकार शुक्त्यादि में चैतन्यमात्रनिष्ठाज्ञानावरण का अनिर्वचनीय संसर्ग के अभ्युपगम पक्ष में होता है। प्राशय यह है कि शक्त्यवच्छिन्न चैतन्यगत प्रावरणविशिष्ट मूलाज्ञान रजत का उपादान होता है प्रतः शुक्ति ज्ञान होने पर शुवस्यवच्छिन्न चेतापरत आवरण की नियत्ति होने पर उक्तावरणगि शिष्ट मूलाजान को भी निवृत्ति होती है। अतः शुक्तिरजतोपधायकोपादान के साथ शक्तिरजत को निवृत्ति होने से शषितरजत बाधित होता है। अथवा 'अज्ञातो घटः' इति प्रतीतिस्तूलाज्ञान विषया, सबिलासाज्ञाननिवृत्तिर्वाधः, अज्ञाननिवर्तकं ज्ञानं प्रमाणम्, 'इममर्थ पूर्व ज्ञातवान् , इदानीं न जानामि' इत्यादि व्यवहारसौकर्याय तत्स्वीकारात् । तूलासानानि च मूलाज्ञानकार्याणि, तच्छक्तिविशेपा एव तानि अत एवाऽनादित्वात् तेषां "अनादिभात्ररूपं जाननिवत्यमझान' इति लक्षणयोगात' इत्यन्ये । [ 'अज्ञातो पटः' इसकी उपपत्ति में तूलाज्ञानवादी का पक्ष ] . अथवा यह भी कहा जा सकता है कि अज्ञान दो प्रकार का होता है-१ मूलाजान और २तुलाज्ञान । चिन्माविषयक-अमच्छिन्नचैतन्यविषयक प्रज्ञान मूलाज्ञान होता है जो हा साक्षात्कार से ही निवृत्त होता है । अवच्छिन्न चैतन्यविषयक अज्ञान तूलाज्ञान होता है, जो अवस्छेदकोभूत घटादिविषयों के ज्ञान से निवृत्त होता है। जैसे टूल शीघ्र दग्ध हो जाता है-उसी प्रकार अवच्छेदकीभूत विषयों के ज्ञान से ब्रह्मसाक्षात्कार के पूर्व ही नष्ट हो जाने से वह तुलाज्ञान कहा जाता है। इन अज्ञानों में तूलासान हो 'अ.तो घटः' इस प्रतीति का विषय होता है । जब घट का प्रमाणभूत इ.ान उत्पन्न होता है तब वह प्रमाणज्ञान अज्ञान का निवर्तक हाने से उसान से 'अज्ञातो घटः' इस प्रतीरिरूप कार्य के साथ तुलाजान को निवृत्तिरूप बाद हो जाता है। यह ज्ञातव्य है कि मूलशान है भिन्न Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाका. टोक एवं हिन्दी विवेचन ] २३ इलाज्ञान का भी अभ्युपगम आवश्यक है, क्योंकि उसे स्त्रीकारने पर ही 'इममर्थ पूर्व ज्ञातवान - मुझे पूर्णकाल में इस प्रथं का ज्ञान था, किन्तु 'इदानीं न जानामि'-इस समय इस अर्थ का प्रशान हैइत्यादि व्यवहार सरलता से उपरश होता है। आशय यह है कि याद तुलाशानन मानकर एकमात्र मूलाज्ञान को ही माना जाय और उसीसे घटादि विषयों के अज्ञानादिव्यवहार की उपपत्ति की जायगी तो 'मुझे इस विषय का ज्ञान पूर्ण में था और अब अज्ञान है' यह व्यवहार उपपन्न नहीं हो सकता क्योंकि इस व्यवहार से यह सूचित होता है कि पूर्वकाल में इस विषय का ज्ञान नहीं था किन्तु इस काल में इस अर्थ का प्रज्ञान है। यह सूचितार्थ मूलानाननात्र के अभ्युपगम पक्ष में सम्भव नहीं है, क्योंकि मूलाज्ञान ब्रह्मज्ञानमात्र से नाश्य होने के कारण ब्रह्मज्ञान के पूर्व सभी काल में है, अतः उसका एक काल में प्रभाव ओर कालान्तर में सद्भाव सम्भव नहीं हो सकता । तुलाज्ञान मूलाज्ञान का कार्य है और वह तत्तविषयों में मूलाज्ञान से उस समय उत्पन्न होता है जब सत्तविषयों के प्रमाणभूत ज्ञान को सामग्री उपस्थित नहीं रहती। अन्य विद्वानों का मत है ति दुलाज्ञान मूलाज्ञान को ही विभिन्न शक्तियां हैं । अतः मूलाजान के समान में भी अनादि हैं । यही मानना उचित है, क्योंकि यदि तुलाज्ञान अनादि न होकर मूलाज्ञान का कार्य होगा तो 'अनादिभावत्वे सति ज्ञाननिवर्यत्वम्'-अज्ञान के इस लक्षण से संगहीत न होने के कारण प्रज्ञानपद से ग्यपदिष्ट ही न हो सकेगा। • "त, तेषामावरणविक्षेपहेतुत्वेन शक्तत्यान, शक्ती शक्त्ययोगात् , अज्ञानत्वात् तदनादित्वे तदावरणस्याप्यनादित्वापत्त, इष्टापत्ती घटबोधदशायामपि समयान्तरभाविज्ञाननिवावरणप्रसङ्गात् , . अनुमविरोधात् । व्यवहारसोकर्याय तज्जन्यत्वाश्रयणे च तूलाज्ञाना. नामपि जन्यत्वस्यायितं युक्तस्यात् , भ्रपोपादनत्वस्यैवाशानलक्षणत्वात् , प्राणुस्तस्याविधा. संबन्धादातिव्याप्तः । किन, घटयोधदशायामाचरणामावेऽनादेयंट ज्ञानस्य निर्विषयत्वप्रसङ्गः, तज्जन्यावरणरूपातिशयाभावात् । न चाज्ञानं निविषयं संभवति, साक्षिमास्यं वा" इत्पपरे । तत् सिद्धं चिन्मात्राश्रयविषयं मूलाज्ञानम् । [ मूलाज्ञानशक्तिरूप तूलाज्ञान अनादि है इस का खण्डन ] किन्तु दूसरे विद्वान अन्य विद्वानों के इस विचार से सहमत नहीं है क्योंकि तुलाशान 'आवरण और विक्षेप' का कारण होने से आवरण-विक्षेप को शक्ति के आश्रय होते हैं। यदि उन्हें स्वयं शक्तिरूप माना जायगा तो शक्ति में शक्ति न होने से उन में आवरणविक्षेपशवित न रह सकेगी प्रतः उन से प्रावरणविक्षेप न हो सकने से उनकी कल्पना ही निरर्थक होगी एवं प्रशान होने के कारण, यदि तुलाशात अनादि होगा तो तज्जन्यावरण भी अनादि होगा और उस आवरण को अनादि मानना इष्ट नहीं हो सकता । पयोंकि उस आवरण के अनादि होने पर घटज्ञानदशा में भी कालान्तर में होने वाले घटज्ञान से निवत्यावरण की आपत्ति होगी, जो अनुभवविरुद्ध होने से अनिष्ट है। आशय यह है कि मूलाजान के शक्तिरूप अनादि तूलाज्ञान से जन्य आवरण को अनादि मानने पर यदि वह आवरण एक होगा तो इसी विषय का एक बार ज्ञान हो जाने पर वह विषय पुनः अज्ञात न हो सकेगा । पदि भविष्य में विषय को अज्ञातता के अनुरोध से वर्तमानज्ञान को उसका निवर्तक न माना Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ [ शास्त्रवास्ति लो०१ रहता। जायगा तो वर्तमानज्ञान की निरर्थकता होगी। क्योंकि उसके होने पर भी आवरण की निवृत्ति न होने के कारण विषय का प्रकाश नहीं हो सकेगा। यदि अनेक अनादि अावरण माने जायेंगे तो वर्तमान ज्ञान से एक आवरण की निवृत्ति होने पर भी वह आवरण तो बना ही रहेगा जिसकी निवृत्ति उस विषय के भाषी ज्ञान से होने वाली है। इस प्रकार वर्तमानज्ञान काल में उसके विषय को तुलाज्ञान के एक आवरण से मुक्त और तूलाज्ञान के दूसरे प्रावरण से युक्त मानने में अनुभवविरोध स्पष्ट है क्योंकि एक आवरण की निति होने से विषय का प्रकाश भी प्राप्त होगा और अन्य प्रावरण के बने रहने से उसका अप्रकाश भी प्राप्त होगा। यदि उक्त व्यवहार की सरलता के लिये तूलाज्ञान के आवरण को जन्य माना जायगा तो उसकी अपेक्षा तूसाज्ञान को ही जन्य मान लेना युक्ति संगत है । तुलाज्ञान को जन्य मानने पर जो उस में अज्ञान लक्षण की अनुपपत्तिरूप दोष बताया गया था वह अकिश्चित्कार है क्योंकि उक्त लक्षण मूलाजानमात्र का लक्षण है। प्रज्ञान सामान्य का लक्षण भ्रमोपादानत्व है और वह तूलाज्ञान में भी सुघट है। अब सत्य तो यह है कि भ्रमोपादानत्व ही अज्ञान का युक्त लक्षण है, उक्त लक्षण मूलाज्ञान का भी लक्षण नहीं हो सकता क्योंकि वह अविधा के सम्बन्धादि में प्रतिव्याप्त है। उसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि घटाज्ञान प्रादि तुलाशात अनादि होगा तो घटज्ञान वशा में प्रावरण का प्रभाव होने से घटाज्ञान निविषयक हो जायगा, क्योंकि उस समय घटाज्ञानजन्य आवरणरूप अतिशय घर अत एव घटनिष्ठ आवरणरूप अतिशयजनकत्वस्वरूप घटविषयकस्व अज्ञान में असम्भव है। किन्तु घटादिविषयक तुलाज्ञान को अनित्य मानने पर घटज्ञान दशा में घटाज्ञान के स्वयं न रहने से उसमें उक्तवशा में निविषयत्व की आपत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि-उस दशा में अज्ञान निविषयक ही है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि निविषयक होने पर वह साक्षिभास्य नहीं हो सकता क्योंकि साक्षी ज्ञान और अज्ञान का विषयद्वारा ही प्रवभासक होता है। उक्त विचारों के अनुसार यह तो सिद्ध है कि मूलाज्ञान का विषय और प्राश्रय दोनों चैतन्य. मात्र हो है। वाचस्पतिमिधास्तु-'जीवाश्रयं ब्रमविषयं च तत् । न च जीवनिष्ठत्वेऽविद्याया जीवे प्रपश्चोत्पत्यापत्तिा, अहंकारादिप्रपश्चोत्पत्तेरिष्टत्यात् आकाशादिप्रपश्चोत्पत्तेस्तु विषयपत. पातिन्याऽविद्ययेश्वर एव संभवात् , तस्य सर्वज्ञत्वश्रुतेः, अज्ञातायां शुक्ती रजतोत्पादवदज्ञाते ब्रमण्याकाशादिसकलप्रपश्चोत्पत्त्याविरोधात् । यधपि चित्त्वापेक्षया-ऽविद्योपहितचिवस्याविद्याभयतावच्छेदकत्वे गौरवम् , तथापि 'अहमज्ञः' इति प्रतीतः, ईश्वरे च तथाऽप्रतीतेः प्रामाणिकत्वाद् न दोषः। न च 'अहमज्ञः' इति प्रतीतेरन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यस्यैवाविद्याश्रयत्वम् , तस्य जन्यतयाऽनाधविद्याश्रयत्वायोगात्' इत्याहुः । [ जीव अज्ञान का आश्रय है, ब्रह्म विषय है-वाचस्पति ] वाचस्पतिमिश्र का मतः--यह है, कि अजान का आश्रय जीव, एक विषय ब्रह्म होता है। अविद्या जीवनिष्ठ होने पर उसमें प्रपञ्च की उत्पत्ति को आपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि जोव में अहंकारादि मान्तर प्रपञ्च को उत्पत्ति इष्ट है और प्राकाशादि बााप्रपञ्च को उत्पत्ति उसमें Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] इसलिये नहीं होती कि अविद्या का स्वभावतः विषय में पक्षपात होता है । इसलिये अविद्या के विषयभूत ब्रह्म में ही बाह्य प्रपञ्च को उत्पत्ति होती है। अविद्या का विषयपक्षपात शुक्तिरजताविस्थल में दृष्ट है । क्योंकि शक्ति प्रावि को अविद्या से शुक्तिरजतादि की उत्पत्ति शुक्ति के अज्ञानाश्रय जीव में न होकर उसके विषयमूत शुक्ति आदि में ही होती है। अतः ब्रह्मविषयक अविद्या से भी उसके आश्रयभूत जीव में प्रपञ्च की उत्पत्ति न होकर ब्रह्म में हो होना उचित है। तथा ब्रह्म में प्रपन को उत्पत्ति में ब्रह्मसर्गज्ञता की प्रतिपादक श्रुति भी प्रमाण है । आराय यह है कि ब्रह्म में प्रपञ्च को उत्पत्ति होने से हो समस्त प्रपत्र के साथ ब्रह्म का सम्बन्ध होने से सर्वज्ञता उपपन्न हो सकती है। यदि प्रपञ्च जीव में उत्पन्न होता तो जीव ही सर्वज्ञ हो जाता क्योंकि उस स्थिति में समस्त प्रयन्ध के साथ जीव को सम्बन्ध होता है। प्रत्युत, ईश्वर की हो सकता में बाधा होती, क्योंकि जीवगसप्रपश्व के साथ ब्रह्म का सम्बन्ध नहीं होता है। इस पक्ष में यद्यपि यह बात अवश्य है कि जीव को अविद्या का आश्रय मानने पर अविद्या के प्राश्रयता का अवच्छेवक प्रविद्योपहित चित्त्व होता है और ब्रह्म को अविद्या का आश्रय मानने पर उसकी आश्रयताका अवच्छेदक केवल चित्व होता है। अत: जीव में अविद्याश्रयता के पक्ष में गौरव है। तथापि 'प्रहमज्ञः' इस प्रतीति प्रामाणिक होने से और ईश्वर में अज्ञानाश्रयता की प्रतीति का प्रभाव होने से जीव में ही प्रज्ञान की आयता मानना उचित है । अतः उक्त गौरव दोष रूप नहीं हो सकता, क्योंकि प्रामाणिक गौरव को दोष नहीं माना जाता । अहमज्ञः इस प्रतीति के अनुरोध से अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य को ही अविद्या का आश्रय मानना उचित नहीं है, क्योंकि अन्तःकरण के जन्य होने से तदवच्छिन्न चैतन्य भी जन्य हो जाता है अतः वह अनादि अविद्या का प्राश्रय नहीं हो सकता, अतः 'अहमज्ञः' यह प्रसोति अविद्योपहित चैतन्य की ही अविद्याश्रयता में प्रमाण होती है। ___तत्र माया-ऽविद्याशब्दद्वनिमित्तं शक्तिद्वयम्-विक्षेपशक्तिा, आवरणशक्तिश्च | कार्यजननशक्तिविक्षेपशक्तिः, तिगेधानशक्तिरावरणशक्तिः । यथाऽवस्थारूपस्य रज्ज्वज्ञानस्य सर्पजननशक्तिः, रज्जुतिगेधानशक्तिश्च, एवं मूलाज्ञानस्याऽद्वितीयपूर्णानन्दैकरसचिदावरणशक्तिः, आकाशादिप्रपश्चजननशक्तिश्च इति । 'आवरणमेव शक्तिः' इत्यपव्याख्यानम् , तस्यास्मनिष्ठत्वात् तच्छक्वेश्चाऽज्ञाननिष्ठत्वात् । अज्ञान के लिये माया और अविद्या इन दो शब्दों का बाहुल्येन प्रयोग होता है । अतः अज्ञान में दो शक्ति मानी जाती है-विक्षेपशक्ति और सावरणशक्ति । विक्षेपशक्ति का अर्थ है कार्य उत्पादक शक्ति और प्रावरणशक्ति का अर्थ है वस्तु के निजस्वरूप के तिरोधान की शक्ति । जैसे- मूलाज्ञान के प्रयस्थाविशेषरूप रज्जुबिषयक अज्ञान में सर्पजनन की शक्ति विक्षेपशक्ति है और रज्जुस्वरूप के तिरोषान की शक्ति प्रावरणशक्ति है। इसी प्रकार, ब्रह्मचैतन्यस्वरूपमूलाज्ञान में, अद्वितीय पूर्णानावस्वरूप सर्वदा एकस्वभाव ब्रह्म के स्वरूप का तिरोधान करने वाली आवरणशक्ति रहती है और आकाशादि प्रपञ्च को उत्पन्न करने वाली विक्षेपशषित भी रहती है। फलतः विक्षेपशक्तिविशिष्ट अज्ञान माया शब्द से और आवरणशक्तिविशिष्ट प्रज्ञान अविद्या शब्ध से अभिहित होता है । कुछ लोग प्रज्ञानजनितावरण को ही प्रदान की शक्ति कहते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि आवरण आत्मनिष्क होता है क्योंकि प्रात्मविषयक अज्ञान से आत्मा का प्रावरण होता है और उस Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो० १ २६ ] आवरण की शक्ति आत्मविषयक अज्ञान में रहती है । अतः आश्रयभेद से आवरण और शक्ति में ऐक्य नहीं माना जा सकता । तत्रैवाऽज्ञाने प्रपञ्चस्य परमार्थव्यवहारप्रतिभाससस्त्र प्रतीत्यनुकूला स्तिस्रः शक्तयः । आद्या श्रवणयासपरिपाकतः प्राकू, यया पश्यन्ति नैयायिकादयः 'पारमार्थिकोऽयम्' इति प्रपश्यम् । द्वितीया तत्परिपाके तस्वज्ञानात् प्राकू, यया पश्यन्ति विदितवेदान्ताः 'व्यावहारिकोऽयम्' इति प्रपञ्चम् | तृतीया तु तच्चज्ञानोत्पत्तौ यावत्प्रारब्धमनुवर्तते । तस्याश्च कार्य यद्यपि न प्रातिभासिकसण्वप्रतीतिः, व्यवहारवादे तथा वक्तुमशक्यत्वात्, व्यावहारिके प्रातिभासिक स्त्रप्रतीतौ तत्वज्ञानिनामत्यन्तभ्रान्तत्वप्रसङ्गात् दृष्टिसृष्टिवाद एवं वस्तुतः प्रातिमासिकस्याप्यन्यथाभासमानस्य शक्तित्रयेण क्रमेण तथाभानोपपत्तेः, तथापि व्यावहारिकस्यापि प्रपश्वस्य तत्रज्ञानेन आधितस्यापि प्रारब्धवशेन बाधितानुवृरया प्रतिभासस्तत्कार्यम् । [ परमार्थसच्च–व्यवहारसश्व-प्रतिभाससच्च प्रतीतिजनक तीन शक्तियाँ ] 9 मूलाज्ञान में और तीन शक्ति होती हैं- १. प्रपश्व में परमार्थ सत्व की प्रतीति की जनक, एवं २. प्रपश्व में व्यावहारिकसत्त्व की प्रतीति को जनक, एवं ३. प्रपश्व के प्रातिभासिकसत्त्व की प्रतीति की जनक | पहली शक्ति श्रात्मा के श्रवण मनन और निदिध्यासन के अभ्यास का परिपाक होने के पूर्व रहती है जिस से नैयायिकादि को प्रपश्व में पारमार्थिकसत्त्व की वृद्धि होती है । द्वितीयशक्ति श्रवणादि के परिशक के उत्तर होने वाली श्रात्मतत्वज्ञान के पूर्व रहती है जिस से वेदान्तयेत्ता को प्र में व्यावहारिकसत्ता की प्रतीति होती है। तृतीयशक्ति तत्त्वज्ञान उत्पन्न हो जाने पर भी तत्त्वज्ञानी का प्रारब्धकर्म जब तक रहता है तब तक रहती है। तृतीयशक्ति के कार्य के सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रपखव्यावहारिकत्व के पक्ष में उस का कार्य प्रातिभासिक सत्व की प्रतीति नहीं है क्योंकि उस पक्ष में प्रदश्व में प्रतिभाfor सत्त्व की प्रतीति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि तत्त्वज्ञानो को व्यावहारिक प्रपश्व में यदि प्रतिभासिक सस्व की प्रतीति होगी तो उस प्रतीति के भ्रम होने से तस्वज्ञानी को भ्रान्तत्व की श्रापति होगी । किन्तु दृष्टिसृष्टिवाद में ही प्रप में प्रतिभासिक सत्य की प्रतीति उसका कार्य हो सकती है। क्योंकि उस मत में सृष्टि की यावद्दर्शन ही सत्ता होने से प्रस्तुतः प्रातिभासिक सत् ही होता है । अतः उस में उक्त शक्तियों से क्रम से पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक सत्त्व की प्रतीति होती है । अतः प्रपश्व के व्यावहारिकत्व पक्ष में तत्त्वज्ञान से प्रषश्व का बाध हो जाने पर भी प्रारब्धवश जो बाधितप्रपश्व का प्रतिभास होता है वही तृतीयशक्ति का कार्य है । प्राच्यशक्तेरुत्तरशक्तिकार्यप्रतिबन्धकत्वाच्च न युगपच्छक्तित्रयकार्यप्रसङ्गः । प्रारब्धक्षये चान्तिमतत्वज्ञानेन सहाऽज्ञाननिवृत्तिः । तथा च श्रुतिः - " तस्याभिध्यानाद् योजनात् तच्वभावाद् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः " इति । अयमर्थः तस्यं = परमात्मनः, अभिध्यानात् = अभिमु खाद् ध्यानात्, श्रवणाद्यभ्यासपरिपाकादिति यावत्, विश्वारम्भकमायानिवृत्तिः, आद्यशक्तिनाशेन . Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टोहा एवं हिन्बो विधवन । विशिष्टनाशाद, युज्यतेऽनेनेति योजनं तासमाक्षाकारस्तस्मादपि, द्वितीयशक्तिनाशेन विशिष्टनाशाद, तत्रमावो= विदेहकैवल्यं तस्मात्, अन्ते - प्रारम्पक्षये, तृतीयशस्त्या सह निम्शेषमायानाशः, अभिध्यान-योजनाम्यां शक्तिद्वयनाशेन विशिष्टनाशापेक्षया भूयःशब्दोऽम्यासार्धक इति । तदेवं निरूपितमज्ञानम् । [ तस्यज्ञान के बाद आरब्धक्षय होने पर अज्ञाननियति यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि यद्यपि उक्त तीनों शक्ति अनादि है किन्तु एक साथ तीनों शक्ति का कार्य नहीं होता क्योंकि पूर्वशक्ति उत्तरशक्ति के कार्य को प्रतिबन्धक होती है। प्रारब्ध कर्म का क्षय हो जाने पर अन्तिम तत्वज्ञान से तस्स हितमूल प्रज्ञान की निवृत्ति होती है। जैसा कि 'तस्याभिध्यानादः' इत्यादि श्रुति से सिद्ध है। श्रुति में अभियान शब्द का प्रर्थ है अभिमुखध्यान, जो श्रवण, मनन और निदिध्यासन के परिपाक में एयवसिल होता है। तदनुसार इस श्रुति का अर्थ होता है कि आत्मा के श्रवण भनन और निदिध्यासन के परिपाक से पारमाथिक सस्व को प्रत्यायकशक्ति से विशिष्ट मूलाज्ञान को निवृत्ति होती है। और 'युज्यतेऽनेन जीवभावापादकोपाविनि तिमुखेन जीव: परमात्मना सह तादात्म्यं प्रतीयतेऽनेन' इस व्युत्पति से योजन शब्द का अर्थ हैतत्त्वसाक्षात्कार । तस्वभाव का अर्थ है विदेहकैवल्य, क्योकि तस्व केवल-अद्वितीय है। अतः तत्स्वकेवल का भाव कैवल्य हुआ और विव्हत्य उसका नान्तरीयफ है क्योंकि बेहसम्बन्ध का अत्यन्त उच्छेद होने पर ही सम्पन्न होता है। इसमें अन्त शब्द का अर्थ है प्रारब्धक्षय, विश्वमाया शब्द का अर्थ है विश्व को उत्पन्न करने वाली अविद्या, भूयः शब्द का अर्थ है अभ्यास, जिस से अविद्यानिवृत्ति की निःशेषता सूचित होती है। इस प्रकार उक्त अप्ति का अर्थ है कि ब्रह्म के अभिध्यान= श्रवण-मनननिविष्यासन के परिपाक से विश्व में पारमार्थिक सात्वतीति को उत्पन्न करनेवाली शक्ति से विशिष्ट अज्ञान का नाश होता है। एवं ब्रह्म के सत्त्वसाक्षात्कार से विश्व में व्यावहारिक सत्य की प्रसीति को उत्पन्न करनेवाली शक्ति से विशिष्ट अज्ञान का नाश होता है। और प्रारब्धकर्म का क्षय होने पर विश्व में प्रालिभासिक सत्व को प्रतीति उत्पन्न करने वालो प्राथवा तत्त्वसाक्षात्कार से बाधित विश्व के प्रतिभास को उत्पन्न करने वाली अविद्या का निःशेष नाश होता है। इस प्रकार यह अज्ञान का संक्षिप्त निरूपण है। ___ततो जीवेश्वरादिप्रपञ्चः। तत्र 'अविद्या प्रतिविम्वित चैतन्य जीव इति विवरणाचार्याः। सिद्धं चतत, "रूपं रूपं प्रतिरूपीवभव" इति श्रुतेः, "एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्" इत्यादिस्मृतेश्च । न चाऽमृतस्य प्रतिबिम्बऽयोगः, आकाशादेस्तदर्शनात् । नन्वविद्याच्छिन्न चैतन्यमेव जीवोऽस्तु । 'एवं सति सर्वनियन्तवमीश्वरस्य न स्यात्, जीवभावेनोपाध्यच्छिन्नस्य पुनस्वच्छेदान्तरासंभवात, घटाकाशादी तथादर्शनात, द्विगुणीकृत्य धृत्ययोगादिति चेत् ? न, विम्बचेतन्यस्यापीश्वरस्य प्रतिविम्बान्तद्विगुणीकृत्य वृश्ययोगाद । न हि जलगते स्वाभाविकाकाशे सत्यपि विम्बस्य दूरविशालाकाशस्य साभ्रनक्षत्रस्य जलान्तरवस्थानं संभवति, कल्पना तुमयत्र तुल्येसि घेत ? भना:-बिम्ब शुद्धमेव चैतन्यम्, अज्ञानप्रतिविम्वितं चैतन्यं साक्षि, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रयाता० स्त० लो०१ आवरणशक्तिप्रतिबिम्बभूतो जीवः, विक्षेपशक्तिप्रतिविम्बभूतश्चेश्वर इति न किश्चिद् दूषणम्, उपाधिभूतस्य शक्तिद्वयस्य व्यापकतया तत्प्रतिविम्बयोजौवेश्वरयोरपि व्यापकत्वात्, जीवान्तर्यामित्वस्य ब्रह्मणः श्रुतिसिद्धस्याऽब्यास्तत्वादिति । [ जीव-ईश्वरादि प्रपञ्च संबंधी विवरणाचार्य मत ] अज्ञान से जोव- ईश्वरादि सम्पूर्ण प्रपञ्च निष्पन्न होता है। उन में, जीव के विषय में विवरणाचार्य का यह मत है कि अविद्या में प्रतिबिम्बित ब्रह्म चैतन्य जीव है और यह बात श्रुति एवं स्मृति से सिद्ध है। जैसे-रूपं रूपं प्रतिरूपी बभूव' यह श्रुति स्पष्ट उद्घोष करती है कि ब्रह्म चैतन्य रूप रूप में अर्यात् प्रत्येक प्रज्ञान व्यक्ति में अनादिकाल से प्रतिरूपी अर्थात् प्रतिबिम्बित है। एवं स्मृति भी अतिस्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित करती है कि-जैसे जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र जल के एकस्वअनेकत्व के अनुसार एकानेकरूप दृष्टिगत होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचैतन्य एकानेक प्रज्ञान में प्रतिबिम्बित होने से एकानेक रूप में परिज्ञात होता है। इस संदर्भ में यह शंका नहीं की जा सकती कि ब्रह्म अमूर्त है इसलिये उस का प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता, क्योंकि प्राकाश-रूप आदि अमूर्त पदार्थों का भी प्रतिविम्ब होता है । [ अविद्यावच्छिन्न चैतन्यरूप जीव होने की आशंका ] इस प्रसङ्ग में किसी का यह प्रश्न है कि अविद्यावच्छिन्न चैतन्य को ही जीव माना जाय, अविद्या में चैतन्य का प्रतिबिम्ब मानने को क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न के विरुद्ध यदि यह शंका को जाय कि-"अविद्यावच्छिन्न चैतन्य को जीव मानने पर ईश्वर में मनियन्तृत्व को हानि होगी। पयोंकि जीवभाव से अविद्यारूप उपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य, ईश्वरभाव से उपाध्यन्तर से अबछिन्न नहीं हो सकता। अर्थात् चतन्य ईश्वरभाव से अविद्यासमष्टि रूप उपाध्यन्तर से अवच्छिन्न होकर जोव के आधारभूत एक एक अज्ञान प्रात्मक उपाधि में नहीं रह सकता । क्योंकि ऐसा मानने पर चैतन्य के द्विगुण यानी द्विधा वर्तन की प्रसक्ति होगी और विगुणपर्सन मान्य नहीं है क्योंकि घटाकाशादि में द्विगुणवर्तन नहीं होता । आशय यह है कि घर में आकाश का वर्तन घटायमिनाकाशरूप में ही होता है । अन्यावच्छिन्नाकाश के रूप में नहीं होता।"-तो यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि उक्त दोष प्रतिबिम्ब पक्ष में भी समान है। क्योंकि बिम्बभूत ईश्वर चैतन्य का भी प्रतिबिम्ब अधिष्ठान में द्विगुणवर्तन यानी प्रतिबिम्ब तथा बिम्ब रूप में वर्तन प्रयुक्त है । क्योंकि स्वाभाषिक आकाश के साय दूरस्थ अभ्रनक्षत्रयुक्त बिम्बभूत विशालाकाश का जल के मध्य में अवस्थान सम्भव नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि जल के सीमित होने से जलान्तर्गत आकाश भी सीमित है और उपर का आकाश जो जल में प्रतिबिम्बताफाश का बिम्ब है वह दूरस्थ है, और प्रतिबिम्बाकाश से विशाल है तथा अभ्र-मेघ और नक्षत्र से युक्त है। प्रतः जैसे उस का अवस्थान जल में नहीं होता क्योंकि ऐसा मानने पर जल में प्राकाश के द्विगुणवर्तन को प्रसक्ति होती है, उसी प्रकार जिम्बभूत ईश्वर चैतन्य का मी प्रतिबिम्बभूत जीव के साथ वर्तन नहीं हो सकता। यदि इसका समाधान प्रतिबिम्ब में बिम्ब के कल्पिलवर्तन से किया जाय तो यह समाधान अवच्छेव पक्ष में भी सम्भव है अतः अविथा अवछिन्न चैतन्य को ही जीव मानना उचित है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] २६ [ प्रतिविम्ब जीव का त्रिम्ब शुद्ध चैतन्य ही है-उत्तर ] इस प्रश्न के उत्तर में प्रतिबिम्बवावी का कहना है कि ईश्वरचैतन्य प्रतिविन्य जीव का विन्य नहीं है किन्तु एकमात्र शुद्ध चैतन्य हो बिम्ब है। वही अज्ञान और तद्गत श्रावरणशक्ति और विक्षेप शक्तिमें प्रतिबिम्बित होता है। अज्ञानगत शुद्ध चैतन्य प्रतिबिश्व साक्षी होता है। आवरणशक्तिगत शुद्ध चैतन्यप्रतिबिम्ब जीव होता है और विक्षेपशक्तिगत चैतन्यप्रतिबिम्ब ईश्वर होता है ऐसा मानने में कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि जीब और ईश्वर की उपाधिभूत उक्त दोनों शक्ति व्यापक है प्रतएव उन में विद्यमान प्रतिबिम्व रूप जीव और ईश्वर भी व्यापक है । अतः ईश्वरब्रह्म में श्रुतिसिद्ध 'जीवान्तमित्व' का भी व्याघात नहीं हो सकता । प्रतिबिम्बवाद को इस व्याख्या में, ईश्वर में जीवान्तमि की उपपत्ति के लिये, जीव और ईश्वर के संविधान के लिये, चैतन्य के ईश्वर चैतन्यरूप face एवं जीवात्मक प्रतिबिम्ब रूप में द्विगुण वत्तन का प्रसङ्ग नहीं होता, किन्तु अवच्छेद पक्ष में वह दोष अवस्थित है । 'अज्ञानावच्छिन्नं चैतन्यं जीवः' इति वाचस्पति मिश्राः । न चात्रेश्वरस्य सर्वान्तर्यामित्वानुपपत्तिः, अज्ञानोपाध्यवच्छिन्नं चैतन्यं जीवः, अज्ञानविषयतोपाध्यवच्छिन्नं चैतन्यं चेश्वर इत्युपाधेर्व्यापकत्वेनोपहितस्येश्वरस्यापि व्यापकत्वात् । न प तथाप्यज्ञान चैतन्यस्येश्वरत्वे 'अहं मां न जानामि' इत्यनुभवादीश्वरस्य प्रत्यक्षत्वापातः । न चाज्ञाततथा सर्वस्य साचिभास्यत्वादिष्टापति, अनुभूयमानस्य 'अहम्' इत्यज्ञानचैतन्यस्येश्वरस्य स्वरूपतः प्रत्यचत्वापातात् । इष्यते च 'ईश्वरं न जानामि' इत्येतावन्मात्रमेवेति चेत् न, 'अहं मां न जानामि ' इस्पत्राखण्डस्यैत्र' ब्रह्मा(च) धिष्ठानस्य चैतन्यस्यावभासनात् अज्ञात तोपहितचैतन्यस्येश्वररूपस्यानवभासनाद, अज्ञाततारूपोपाधिस्फुरणेऽप्ययोग्यत्वेन तदुपहिताऽस्फुरणात्, घटस्फुरणे घटोपहिताकाशाऽस्फुरणवत् । [ अज्ञानविशिष्ट चैतन्य ही जीव है - वाचस्पतिमिश्र ] वाचस्पति के मतानुसार 'अज्ञानावच्छिन्न चैतन्य' ही जीव है । ऐसा मानने पर ईश्वर में सर्वान्तर्यामित्व की अनुपपत्ति की आशंका नहीं हो सकती, क्योंकि प्रज्ञानोपाधि से अवच्छिल चैतन्य जीव हैं और अज्ञानविषयतारूप उपाधि से अवच्छिन्न चेतन्य ईश्वर है । ईश्वर की यह उपाधि व्यापक है अतः उस से उपहित ईश्वर भी व्यापक है । अतः जीव के साथ उस का सम्बन्ध होने से वह जीव अन्तर्यामी हो सकता है । यदि यह कहा जाय कि “अज्ञानविषयता से अवच्छिन्न अथवा विषयतासम्बन्ध से अज्ञानाafter ear को ईश्वर मानने पर 'श्रहं मां न जानामि' इस अनुभव से ईश्वर में प्रत्यक्षत्व की श्रापति होगी। इस प्रावत्ति को यह कहकर इष्ट नहीं माना आ सकता कि 'अज्ञान के विषयरूप में सभी साक्षिभास्य है इसलिये ईश्वर में भो अज्ञानविषयरूप में साक्षिभास्यत्वरूप प्रत्यक्षत्य है' १. 'व भ्रमाधि' इति पाठान्तरम् । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता. स्त०८ लो०१ क्योंकि उक्त अनुभव में 'अहं' शब्द से अज्ञानावच्छिन्न चैतन्य का स्वरूपतः मुख्य-विशेष्यविधया अज्ञान विषयतानापन्नरूप में भी भान होता है । अतः अज्ञानविषयतानापन्नरूप में भी ईश्वर में प्रत्यक्षस्यापति दुर्वार है क्योंकि 'ईश्वरं न जानामि' इस रूप में ईश्वर का केवल प्रज्ञानविषयरूप में ही प्रत्यक्ष इष्ट है। किन्तु विचार करने पर यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि 'अहं मां न जानामि' इस प्रतीति में ब्रह्म आदि विश्वप्रपश्व के अधिष्टानभूत अखण्ड चैतन्य का ही द्वितीयान्त अस्मत् पद से उल्लेख होता है, क्योंकि ब्रह्म की प्रत्यक्षयोग्यता साक्षात् अपरोक्षाद्रह्म इत्यादि श्रुति से सिद्ध है। अज्ञान विषयतोपहित वेतन्यरूप ईश्वर का उसमें प्रवभास नहीं होता। क्योंकि प्रशाततारूप उपाधि का स्फुरण होने पर भी ईश्वर के अयोग्य होने से प्रज्ञानविषयतोपहित ईश्वर का स्फुरण उसी प्रकार नहीं हो सकता जैसे घटशब्दाल्लेख्य प्रत्यक्ष में घट का स्फुरण होने पर भी चटोपाहत अाकाश का स्फुरण नहीं होता। इसी लिये उक्त प्रत्यक्ष में प्रथमान्त अस्मतपच से भी ईश्वर का उल्लेख नहीं हो सकता किन्तु उस से जीव का ही उल्लेख होता है क्योंकि यह साक्षिप्रत्यक्ष का विषय है। आमासवादिनम्तु दर्पणादौ मुखान्तरोन्पत्ति स्वीकुर्वाणाश्चतन्यामासमज्ञानेऽभ्युपगच्छन्तस्तचादात्म्यापन्नं चैतन्यं जीवमाहुः । तत्स्वीकारश्च निरुपाधिकाध्यासमात्रे सादृश्यापेक्षणादाभासतादात्म्यापन्नेऽन्यसारयापन्ने चैतन्ये ताशाहकागभ्याससंभवाय । जन्याभ्यास एव निरुपाधिके सादृश्यापेक्षणाच्च नाभासाध्यासेऽपि तदपेचायामनवस्थापत्तिः, तस्यानादित्वात् । न चाज्ञानाध्यासेन सादृश्यसिद्धिः, जाइयेन तदापस्यसिद्धः । तद्धि जड़तादात्म्यम्, न चाज्ञान तादात्म्येनाभ्यस्तम्, संसर्गेणा ध्यस्तत्वात् 'अहमः' इति । अतोऽनाधाभासतादात्म्याध्यासेन जाड्यापच्या सादृश्ये सत्यहङ्काराध्यासो युज्यत इति । न चाभासे मानाभावः, 'आदर्श मुखम्' इति स्पष्टं मुखान्तगभासात् ! 'एकत्र क्लममन्यत्रापि प्रतीसंधीयते' इति न्यायेनाज्ञानेऽपि चैतन्यामासाङ्गीकागत् । एवमन्तःकरणादापि । अज्ञानगतचैतन्याभासस्तु जीवशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् , तत्तादात्म्यापभस्य जीवत्वादिति । [ अज्ञान में आभासित चैतन्य से अमिन चैतन्य ही जीव है-आमासवाद ] वेदान्त दर्शन में जीव के प्रसङ्ग में एक प्रामासवाद नाम का मत प्रसिद्ध है । उसके प्रतिपादकों का कहना यह है कि जैसे दर्पणादि प्रतिबिम्रपाही द्रव्यों में मुखादि बिम्बभूत द्रव्यों से अतिरिक्त मुखादिरूपप्रतिबिम्ब की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार अज्ञान में ब्रह्मचैतन्य का प्राभास अर्थात् अतिरिक्त प्रतिबिम्ब होता है । उस चैतन्याभास से तादात्म्यापन चतन्य ही जीव है, जीव में अहंकार का निरुपाधिक अध्यास होता है । यह अध्यास अज्ञान में चैतन्याभास माने बिना सम्भव नहीं हो सकता, रुपाधिक अध्यासमात्र में अध्यस्यमान पदार्थ के साइश्य को अपेक्षा होती है। किन्तु वतन्य में किसी का सादृश्य नहीं है । अतः उसमें सादृश्य को उपपत्ति के लिये अज्ञान में अतस्याभास मानना आवश्यक है। उसके मानने पर उसका तादात्म्यरूप अध्यास चतन्य में सम्भव होने से उसमें अहंकार के निरुपाधिक अध्यास की उपपत्ति में कोई बाधा नहीं होती। अज्ञान में बैतन्य का Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन आभास अनादि है अतः उस अध्यास के निरुपाधिक होने पर भी उस के लिये सादृश्य की अपेक्षा न होने से सादृश्य की उपपत्ति के लिये श्रनेक चैतन्याभासों की कल्पना प्रयुक्त अनवस्था की प्रापत्ति नहीं होती क्योंकि सादृश्य की अपेक्षा निरुपाधिक जन्य अध्यास में ही होती है । यदि यह शंका की जाय कि चैतन्य में प्रज्ञान का अनादि अध्यास है हो, अत एव अज्ञान के सादृश्य से चैतन्य में अहंकार का निरुपाधिक प्रध्यास हो सकता है । अतः सादृश्य के लिये अज्ञान में सन्याभास की कल्पना निष्प्रयोजन है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अज्ञान जड है । अत एव चैतन्य में उसके सादृश्य की आपत्ति यानी प्राप्ति असिद्ध है । क्योंकि अज्ञान जड होने से उस का सादृश्य जडतादात्म्यरूप होगा और यह चैतन्य में तब सम्भव होता यदि उस में अज्ञान तादात्म्यसम्बन्ध से अध्यस्त होता । किन्तु वह तादात्म्यसम्बन्ध से चैतन्य में अध्यस्त नहीं है अपितु तादात्म्य भिन्नसम्बन्ध से अध्यस्त है इसलिये 'अहमज्ञानम्' ऐसी प्रतीति न होकर 'अहमज्ञः 'मै अज्ञानी हूं, इस प्रकार की प्रतीति होती है। किन्तु जब अज्ञान में चैतन्य का आभास माना जाता है तब उस चैतन्याभास का चैतन्य में तादात्म्याध्यास होने से चंतव्य में जाड्य संभव होने से न्याभासरूप जड का तादात्म्यलक्षण सादृश्य उपपन्न होने से चैतन्य में अहंकार का अध्यास उपपन्न हो सकता है । ३१ यह भी नहीं कहा जा सकता कि- ' श्राभास में बिम्बभिन्न प्रतिबिम्ब में कोई प्रमाण न होने से अज्ञान में जड़ चैतन्याभास नहीं माना जा सकता ।' क्योंकि 'आदर्श मुखम् = आदर्श में मुख हैं' इस यथार्थ प्रतीति के अनुरोध से आदर्श में ग्रीवास्थमुख से भिन्नमुख की उत्पत्ति सिद्ध होती है । क्योंकि यदि प्रतिबिम्बभूतमुख प्रीवास्थमुख से भिन्न न होगा, तो उस में ग्रीवास्यत्व का ही ज्ञान होता, आदर्शवृतित्व का ज्ञान न होता । तो जब इस प्रकार एक स्थान में बिम्ब से भित्र प्रतिबिम्ब का होना सिद्ध है तो ओ बात एक स्थान में सिद्ध होती है, अन्यत्र भी इसी प्रकार की बात मानना युक्तिसङ्गत है । इस न्याय से ज्ञान में भी चैतन्य से भिन्न चैतन्याभास माना जा सकता है । और जैसे अज्ञान में चैतन्य से भित्र चैतन्याभास स्वीकार्य हो सकता है उसी प्रकार श्रन्तःकरणादि में भी तन्य का श्राभास होता है किन्तु अन्तःकरणगत चैतन्याभास जीव शब्द का प्रवृत्ति निमित्त नहीं होता किन्तु अज्ञानगत चैतन्याभास हो जीव शब्द का प्रवृत्ति निमित्त होता है क्योंकि अज्ञानगतचैतन्याभास तादात्म्यापन्न तन्य ही जीव है । प्रतिबिम्बवादे तु न मुखान्तरोत्पत्तिः सुखेऽधिष्ठानभेदमात्रस्य द्वित्वापरपर्यायस्यादर्शस्वत्वभ्य चानिर्वचनीयस्योत्पत्यैव निर्वाद्वात् । अधिष्टाने मुखे कतिपयावयवावच्छेदेनेन्द्रिय संनिकर्षादपरोक्ष भ्रमोपपत्तेः । ननु - आदर्श एवाधिष्ठानमस्तु तत्र मुखाभावाऽज्ञानेन यदि मुखमपरोक्षम् तदा तत्संसर्गस्य, अन्यथा तस्यैवोत्पत्योपपत्तेः सुखाधिष्ठानत्वस्यानुभवाननुसारित्वादिति चेत् न, सोपाधिक- निरुपाधिकभ्रमव्यवस्थाविप्लवप्रसङ्गात् । 'लोहितः स्फटिकः ' इत्यत्रापि शुक्त्यज्ञानाद् रजतश्रमबजपाकुसुमत्त्राज्ञानाल्लोहिते तस्मिन् स्फटिक तादात्म्य आमस्य सुवचत्वात् । अधिष्ठानस्योपाधित्वे च सर्वभ्रमाण सोपाधिकत्वप्रसङ्गः प्रत्यभिज्ञानाच्च न सुखान्तरोत्पत्तिः । ननु एवं ततोऽज्ञाननिवृत्ती मेदभ्रमोऽपि निवर्तेतेति चेत १ न, सोपाधिक " Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो० १ सान भ्रमनिवृत्ताघुपाधिनिवृत्तः पुष्कलकारणत्वात् । भेदाभ्यासे दर्पणस्योपाधित्वान, सत्यपि प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञाने यावदुपाधि मेदाऽध्यासानुवृत्तेः । तस्माद् मुखमधिष्ठानं तत्र च भेदोऽध्यस्यते इति स्थितम् । एवं चाज्ञानादौ प्रतिविम्बे सत्यपि नाभासान्तरम्. मानाभावात्, अज्ञानाध्यासेन परिच्छिन्नत्वापत्त्यैव सादृश्यसंभवादिति विशेषः । [ आदर्श में अन्य मुख की उत्पसि नहीं होती-प्रतिबिम्बयाद ] आभासवाद के समान जीव के सम्बन्ध में प्रतिबिम्बवाद के नाम से भी एक मत वेदान्तसम्प्रदाय में प्रसिद्ध है। उस मत के समर्थकों का यह कहना है कि प्रतिबिम्बग्राही द्रव्यों से बिम्ब से मिन्न प्रतिबिम्ब की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु बिम्भमूत पदार्थ ही उन द्रव्यों में ज्ञात होता है, अत: आदर्श में ग्रीवास्थमा के भिन्नमा की उत्पति नहीं होनी किन्तु आदर्श के प्राभिमुल्यरूप दोष सहकृत प्रज्ञान से मुख में ग्रीवास्थत्व के ज्ञान का प्रतिबन्ध हो जाता है और उस मुखरूप अधिष्ठान में हो अनिर्वचनीय प्रादर्श सम्बन्ध और उसी में उस के अनिर्वचनीय भेव को -जिसे शब्दान्तर से द्वित्व नाम से भी अभिहित किया जाता है- उत्पत्ति हो जाती है । इसलिये उस एक हो मुख में द्विस्व प्रौर आदर्शवत्तित्व को प्रतीति होती है। यह प्रतीति परोक्षभ्रमरूप न होकर अपरोक्ष भ्रमरूप होती है। क्योंकि आदर्श के सन्मुख स्थित मनुष्य के चक्षु की किरण आदर्श में प्रतिहत होकर जब उस मनुष्य की ओर लौटती है तब उस के मुख के कतिपयभाग के साथ चक्षु का ता है । अतः 'प्रादश मुखम' इस भ्रम में मुख का इन्द्रिय संनिकर्ष से भान होता है। अत एव यह मुख का अपरोक्ष भ्रम है। यदि आदर्श में अन्य मुख की उत्पत्ति होती तो वह मुख अनिर्वचनीय होता अतः उस मुख में आदर्श सम्बन्ध की होने वाली बुद्धि मुख अंश इन्द्रियजन्य न होने से मुख अंश में परोक्षरूप होती। [ भ्रम का अधिष्ठान मुख नहीं आदर्श है-शंका ] इस पर यह शंका हो सकती है कि 'आदर्श मुखम्' इस भ्रमात्मक ज्ञान का अधिष्ठान मुख नहीं है, किन्तु आदर्श हो है । और उस में यद्यपि मुखभाव है फिर भी उस का ज्ञान न होने से प्रादर्श में मुखज्ञान उत्पन्न होता है। इस ज्ञान के सम्बन्ध में यदि यह अनुभव हो कि 'यह ज्ञान मुखांश में अपरोक्ष है तो आदर्श में बिम्बमूत मुसा के अनिर्वचनीय संसर्ग की हो उत्पत्ति मान्य होगी। यदि ऐसा अनुभव न हो किन्तु उक्त प्रतीति मुखांश में भी परोक्ष ही हो तो प्रादर्श में अनिर्वचनीय मुखांतर को भी उत्पत्ति हो सकती है । इस के अतिरिक्त इस प्रतीति को आदर्शाधिष्ठान वाली मानना इसलिये भी उचित है कि मुख में उस प्रतीति की अधिष्ठानता अनुभवधिरुस है। क्योंकि प्रत्येक प्रादर्शदृष्टा व्यक्ति को यही अनुभव होता है कि 'मैं आदर्श में मुख देखता हूं न कि मुख में आदर्श सम्बन्ध देखता हूं।' [सोपाधिक-निरुपाधिक श्रम विभाग उच्छेद की आपत्ति-समाधान ) किन्तु यह शंका उचित नहीं है क्योंकि यदि 'प्रादर्श मुखम्' इस प्रत्यक्ष को आदाधिष्ठान घाला माना जायगा तो सोपाधिक और निहाधिक भ्रम की व्यव सा का लोप हो जायगा, क्योंकि जिस ज्ञान में उपहितवस्तु में उपाधिगत धर्म का भान होता है वही सोपाधिक भ्रम होता है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० कटोका एवं हिन्दी विवेचन ] अतः यदि 'आदश मुखम्' इस भ्रम को उपहित मुखाधिष्ठान वाला न मानकर उपाधिमूतादर्शाधिष्ठानवाला माना जायगा तो 'लोहित: स्फटिकः' इस प्रसिद्ध सोपाधिक भ्रम के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि जैसे शुक्ति के अज्ञान से इदन्त्वेन ज्ञायमान शुक्ति में निरुपाधिक रजतभ्रम होता है उसी प्रकार संनिहित जपाकुसुम में जपाकुसुमत्व के अज्ञान से लोहित्यमात्ररूप से गृहीत जपाकुसुमरूप उपाधि में स्फटिक का तादात्म्यभ्रम होता है। इस प्रकार वह भ्रम भी उपहित में उपाधिधर्म का ग्राहक न होने से सोपाधिक न हो सकेगा। यदि अधिष्ठान को ही उपाधि मारकर 'आदर्श मुखम' और 'लोहितः स्फटिकः' इन में सोपाधिकत्व की उपपत्ति को जायगी तो भ्रम मात्र के साधिष्ठान होने से सोपाधिक हो जाने के कारण निरुपाधिकभ्रम का उच्छेद हो हो जायगा। दूसरी बात यह है कि प्रादर्श में दृश्यमान मुख ओर ग्रीवास्थ मुख में ऐक्याध्ययसायरुप 'आदर्श मम मुखम्' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा होती है। अतः आदर्श में ग्रीवास्थमुख से भिन्न मुख की उत्पत्ति मानना असङ्गत है। [ प्रत्यभिज्ञा होने पर भी उपाधि रहने पर भेदाध्यास । यदि यह कहा जाय कि-"यदि आदर्श में दृश्यमान मुख और ग्रीवास्थ मुख में ऐपयप्राहिणी प्रत्यभिज्ञा होती है तब तो उसी से दर्पण में दृश्ामागुर, और नीलाममुह में ऐगय में श्रवार को निवृत्ति हो जायगी। अतः जो मुख में भेदभ्रम-द्वित्वग्रह होता है उसी की भी निति हो जाएगी।" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सोपाधिकभ्रम की निवृत्ति में उपाधि निवृत्ति की पुष्कल यानी घरम कारण होती है। मुख में प्रादर्श के सम्मुखीन मनुष्य को जो भेदाध्यास होता है वह प्रादर्शीपाधिक होता है । अत एव दर्पणस्थ ओर ग्रीवास्थ मुख में ऐक्य को प्रत्यक्षात्मक प्रत्यभिज्ञा होने पर भी जब तक उपाधि है तब तक भेदाध्यास का अनुवर्तन अपरिहार्य है। अतः युक्तिसंगत यही है कि 'आदर्श मुखम्' इस भ्रमात्मक बुद्धि में बिम्ब भूत मुख ही अधिष्ठान है । उसो में आदर्श में दृश्यमान मुख और ग्रोधास्यमुख में ऐदय के अज्ञान से भेद का अध्यास होता है। इस प्रकार प्रज्ञान में चैतन्य का प्रतिबिम्ब होने पर भी उसे प्राभास रूप-बिम्बभूत चैतन्य से भिन्न नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने में कोई प्रमाण नहीं है। इस संदर्भ में प्रज्ञान में चैतन्याभास के समर्थन करने के लिये जो यह बात कही गयी कि अज्ञान में चतन्याभास न मानने पर जीव चैतन्य में किसी का सादृश्य न होने से उस में अहंकार का निरुपाधिक अध्यास न हो सकेमा-वह बात महत्व-हीन है क्योंकि चैतन्य में अज्ञान के अनादिसिस अध्यास से अज्ञान का परिच्छिन्नत्व चैतन्य में प्रा जाता है । अतः परिच्हिनस्वरूप से चैतन्य में अज्ञान का सादृश्य होने से उस में अहंकार का निरुपाधिक अध्यास चतन्याभास के प्रभाव में भी सम्भव है। सच जीवोऽज्ञानबहुत्ववादे हिरण्यगर्म-विराडादिभेदेन नाना 'तदेक्येऽपि तच्छक्ति मेदान तक्षान्तःकरणमेदाद् वा नाना' इत्यप्याहुः । अज्ञानभेदे प्रत्यज्ञानमावरणविक्षेपशक्तिकल्पने गौरवम, तदैक्ये त्वेकत्रैव तावच्छक्तिकल्पनालाघवम् । न च तावत्यः शक्तय एव सन्तु, किमज्ञानेन ? इति वाच्यम् तासां साश्रयत्वनियमात् । चैतन्यं च न तदाश्रयः, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त०८ इल०१ शक्तस्य प्रपञ्चोपादानत्वात, तस्य च सत्यत्वेनाऽतथात्वात् । ततः शक्तिभेदेन तदुपहितजीवमेदः, तत्तजीवगततत्वज्ञानेन जीवोपाधिशक्तिनाशाद्' मुक्त्युपपत्तेः । एवमन्त:करणभेदेऽपि भाव्यम्, केवलमत्र "तन्मनोऽकुरुत" इति श्रुतेरन्तःकरणास्य जन्यत्वाजीवस्य सादित्वप्रसङ्ग इति नातीव प्राज्ञानामादरः। [जीव संख्या से अनेक है ] जोवनी संकाय निषा में भी शान्तसम्प्रदाय में कई मत उपलब्ध होते हैं । जैसे-एकमत यह है कि अज्ञान अनेक है और अज्ञानोपाधिक चैतन्य जीव है । अतः अज्ञानरूप उपाधि के भेद से जीव अनेक हैं और उपाधि के उत्कर्ष अपकर्ष के तारतम्य से हिरण्यगर्भ-विराट' इत्यादि उस के अनेक भेद हैं। दूसरा मत यह है कि अशान एक है किन्तु उसको आवरण-विक्षेपक्तियां अनेक हैं और उन शक्तिकों से उपहित चैतन्य जीव है । अत: अज्ञानशक्तिरूप उपाधि से सपाहत होने के कारण जीव में शत्तिभेदरूप उपाधिभेद-मूलक अनेकत्व है। तीसरा मत यह है कि अज्ञान से उत्पन्न होने वाला अन्तःकरण अनेक है। यही ज.व की उपाधि है। अतः अन्त करण के भेद अनेक हैं । इन मतों में मध्यम मत प्रथम और तृतीय मतों की अपेक्षा अधिक युक्तिसङ्गत है, क्योंकि प्रथम मत में अज्ञान भी अनेक है और उसकी आवरण विक्षेपशत्तियां भी अनेक हैं, प्रतः इस मत में गौरव है। मध्य मत में अज्ञान एक हो है केवल उस को शक्तियों में अनेकत्व है अतः पूर्वमत की अपेक्षा इस मत में लाघव है । यदि यह शंका की जाय f-'यदि लाघम के आधार पर ही मत को जीवित रखना है. तब तो इस की अपेक्षा यह मानने में अधिक लाशय होगा कि अज्ञान का अस्तित्व ही नहीं है केवल आवरण और विक्षपशक्ति का ही अस्तित्व है । अतः अज्ञान को मान्यता गौरवग्रस्त होने से असङ्गत है'-किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि उस शक्ति में आश्रयसहितत्व का नियम है । चैतन्य को शक्तियों का आश्रय नहीं माना जा सकता, पयोंकि आवरणविक्षपेशक्तियों से जो युक्त है बही प्रपन्च का उपादान होता है किन्तु चैतन्य नित्य होने के कारण प्रपञ्च का उपादान नहीं हो सकता । अतः शक्तियों के आश्रयरूप में एक अज्ञान का अभ्युयगम अनिवार्य है । अज्ञान को शक्तिरूप उपाधि के भेद से उस से उपहित चैतन्यरूप जीव में भेद होता है । जिस जोष को जब तत्वज्ञान होता है तब उस जीव की उपाधि मूल अज्ञानशक्ति का नाश होने से उस जीव की मुक्ति होती है । अन्तःकरण के जीवोपाधिक्षपक्ष में भी इसी प्रकार व्यक्तिगत मोक्ष की उपपत्ति होती है। किन्तु 'अन्तःकरणोपहित चैतन्य जीव है' यह तृतीय मत केवल इसलिये प्राज्ञ पुरुषों द्वारा आदरणीय नहीं होता, कि इस मत में 'तन्मनोऽकुरुत (बा ने मन)(अन्तःकरण) का निर्माण किया' इस श्रुति के अनुसार अन्तःकरण के जन्य होने से अन्त:करणोपहित जीव में सादित्य का प्रसंग होता है । जीवभेद एवं क्रममुक्तिफलानां हिरण्यगर्भायपासनावाक्यानामुपर्णतः । तथाहि-क्रश्चिद् वेदार्थाभिज्ञो नित्यायनुतिष्पमापरणाभ्यस्यमानकेवलहिरण्यगर्भोपासनायाः परिपाके मरणकाले 'अहं हिरण्यगर्भः' इति प्रत्ययोद्रेके देहं विसृज्यार्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकं गतो हिरण्यगर्भसापुज्यं गच्छति । सायुज्यमत्र 'सयुजो भावः' इति व्युत्पत्या भूतावेशन्यायेन हिरण्यगर्भशरीरे Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या-क० टोका एवं हिन्दी बियेचन ] ३५ चतुर्पखे उपास्योपासकयोस्वस्थानम्-इति केचित् । तन्न, सायुज्यशब्दस्य तादात्म्ये रूढत्वात् , योगाद् रूढलीयस्त्वात् । परिच्छिमलिङ्गस्योपासकस्याऽपरिच्छिालिङ्गोत्पादः' इत्यन्ये । तदपि न, सारूप्यलक्षणापत्तेः, परिच्छिमलिङ्गनाशे मानाभावाच । [हिरण्यगर्मादि की उपासना ने इनक शाम्ननों की शामि] वेवान्त सम्प्रदाय के मूलभूतग्रन्थ उपनिषदों में हिरण्यगर्भादि की उपासना के विधायक अनेक वाक्य उपलब्ध होते हैं। जिन में भिन्नकम से उपासकों को मोक्षप्राप्ति का वर्णन है । वह वर्णन जीवभेद मानने पर ही उपपन्न होता है। अर्थात् उपासक विभिन्न उपासना के अनुसार उत्तरोत्तर उत्कृष्ट-उत्कृष्टतर स्थितियों में पहुंचता हुआ अन्त में मोक्षसाधन की परिपूर्णता होने पर मुक्ति प्राप्त करता है। हिरवयगर्भ की उपासना का फल बताते हुए कहा गया है कि जो कोई मनुष्य वेद का अध्ययन और वेवार्थ का परिज्ञान करके नित्य-नैमित्तिक कमों का अनुष्ठान करते हये मरधुन होने तक केवल हिरण्यगर्भ की निरन्तर उपासना करता है-उपासना का परिपाक होने पर मृत्युकाल में उसे 'अहं हिरण्यगर्भः=मैं हिरण्यगर्भहूँ इस प्रकार हिरण्यगर्भ के साथ अपने ऐक्य का दृढ बोध उत्पन्न होता है और वह उसी समय वेह का परित्याग कर उपनिषदों में वर्णित 'प्रनि:' प्रादि मार्ग से ब्रह्मलोक में पहुंच कर हिरण्यगर्भ के साथ सायुज्य प्राप्त करता है। * उपनिषदो में मुमुच के लिये दो प्रकार की उपासनाओं का वर्णन है-निगुण ब्रह्मोपासना बार सगुण ब्रह्मोपासना ! इनमें सगुण ब्रह्म की उपासना के हिरण्य-गर्भ-विराट् आदि उपास्य के भेद से अनेक भेद बताये गये हैं । सगुण उपासना को क्रममुक्ति का उपाय कहा गया है । क्रममुक्ति के चार स्वरूप हैं - (१) सालोक्य (२) सामीप्य (३) सारूप्य (४) सायुज्य । (१) उपासक अपनी प्रथमोपासना का परिपाक होने पर वर्तमान देह का त्याग कर उपास्य के लोक में पहुंचता है। इसो को सालोक्य कहा जाता है-जिसका अर्थ है उपास्य को समानलोकता अधील पास्य के लोक में निवास प्राप्त करना। (२) सामीप्यः -प्रथमोपासना से अधिकतर उत्कृष्ट उपासना का परिपाक होने पर उपासक को उपास्य का सामीप्य प्राप्त होता है। अर्थात् वह उपास्य के लोक में पहुंचकर उपास्य के समीपवर्ती हो जाता है। (३) दूसरी उपासना से भी अधिकतर उत्कृष्ट उपासना के परिपाक से उपासक उपास्य का सारूप्य प्राप्त करता है। सारूप्य का अर्थ ह उपास्य के शरीर के समान लावण्य तारुण्यादि सम्पन्न शरीर की प्राप्सि। (४) सर्वोत्कृष्ट उपासना के परिपाक के फलस्वरूप उपास्यदेव के साथ सायुज्य प्राप्त करता है । सायुज्य का अर्थ है तादात्म्य । यह तादात्म्य वास्तव न होकर बौद्धिक होता है अर्थात् उपासक अपने को उपास्य से अभिन्न अनुभव करने के लिये अधिकृत हो जाता है। निर्गुण ब्रह्मोपासना से प्राप्तव्य मोक्ष उक्त चतुर्विध मोक्ष से भिन्न है। उसके दो भेद हैंजीवन्मुक्ति मोर विदेह मुक्ति । दोनों ही जीव ब्रह्म के ऐक्य के साक्षात्कार से प्राप्त होती है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ [ शास्त्रवार्ता ० स्त० ८ इलो० १ [ सायुज्य उपास्य के देह में सहावस्थान- एक मत ] यह सायुज्य क्या है ? इस सम्बन्ध में विद्वानों के अनेक मत हैं । कुछ लोगों का कहना है कि 'सयुओ भाव:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सायुज्य का अर्थ है एक शरीर में अवस्थान । क्योंकि "युनक्ति प्रवर्त्तयति स्वाधिष्ठातारं यत् तत् युक् - शरीरम् तस्य श्रात्मनि प्रवृत्त्याधायकत्वात्, समानं क ययोः तौ सयुज" इस व्युत्पत्ति के अनुसार सयुज् शब्द का अर्थ है एक शरीर में अवस्थित साधुज्य की इस के अनुसार दर के चतुर्मुख शरीर में उपास्य हिरण्यगर्भ का और उन के उपासक का सहायस्थान होता है । फलतः एक ही शरीर उपास्य और उपासक दोनों क्रियाशील होते हैं। यह स्थिति भूतावेशन्याय से सम्भव होती है । प्राशय यह है कि जैसे कोई भूत-प्रेतात्मा किसी जीवित मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है उसी प्रकार हिरण्यगर्भ का उपासक उक्त रीति से हिरण्यगर्भ के शरीर में अवस्थित होता है। किन्तु सायुज्य की यह व्याख्या समीचीन नहीं है, क्योंकि सायुज्य शब्द तादात्म्य में रूढ है और रूदि समुदायशक्ति योग यानी श्रवयवशक्ति से बलवती होती है। अतः सायुज्य शब्द से उषत अवयवप्रयं का बोध न मानकर तादात्म्यरूप रूढ अर्थ का बोध मानना ही उचित है । [ अधिक शक्ति संपन्न लिंगशरीर की प्राप्ति-सायुज्य, दूसरा मत ] अन्य विद्वानों के मत में सायुज्य का अर्थ है परिच्छिन लिंग शरीर का त्याग कर अपरिच्छिन लिंग शरीर की प्राप्ति । तात्पर्य यह है कि उपासक उपासना का परिपाक होने पर उक्त रीति से जब ब्रह्मलोक में पहुंचता है तब उसका पहले का लिंग शरीर जो प्राप्तव्यलिङ्ग शरीर की पेक्षा अल्पशक्तिक होने से परिषि कहा जाता है उस का त्याग कर देता है और मये परिच्छिल अधिक शक्ति सम्पल लिङ्ग शरीर को प्राप्त करता है । किन्तु यह व्याख्या भी ठीक नहीं है क्योंकि सायुज्य शब्द का उक्त अर्थ सारूप्यात्मक है । श्रतः यह सायुज्य शब्द को लक्षणा से ही प्राप्त हो सकता है और अभिधा की अपेक्षा लक्षणा बिलम्ब से अर्थ बोधक होने के कारण निन्द्य वृत्ति है | अतः प्रशस्तवृत्ति से अर्थबोध सम्भव रहने पर निवृत्ति से अर्थबोध का अभ्युपगम अनुचित है । तथा दूसरी बात यह है कि ब्रह्मलोक में उपासक के परिच्छिन्नलिङ्गशरीर का नाश होता है उस में कोई प्रमाण नहीं है और आत्मतत्वसाक्षात्कार के पूर्व उस का नाश सम्भव ही नहीं है । क्योंकि वह ब्रह्मविषयक मूलाज्ञान मूलक है अत एव मूलाज्ञान के रहते उस का नाश अशक्य है । परे तु - 'अपरिच्छिन्नमेकमेव समष्टिलिङ्गं पाप्माऽऽसङ्गादिदोषेण भ्रान्त्या परिच्छितां तपासनया पाम दिनिवृत्तौ स्वरूपेणावतिष्ठते, तेन जीवस्य ब्रह्मभाववद् हिरण्यगर्भ सायुज्यम्' इत्याहुः । तदपि न, लिङ्गस्यैकत्वेन तस्य हिरण्यगर्भान्तिमतस्त्रज्ञानेन नाशे क्रममुक्रिफलसम पासवाक्यमादिह श्रवणाद्यनुपपत्तेः । क्रममुक्तिपात्राङ्गीकारे उपासनाविचारस्यैव कर्तव्यत्वेन ब्रह्मविचारस्याऽकिश्चित्करत्वप्रसङ्गाच्च । अपरिच्छिन्नलिङ्गानेकत्वेऽपि सायुज्य शब्ददय सारूप्ये लक्षणापतिः । परिस्थि परिच्छिन्नेन तादात्म्यमिति चेत् १ न, सर्वरूपे स्थितेऽन्यस्यान्यात्मतानुपपत्तेः, नाशे मानाभावाच्च । संकोच विकाशवक्षस्त्वत्यन्ताऽप्रामाणिकः । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टोक एवं हिन्दी विवेचन ] तस्माद् यथावस्थितलिङ्गस्यैवोगसकस्योपासनाफलं समष्टिलिङगे हिरण्यगर्भे देहादारिवानिर्वचनीयतादात्म्यम् उपासनादशायां 'हिरण्यगर्भोऽहम्' इति प्रातिभप्रत्ययाद् विलक्षणस्य सायुज्य. दशायामप्रातिभस्य तत्प्रत्ययस्य फलभूतस्य विषया-इति वदन्ति । [ सायुज्य = उसरे स्वरूप में किसी एक का अवस्थान-तृतीय मत ] अपर विद्वानों के मत से सायुज्य का अर्थ है कि किसी एक का दूसरे के स्वरूप से अषस्थान । इस के अनुसार हिरण्यगर्भ के साथ जीव के सायुज्य का अर्थ है जीव को हिरण्यगर्भ के स्वरूप की प्राप्ति। उन के कहने का प्राशय यह है कि जैसे अद्वितीय ब्रह्म ही पाप्मन् यानी अविद्या के सङ्ग से जीवभाव को प्राप्त होता है और ब्रह्म के प्रखण्ड साक्षात्कार से प्रविद्या प्रादि की निवृत्ति होने पर जीवभाव को प्राप्त चैतन्य जोवभाव को त्यागकर अपने ब्रह्मस्वरूप से प्रवस्थित होता है। उसी प्रकार वास्तव में एक हो अपरिच्छिन्न लिङ्ग है जो हिरण्यगर्भ का लिङ्ग है और वही परिच्छिन्न लिङ्गसमूह का मूल होने से समष्टिलिङ्ग कहा जाता है। वह अपरिच्छिन्नलिङ्ग पाप के प्रासङ्गरूप दोष से भ्रमवश वश परिच्छिन्न होकर अनेक हो जाता है उन परिच्छिन्न लिडों से युक्त चंतन्य ही जीव है । जब जीव हिरण्यगर्भ को उपासना से पापसंगात्मक दोष को नष्ट कर देता है तो उस का परिच्छिन्नलिङ्ग नष्ट हो जाता है और वह हिरण्यगर्भ के अपरिच्छिन्नरूप से अवस्थित हो जाता है। हिरण्यगर्भ के अपरिच्छिन्न लिङ्ग शरीर से जीव का यह अवस्थान हो हिरण्यगर्भ के साथ जीव का सायुज्य है ।-किन्तु विचार करने पर यह भी समीचीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि जब लिङ्ग एक ही होगा तो हिरण्यगर्भ के अन्तिम होने पर जीव को क्रममुक्ति ही सम्भव हो सकेगी। फलतः प्रात्मा के श्रवण-मनन प्रादि का अनुष्ठान निरर्थक होगा क्योंकि श्रवणादि से प्रक्कममुषित होती है और उक्त मत में क्रममुक्तिफलक उपासना बोधक वषयों के प्रामाण्य के अनुरोध से क्रममुषित मानना अनिवार्य है। यदि यह कहा जाय कि-"उपनिषद का तात्पर्य क्रममुक्ति के होप्र तिपादन में है-ग्रक्रममुक्ति उपनिषद् का अभिमत नहीं है तो यह कहना उचित नहीं हो सकता । क्योंकि उस स्थिति में उपासना सम्बन्धी विचार हा कर्तव्य होने से ब्रह्मविचार व्यर्थ होगा। सायुज्य = अपरिच्छिन्न लिंग की प्राप्ति-चीथा मत ] यहि यह माना जाय कि-'अपरिच्छिन्नलिङ्ग एक नहीं किन्तु अनेक है । जीव को उपासना से अपरिहिछन्न लिड का त्याग होने पर अपरिच्छिन्न ब्रह्मलोक में अपरिच्छिन्नलिजकी प्राप्ति होती है और इस अपरिच्छिन्नलिङ्ग का लाभ ही हिरण्यगर्भ का सायुज्य है"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में सारूप्य में सायुज्यशब्द को लक्षणा माननी पड़ती है। क्योंकि हिरण्यगर्भ के अपरिच्छिन्न लिङ्ग के सदृश अपरिच्छिन्नलिङ्ग की प्राप्ति सारूप्य से भिन्न नहीं हो सकती। [ सायुज्य = अपरिच्छिन्न लिग के साथ तादात्म्य-पांचवाँ मत ] यदि यह कहा जाय कि उपासना द्वारा ब्रह्मलोक में पहुंचने पर उपासक के परिच्छिन्नलिङ्ग का त्याग नहीं होता किन्तु उसका अपरिच्छिन्नलिङ्ग के साथ तादात्म्य हो जाता है"-तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि कोई एक वस्तु अपने सभी रूप के रहते हुए अन्य वस्तु से अभिन्न नहीं हो Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ [ शास्त्रवा०ि स्त०८ श्लो० १ सकती और 'उस के सभी व्यावर्तक स्वरूपों का नाश हो जाता हैं यह घात प्रमाण के अभाव में मान्य नहीं हो सकती। एवं यह बात भी अप्रमाणिक होने से मान्य नहि हो सकती कि-'उपासना के परिपाक के पूर्व उपासना का लिगशरीर संकधित रहता और उपासना के बल से सहयलोक में पहुंचने पर विकसित हो जाता है । बहालोक में उसके लिंगशरोर का यह विकास हो हिरण्यगर्भ के साथ सायुज्य है।'-क्योंकि संकोच-विकास अत्यन्त प्रप्रामाणिक है । [सायुज्य = उपास्य-उपासक का अनिर्वचनीय तादात्म्य-सिद्धान्त मत ] इस प्रकार सायुज्य के उक्त सभी लक्षण दोषग्रस्त होने से सिद्धान्तवेत्ता विद्वानों ने सायुज्य का अर्थ यह बताया है कि जैसे संसारदशा में देहादि में जीव का अनिर्वचनीय तावारम्य होता है उसी प्रकार ब्रह्मलोक में पहुंचे हुये अपने ही लिंगशरीर से युक्त उपासाक का हिरण्यगर्भ के सम टिलिंगोपेत हिरण्यगर्भ में अनिर्वचनीय तादात्म्य उत्पन्न होता है। यह तावात्म्य ही उसकी उपासना के फलस्वरूप उपास्य और उपासक में मेवज्ञान के निरोधरूप दोष से उत्पन्न होता है । उस स्थिति में उपासक को हिरण्यगर्भ के साथ उस अनिर्वचनीय तावात्म्य को जो प्रतीति होती है वह अप्रातिभ यानी भावनाजन्य न होने से उपासनादशा में होनेवाली हिरण्यगर्भोऽहं इस प्रकार की प्रातिभ यानी भावनाजन्य प्रतीति से विलक्षण होती है। इस प्रकार उपासना के फलस्वरूप उक्त प्रतीति काविषयभूत उपासक और हिरण्यगर्भ का 'अनिर्वचनीय तावात्म्य हो हिरण्यगर्भ के साथ उपासक का सायुज्य है। ___ अन्यस्तूपासनाया अपरिपाके हिरण्यगर्भसालोक्यादि गछति ।पर्यस्त्वहैव श्रवणादिपरिपाकोत्प. मज्ञानोमुच्यते । अपरन्तु श्रवणादिपरिपाकेऽपि प्रारब्धप्रतिबन्धेनानुत्पनझानस्तनाशे शरीरनाशाद् योन्यन्तरगतोगर्भस्थदेहाभिव्यक्तौ प्रथममेव 'अहं ब्रह्मास्मि' इति प्रत्ययं लभते वामदेवषत् । अन्य: पुनः साधनसंपन्नः श्रवणाद्यभ्यासे क्रियमाणे मध्ये मृतः श्रवणाधभ्याससामोबुद्धपूर्वशुभकर्मफलानि पहुकालं मुक्त्वा शुचीनां श्रीमती योगिनां वा कुले उत्पमा पूर्वाभ्यासवशेन पुनः प्रारब्ध. श्रवणाद्यभ्यासपरिपाकलब्धज्ञानो विमुच्यत इति । एवं विराडाद्युपासकानां विराडादिसायुज्यप्रामिः, प्रतीकोपासकानां च विद्युल्लोकप्राप्तिाख्येया । [ उपासना के परिपाक-अपरिपाक, पूर्णता-अपूर्णता का विविध प्रभाव ] अन्य व्यक्ति जिसे हिरण्यगर्भ की उपासना का पूरा परिपाक नहीं हया वह हिरण्यगर्भ के साथ सालोक्यादि अन्य मुक्ति को प्राप्त करता है । जो व्यक्ति आत्मश्रवण-मननावि के अभ्यास में निरन्तर च्याप्त रहता है उसे श्रवणादि के परिपाक से इस लोक में ही आत्मतत्त्वज्ञान की प्राप्ति होने पर शीघ्र विदेहमुक्ति प्राप्त होती है। कोई व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका प्रारब्धकर्म श्रवणादि का परिपाक होने पर भी अवस्थित रहता है ऐसे व्यक्तिओं को प्रारब्ध रूप प्रतिबन्धकवश प्रात्म तस्व का साक्षात्कार नहीं उत्पन्न होता। जब भोग से प्रारब्ध का नाश होकर विद्यमान शरीर का नाश होता है तश्च अन्य योनि में पहुंचने पर गर्भस्य देह के पूर्ण होते ही सर्व प्रथम उन्हें गर्भावस्था में 'अहं ब्रह्माऽस्मि' इस प्रकार ब्रह्मात्मैक्य बुद्धि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] हो जाती हैं और वह उसी अवस्था में मुक्त हो जाते हैं ऐसे मुक्तों में वामदेव ऋषि का नाम शास्त्रों में चिरचित है । दूसरे कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो शमदमादि साधनों से सम्पन्न होते हैं और श्रवणमननादि के अभ्यासकाल के मध्य में ही मर जाते हैं वे श्रवणादि श्रभ्यास के सामर्थ्य से उद्बुद्ध हुये पूर्वोपार्जित शुभकर्मों के फलों का स्वर्गलोक में लम्बे समय तक भोग कर पवित्र चरित्रोपेत धार्मिक श्रीमन्तों के कुल में प्रथवा (कर्म) योगीओं के कुल में जन्म पाते हैं और पूर्वजन्म में किये श्रवणादि के अभ्यास से पुनः नये जन्म में भी श्रवणादि का अभ्यास प्रारम्भ करते हैं और उस का परिपाक होने पर मुक्त जाते हैं । हिरण्यगर्भ के उपासकों के समान विराट् प्रावि के उपासकों को भी विराट आदि के सायुज्य की प्राप्ति होती हैं । किन्तु जो हिरण्यगर्भादि की साक्षात् उपासना न कर उन के प्रतीकों की उपासना करते हैं उन्हें ब्रह्मलोकादि से होन कक्षा वाले विद्युल्लोक की प्राप्ति होती है। ३६ I अन्ये स्वनैक्याद तदुपहितं जीवमेकमेवाङ्गीकुर्वन्ति । तेषामुपासकानां क्रममुक्तिफलश्रवणमवादमात्रम् । चित्तैकाये तूपासनोपयोगः कर्मानुष्ठानवत् । न चिन्तिमप्रत्ययोत्यन्या फलमुपासनम्, जीवैकत्वेऽप्यन्तः करणभेदेन प्रमादमेदाद वोपासनोपपत्तिः केषाञ्चित् प्रमातृणामनुष्ठितोपासनापरिपाके ब्रह्मलोकं गतानां यावत्कल्पमवस्थाय कल्पान्तर आवृतेः "हमें मानवमावर्त नावर्तते" इति श्रुतौ 'इयम्' इति विशेषणादेतत्कल्प एवानावृत्तिपर्यवसानात्, अन्यथैतद्विशेषणानुपपत्तेः । वाम दीनां मुक्तस्वभवणं काल्पनिकाभिप्रायम्, नित्यमुक्तत्वाभिप्रायं वा । न चानाश्वासः श्रुतेः प्रामाण्यात्. अनेकजीववादेऽद्ययावत् कस्यचिदमुक्तत्त्रवत् एक जीववादे सर्वस्य तत्त्वोपपत्तेः । तदेवं निरूपितो जीवः । [ उपाधिभूत अज्ञान एक होने से जीव भी एक ] वेदान्तदर्शन में जोवनानात्व पक्ष के समान जीवैश्य पक्ष भी एक प्रसिद्ध पक्ष है जो वेदान्तदर्शन का सिद्धान्तदक्ष बहा जा सकता है इस पक्ष के समर्थक विद्वानों का कहना है कि ब्रह्मविषयक अज्ञान एक हो है और उस से उपहित चैतन्य ही जीव है । अत: उपाधि एक होने से जीव भी एक ही है। इस मत में क्रममुक्ति मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि मुक्त होने वाला जीव एक हो है अतः उपनिषदों में जो उपासकों को उपासना से प्राप्त होने वालो क्रममुक्ति का वर्णन है वह अर्थवादमात्र है अर्थात् उसका तात्पर्य फल की सुलभता बताकर फलोपाय के अनुष्ठान में जीव को प्रवृत करने के लिये है । इस मत में कर्मानुष्ठान के समान उपासना का भी फल है 'वित्त की एकाग्रता का सम्पादन' अन्तिम श्रात्मतत्त्व साक्षात्कार का उत्पादक होने से यह कर्मानुष्ठान फलप्रद है - ऐसा नहीं । इस पक्ष में यद्यपि जीव एक है तथापि वह अज्ञानोपहित चैतन्यरूप में प्रमाता नहीं होता, किन्तु अन्तःकरणोपहित चैतन्य के रूप में प्रमाता होता है। अतः अन्तःकरण के भेव से प्रमाता का भेद हो जाता है और इस भेद के द्वारा उपासना आदि की सार्थकता होती है । फलतः कुछ प्रमाता अनुष्ठित उपासना का परिपाक होने पर ब्रह्मलोक में जाते हैं और वर्तमान कल्प की पूरी अवधि तक वहाँ रहकर नये कल्प में वहाँ से मनुष्यलोक में लौटते है । ऐसा मानने में इमं मानवमावर्त्त नावर्त्तते' इस श्रुति का कोई विरोध भी नहीं होता क्योंकि इस श्रुति में सामान्यरूप से प्रत्यावर्त्तन का निषेध न कर 'इ' शब्द से वर्त्तमान कल्प में ही प्रत्या Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ इलो० १ वतन का निषेध किया गया है । क्योंकि यदि सामान्यतः प्रत्यावर्तन के निषेध में उक्त श्रुति का तात्पर्य माना जायगा तो आवर्स के 'हम' इस विशेषण की उपपत्ति न हो सकेगी। इस मत में यतः जीव एक ही है अतः अभी तक मोक्ष का होना प्रसिद्ध है । वामदेवादि को जो शास्त्रों में मुक्त कहा गया है उसका तात्पर्य कल्पित बामदेवादि के काल्पनिक मुक्ति के प्रतिपादन में है । अथवा यह कहा जा सकता है - जीव का तात्पर्य बद्ध जीव के ऐक्य के प्रतिपादन में है किन्तु जीव नित्य मुक्त भी हैं । शास्त्रों में वामदेवrfat की नित्यमुक्त जीवों के रूप में चर्चा की गयी है । ४० यदि यह कहा जाय कि-'यदि अब तक किसी जीव की मुक्ति नहीं हुई तो भविष्य में भी जीव की मुक्ति होने का विश्वास नहीं होगा । फलतः मोक्षोपाय के अनुष्ठान में मनुष्य की प्रवृत्ति का उच्छेद हो जायगा' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेद प्रमाण होने से जीव की भावो मुक्ति पर विश्वास होना अनिवार्य है। दूसरी बात यह है कि जैसे अनेक जीववाव पक्ष में यह माना जा सकता है कि अनादिकाल में संसार में मोक्ष का प्रयत्न होते रहने पर भी ऐसे जीव हैं जो अभी तक मुक्त नहीं हुये, उसी प्रकार एकजीववाद में यह भी मानना सर्वथा युक्तिसंगत है कि अभी तक किसी की मुक्ति नहीं हुई। जीव का यह संक्षिप्त निरूपण है । तत्रान्तःकरणमध्यस्यते 'अहम्' इति, रज्ज्वामिव सर्पः । निरुपाधिकोऽयमध्यासः, उपाधरेनिरूपणात् । 'अइमश:' इति स्वहंकारा - ऽज्ञानयोरेक चैतन्याभ्यासात्, एका सिंबन्धाद् दग्धृत्वायो 'भयो । करणं स्मृतिप्रमाणवृत्तिसंकल्पविकल्पाहंवृरयाकारेण परिणतं चित्र-बुद्धि-मनो- ऽहङ्कारशब्देर्व्यवहियते । इदमेवात्मतादात्म्येनाध्यस्यमानमात्मनि सुख-दुःखादिस्वधर्माध्यासे उपाधिः, स्फटिके जपाकुसुममिव लौहित्यावभासे । एवं प्राणादयएतद्धर्माश्वाशनीया-पिपासादयः, तथा, श्रोत्रादयो वागादयश्च तद्धर्माश्च बधिरत्व- मृकत्वादयोऽध्यस्यन्ते, तथा देहस्तद्धर्माश्च स्थूलत्वादयः । तत्रेन्द्रियादीनां न तादात्म्याध्यासः, 'अहं श्रोत्रम्' इत्यप्रतीतेः, देहस्तु 'मनुष्योऽहम्' इति प्रतीतेस्तादात्म्येनाध्यस्यते । [ 'अहं' बुद्धि का उत्पादक अन्तःकरणाध्यास | रज्जु में सर्प के समान जोव में अन्तःकरण का अध्यास होता है जिस से 'अहं' इस प्रकार बद्धि उत्पन्न होती है । यह अध्यास निरुपाधिक है क्योंकि इस के उपपादक उपाधि का निरूपण अशक्य है । अहंकार और अज्ञान का एक चैतन्य में प्रध्यास होने से दोनों का सामानाधिकरण्य हो जाता है । इसलिये 'अहमश:' इस प्रकार की बुद्धि होती है। यह उसी प्रकार उपपन्न होती हैजैसे एक अग्नि में दाहकत्व और अयस् लोह का सम्बन्ध होने से 'श्रयो दहति' लोह दाह करता है' इस प्रकार की बुद्धि होती है । अन्तःकरण स्मृतिरूप वृत्ति के प्राकार में परिणत होने पर चित्त, एवं प्रमाणभूतवृत्ति के प्राकार में परिणत होने पर बुद्धि, तथा संकल्प विकल्पात्मकवृत्ति के प्रकार में परिणत होने पर मन और 'अहमाकार' वृत्ति के आकार में परिणत होने पर अहंकार शब्द से व्यवहुत होता है - इस प्रकार अन्तःकरण के वृतिभेदमूलक घार भेद हैं। यह अन्तःकरण हो आत्मा में तादात्म्य से अध्यस्त होकर उस में सुख-दुःखादि अपने धर्म के अध्यास में उसी प्रकार उपाधि = = Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन } होता है जिस प्रकार स्फटिक में लोहित्य के अवभास में जपापुष्प उपाधि होता है । अतः आस्मा में सुख-दुःखादि का अध्यास सोपाधिक अध्यास कहा जाता है। इसी प्रकार प्राणादि और उन के भूख-प्यास श्रावि धर्म भी श्रात्मा में अध्यस्त होते हैं-मन में प्राणादि का अध्यास निरुपाधिक और भूखप्यास का अध्यास सोपाधिक होता है। श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रिय और 'वा' आदि कर्मेन्द्रिय तथा उनके अधिरस्यादि और सूकत्यादि धर्म भी आमा में श्रध्यस्त होते हैं। तथा देह मौर: बेहधमं स्थूलस्थादि भी आत्मा में अध्यस्त होते हैं। इन्द्रिय और देह के अध्यास में अन्तर यह है कि इन्द्रियादि का आत्मा में तादात्म्याध्यास नहीं होता किन्तु संसर्गाध्यास होता है। इसीलिये 'अहं भोत्रम्' 'अहं चक्षुः ' स्यादि प्रतीति न होकर 'अहं सकर्णः, 'अहं चक्षुष्मान्' इत्यादि प्रतीति होती है। किन्तु बेह का वादात्म्येन भी अध्यास होता है। इसीलिये 'मनुष्योऽहं' यह प्रतीति होती है । ननु कथमज्ञानादीनामभ्यस्ततथा प्रतीतिः, न तावदभ्यक्षा, इन्द्रियाऽजन्यत्वात् नाप्यनुमितिः, लिङ्गाद्यननुसंधानेऽपि मात्रात् ? इति चेत् ? उच्यते, चिदात्मनोऽज्ञानोपहितस्य साचित्वेन तस्य माझ्यसंसर्गेमात्रमपेक्ष्याज्ञानादीनामाध्यासिक संसर्गभासकत्वात् तदवभासः । तेन यावद् विषयस 'अहमज्ञः, सुखी, दुःखी, मनुष्यः' इति भासमानत्वाद् न कदापि संदेहः । स चापरोक्षैकस्वभावः, अभ्यस्ताऽधिष्ठानयोरमेदेन संविदभिनत्वात् । संविदभेदो ह्यपरोचता नाम । स च नाऽनिर्वचनीयतादात्म्यस्वरूपः तादात्म्य संसर्गादीनामपरोक्षत्वाभावप्रसङ्गात्, तंत्र तादात्म्यान्तराभावात्, किन्तु - क्तलक्षण एवेति । [ अज्ञानादि की प्रतीति तदुपहित चैतन्यरूप साथि से ] इस संदर्भ में यह प्रश्न होता है कि- अज्ञानादि की आत्मा में जो श्रध्यस्तरूप में प्रतीति होती है वह किस रूप में सम्भव हो सकती है ? क्योंकि उसे इन्द्रिय से अजन्य होने के कारण प्रत्यक्षात्मक और लिङ्गादि का ज्ञान न होने पर भी उत्पन्न होने के कारण अनुमितिरूप नहीं माना जा सकता । इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्तीओं का कहना है कि आत्मा में अज्ञानादि की प्रतीति अज्ञानोपहित चैतन्य रूप साक्षी से उत्पन्न होती है क्योंकि उसे अपने विषय की प्रतीति के जनन में अपने विषय के संसर्गमात्र की अपेक्षा होती है। अज्ञानादि का साक्षी में प्राध्यासिक संसगं होता है इस एवं उस संसर्ग का भातक होने से साक्षी अज्ञानादि का भी श्रवभासक होता है। साक्षी विषय की सत्ता जितने काल तक होती है उतने काल तक विषय का अवभासक होता है। इसलिये ग्रहमज्ञः, सुखी, दुःखी, मनुष्य:' इस प्रकार का साक्षीजन्य प्रत्यक्ष अज्ञातावि विषयों के प्रस्तिस्वकाल तक होने के कारण 'प्रमशो न वा' 'सुखी न वा' इस प्रकार का संदेह कदापि नहीं होता 1 साक्षिभास्य अज्ञानादि समस्त पदार्थ स्वभावतः अपरोक्ष होता है क्योंकि प्रध्यस्त अज्ञानावि और अधिष्ठानभूत चैतन्य इन में अभेद होने से संबिद् से अभित्र होता है और यह अपरोक्षता ही संविद् का अभेद है। अज्ञानादि में संविद का जो अभेद होता है वह अनिर्वचनीय तावात्म्यस्वरूप नहीं होता क्योंकि पfa वह अनिर्वचनीय होगा तो उस में अपरोक्षत्वाभाव प्रसक्त होगा। क्योंकि तादात्म्य में संविद्का अन्य तादात्म्य न होने से उस में संविद् अभवरूप अपरोक्षता नही हो सकती । श्रतः संविद् Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] शास्त्रवाता० स्त०८ श्लो०१ का अभेद अपरोक्षसा रूप ही है । कहने का आशय यह है कि संविद् अपरोक्ष है और उस में प्रध्यस्त होने वाला पदार्थ भी अपरोक्ष है-यह अपरोक्षता ही संविद का अभेद है। नन्वेवं घटस्य संविदभिन्नत्वाऽभावात् परोक्षत्वमापद्यत इति चेत् ? किमीश्वरस्य, जीवस्य वा १ । माघः, ब्रह्मण्यभेदेनाध्यस्तत्वाद् घटादीनाम् । नापि द्वितीयः, तथाहि-परिच्छिमजीवपो तापदिन्द्रियद्वारा निःसृतान्तःकरणवृत्या संसृष्टो घटा घटसंसृष्टा वा वृत्तिः प्रमातचंतन्यस्य घटावाच्छभनन्न चैतन्यावरणनिवृत्ती तदज्ञाननिवृत्ती वा तदुभयाभावपक्षोऽनिवृत्तौ वा विषयचैतन्याऽभेदेनाभिव्यक्तिहेतु: संपद्यते । ततः स्वाध्यस्तो घटः सुखचदपरोषः । सुखं साक्ष्यपरोक्षम्, घटः प्रमाणाऽपरोक्ष इत्येतावान भेदः । अपरिच्छिन्नजीवपक्षेऽप्यसङ्गस्य जीवचैतन्यस्य घटोपरागार्था वृत्तिः । उपरागस्तु न संयोगादिः, मानाभावात्. किन्तु स्वाध्यस्तत्वमेव । तच्चात्र पो व्यवहारसौकर्याय घटावच्छिनचैतन्ये वावरणान्तराज्ञानान्तराऽस्वीकाराद् वृत्तस्तनिवृत्त्यर्थस्वाभावेऽपि जीवचैतन्यस्याऽसङ्गत्यात् घटानधिष्ठानत्वाच्च न वृत्तेः प्राग घटसंबन्धः । अन्तःकरणवृत्तिस्तु जीवेऽभ्यस्तेति तया सह संबन्ध एव, इतीन्द्रियद्वारा निःसृतान्तःकरणवृत्या संसृष्टे घटे पटसंस्ष्टायां वा वृत्तौ जीवचैतन्यविषयाधिष्ठानचैतन्याऽभेदापत्येति । [ईश्वर और जीव के प्रति घटादि की अपरोक्षता का उपपादन ] उक्त प्रतिपादन के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है-यदि अपरोक्षता संविअभेदरूप है तो घट में संविद् का प्रभेद न होने से उस में परोक्षत्व की प्रापत्ति होगी। इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्ती का कहना है कि यह आपत्ति प्रसंगत है, घटादि में ईश्वर के प्रति परोक्षत्व का आपादान नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्म में घटादि पदार्थ तादात्म्येन प्रध्यस्त है, अतः घटादि में ब्रह्माऽभिन्न संविद् का तादात्म्य होने से अपरोक्षता निर्बाध है। इसी प्रकार जीव के प्रति भी घटादि के परोक्षता की अपात्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जोव के सम्बन्ध में दो मत हैं- एक यह है कि 'जोय परिच्छिन्न अर्थात अव्यापक होता है और दूसरा मत यह है कि 'जोव अपरिच्छन्न यानी व्यापक होता है।' इन मतों में प्रथम मत में घटादि में जीव के प्रति परोक्षत्व की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि जीव को घट का प्रत्यक्ष होता है । बह इस प्रकार होता है कि घटादिविषय के साथ जब इन्द्रिय का संनिकर्ष होता है तो शरीर के भीतर जो घटादियिषयाकार अन्तःकरण की वृत्ति उत्पन्न होती है वह इन्द्रियरूप मार्ग से बाहर निकल कर घटादि विषय से सम्बद्ध होती है। इस सम्बन्ध से प्रभातृचतन्य के घटाचवच्छिन्नब्रह्मचैतन्यनिष्ठावरण की अयवा घटाचवच्छिन्नब्रह्मचैतन्य विषयक अज्ञान को निवृत्ति होती है । वि घटाधवछिन्न ब्रह्मचैतन्यगत प्रावरण अथवा उक्त चतन्यविषयक अज्ञान नहीं रहता तो आवरण या प्रज्ञान की निवृत्ति नहीं होती किन्तु वृत्तिचैतन्य और प्रमातृ चैतन्य का विषयचैतन्य के साय अभेद हो आने से उक्त वृत्ति से घटादि विषय की प्रत्यक्षात्मक अभिव्यक्ति होती है । १. बृत्ति चैतन्यरूप प्रमाणचैतन्य, और २, अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्यरूप प्रमात चंतन्य, एवं ३. घटावच्छिन्न चैतन्यरूप विषयचंतन्य,-ये तीनों यद्यपि उपाधि के भेद से भिन्न होते हैं, किन्तु विषयचैतन्य के प्राधारभूत देश में अतःकरण की वृत्ति और वृत्तिरूप से अन्तःकरण के पहुंचने पर तीनों उपाधि एकदेशस्थ हो जाती है, अत एव तीनों से अवच्छिन्न चैतन्य एक हो जाता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विधेचन । क्योंकि उपाधि अथवा अवच्छेवक में क्रमशः उपहित अथवा अवच्छिन्न की भेवकता तभी होती है जब विभिन्न देशस्थ होते हैं, किन्तु अब वे एकवेशस्थ होते हैं तब वे उपहित अथवा अवच्छिन्न के उसी प्रकार भेवक नहीं होते जैसे ग्रह के बाहर रखे हुये घट परस्परावच्छिन्न स्वकाल में परस्परोपहिताकाश के भेदक होने पर भी गृह में पहुंच जाने पर ये सब एक ही गृहाकाश के अवच्छेदक होते हैं। इस प्रकार उक्त रोति से परिच्छिन्न जीव को भी घटादि का प्रत्यक्ष होने से उस के प्रति घटादि के परोक्षस्व की 'भापति नहीं हो सकती । म घटादि पदार्थ मातृ चैतन्य में उक्तरीति से अध्यस्त हो जाने से उसी प्रकार अपरोक्ष होता है जैसे सुख-दुःखादि अपरोक्ष होते हैं । सुखादि और घटादि की अपरोक्षता में अन्तर केवल इतना ही है कि सुखादि साक्षी द्वारा अपरोक्ष होता है और घटादि प्रमाण द्वारा अपरोक्ष होता है। [ अपरिच्छिन्न जीव पक्ष में घटादि की अपरोक्षता । जीव को अपरिच्छिन्नता अर्थात् व्यापकता पक्ष में भी घटादि में जीव के प्रति परोक्षत्व की अापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इस पक्ष में भी जीव को घटावि का प्रत्यक्ष होता है जैसे अपरिच्छिन्न जीव चैतन्य प्रसङ्ग है। किन्तु जीव के अन्तःकरण की घटाद्याकारवृत्ति घट से सम्बद्ध होकर जीव चैतन्य का भी घटादि के साथ उपराग सम्बन्ध सम्पन्न करती है और वह सम्बन्ध वित प्रमाण न होने से संयोगादिरूप न होकर स्वाध्यस्तत्वरूप होता है। अर्थात्, जब मन्तःकरण की वृत्ति द्वारा जीय चैतन्य का घदादि के साथ सम्बन्ध होता है तब जीव चैतन्य और घटादि उपाधि एकत्र संनिहित होने से दोनों से उपहित चैतन्य में अभेद हो जाता है, अतः घटादि जैसे स्वावच्छिन्न चंतन्य में अध्यस्त होता है उसी प्रकार उस चैतन्य से अभिन्नता को प्राप्त जीवचैतन्य में भी अध्यस्त हो जाता है। इस प्रकार घटादि विषय जीवनिष्ट हो जाने से जीव को उस का प्रत्यक्ष होता है । अतः घटावि में अपरिच्छिन्न जीव के प्रति परोक्षता का पापादन नहीं हो सकता। [ अन्तःकरणत्ति के साथ जीव सम्बन्ध का स्पष्टीकरण ] अभिप्राय यह है-इस पक्ष में व्यवहारसरलता के लिये घटाचवच्छिन्न चैतन्य में जीवचैतन्य का प्रावरण अथवा अज्ञान नहीं माना जाता । अतः उन की निवृत्ति घटादिविषयाकारवृत्ति का प्रयोजन नहीं होता। किन्तु जीवचैतन्य असङ्ग है, अतः घटादि का अधिष्ठान न होने से घटाधाकार वृत्ति होने के पूर्व घटादि के साथ जीव चैतन्य का सम्बन्ध नहीं होता किन्तु अन्तःकरण को वृत्ति जोयचंतन्य में ही अध्यस्त होती है अतः उस के साथ जीव का सम्बन्ध होता है । जब इन्द्रिय द्वारा निकल कर अन्तःकरण की वृत्ति घटादि को संसृष्ट होती है तब घट में अथवा घटाकार वृत्ति में जीवचंतन्य और विषयचैतन्य में प्रभेद हो जाता है। क्योंकि घटरूप एक देश में स्वसम्बद्धवत्तिसंसर्ग द्वारा जीवचतन्य का और विषयचैतन्य का आध्यासिक सम्बन्ध से संनिधान हो जाता है, एवं वृत्ति में घट का सम्बन्ध होने से घटावच्छिन्न चैतन्य का और जोषचंतन्य का प्राध्यासिक सम्बन्ध होने से संनिधान हो जाता है अत एव घटात्मक अथवा वृत्तिआस्मक एक देश में विषयचंतन्य और जीव चतन्य का अभेव उपपन्न होता है और इसी से घटादि पदार्थ जीव के प्रति अपरोक्ष होता है। अथ ब्रह्माध्यस्तो घटः प्रमाणवृत्या जीवाध्यस्तो भवतीत्येवाभ्युपेयम् , किमुभयचैतन्या:भेदापच्या ? इति चेत् १ न वृत्तेहिनिःसरणाभ्युपगमवैयर्थ्यप्रसङ्गात् , तदनुपगमे च बहिःस्थस्प Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त०८ श्लो० १ घटस्य कथमन्तःकरणोपहिते जीवचैतन्येऽभ्यासः १ 'घटाऽव्यवहिततया घटावच्मिजीव चैतन्यस्याऽसङ्गस्याभ्यासिकघटसंसर्गार्थं तदुपगम' इति चेत् १ तथा सति ब्रह्माध्यस्तघटसंसर्गो जीव चैतन्ये उत्पन्नः प्रामाणषुच्येति स एव जीवाऽपरोक्षः स्याद् न घटः । न हि देशान्तरीयरजततादात्म्योत्पत्तावपि रजतापरोक्षत्वं सिध्यति । लौहित्यस्य त्वपरोक्षदशायां संसर्गः स्फटिके जायते, गृप - माणारोपत्वादिति न संसर्गाऽपरोक्षत्वेन संसर्गिणोऽपरोक्षत्वम् । किञ्च, उत्पद्यमानः संसर्गोऽनिर्णचनीयः प्रातिभासिको न प्रमाणिकः संभवति, विरोधात् । तस्माद् न जीवचैतन्ये घटोपरागः प्रमाणश्या जायते किन्त्वाप्यासिक संबन्धेन, घटस्फोरकघटाधिष्ठान चैतन्येन जीव चैतन्यस्योक्वोपाधाव मेदोऽभिव्यज्यते । इत्येवं स्वाध्यस्ततया घटाऽपरोक्षत्वम् । | जीवचैतन्य - विषयचैतन्य में अभेद अवश्यमंतव्य है ] उक्त निरूपण के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि "ब्रह्माध्यस्त घट प्रमाणवृत्ति द्वारा जीव में अध्यस्त होता है - केवल इतना ही माना जाय, क्योंकि केवल इतने से ही घट में जीव की अपरोक्षता उपपन्न हो जाती है। अतः विषयचैतन्य और जीवचेतन्य में अभेद मानने की क्या श्रावश्यकता है ? " - इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्ती का कहना है कि यह प्रश्न निराधार है, क्योंकि यदि जीवचैतन्य और विषयचैतन्य की अभेदापत्ति न मानो जायगी तो अन्तःकरण की विषयाकार वृत्ति का शरीर से बाहर निःसरण मानना ही व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि उक्त प्रभापति के अतिरिक्त उस का और कोई प्रयोजन नहीं है। दूसरी बात यह है कि यदि जीवचैतन्य और विषयचैतन्य में अापत्ति को स्वीकार न किया जायगा तो बहिर्देशवृत्ति घट का अन्तःकरणोपहित जीवचैतन्य में प्रध्यास कैसे हो सकेगा ? [ वृत्तिवधिनिर्गमन के अन्य प्रयोजन की आशंका ] अध्यवधान यदि यह कहा जाय कि 'जीवतन्य और विषय चैतन्य की श्रमेवापत्ति न मानने पर भी वृत्ति के बहिर्निर्गमन को व्यर्थता नहीं होगी. क्योंकि वृत्ति द्वारा जीवचैतन्य से घट का सम्पादन होने पर घटावच्छिन्न जीवचैतन्य, जो निसर्गतः असंग है उसका घट के साथ आध्यासिक संसर्ग का सम्पादन हो वृत्ति के बहिर्निर्गमन का प्रयोजन है ।" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ब्रह्म में घटसंसर्ग का अध्यास मानने पर भी कोई लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि इस प्रभ्युपगम में जीवचैतन्य में बहिर्निर्गत प्रमाण वृत्ति द्वारा घट का संसर्ग ही उश्पक्ष होता है । अतः वही जोय को अपरोक्ष हो सकता है। किन्तु बहिर्देशयत्त घट अपरोक्ष नहीं हो सकता । जीव चंतव्य में घट का आध्यासिक संसर्ग हो जाने से घट भी जीवचतन्य से सम्बद्ध हो जाता है अतः उस सम्बन्ध से ही घट भी जीव को अपरोक्ष हो सकता है' यह नहीं माना जा सकता। क्योंकि पुरोवतिशुषित- अवच्छिन चैतन्य में बेशान्तरस्थित रजत के तादात्म्य की उत्पत्ति मानने पर भी देशान्तरवर्ती रजत की अपशेक्षता नहीं सिद्ध होती । अत एव शुक्तिवेश में प्रातिभासिक रजत की उत्पत्ति मान कर उसी की अपरोक्षता मानी जाती है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टोका एवं हिलो दिन ] ४५ | लोहित्य - अपरोक्षता की तरह घट-अपरोक्षता की उपपत्ति की आशंका ] के यदि यह कहा जाय कि- “स्फटिक में जपाकुसुम का अध्यास न होने पर भी जैसे जपाकुसुम लौहित्य का संसगध्यास होने से स्फटिक में लौहित्य का अध्यास न होने पर भी लौहित्य के संसर्गमात्र का अध्यास होने से लौहित्य की अपरोक्षता होती है उसी प्रकार जोवचंसन्य में घट का अध्यास न होने पर भी घटसंसर्गे के अध्यास ही घट की अपरोक्षता हो सकती है।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जपाकुसुम संनिहित स्फटिक स्थल में लौहित्य अपरोक्ष रहता है । अतः स्फटिक में उस का अध्यास न होने पर भी उस के संसर्गाध्यास मात्र से उस की अपरोक्षता हो सकती है। किन्तु जो वस्तु अपरोक्ष रहेगी उस के संसर्ग के अध्यास मात्र से उस को अपरोक्षता नहीं हो सकती । अतः स्फटिक में लौहित्य का आरोप यह गृह्यमाणविषयक श्रारोप होने से और जीवचैतन्य में घटाध्यास के प्रभाव में घटप्रत्यक्ष अगृह्यमाणआरोपात्मक होने से दोनों में अन्तर है । अतः स्फटिक में लौहित्य के अपरोक्षज्ञान के दृष्टान्त से बहिर्वेशन घट का जीवचैतन्य में प्रध्यास हुये बिना उस के अपरोक्षत्व का उपपादन नहीं हो सकता दूसरी बात यह है कि यदि जीवचैतन्य में घट के अनिर्वचनीय प्रातिभासिक संसर्ग की उत्पत्ति होगी तो वह संसर्ग प्रामाणिक नहीं हो सकेगा क्योंकि प्रातिभासिकत्व और प्रामाणिकत्व का विरोध है। जब वह संसर्ग प्रमाणिक नहीं है, तब उस के द्वारा घट प्रपरोक्ष होने की आशा दुराशामात्र है । अतः युक्तिसंगत बात यह है कि जीवचैतन्य में घट का सम्बन्ध प्रमाणवृत्ति द्वारा नहीं होता किन्तु श्राध्यासिकसम्बन्ध द्वारा होता है । और उसी से घटोपलम्भक घटाधिष्ठान चैतन्य के साथ जीवचैतन्य का उक्त उपाधि 'वृत्तिसंसृष्टघट' प्रथवा 'घटसंसृष्टवृत्ति' में जोवतव्य का अमेथ अभिव्यक्त होता है । यह प्रभेदापत्ति हो वृत्ति के बहिनिगम का प्रयोजन है । अतः उक्तरीति से जीवचेतन्य में अध्यस्त होने से घट जीव के प्रति श्रपरोक्ष होता I अथवा आवरणाभिचार्था वृत्तिः, सर्वगतेऽपि जीवचैतन्येऽखण्डावरणस्य स्वविषयचैतन्यगोचरप्रमात्रा दिविस्पष्टव्यवहारप्रतिबन्धकेऽन्तःकरण । द्युपाधेरुत्तेजक स्थानीयत्वेन तत्प्रतिबध्य कार्यो दयात् । किमर्थमस्मिन् पक्ष उभयचैतन्याऽभेदाभिव्यक्तिः १ 'प्रमाद चैतन्यमेव विषये परिणामसंसृष्टेऽमिव्यक्तं फलं भवद् घटं विषयीकुरुतामिति चेत् १ ब्रह्माष्यस्तस्य तस्य संविदमेदरूपापरोक्षत्वायैव तदेवं घटादेरपरोचता । वह्वयादेस्तु प्रमाद चैतन्य निष्ठाज्ञान मात्र निवृत्तावप्युभयचेतन्यामेदाभिव्यक्त्यभावात् वृतेश्चान्तरेवोत्पादात् परोक्षता । रजतादेव शुक्त्याद्यज्ञानसमुत्पन्नस्यानिर्वचनीयस्येदंच्या इदमेशस्य घटादिन्यायेनाऽपरोक्षत्वात् प्रमातृचैतन्याऽभिन्नेद मंशचैवन्येऽभ्यस्तस्वात् सुखादिवदपरोक्षत्वम् । इदमंशतादात्म्येनोललात्वाच्च 'इदं रजतम्' इति प्रत्ययः । 'सत्' इति च तत्र शुक्तिसत्चैव भासते । न चान्यथाख्यातिः, तत्संसर्गस्याऽनिर्वचनीयत्वात् । न चैवं भ्रमानुमित्यादौ चेरिव देशान्तरीयरजतस्य संसर्गोत्पत्यैव निर्वाहः वचेोरिव रजतस्य परोक्षत्वापतेः । शुक्ति-सयोस्त्वपरोक्षत्वं प्रमाणदृश्यैव, इदमंशवत् । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रिया स्त०८ श्लो०१ [वृत्ति का प्रयोजन आवरणाभिभव-मतान्तर ] वेदान्त दर्शन का वृति के सम्बन्ध में एक दूसरा प्रसिद्ध मत यह है कि वृत्ति का प्रयोजन है आवरण का अभिभव । उनका आशय यह है कि अवियोपहितचैतन्यस्वरूप जीव यद्यपि सर्वगत है फिर भी उसे सदा सब विषयों का अनुभव नहीं होता। इसका कारण यह है कि जितने भी विषय है। प्रत्येक तत्तद्विषय से अवच्छिन्न चैतन्य के उपर ब्रह्मविषयक अज्ञान का अखण्डावरण पड़ा हुआ है। वही विषयों के अनुभव और व्यवहार का प्रतिबन्धक होता है। अन्तःकरण की विषयाकार वृत्ति अनुभव और व्यवहार में उत्तेजक है। फलिस यह हमा कि अन्तःकरणवृत्तिविरहविशिष्ट प्रावरण अपने विषय के अनुभव और व्यवहार का प्रतिबन्धक है। जब विषयाकार अन्तःकरण की वृति इन्द्रिय मार्ग से विषयदेश में जाती है तब वृत्त्यवति और विषयावनिछन नैतन्य एक हो जाने से विषयावरिछन्न चैतन्यगतावरण अन्तःकरणवृति से विशिष्ट हो जाता है। अतः अन्तःकरणवृत्तिविरहविशिष्ट आवरणरूप प्रतिबन्धक का अभाव हो जाने पर प्रावरण से प्रतिबध्य विषयानुभव और विषयव्यवहार रूप कार्य की उत्पत्ति होती है। [अभेदापत्ति पर पुनः आक्षेप-समाधान ] इस मत में यह प्रश्न होता है कि-"विषयावच्छिन्न चैतन्यगतआवरण विषयानुभवादि में प्रतिबन्धक होने पर अन्तःकरण की बत्ति उत्तेजक होती है। अतः अन्तःकरणवत्ति तथा तदात्मना अन्तःकरण का बहिनिगम मानना आवश्यक है। किन्तु विषय चंतन्य और प्रमातृचैतन्य में अमेवाभिव्यक्ति मानने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि अन्तःकरणवृत्ति से संश्लिष्ट घटादि विषय में अथवा विषयसंसृष्टान्त:करणवृत्ति में प्रमातृचतन्य हो प्रतिबिम्बित होकर * फल के रूप में घटादि का प्रकाशक हो सकता है।" इस प्रश्न का उत्तर यह है कि केवल संविद् ही वास्तव में अपरोक्ष होता है-प्रमातृचैतन्य भी साक्षी से सदा सम्बद्ध होने के कारण अपरोक्ष होता है। प्रतः संविद व प्रमातृचैतन्य का अभेद ही अपरोक्षस्व है। घटादि विषय में इस अपरोक्षत्व की उपपत्ति संविवरूप ब्रह्म में घटादि के अध्यस्त होने पर ही हो सकती है । और स्वावच्छिन्न चैतन्य में अध्यस्त घटादि ब्रह्माध्यस्त प्रमातृचंतन्याध्यस्त तभी बन सकता है जब घटाद्यवस्छिन्न चैतन्य और प्रमातृचैतन्य में अभेव हो । अतः वृत्तिनिर्गम के फलरूप में प्रमातचैतन्य और विषयचैतन्य की अभेदापत्ति मानना आवश्यक है। अतः उक्तरीति से घटादि की अपरोक्षता होती है। * वेदान्त दर्शन में घटपटादि विषयों का ग्रहण दो साधनों से होता है-(१) घटाद्याकार अन्तःकरण की वृत्ति और (२) उस वृत्ति में प्रतिबिम्बित प्रमातृचैतन्य अथवा विषयचंतन्य। इस प्रतिबिम्बित चैतन्य की वेदान्तदर्शन में 'फल' यह परिभाषिकी संज्ञा है । इन दोनों साधनों में वृत्ति द्वारा घटादि के आवरण का भङ्ग होता है और वृत्तिप्रतिबिम्बत चंतन्य के द्वारा घटादि का स्फुरण होता है । इस की आवश्यकता इसलिये होती है कि घटादि प्रकाशानात्मक होने से केवल आवरण के दूर होने से प्रकाशित नहीं हो सकता । अतः उसके प्रकाश के लिये वृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यरूप प्रकाश की अपेक्षा होती है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [अनुमिति में अग्नि की परोक्षता का उपपादन ] धूमादि वर्शन से पर्वत में अनुमीयमान वह्नि आदि परोक्ष ही होता है क्योंकि लिंगजन्य अनुमिति रूप अन्तःकरणवृत्ति शरीर के भीतर ही होती है। उस का बहिर्देश में गमन नहीं होता। उस से प्रमातृचैतन्यगत अप्रत्यक्ष वाह्न आदि के असस्थापावक अज्ञानमात्र की ही निवृत्ति होती है, प्रमातृचैतन्य और विषयचैतन्य में अभेदाभिव्यक्ति नहीं होती। __ शुक्त्यवसिछन्न चैतन्य के प्रज्ञान से जो शुक्ति-रजत प्रादि उत्पन्न होता है और अनिर्वचनीय होता है यह प्रमातचेतन्याभिन्न इदमवच्छिन्न चैतन्य में अध्यस्त होने से प्रमातचैतन्य में भी अध्यस्त हो जाता है । अत एव प्रमातृचैतन्य में अध्यस्त सुखादि के समान साक्षी द्वारा अपरोक्ष होता है । [ भ्रमस्थल में 'इदं' अंश की अपरोक्षता ] प्राशय यह है कि इचमंश की अपरोक्षता के लिये इदमाकार वृत्ति का इवं देश में गमन होता है। तब वृत्त्यात्मना प्रमातृचंतन्य का भी गमन होता है। प्रतः प्रमातृचतन्य और इदमवच्छिनचैतन्य को प्रवच्छेदक उपाधियों एकवेशस्थ हो जाने से दोनों चैतन्य में अभेद हो जाता है। जिसके कारण इदमवच्छिन्नचेतन्य में अध्यस्त इवमा अपरोक्षमूत प्रमातृचैतन्य में अध्यस्त होने के कारण घटादि के समान अपरोक्ष होता है । फलतः, जब इवमपिछलचैतन्य प्रमातृचैतन्य से भिन्न हो जाता है तो इदमच्छिन्नचैतन्य में अध्यस्त शुक्तिरजत भी प्रमातृचैतन्य में अध्यस्त हो जाता है । अतः जिस प्रकार प्रमातृचतन्य में अध्यस्त सुखादि का जीपसाक्षी से साक्षात सम्बन्ध होने के कारण बह प्रत्यक्ष होता है उसी प्रकार रजत के साथ भी साक्षी का साक्षात् सम्बन्ध हो जाने से उसका भी साक्षीजन्य अपरोक्षानुभव होता है। यह शंका को जाय कि रजत इदमवच्छिन्न चैतन्य में प्रध्यस्त होता है अतः 'अत्र रजतम्' प्रतीति होनी चाहिये किन्तु 'इवं रजतम्' नहीं होनी चाहिये तो इस का उत्तर यह है कि इदं में रजत तादात्म्यतिरिक्त सम्बन्ध से अध्यस्त न होकर तादात्म्यसम्बन्ध से ही प्रध्यस्त होता है, अत: 'अत्र रजतम्' यह प्रतोति न होकर 'इथं रजतम्' यह प्रतीति होती है। * अज्ञान अथवा अज्ञानगतावरण के दो भेद होते हैं-१. असत्त्वापादक और २. अभानापादक । असत्त्वापादक अज्ञान अथवा अज्ञानावरण प्रमातृचैतन्य में रहता है और अभानापादक विषयचैतन्य में रहता है । अतः असत्त्वापादक की नियत्ति शरीर के भीतर उत्पन्न अन्तःकरण को विषयाकारवृत्ति से होती है किन्तु विषयचैतन्यगत अभानापादक आवरण को निवृत्त करने के लिये वृति का विषय देश में गमन आवश्यक होता है । अनमानादि स्थल में अनमीयमान वह्नि आदि के देश में अनुमित्यात्मक अन्तःकरण की वृत्ति मार्ग ना होने से बाहिर नहीं जा सकती। किन्तु प्रत्यक्षस्थल में विषयदेश में इन्द्रिय का गमन होता है, अतः इन्द्रिय रूप मार्ग से अन्तःकरणवृति का बाहर हो सकता है। जहां प्रत्यक्ष रममाण पक्ष में साध्य की अनुमिति होती है वहाँ वह्नि के आश्रयभूत पक्षात्मक देश के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने से वहाँ अनुमित्यात्मक वृत्ति के होने पर भी पक्षाकार वृत्ति का ही निर्गम होता है किन्तु साध्याकारवृत्ति का निर्गम नहीं होता। क्योंकि तत्तदिन्द्रिय मात्र तत्तदिन्द्रियजन्य अन्तःकरणवृत्ति का ही मार्ग होती है। साध्याकारवृत्ति लिङ्गजन्य होती है-इन्द्रियजन्य नहीं होती अतः इन्द्रियमार्ग से उस का बहिर्गमन नहीं होता। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवाता० स्त० ८ श्लो. १ नोपनी शुक्ति-रजत में 'इदं रजतं सत्' प्रतीति होती है, उस में रजतांश में शुक्तिसत्ता का ही भान होता है क्योंकि वह रजत प्रातिभासिक होने से उस की का भान मानने पर अन्यथाख्याति का अनिष्ट प्रसंग होने का संभव भी नहीं है क्योंकि उस का संसर्ग अनिर्वचनीय है और कोई भी ज्ञान अन्यथाख्याति सब होता है जब उस में भासित होनेवाला धर्म और उस का संसर्ग दोनों अनिर्वचनीय नहीं होते। [ अनिर्वचनीय रजतसंसर्ग की उत्पत्ति पर आक्षेप समाधान ] यदि यह कहा जाय कि-"जैसे ह्रवादि में अग्नि को भ्रमानुमितिस्थल में हृदादि में पाकशाला प्रसिद्ध अग्नि के अनिवंचनीय सम्बन्ध मात्र को उत्पत्ति मानने से उक्त भ्रमात्मक अनुमिति अन्यथाल्यातिरूप न होकर अनिर्वचनीयख्यातिरूप होती है उसी प्रकार 'इदं रजतम' इस अपरोक्षश्रमस्थल में पुरोत्तिशुक्ति के साथ प्रापणादि देशान्तर में प्रसिद्ध रजत के (अनिर्वचनीय) संसर्गमात्र की उत्पत्ति मानने से ही उक्तभ्रम में अन्ययाख्यातिरूपता का निराकरण होकर अनिर्वचनीयस्यातिरूपता सिद्ध हो सकती है । अतः शुक्तिदेश में आपणस्थ रजत के अनिर्वचनीय संसर्गोत्पत्ति न मानकर अनिर्वचनीयरजत को उत्पत्ति मानने का कोई प्रयोजन नहीं है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शुक्तिदेश में रजत को उत्पति न मानने पर अनुमोयमान अग्नि के समान रजत भी परोक्ष हो जायगा शुषित-रजतस्थल में शुक्ति और सत्ता को अपरोक्षता इदमंश के समान प्रमाणजन्यवृत्ति से ही होती है। अन्ये तु, तत्रापि वह युशे शुक्तिसम्भाशे चान्यथाख्यातिर्मा भूदिति बद्ध युत्पत्ति रजते सत्तान्तरोत्पति चाऽचक्षते । तदुक्तम्-"अथवा त्रिविधं सत्यम्" इति । [ हद में अनिर्वचनीय अग्नि की उत्पत्ति का प्रतिपादक मतान्तर ] अन्य विद्वानों का यह कहना है कि-हवावि में वह्नि की भ्रमात्मकानुमिति वह्नि अंश में और 'इदं रजतं सत्' यह भ्रमात्मक प्रतीति शुक्ति-सत्ता अंश में अन्यथास्याति न हो इसलिये ह्रदावि में प्रनिर्वचनीय वह्नि को और रजत में अनिर्वचनीय सत्ता की उत्पत्ति होती है । इस कथन के समर्थन में अभियुक्त बेदान्ती के 'प्रथवा त्रिविधं सत्त्वम्' इस चिरन्तन बंधन का उद्धरण देते हैं। जिस का आशय यह है कि सत्ता तीन प्रकार की होती है । १. पारमार्थिक २. व्यायहारिक ३, प्रातिभासिक । पारमाथिक सत्ता केवल ब्रह्म की है । व्यावहारिक सता अज्ञान और प्रज्ञान से ब्रह्म में अध्यस्त होने वाले आकाशादि पदार्थों की होती है। प्रातिभासिक सत्ता भ्रमविषयीभूत शुक्ति-रजतादि की होती शक्तिरजत में होने वाली सतप्रतीति शक्ति रजत की हो प्रातिभासिक सत्ताको विषय करती है। नन्वेवं सुखादिवदपरोक्षत्वे रजताफारा तिर्न स्यात्, तत्र हीदमंशावच्छिमग्रमचैतन्याभिन्ने प्रमातचैतन्ये 'रजतम्' इति तत्प्रमातृचैतन्यमिदमाकावृत्तिप्रतिफलिततयेदमंशे प्रमाणमपि, तत्रैव विषयेऽभिव्यस्ततया फलपति जताशे शुद्धसादिरूपं, न तु प्रमाणं वा फलं वा प्रमाता वा, तदाकारप्रमाणवृत्त्यमावादेव, इति रक्तवृत्तः क्वोपयोगः? इति चेत् ? Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क टोका एवं हिन्दी धिवेचन ] [रताकार वृत्ति अनावश्यक होने का आक्षेप ] रजत को उक्त रीति से इदमंशावच्छिन्न चैतन्य से अभिन्न प्रमातचैतन्य में अध्यस्त होने के कारण सुखादि के समान अपरोक्ष मानने पर यह शंका होती है कि-जसे सुखादि की अपरोक्षता के लिये सुखाद्याकारकृति आवश्यक नहीं होती उसी प्रकार रजत की अपरोक्षता के लिये भी रजता-- कारवृत्ति अनावश्यक होने से उसका स्वीकार नहीं करना चाहिये । क्योंकि शुक्ति-राजतस्थल में प्रमातृचैतन्य इस्मंशावच्छिन्न ब्रह्मवैतन्य से अभिन्न होने पर, 'रजतम्' इत्याकारक बोधात्मक प्रमातृ• चैतम्य इदमाकारवृत्ति में प्रतिफलित होने से इदमंश में प्रमाण होता है और उसी विषय में अभिव्यक्त होने से फल भो होता है । रजतांश में यह शुद्ध साक्षीस्वरूप हो होता है, उस अंश में प्रमाणरूप, फलरूप अथवा प्रमालारूप नहीं होता। क्योंकि रजताकार प्रमाणजन्यत्ति नहीं होती। अतः उस स्थल में जो रजताकार अविद्या को वृत्ति मानी जाती है, उस का कोई उपयोग नहीं है। अत्र केचित्र-साक्षिचैतन्यं स्वतः स्फुरदप्यसङ्गतया तत्तद्विषयावभासनायासमर्थ ज्ञानसंशब्दि तवृत्तिप्रतिविम्बिनमेव विषयावभासकं भवति, इत्यज्ञान-सुखादीनामपि तदाकागऽविद्यावृत्तिप्रतिफलितचिद्रास्यत्वमेव, केवलसाक्षिवेद्यत्वं तु प्रमाणदृश्यनपेक्षत्वात, इत्यावश्यकी रजतवृत्तिः । अन्यथा सदा विषयविशिष्टाज्ञानानभासप्रसङ्ग साक्षिणि साक्षादध्यस्तत्वात, केवलाशनास्फुरणाश्च । उक्तरीत्या तु नायं दोषः, वृत्तेरमदातनत्वात्, अत एवैश्वरस्यापि सर्वज्ञता सर्वाकारमायावृत्यैव । 'इयं च धृत्तिरन्तःकरणपरिणाम एव, अत एव स्वप्नस्य मनोवृत्तित्वम्' इति केचित् । अन्ये तु-'सुषुप्तायन्तःकरणाभावादज्ञानसुखाद्याकासविद्यावृत्तेरावश्यकत्वे तयैव साक्षिवेद्यत्वोपपत्तौ न तथा' इत्याहुः । अपरे पुनः-'वृत्ती तादृशसामर्ये मानाभावाद् वृत्तिमानप्रयोजकाध्यासिकसंवन्धस्यैवाज्ञानादिभानप्रयोजकत्वे तत्कल्पनानवकाशाद् नाज्ञानाधाकाग त्तिर्मानार्था । अज्ञानविशेषणतया सदा घटादिसर्व विषयमान सिष्टमेव, मनुष्पत्वाभिमानवत् । अत एव स्वसत्तायामव्यभिचारिप्रकाशत्यपहंकारादीनामुक्तं ग्रन्थकारैः। [ रजताकारवृत्ति की आवश्यकता का समर्थन ] इस शंका के समाधान में कुछ विद्वानों का यह कहना है कि साक्षिचैतन्य यद्यपि स्वप्रकाश है तथापि असङ्ग होने से विभिन्न विषयों के अवभासन में असमर्थ होता है । अत: ज्ञान शब्द मे व्यवहुत वृत्ति में प्रतिविम्बित होकर ही साक्षिचैतन्य विष्य का अवभासक होता है। अतः अज्ञानमुखादि पदार्थ भी तत्तदाकार अविद्यावृत्ति में प्रतिबिम्बित चैतन्य से ही अवास्य होते हैं। उन में केवल साक्षिवेधत्व का व्यवहार उन के भान में प्रमागजन्यवृत्ति की अपेक्षा न होने से हो होता है । अतः शुक्तिरजतादि के साक्षिप्रयुक्त भान के लिये भी अविद्या की रजताकार वृत्ति आवश्यक है । यदि साक्षि को वृत्तिनिरपेक्ष होकर प्रज्ञान का भासक माना जायगा तो विषयविशिष्ट अज्ञान के सर्वदा अवभास होने की प्रसक्ति होगी। क्योंकि अज्ञान साक्षि में साक्षात् अध्यस्त होता है और विषय से अविशेषित अज्ञान का स्फुरण नहीं होता। किन्तु अविद्या वृत्तिसापेक्ष साक्षिभास्य मानने पर यह दोष नहीं हो सकता क्योंकि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ८ श्लो० १ वृत्ति सर्वदा नहीं होती । साक्षिभास्य पदार्थों के भान में वृत्ति की अपेक्षा होने के कारण ही ईश्वर मी माया की सर्वाकार वृत्ति से ही सर्वज्ञ होता है । ५० कुछ अपर विद्वानों का यह मत है कि अज्ञान सुखादि को और शुक्ति-रजतादि को विषय करने वाली वृत्ति भी अविद्या का परिणाम न होकर अन्तःकरण का ही परिणाम होती है। इसीलिये स्वप्नज्ञान मन में आश्रित होता है। अज्ञान का परिणाम होने पर उस का मन में आश्रित होना सम्भव नहीं हो सकता । अन्य विद्वानों का यह मत है कि सुषुप्ति में अन्तःकरण का सूक्ष्मावस्थापत्तिरूप लय हो जाने के कारण उस की वृत्ति नहीं हो सकती । अतः उस समय अविद्या की हो श्रज्ञानसुखाद्याकारवृत्ति मानना आवश्यक है। अतः अविद्या की वृत्ति से ही सर्वदा साक्षियेद्यत्य की उपपत्ति हो सकती है। अतः मित्र समय में भी अन्तःकरण को अज्ञानसुखाद्याकार वृति मानना निष्प्रयोजन है । [ अज्ञानादि के भाव के लिये वृत्ति अनावश्यक - मतान्तर ] कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि वृति का सामर्थ्य मानने में कोई प्रमाण नहीं है । अतः तन्य में वृत्ति का आध्यासिक सम्बन्ध ही वृतिभान का प्रयोजक होता है । अतः जैसे अंतन्य में वृद्धि का प्राध्यासिक सम्बन्ध वृत्तिभान का प्रयोजक होता है उसी प्रकार चैतन्य में अज्ञानादि का प्राध्यासिक सम्बन्ध अज्ञानावि के भात का भी प्रयोजक हो सकता है । अतः वृत्तिकल्पना के लिये कोई अवकाश न होने से अज्ञानादि के भान के लिये अविद्या अथवा अन्तःकरण किसी की भी प्रज्ञानाद्याकारवृत्ति मानना अनावश्यक है। अज्ञानादि का वृत्तिनिरपेक्ष भान मानने पर अज्ञान के विशेषणरूप में घटादि सभी विषयों के भान की जो सर्वदा आपसि बतायी गई वह इष्ट ही है। आशय यह है कि प्रमाणजन्य किसी भी विषय का ज्ञान रहने पर अज्ञान में सर्वविषयकत्व का अभाव होने से उस समय सर्वविषयक प्रज्ञान भान की प्रापत्ति नहीं हो सकती तथा जब प्रमाणजन्य ज्ञान का अभाव होता है अर्थात् जिस काल में किसी भी विषय का प्रमाणजन्य ज्ञान नहीं होता ऐसे सभी काल में सर्वविषयक अज्ञान का अनुभव होता ही है, जैसे सो कर उठने पर होने वाले 'सुखमहम् श्रस्वाप्तं न किश्विदवेदिवम्' इस स्मरण से सुषुप्ति में सर्वविषयक ज्ञान का भान सिद्ध होता है। क्योंकि उस समय प्रमाणजन्य ज्ञान का सर्वथा प्रभाव होता है। इस प्रकार प्रतिबन्धकशून्य सम्पूर्णकाल में सर्वविषयक प्रज्ञान का भान मनुष्यत्वादि के अभिमान के समान सम्भव है । अभिप्राय यह है कि जैसे मनुष्य को 'नाहं मनुष्यः' इस प्रकार का विरोधी ज्ञान कभी न होने से 'हं मनुष्यः' यह ज्ञान सर्वदा होता है इसी प्रकार सर्वविषयविशिष्टाज्ञानानुभव के प्रतिबन्धकाभावकाल में सदा उक्तरूप में प्रज्ञान का अनुभव होता ही है । [ विषय विशेषज्ञानदशा में समस्त विषयविशेषित अज्ञान का भान स्वीकार्य ] यदि यह शंका की जाय कि किसी विषय विशेष के प्रमाणजन्यज्ञानवशा में अन्य सभी विषयों से विशिष्ट अज्ञान का भान क्यों नहीं होता ?'-तो इस का समाधान यह है कि किसी एक fatafaशेष के प्रमाणजन्यज्ञानदशा में अन्य सभी विषयों से विशेषित प्रज्ञान का भान होता ही है । क्योंकि अज्ञानादि के वृत्तिनिरपेक्ष साक्षिवेधला पक्ष में प्रज्ञानादि का भान अज्ञानादि सम्बद्ध साक्षि Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] चैतन्यरूप ही है । अतः उस का अस्वीकार दुर्घट है। यदि किसी विषयविशेष को ज्ञान क्शा में मैं 'अमुक विषय को जानता हूं'; इस के साथ 'अमुक विषय से अन्य सभी विषयों को नहीं जानता' इस प्रकार के व्यवहार की आपत्ति वो जाय तो यह युक्तिसंगत महीं है क्योंकि व्यवहार विवक्षाधीन होता है, अतः उस प्रकार की विवक्षा न होने से उस प्रकार के व्यवहार की आपत्ति नहीं हो सकती। तथा जब कभी किसी को उस प्रकार की विवक्षा होती है तब उस समय वह उस प्रकार का व्यवहार करता ही है । साक्षिभास्य पदार्थों का भान वृत्तिनिरपेक्ष साक्षि चैतन्य से ही होता है। इस कारण से हो ग्रंथकारों ने अहंकारादि साक्षिभास्यपवार्थों की सत्ता को उन के प्रकाश का अव्यभिचारी बताया है। अर्थात् यह कहा है कि साक्षिभास्यपदार्थ अपने पूरे समय तक प्रकाशमान ही होते हैं । अप्रकाशित होकर उन को एकक्षण भी सत्ता नहीं होती । किन्तु यदि उनके प्रकाश में वृत्ति की अपेक्षा मानी जायगी तो ग्रन्थकारों का उक्त कथन उपपन्न न हो सकेगा, क्योंकि साक्षिपदार्थों की पूरी अवधि में उनकी वृत्ति होने में कोई प्रमाण नहीं है । रजतवृत्तिस्त्यावश्यकी । तथाहि-घटस्याऽपरोक्षवं न सुखादिवदन्तरवच्छेदेन: किन्तु वहिरवच्छेदेन । न हि बहिनिःसृता वृत्तिर्घ शरीरावच्छेदेन स्वाध्यस्तं संपादयति, पहिष्ठत्वात् तम्य, किन्तु घटावच्छिमब्रह्मचैतन्यप्रमातृचैतन्याभेदमभिव्यनक्ति । घटावच्छिन्नब्रह्मचैतन्यं च घटावच्छेदेनैव घटमपरोक्षीकरोति, नान्यावच्छेदेन, अन्यावच्छिन्नम्यान्यविषयीकरणे यत्किश्चिदेकावच्छिन्नस्य सर्वज्ञवप्रसङ्गात् । तदेतदुभयचैतन्यामेदाभिव्यक्तिघंटावच्छेदेन, न शरीरावच्छेदेन । अत एव विषयावच्छिमस्येव फलत्वप्रबादः । ततः शरीरावच्छेदेन घटस्फुरणं वृत्तिविषयतयैव । द्वधा हि तत् एकं ज्ञाततयाऽज्ञाततया वा साक्षिविषयतया, अपर' च फल. व्याप्यतया । आद्यं शरीगवच्छेदेन, द्वितीयं च घटावच्छेदेनेति ।। [शुक्तिरजत स्थल में वृत्ति आवश्यक है ] किन्तु शुक्तिरजतादि के भान के लिये शुक्ति रजतादि की वृत्ति मानना प्रावश्यक है। क्योंकि शुक्तिरजतादि का भान जैसे शुक्ति के इदमंश में होता है बसे हो शरीर में भी होता है अतः उस भान के लिये रजताद्याकारवृत्ति को मानना आवश्यक है। आशय यह है कि बाह्य धादिविषयों को अपरोक्षता सुखावि के समान केवल शरीर के भीतर ही नहीं होती किन्तु शरीर के बाहर होती है क्योंकि शारीर के बाहर निकल कर घरदेश में पहुंची हुयी घटाकारान्तःकरणवृत्ति घट को शरीराव छेदेन प्रमातृतन्य में अध्यस्त नहीं बनाती, क्योंकि घट यहिदेशवतो होता है, किन्तु घटावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य और प्रमातृचैतन्य का अमेव व्यक्त करती है। एक घटावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य घटदेश में ही घट को अपरोक्ष बनाता है, अन्य देश में अपरोक्ष नहीं बनाता. क्योंकि प्रन्यावच्छिन्न प्रमातचैत यदि अन्य को विषय करेगा तो यत् किश्चित् एक विषय में अवछिन्न प्रमातृचैतन्य में सर्वज्ञत्व की आपत्ति होगी। प्राशय यह है कि जब घटाकारान्तःकरण की वृत्ति चक्षद्वारा घट देश में जाती है तो उस के साथ उसी रूप में अन्तःकरण भी होता है। प्रत.करण और उस की वृत्ति एवं घट के एकदेशस्थ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ८ इलो० १ होने से उन तीनों से अवच्छिशचैतन्य का अमेव हो जाता है और यह श्रभेद घटायच्छेवेन अर्थात् घटदेशावच्छेवेन होता है। क्योंकि घटदेश में ही तीनों उपाधियाँ एकत्र होने से तीनों चैतन्य एकत्र होते हैं। इस प्रकार प्रमातृचैतन्य घटदेश में घट से अवच्छित हो जाता है, किन्तु अपने मूलवेश शरीर में घट से अवनि नहीं होता, क्योंकि घट शरीर में नहीं रहता । यतः घटदेश में ही वह घटावछल होता है अत एव उस देश में हो वह वृत्तिप्रतिबिम्बित विषयचैतन्य द्वारा घट के अपरोक्षभान का आश्रय बनता है । यदि घटदेश में घट से अवच्छिन्न बना हुआ प्रमातृचैतन्य शरीरदेश में भी, जहाँ वह घट से अवच्छित नहीं है, घट के अपरोक्षज्ञान का आश्रय होगा, तो इस का अर्थ यह हुआ कि प्रमातृचैतन्य जिस देश में जिस विषय से अवच्छिन्न नहीं होता उस देश में भी उस विषय के अपरोक्षज्ञान का श्राश्रय होता है। इसका फल यह होगा कि, जैसे प्रमातृचैतन्य शरीर देश में वृत्तिसंसृष्ट घट से अवछिन न होने पर भी घट के अपरोक्ष ज्ञान का आश्रय होता है उसी प्रकार यह वृत्ति से असंसृष्ट अन्य समस्त विषयों से भी शरीर वेश में अनवच्छिा है । अतः शरीर देश में वह अन्य समस्त विषयों के भी अपरोक्षज्ञान का आश्रय हो जायगा इस प्रकार प्रमाता का वृत्ति द्वारा किसी एक विषय के साथ सम्पर्क होने पर और वृत्ति में उस सम्पृक्त विषय के प्रतिबिम्बित होने पर प्रमाता में सर्वज्ञत्थ की आपत्ति होगी । ५२ यतः प्रमातृचैतन्य और विषयचैतन्य इन दोनों को अमेदाभिव्यक्ति घटदेश में ही होती है, शरीर देश में नहीं होती, अत एव वृत्तिप्रतिबिम्बित विषयावरिलम चैतन्थ को हो फल कहा जाता है । क्योंकि वृत्ति के विषयवेश में अवस्थान के समय प्रमातृतस्य विषय चेतव्यात्मक होता है और विषयदेश में हो वृत्ति में प्रतिबिम्बित होता है, अपने मूलदेश शरीर में प्रतिबिम्बित नहीं होता है । उक्त रीति से घटदेश में घट का अपरोक्ष भान होने के बाद शरीरदेश में घट का स्फुरण 'घटमहं जानामि' इस रूप में घटाकार वृत्ति के विषयरूप में ही होता है । यह विषय संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि घटस्फुरण दो प्रकार से होता है(१) ज्ञान अथवा अज्ञान के विशेषणरूप में साक्षि द्वारा और (२) विषयदेशावच्छेदेन विषयाकारवृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यरूप फल द्वारा प्रथम स्फुरण शरीरदेश में होता है और उस का प्रयोजक जीव साक्षि शरीरदेश में रहता है और दूसरा घटदेश में होता है क्योंकि उसका प्रयोजक विषयवेशावच्छेदेन वृतिप्रतिबिम्बित चैतन्य विषयदेश में होता है । " कथं तर्हि घटं साक्षात् करोमि इति शरीरावच्छेदेन प्रत्ययः, बहिरयच्छेदेनैव घटादेरपरोक्षत्वात् !” इति चेत् १ साचात्कारत्वस्य वृत्तिगतधर्मत्वाद तद् विषयाऽपरोक्षत्वनिमितकम्, न तु वृत्तेः स्वाध्यस्तत्वकृता परोक्षत्वकृतम्, वाक्यादावपि तथा प्रसङ्गात् । तच्चानुमितित्ववत् साक्षिगम्यमिति । एवमिदमंशावच्छेदेनोत्पन्न' रजत मित्रमंशावच्छेदेनैवाऽपरोक्षम, तत्तच्छरीरप्रदेशावच्छेदेन विद्यमानं सुखभित्र तत्तदवच्छेदेन इत्यत्तोऽन्तरवच्छेदेन तद्भानं वृत्तिमाक्षिपतीति । न चेदंष्टविविशेषणतयाऽन्तस्तदवभासः, तस्यास्तदाकारत्वाभावात् । ईश्वरे मायावृतिस्तु वर्तमानस्य स्वाध्यस्त ( ख )स्य जीवे सुखादिवदपरो चत्वेऽप्यतीतानागतभानार्थं प्रतिकल्पं Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] सर्वाकार का कल्प्यते, श्रुत्युक्तजगत्का खनिहाय च । अन्यथा कार्यानुकूलज्ञानादिमत्वरूपतदनुपपत्तो, स्वरूपज्ञाने भेदाभावेनाधागधेयभावाऽसंभवात् इत्याहुः । [घट साक्षात्कार प्रतीति शरीरावच्छेदेन क्यों १] उक्त प्रतिपादन के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि-'घट का साक्षात्कार-अपरोक्षज्ञान घटदेश में ही होता है तो शरीरावच्छेदेन 'घटं साक्षात्करोमि' = 'मैं घट को साक्षात् कर रहा हूं', यह प्रतीति कैसे होती है ? क्योंकि घर तो बाह्यदेश में ही अपरोक्ष है, शरीरदेश में अपरोक्ष है नहीं।'-इस प्रश्न का उत्तर यह है कि साक्षात्कारत्व विषय का धर्म नहीं होता, किन्तु वृत्ति का धर्म होता है और यह धर्म उसी वृत्ति में रहता है जिस का विषय अपरोक्ष रहता है। इस प्रकार वृत्ति का साक्षात्कारत्व अपरोक्षचंतन्य में वृत्ति को अध्याततामूलक नहीं होता, क्योंकि यदि वृत्ति का साक्षात्कारत्व अपरोक्षचैतन्य में वृत्ति के प्रध्यस्त होने से माना जायगा तो सभी वृत्तियों में साक्षास्कारत्व की प्रापत्ति होगी, बयोंकि सभी वत्तियां अपरोक्षचंतन्य में ही प्रध्यस्त होती है। अतः वाक्यादि से भी साक्षात्कारात्मकवत्ति को आपत्ति होगी । वृत्तिगत साक्षात्कारत्व प्रनुमितित्व के समान साक्षिगम्य होता है। उक्त विचार का निष्कर्ष यह है कि इदमवच्छिन्न चैतन्य में उत्पन्न शुक्ति-रजत इदमंशावच्छेदेन हो अपरोक्ष होता है । क्योंकि तदवच्छेदेन ही यह चैतन्य में विद्यमान होता है । क्योंकि यह नियम है कि जो यदवच्छेदेन चैतन्य में विद्यमान होता है वह यदि प्रत्यक्षयोग्य होता है तो तदवच्छेदेन ही इसकी अपरोक्षता होती है। अतः जैसे सुख तत्तच्छरीरप्रदेशाचच्छेदेन विद्यमान होने से तत्तदवच्छेयेन अपरोक्ष होता है उसी प्रकार शुक्तिरजत का भी इदमंशावचोदेन ही अपरोक्ष होना न्यायसंगत है। अतः शरीरावच्छेदेन जो 'इदं रजतम्' इस प्रकार का भान होता है वह रजताकार अविद्यावत्ति का अनुमापक होता है। क्योंकि उस वृत्ति के बिना 'इदं रजतं पश्यामि' इस प्रकार की प्रतीति सम्भव नहीं है, क्योंकि इदमाकारवृत्ति के विषय रूप में शरीर में रजत का अवभास नहीं हो सबाला क्योंकि वह रजताकार नहीं होती। [ ईश्वर में सर्वाकार एक मायावृत्ति का स्वीकार ) इसी प्रकार ईश्वर में भी माया को साकार एक बत्ति मानना प्रावश्यक है, क्योंकि ईश्वर में अध्यस्त बस्तु जब विद्यमान है तब जोय में विद्यमान सुखादि के समान ईश्वर साक्षि से उस की अपरोक्षता हो सकती है किन्तु प्रतीतानागत का भान नहीं हो सकता । प्रतः उस के लिये प्रतिकल्प के आरम्भ में कल्पान्त तक रहने वालो सर्वाकार मायावति मानना आवश्यक है । श्रुति ने ईश्वर को जगतकर्ता कहा है । यह जगत्कर्तृत्व भी मायावृत्ति ले ही उपपम हो सकता है। यदि मायावृत्ति न मानी जायगी तो सर्वकार्यानुकुल ज्ञानादिमत्वरूप सर्वकार्नु स्व की उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ईश्वरसाक्षि रूप ज्ञान का ईश्वरचतन्य के साथ भेद नहीं है अतः उस के साथ आधाराधेय भाव संभव न होने से उस को लेकर ईश्वर कार्यानुकूल ज्ञानादि का प्राश्रय नहीं हो सकता। तदेवं केवलसाक्षिवेद्यत्वे तुल्येऽपि रजतादौ वृत्तिरपेक्षिता, नानानादौ देहपर्यन्ते । ननु कर्थ देहस्य केवलसाक्षिवेद्यत्वम्, घटादियश्चक्षुर्गावत्वेन प्रमाणवेद्यत्वात् ? न च तत्र स्वप्नवचक्षुधि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवाती स्त०८ श्लो०१ त्वम् , घटादानप्यनाश्वासात । न च प्रमाणवेद्य एव देहा, अज्ञानविषयत्वेन कदाचित 'अहं मनुष्यो नया' इति संदेहापत्तेः । किञ्च, अस्य ब्रह्मण्य ध्यस्तत्वे घटादिवद् न केवलसाचिधेद्यत्वम् , जीवाध्यस्तत्वे च सुखादिवदन्यापक्षत्त्वभंग इति चेत् ? अत्राहु:-एक एवायं जीवो देहत्वेन ब्रह्मण्यव्यस्तः, न जीधे, 'अहं देहः' इत्यप्रतीतेः । तादात्म्याभिनिविष्टमनुष्यत्वेन जीवेऽभ्यस्तो न ब्रह्मणि, 'अहं मनुष्यः' इति प्रतीतेः । तेनैव च रूपेण केवलसाधिवेधत्वम्, प्रमाणपनपक्षपात, देवत्वेन प्रमाणवेद्यत्वम् । एवमन्तःकरणादिरपि तच्चादिना ब्रह्मण्यध्यस्तः, अहन्त्यादिना जीव इति सिद्धमज्ञानोपहितचैतन्यरूपसाक्षिवेद्यत्त्वं देहस्य । [ रजतवृत्ति की अपेक्षा, देहपर्यन्त अज्ञानादि की नहीं ] इस प्रकार शुक्तिरजतावि और प्रज्ञानादि में केवलसाक्षिवेधता यद्यपि समान है तथापि उक्त रोति से शक्तिरजतादिविषयक विद्यावत्ति की अपेक्षा होती है किन्त अज्ञान से लेकर देह पर्यन्त साक्षिभास्य विषयों की वृत्ति अपेक्षित नहीं होती, क्योंकि वे सब बाह्म चैतन्य में अध्यस्त न होकर अन्तश्चैतन्य में ही प्रध्यस्त होते हैं । अत एव शरीरावच्छेवेन 'अहमज्ञः' 'अहं मनुष्यः' इत्यादि प्रतीति को उपपत्ति में कोई बाधा नहीं हो सकती। [शरीर केवलसाक्षिवेद्य कैसे ?] वेह के विषय में यह प्रश्न होता है कि "वह घटादि के समान चक्षुर्ग्राह्य होने से प्रमाणवेद्य है, अतः वह केवल साक्षिवेद्य कैसे हो सकता है ? यदि स्वप्नज्ञान में चक्षुह्यत्व के समान देह में कल्पित चक्षुह्य माना जायगा तो घटादि के सम्बन्ध में भी प्रास्था नहीं हो सकेगी, क्योंकि घटादि के विषय में भी कहा जा सकता है कि घटादि का चक्षह्यत्व कल्पित है, फलतः व्यावहारिक घटादि भी स्वप्नघटादि के समान हो जायगा । देह प्रमाणवेद्य ही है साक्षिवेद्य नहीं है-यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसे प्रमाणेकवेद्य मानने पर वह प्रमाणजन्यव्यापार के प्रभाव दशा में अज्ञान का भी विषय होगा। अतः कदाचित् मनुष्य को अपने विषय में भी 'अहं मनुष्यो न वा' इस संदेह को आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि देह ब्रह्म में अध्यस्त होता है, अतः जैसे ब्रह्म में अध्यस्त घटादि केवल साक्षिवेश नहीं होता उसी प्रकार देह भी केवल साक्षिवेद्य नहीं हो सकेगा। यदि उसे जोव में प्रध्यरत माना जायगा तो जैसे एक जोवगत सुखादि अन्य को अपरोक्ष नहीं होता उसी प्रकार एक जीव का देह भी अन्य को अपरोक्ष न हो सकेगा। इस प्रकार देह में केवल साक्षिवेधत्व एवं केदल प्रमाणवेद्यत्व दोनों सम्भव न होने से देह के अप्रत्यक्षत्व की आपत्ति अनिवार्य है।" [भिन्न भिन्न रूप से जीव ब्रह्म में अध्यस्त] इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्तीओं का कहना है कि जीव एक ही है जो देहत्त्व रूप से ब्रह्म में अध्यस्त होता है-जीव में नहीं । अतएव 'अहं वेहः' यह प्रतीति नहीं होती है । एवं ब्रह्म में अध्यस्त देह के तादात्म्य से अभिनिविष्ट मनुष्य के रूप से जीव में प्रध्यस्त होता है, ब्रह्म में नहीं होता, इसीलिये 'प्रहं मनुष्यः' यह प्रतीति होती है । अथवा 'अहं देहः' इस प्रतीति के होने से उक्त प्रकार से ब्रह्म में Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था २० टोका एवं हिन्दी बिवेचन ] बेहात्मना और जोय में मनुष्यात्मना जीवाध्यास मानना प्रावश्यक होता है। इसलिये प्रभातृतादास्म्याभिनिविष्ट मनुष्यत्वरूप से ही जीव केवल साक्षिवेद्य होता है, क्योंकि उस रूप से अवभास के लिये प्रमाणजन्यवृत्ति की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु बेहत्वरूप से तो वह प्रमाणवेध ही होता है । इसीप्रकार अन्तःकरणादि भी अन्तकरणत्वाविरूप से ब्रह्म में अध्यस्त होता है और अहत्वादिरूप से जीव में अध्यस्त होता है । अतः उक्तरीति से बेह में प्रज्ञानोपहित चैतन्यरूप साक्षिवेधता सिद्ध होती है । ननु नाजानं साक्षित्व उपाधिः, सुषप्तेऽज्ञानसुखसाक्षिस्फूर्तेः पुरुषान्तरस्य 'सुखमहमस्वाप्सम्' इति स्मरणप्रसशात ! किन्सन काणाव. मरणोपहिने संस्कारस्तत्रैव स्मरणनियमेनाऽनतिप्रसङ्गादिति चेत् न, सुषुप्तावज्ञानाधाकारवृस्या परिच्छिन्नयान्तःकरणादिसंस्कारावच्छेदेनोत्पध नश्यन्त्या तदवच्छेदेन संस्काराधानात् तदवच्छेदेन स्मरणादनतिप्रसङ्गात, जीवेश्वरसाधारण्येनाज्ञानस्य साक्षित्वोपाधित्वात् । तदुक्तम्-'मोहसंक्रान्तमूर्ति: साची' ति । [साक्षित्व में उपाधि अज्ञान या अन्तःकरण ? ] अज्ञानोपहितचैतन्य को साक्षी मानने के सम्बन्ध में यह शंका होती है कि "प्रज्ञान साक्षित्व म उपाधि नहीं हो सकता, क्योंकि सुषुप्त को अज्ञान और सुख को स्फुति साक्षी से होती है। यदि साक्षी अज्ञानोपहित होगा तो पुरुषान्तर अन्यपुरुष जिस को सुषुप्ति में अज्ञान-सुख को स्फुति नहीं हुयी है उसे भी 'सुसमहमस्वाप्सं न किश्चिदवेदिषम्' इस प्रकार सुख और अज्ञान के स्मरण को आपत्ति होगी। क्योंकि पुरुषान्तर भी अज्ञानोपहितचैतन्यात्मक है। अतः अज्ञानोपहितचैतन्य से होनेवाले उक्त अनुभवजन्य संस्कार पुरुषान्तर में भी होगा । अतः अज्ञान को साक्षित्व में उपाधि न मानकर अन्तःकरण को ही उपाधि मानना उचित है । तब अन्तःकरण उपहितचंतन्य साक्षी होगा तो जिस अन्तःकरण से उपहितचैतन्य में संस्कार होगा उसी में स्मरण का नियम होने से अन्य को स्मरण की आपत्ति नहीं हो सकेगी।"-किन्तु विचार करने पर यह शंका नहीं उपपन्न होती क्योंकि सुषुप्ति में जो अज्ञानाद्याकार वृत्ति होती है वह परिच्छिन होती है, क्योंकि वह संस्कार सूक्ष्मावस्था में विद्यमान अन्तःकरण से अवच्छिन्नतन्य में ही उत्पन्न और नष्ट होता है । अतः तादृशान्तःकरण से अवच्छिन्न चैतन्य में ही संस्कार के आधान द्वारा तदछिन चैतन्य में हो स्मरण का प्रयोजक होती है। अतएव अन्य पुरुष में सुषुप्त पुरष से अनुभूत सुर और अज्ञान के स्मरण का अतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता। [ साक्षी अनानादि के स्फुरण में नहीं स्मरण में प्रयोजक । यहाँ यह जातव्य है कि उक्त शंका का यह समाधान अज्ञानादि के वक्तिसापेक्ष साक्षिवेधता मल में है। अतः वत्तिनिरपेक्ष साक्षियेद्यता पक्ष में उक्त शंका का समाधान यह है कि साक्षितन्य जिस अन्तःकरण से उपहितचैतन्य में अज्ञानादि के स्फुरण का सम्पादक होता है उसी अन्तःकरण से उपहितचैतन्य में अशानादि के संस्कार के आधान द्वारा कालान्तर में अज्ञानादि के स्मरण का प्रयोजक होता है। यद्यपि वृत्ति निरपेक्ष साक्षी कालान्तर में भी सुलभ रहता है किन्तु कालान्तर में विषय विधमान न रहने से अथवा विषय के स्फुरण के प्रतिबन्धक का संनिधान रहने से अब विषय Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास • स्त० ८०१ स्फुरण होना सम्भव नहीं होता उस समय विषय स्मरण की उपपत्ति के लिये इस पक्ष में भी संस्कार मानना आवश्यक हैं । यह संस्कार वृत्तिविशेषरूप है। अतः इस मत का निष्कर्ष यह है कि अज्ञानादि के स्फुरण में साक्षी वृत्तिनिरपेक्ष होता है किन्तु उसके स्मरण का संस्कारात्मकवृत्ति द्वारा प्रयोजक होता है। ५६ अतः लाघव से जीव-ईश्वर उभय के साक्षित्व में श्रज्ञात हो उपाधि है । जैसा कि साक्षी का लक्षण प्रमाणिक वेदान्तीओं द्वारा कहा गया है कि साक्षी मोहसंक्रान्तिस्वरूप होता है । मोह का अर्थ अज्ञान होता है, न कि अन्तःकरण । अत एव उक्त कथन से अज्ञान में हो साक्षित्व की उपाधिता सिद्ध होती है । * 54 अयमेव प्राज्ञ इति, आनन्दमय इति च गीयते, सुपुप्तेः प्रकर्षेणाऽतत्वात्, आनन्दप्रचुर - त्वाच्च न किञ्चिदवेदिषम्' इति 'सुखमस्वाप्सम्' इति परामर्शादि तत्रान्तःकरणाद्युपाधिविरहात्, जागरापेक्षयानन्दाभिव्यक्तेः । न त्वानन्दमयः शुद्धः, अनात्मत्वेन निर्णीताम्नमय प्राणमय-मनोमय-विज्ञानमय प्रयपाठात् । स्थूल देहसंबन्धात् 'अन्नमयः' इति, प्राणपञ्चक- कर्मेन्द्रियपञ्चकसंबम्धात् 'प्राणमयः' इति, मनः संबन्धात् 'मनोमयः' इति, बुद्धिज्ञानेन्द्रियसंबन्धाद् 'विज्ञानमयः ' इति च स एवानन्दमयोऽभिधीयते । ' [ सुपुप्ति में प्राश और आनन्दमय अवस्था ] 41 यह जीव हो सुषुप्ति में प्राज्ञ एवं आनन्दमय कहा जाता है, क्योंकि वह सुषुप्ति के समय 'प्रकर्षेण श्रज्ञः' अर्थात् सर्वविषयक अज्ञानवान् होता है और आनन्दप्रचुर होता है । सुषुप्तिकाल में जीव की प्रकर्षेण प्रज्ञता और आनन्दप्रचुरता को सिद्धि सो कर उठने पर उत्पन्न होनेशले 'न किश्विदवेदिषम्', 'सुखमस्वाप्सम्' इस प्रकार के स्मरण से होती है। उस समय अन्त करण आदि उपाधियां नहीं होती, अतः इस समय अनुभूत होनेवाला सुख वैषयिक सुख नहीं होता । तथा जागरण की अपेक्षा आनन्द की अभिव्यक्ति अधिक होती है । अतः इस समय जीव श्रानन्दप्रचुर होता है । यह आनन्दमय होते हुये भी शुद्ध नहीं होता क्योंकि उपनिषदों में उस का निर्देश अधिकतर अनात्मत्वेन निर्णीत अन्नमय प्रणामय- मनोमय और विज्ञानमय के साथ ही है । जीव ही स्थूल देह के सम्बन्ध से असमय और प्राणपञ्चक एवं कर्मेन्द्रियश्चक के सम्बन्ध से प्राणमय, मन के सम्बन्ध से मनोमय, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रिय के सम्बन्ध से विज्ञानमय, और विज्ञानमय हो जीव सुषुप्ति में सुक्ष्मावस्थापन बुद्धि ज्ञानेन्द्रिय से सम्बद्ध होकर आनन्दमय कहा जाता है । प्राणमयादिकोशत्रयस्यैव तैजसत्वव्यपदेशः । तत्रैव च विज्ञानमयो ज्ञानशक्त्या 'कर्ता' इत्युच्यते, मनोमय इच्छाशक्त्या कारणम्, प्राणमया क्रियाशक्त्या कार्यम् । एतेन परेषामिव नास्माकं प्रयत्नः कोशद्वयनिष्ठज्ञानेच्छाभ्यामनन्तरं प्राणक्रियाशक्त्यैव शरीरचेष्टासंभवात्, इष्टपदार्थज्ञानस्य 'इष्टं मे स्यात्' इतिीच्छायाश्वानुभववत् प्रयत्नानुभवाभावाच, 'अहं प्रयते' इति चेष्टा विषयत्वात् प्रतीतेः शब्देन च सद(न) भिधानात् । एतेन जीवनयोनिः प्रयत्नो निरस्तः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क टीका एवं हिन्दी विवेचन ] इदमेव कोशवयं लिङ्गशरीरम् । तच्च द्विविधम्-समष्टि व्यष्टिभेदात् । तत्र समष्टिर्नाम व्यापकं स्त्रमिव मणिषु सर्वलिंगशरीरेषु स्थूलेषु चानुस्यूतं हिरण्यगर्माख्यं लिङ्गशरीरम् । तच्चोपासनाविशेषफलभूतं प्रभृतपुण्यस्य भोक्तुरुत्कर्ष गतस्यानन्दविशेषस्यायतनं, 'त ये शतं प्रजापतेरानन्दाः स एको ब्रमणः' इति श्रुतेः । एतस्य चोक्तविधानन्दभोगनियमे न स्थूलशरीरापेक्षा, ब्रह्माण्डाद् बहिपि भोगश्रवणात । एतदुपासकानां चोक्तविधसायुज्यं गताना दिराडादिसृष्टिव्यापारवर्ज तादृशमेव भोगादि । [प्राणमयादि तीन कोशों की कार्यप्रक्रिया ] जीच की ये पांच अवस्थाएँ चैतन्य के स्वरूप की प्राच्छादक होने के कारण कोश शब्द से व्यय होती हैं । इस में प्रापम नमामय और विज्ञानमय इन तीन कोश को तैजस कहा जाता हैइस तेजस कोश का घटक विज्ञानमय कोश ज्ञानशवित से कर्ता, मनोमय कोश इच्छाशक्ति से करण और प्राणमय कोश क्रिया-शक्ति से कार्य कारण में अभेद समझकर कार्य कहा जाता है । इस निरूपण से यह स्पष्ट है कि नैयायिकादि के समान वेवान्ती को प्रयत्न मान्य नहीं है । क्योंकि शरीर की चेष्टा जो न्यायमत से प्रयत्नसाध्य मानी जाती है-वह वेदान्तमत में विज्ञानमय और मनोमय कोश में क्रमशः ज्ञान और इच्छा उत्पन्न होने के बाद प्राण को क्रियाशक्ति से ही सम्पन्न हो जाती है। ज्ञान और इच्छा का अभ्युपगम तो इष्टपदार्थ के ज्ञान और इष्टप्राप्ति की इच्छा के अनुभव से सिद्ध है; किन्तु प्रयत्न की सिद्धि अनुभव से नहीं होती क्योंकि प्रयत्न का अनुभव असिद्ध है और 'अहं प्रयते' यह प्रतीति प्रयत्नविषयक न होकर चेष्टाविषयक है क्योंकि वेदान्तमत में प्रयत्न वाद से भी चेष्टा का ही अभिधान होता है। चेष्टाजनक प्रयत्न का निषेध करने से जीवनयोनि =जीवनादृष्ट मूलक प्रयत्न भी निरस्त हो जाता है क्योंकि उस प्रयत्न का नाडोस्पन्दनादि कार्य प्राणमय कोश की सहाकिया शक्ति से ही सम्पन्न हो जाता है। [ समष्टि लिंग और उपासना का फल ] यह कोशत्रय हो लिङ्ग शम्व से कहा जाता है-इस के दो भेद होते हैं-समष्टि और व्यष्टि । उन में समष्टि का अर्थ है व्यापक, जो मणिों में सूत्र के समान सम्पूर्ण लिङ्ग शरीरों में और स्थल शरोरों में अनुस्यूत होता है, उस की संज्ञा 'हिरण्यगर्भ' होती है और वह ब्रह्मा का लिंगशरीर होता है । यह उपासनाविशेष के फलस्वरूप प्रभूत पुण्यशाली भोक्ता के उत्कृष्ट मानन्दविशेष को प्रायतनरूप में प्राप्त होता है। क्योंकि अति का उद्घोष है कि प्रजापति का शतगुणित मानन्द ब्रह्माहिरण्यगर्भ का एक प्रानन्द होता है ! यही आनन्द हिरण्यगर्भ की उपासना का परिपाक होने पर उपासक को ब्रह्मलोक में ब्रह्मा के हिरण्यगर्भनामक समलिङ्गशरीर द्वारा प्राप्त होता है । इस उक्त आनन्दविशेष के भोग का सम्पादन स्थूल शरीर की अपेक्षा नहीं होता, क्योंकि यह भोग ब्रहारड के बाहर भी होता है जहाँ स्थलशरीर की पहुँच नहीं। हिरण्यगर्भ के उपासक जो ब्रह्मलोक में के हिरण्यगर्भ शरीर को उत्कृष्ट आनन्दविशेष के भोग के साधन रूप में प्राप्तिरूप सायुज्य से सम्पन्न होते हैं उनमें विराट आदि को सृष्टि के सामर्थ्य से अतिरिक्त आनन्द भोग प्रादि सब कुछ ब्रह्मा के समान ही उपलब्ध होता है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ [ शास्त्रया स्त० - लो०१ व्यष्टिर्नाम परिच्छिमम । तच्च बहुविधं विराजादि पिपीलिकापर्यन्तम् । तत्र विराजोऽस्मदादिवत् परिच्छिमस्यैव सतः प्रभृतपुण्यभोक्तविशेषम्य सकवस्थुलाभिमानिनः सत्यलोकाधिपते. चतुमुखभोगालीनाल्छेदेन दिल्या निवासस्कृतानन्दविशेषान भुञ्जतः प्रजापतिश्वानर इत्यादयोव्यपदेशा भवन्ति । सकलस्थुलाभिमानित्याच स्थलसमष्टिरिति व्यपदिश्यते ।-'हिरण्यगर्भस्यैव स्थूलसंपन्धाद् विरासंज्ञा, तैजसस्येव विश्वसंज्ञा, जीवान्तरकल्पने गोरवात्' इति न युक्तम् , पासनाविधिशेषेभ्या देवताविग्रहन्यायेन तत्सिद्धेः । एवमग्न्यादयोऽपि श्रुत्यादिसिद्धा अबसेयाः । [ व्यष्टि लिंग-विराट् आदि यह भेद ] व्यष्टि का अर्थ है परिच्छिन्न। वह विराट से लेकर चिटीपर्यन्त अनेक प्रकार का है । उन में विराट् यह मनुष्यादि के समान ही परिच्छिन्न होता है और वह प्रभूत पुण्यशाली विशिष्ट भोक्ता होता है तथा सकल स्थूलशरीर में अहन्त्वाभिमानी सत्यलोक का स्वामी भोगोपयोगी चतुर्मुख शरीरधारी हिरण्यगर्भ के आनन्द से शतगुण न्यून आनन्द विशेष का भोक्ता होता है । प्रजापतिधश्वानर प्रावि उस के नाम हैं । सकलस्थूलशरीराभिमानी होने से उसे स्थलसमष्टि भी कहा जाता है। कुछ लोगों का यह कहना है कि-'जैसे स्थलशरोर के सम्बन्ध से तेजस की हो विश्वसंज्ञा होती है उसीप्रकार स्थूल शरीर के सम्बन्ध से हिरण्यगर्भ की ही विराट् संज्ञो होती है, क्योंकि जोवान्तर की कल्पना गौरवग्रस्त है। किन्तु यह युक्त नहीं है क्योंकि उपासना विधि के शेष वाषयों से तथा देवताविग्रह न्याय से विराट की सिद्धि होती है। विराट के समान ही अग्नि प्रादि संज्ञक जीवविशेष भी श्रुतिओं में बताये गये है। एसच समष्टि-पष्टिलिङ्गशरीरमपश्चीकनेभ्यो भूतेभ्य उत्पद्यते । तथाहि-मायाशबलाश्चिदात्मन आकाशः, तस्माद् वायुः, यायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथिवी । एतानि सूक्ष्माणि यापकानि च । सूक्ष्मत्वं पिरलाव यवत्वम् । एतान्येव तन्मात्राः' इति व्यपदिश्यन्ते । एतेभ्यश्च व्यस्तेभ्यः क्रमेण श्रोत्रादिपञ्चकं वागादिपञ्चकं च, समस्तेभ्योऽन्तःकरणं प्राणश्चोत्पद्यते । अत एव श्रोत्रं न परेषामित्र कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नं नमः, किन्तु तत्कार्य व्यष्टिसमष्टिरूपम् , तेन नावश्यमन्तरेयोत्पन्नः श्रोत्रेण शब्दो गृह्यत इति नियमः चक्षुर्वद् हिर्गत्रा तेन बहिष्ठम्यापि शब्दस्य ग्रहणसंभवात् । ततश्चैक एवं शब्दो यथाप्रतीति बहुभिः पुरुपेगृह्यत इति युक्त समाश्रयितुम् । ततश्च न प्रतिपुरुषं शब्दान्त ग्रहणकल्पना, नापि शब्दै कत्यप्रतीते सजातीयनिमिचकनमत्वकल्पना । । एतानि च श्रोत्रादीनि 'पञ्चभृतकार्यान्तःकरणात्मकानि' इति केचित् । 'स्वतन्त्राणि' इत्यपरे । एवमुत्पन्नलिङ्गशरीरेभ्योऽपञ्चीकृतेभ्यः पञ्चीकृतभृतोत्पचिः' इति केचित । पश्चीकरणं Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] तु पश्चानामर्धदशकं विधाय पश्चानामर्धपचके इतरार्धपञ्चकस्य प्रत्येकं चतुर्धा विभक्तस्य भागचतुष्टयस्य वस्त्रार्धपरित्यागेन योजनम् । अत्र चेश्वरस्यैव कतृत्वम् "तेषामेकैकं निवृत्तं फरचाणि" इतिश्रुतेः । पृथिव्यादिभागानां बहुत्वात्तु पृथिव्यादिव्यपदेशः । [पंचभूत, पंचेन्द्रिय, वाग् आदि का प्रपंच ] समष्टि व्यष्टि उभय रूप लिङ्ग शरीर अपञ्चीकृत भूतों से अर्थात् अन्यभूतमावानापन्न भूतों से उत्पन्न होता है। उस को उत्पत्ति को प्रक्रिया इस प्रकार है-माथा से उपहित ब्रह्मचैतन्य से आकाश की, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि ले जल और जल से पृथ्वी की, इस क्रम से भूतों की उत्पत्ति होती है । भूतों का यह उत्पत्तिकम तस्माद्वा एतस्मादामन आकाशः सम्भूतः, अाकाशानायुः, बायोरग्निः, अग्ने रापः पदयः पनी म श्रुति से सिद्ध है । उत्पत्ति का यह कम युक्तिपोषित भी है ययोकि काश पहले उत्पन्न न हो तो चाय के सचरण के लिये अवकाश नहीं होगा। एवं अग्नि को वाय की अपेक्षा लोक्रसिद्ध ही है, इसीलिये अग्नि 'मरुत्सख' नाम से प्रसिद्ध है। अग्नि से जल की उत्पत्ति भी इस अनुभव से बुद्धिगम्य होती है कि जब गर्मी अधिक पडती है तभी वर्षा प्रारम्भ होती है । और जल से पृथ्वी का होना भी जल से कठोर बर्फ इत्यादि की उत्पत्ति देखते हुये बुद्धिगम्य है। [श्रोधेन्द्रिय आकाशरूप नहीं है ] ये भूत सूक्ष्म और व्यापक रोते हैं । इन के सूक्ष्म होने का यह प्रर्थ नहीं कि ये निरययय होते हैं किन्तु उनको सूक्षमता अवययों की विरलतारूप है। अर्थात् इनमें अवयवों का निबिड संयोग नहीं होता । ये अपश्चीकृत भूत हो तदेव तन्मात्रम्' इस व्युत्पति से तन्मात्रशब्द से व्यवहुप्त होते हैं । इन में एक एक भूत से, क्रमशः श्रोत्र-त्वक्-चक्षु-रसना और घ्राण इन पांच ज्ञानेन्द्रियों को और वाक्पाणि-पाद-पायु-उपस्थ इन पांच कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती हैं। सम्मिलित पांचों से अन्तःकरण और प्राण को उत्पत्ति होती है। न्यायदर्शन के समान वेदाती मत में श्रोत्रेन्द्रिय कर्णशष्फुली से अवच्छिन्न प्रकाशरूप नहीं है किन्तु उस का कार्य है और व्यष्टि- समष्टि उभयरूप है । इस लिये श्रोत्र से कर्णशष्कुली के भीतर ही उत्पन्न शब्द के प्रत्यक्ष का नियम नहीं है किन्तु वह चक्षु के समान बाहर विषयदेश में जाकर बहिर्देशवर्ती शब्द का भी ग्रहण कर सकता है। अतः जैसे लोक में प्रतीति है तदनुसार अनेक पुरुषों द्वारा एक ही शब्द का ग्रहण होना इस मत में पुक्तिसङ्गत है। इसलिये इस मत में विभिन्न मनुष्यों को विभिन्न शब्द का ग्रहण होता है यह कल्पना और एक पुरुष को गृह्यमाण शब्द में अन्य पुरुषद्वारा गामाण शब्द के साथ होने वाली एकत्व प्रतीति में सजातीय शब्द निमित्तकत्वप्रयुक्त भ्रमरूपता की कल्पना आवश्यक नहीं होती। कुछ विद्वानों का मत है कि श्रोत्रादि सभी ज्ञानेन्द्रियां पञ्च भूलों के अन्तःकरारूप कार्य से अभिन्न है । अर्थात अन्तःकरण ही कार्यभेद से श्रोत्रादि नामों से व्यवहुत होता है। अपर विद्वानों का मत है कि वे अन्तःकरण से भिन्न है। कुछ दूसरे विद्वानों का मत यह है कि तन्मात्रों के पश्चीकरण से पश्वीकृत भूतों की उत्पत्ति नहीं होती अपितु तन्मात्रा से उत्पन्न अपञ्चीकृत लिङ्गशरीरों से पश्वीकृत भूतों की उत्पत्ति होती है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो०१ [भूत पञ्चीकरण प्रकिया ] भूतों का पञ्चीकरण इस प्रकार होता है-पांच भूतों में प्रत्येक के दो भाग करने से कुल दश भाग होते हैं, और प्रत्येक के एक अधं के चार भाग होते हैं जो चार भाग अपने मूल अर्धभाग से अन्य चार विभागों में मिल जाते हैं। अप तेजस् वायु श्राकाश पृथ्वी । १० ते. ३० अ० आ. पृ० - वा० वा० वा० ते० आ० मा० आ० प्रा० वा० इस प्रकार प्रत्येक भूत का आधा भाग अन्य चार भूतों के एक भाग से मिलकर फिर एक पूरा भत बन जाता है। इस प्रकार प्रत्येक भूत पञ्चभूतात्मक हो जाते हैं [ देखीये प्राकृति ] । भूतों के इस पञ्चीकरण का कर्ता ईश्वर ही होता है । क्योंकि भूतों के पश्चीकरण के समय कोई भी जीव कर्ता बनने को स्थिति में नहीं होता। क्योंकि उस समय जीव अशरीरी होते हैं और शरीर के बिना जीव में कृतत्व नहीं आ सकता। मूतों के पश्चीकरण में और उस के ईश्वरकर्तृत्व में "तासामेकैक त्रिवृत्तं करवाणि" यह श्रुति उपलक्षणविधया प्रमाण है । आशय यह है कि इस श्रुति से तो पृथ्वी-जल-तेजः इन तीनों में प्रत्येक का त्रिवृत्तकरण ही स्पष्ट रूप से प्राप्त होता हैकिन्तु यह पञ्चीकरण का ही उपलक्षण है । त्रिवृत्तकरण का उल्लेख पश्चीकरण के उल्लेख को अपेक्षा शीघ्रबोध्य होने से उसका पादत: उल्लेख किया गया है । इस प्रकार समस्त भूतों के पञ्चात्मक होने पर भी सब को पृथ्वी-जलादि सभी भूतनामों से व्यपदिष्ट नहीं किया जाता किन्तु जिस में जिस भूत का भाग अधिक रहता है उस अधिकता के कारण हो उसे उस भूत के बोधक पृथ्वी प्रादि शब्द से व्यपविष्ट किया जाता है। ___ साम्प्रदापिकास्तु न पश्चीकृताना कार्यान्तस्त्वमिच्छन्ति, आकाशादिभ्यो वाय्वादिजन्मश्रवणवदपञ्चीकृतेभ्यः पञ्चीकृतजन्मश्रवणाभावात् । किन्तु तान्येव संयोगविशेषावस्थानि पश्चीकृतान्युच्यन्ते । अत एव 'पटोऽपि न तन्तुभ्यः कार्यान्तरम्, किन्तु संयुक्तावस्थास्तन्तव एव' इति सिद्धान्तः । एतेभ्यः पञ्चीकृतेभ्यः पञ्चम्योऽपि ब्रह्माण्डभूधसदिचतुर्दशभुवनचतुर्विधस्थलशरीरोत्पत्तिः । कथं विजातीयेभ्य एककार्योत्पत्तिः ? इत्याक्षिपतां तन्तुभ्यः पटकार्योत्पत्ति स्वीकृत्य तन्तु-केशपट्ट धादिभ्यः प्रतीयमानाऽऽसनादिविचित्रकार्याऽभावमङ्गीकुर्वता कोशपानमेवैकशरणम् । चतुर्विधानि जरायुजा-ऽण्डज-स्वेदजोद्भिज्जानि ! तदेवं निरूपितो हिरण्यगर्भादिरुद्भिज्जान्तो जीवस्य संसारोऽविद्यामूलः ॥१॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विधेचन ] पिनी [पञ्चीकरण के सम्बन्ध में मतान्तर ] __ साम्प्रदायिक वेदान्तीओं का मत है कि अपञ्चीकृत भूतों से पञ्चीकृत भूत कोई भिन्न नहीं है, क्योंकि प्राकाशादि से वायु आदि के जन्म को प्रतिपादक श्रति जैसे उपलब्ध होती है । उसी प्रकार अप-धीकृत भूतों से पञ्चोकृत भूतों के जन्म की प्रतिपादक श्रुति नहीं है। किन्तु अपञ्चीकृत भूत ही परस्पर में विलक्षण संयोगात्मक अवस्था को प्राप्त होने पर पक्षीकृत कह आते हैं । इसीलिये वेदान्त का यह सुप्रसिद्ध सिद्धान्त है कि पटादि भी तन्तुओं से भिन्न कार्यरूप नहीं होते किन्तु विलक्षणसंयोगात्मक अवस्था प्राप्त तन्तु ही पट शब्द से ध्यवहत होते हैं । इन पश्चीकृत पश्च मूतों से ब्रह्माण्ड और उस में पर्वतादि से भरपूर चौदह लोकों की और उन लोकों में चार प्रकारों के स्थल शरीर की उत्पत्ति होती है।-'परस्पर विजातीय पांच भूतों से ब्रह्माण्ड जैसे एक कार्य की उत्पत्ति कसे सम्मव होगी ?'-इस प्रकार का जो लोग आक्षेप करते हैं वे तन्तुसमूह से पटकार्य की उत्पत्ति मानकर भी, तन्तु-केश-पट्टसूत्रादि से आसनावि विचित्र तारी की गई होने से उनका गभार मानते हैं । अतः आसन आदि पदार्थों तन्तुकेशावि के कार्ग न होने पर भी असे उनको प्रतीति, उनका व्यवहार, उनके विभिन्न कार्ग इत्यादि होते हैं उसी प्रकार ब्रह्माण्डादि के विभिन्न पश्वभतों का कोई एक कार्ग न होने पर भी उनको प्रतीति आदि की उत्पत्ति हो सकती है। प्रतः पश्चीकृत पांच मूतों से ब्रह्माण्डादि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उक्त आक्षेप करने का मूल एकमात्र शपथ की शरण ही हो सकता है। चतुवंश भवनों में जो स्थूलशरीर उत्पन्न होते हैं उन के जरायुज-अण्डज स्वेदज और उद्धिज्ज ये चार भेद होते हैं। जैसे मनुष्य-पशु आदि का जरायुज, पक्षी-सादिका अण्डज, कोहमकोडे आदि का स्वेवज और लता-गुल्मादि का उबिज्ज शरीर होता है। इस प्रकार यह बताया गया हिरण्यगर्भ से लेकर उद्भिज्ज पर्यन्त जीवों का सम्पूर्ण संसार का विस्तार अविद्यामूलक है। दूसरी कारिका में निरवयव ब्रह्म की अविद्यावश विचित्ररूपों में अभिव्यक्ति के सुखबोध के लिये उस के अनुकूल दृष्टान्त बताया गया है निरवयवस्यापि ब्रह्मणोऽविद्यया विचित्रतयाऽभिव्यक्ती दृष्टान्तमाहमूल-यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपालतो जनः । संकोणमिव मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते ॥२॥ यथा विशुद्ध = वस्तुतोऽसंकीर्णम् आकाश, तिमिरोपप्लुतः = तिमिरदुष्टलोचना, जनः परिच्छेसा, भिन्नाभिः = विचित्राभिः मात्राभिः =केशमक्षिकादिरूयादिभिः, संकीर्णमिवाभिमन्यते- दोषात् पश्यति । जैसे आकाश वस्तुतः किसी वस्तु से कदापि संकीर्ण नहीं होता फिर भी जिस मनुष्य को दृष्टि तिभिर रोग से आक्रान्त होती है वह उसे विचित्र मात्रा यानी केश-मक्खी इत्यादि सूक्ष्मवस्तुओं से नेत्र वोषवश संकीर्ण वेखता है [उसी प्रकार आकाशादि प्रपश्व से सर्वथा शून्यबह्म को अविद्यादोषवश मनुष्य उन सभी वस्तुनों से अभिव्याप्त देखता है।] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रया ० स्त०८ श्लो० २ ननु कथमेतत् ? 'इदं रजतं' इत्यत्रेदमंशस्य प्रमाणतोऽपरोक्षत्रस्य, रजतांशस्य च रजताकागऽविद्याश्या साक्ष्यपरोक्षत्वस्येव, अत्र केशादिसंकीर्णतांशेऽविद्यावृत्या साक्ष्यपरोक्षत्वेऽप्याकाशाशे घटवत्स्वावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्यप्रमातृचतन्यामेदाभिव्य मकवृत्त्यभावेन प्रमाणतोऽपरोक्षवाजीवेऽनध्यस्तत्वेन च सुखादिवत् सान्यपरोक्षस्खायोगात्' ? इति चेत् ? अत्रयदन्तियथा केवलसादगम्यस्थापनानाजसादः प्रामाणिकमावत्व-मिथ्यात्वादिधर्मपुरस्कारेण प्रमाणगम्यत्वम् , एवं प्रामाणिकस्यापि नभसः केवलसाक्षिवेद्यसंकीर्णताधर्मपुरस्कारेण केवल साक्ष्यपरोक्षत्वम् , नभःसंकीर्णतावगाय काविद्यावृत्तिप्रतिफलितसाक्षिणा संकीर्णतायास्तदाश्रयतया नभसश्च विषयीकरणात् । [आकाश की अपरोक्षता किस प्रकार ?] इस दृष्टान्त के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि केश-मक्खी प्रावि से संकीर्ण आकाश को देखना कैसे सम्भव हो सकता है ? क्योंकि देखने का अर्थ है अपरोक्ष अनुभव करना। किन्तु जिस प्रकार 'इदं रजतम्' इस शुक्तिरजतज्ञान के प्रसङ्ग में इयमंश की प्रमाण द्वारा और रजतांश को अविद्या सम्बन्धी रजताकार वृत्ति द्वारा साक्षिप्रयुक्त अपरोक्षता होती है उस प्रकार केशादि से संकीर्ण आकाश को अपरोक्षता नहीं हो सकती। क्योंकि केशादि की संकीर्णता की प्राकाश में विद्यावृत्ति से साक्षिप्रयुक्त अपरोक्षता सम्भव होने पर भी प्रकाश की अपरोक्षता नहीं हो सकती। क्योंकि अपरोक्षता दो ही प्रकार से होती है-प्रमाण द्वारा अथवा साक्षि द्वारा। प्रमाण द्वारा अपरोक्षता उस समय होती है जब विषयावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य और प्रमातृचैतन्य के अभेद को अभिव्यक्त करने वाली प्रमाणजन्यवृत्ति होती है-जैसे घट को चक्षुजन्य अन्तःकरणत्ति का घटदेश में बहिर्गमन होने पर वृत्त्यात्मना प्रमातृचैतन्य अन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्य का भी विषयदेश में संनिधान हो जाने से घटावच्छिन्न चैतन्य एवं प्रमातृवेतन्य के अभेद की अभिव्यक्ति होकर घट की अपरोक्षता होती है- किन्तु प्राकाश के सम्बन्ध में यह सम्भव नहीं है। क्योकि प्रकाश चक्षु के अयोग्य है, अत एवं प्राकाश को चक्षुर्जन्य अन्तःकरणवृत्ति असम्भव है, इसलिये आकाश को प्रमाणतः अपरोक्षता असम्भाग्य है । साक्षि द्वारा भी उस की अपरोक्षता नहीं हो सकती क्योंकि साक्षि द्वारा वही वस्तु अपरोक्ष होती है जो जीव में अध्यस्त होती है-जैसे जीव में अध्यस्त सुख-दुःखादि। किन्तु आकाश बाह्मवस्तु होने से जोव में अध्यस्त नहीं है। [ केवल साक्षि द्वारा आकाश की अपरोक्षता ] इस प्रश्न के उत्तर में वेवान्ती विद्वानों का कहना है कि जैसे अज्ञान और शुक्तिरजतादि केवल साक्षिगम्य होता है तथापि भावत्व-मिथ्यात्वादि प्रामाणिक धर्मों द्वारा प्रमाणगम्य भी होता है, उसी प्रकार प्रामाणिक प्रकाश केवल साक्षीवेद्य केशादिसंकीर्णतारूप धर्म के साथ केवल साक्षिद्वारा अपरोक्ष हो सकता है, क्योंकि आकाश में केशादिसंकीर्णता वियषक एक अविद्यावृत्ति में प्रतिबिम्बित साक्षोसंकीर्णता को और संकीर्णता के आश्रयरूप में प्राकाश को विषय कर सकता है। नन्वेवमविद्यावृत्तिविषयतया साक्षिविषयीकृतत्वाद् भ्रमानुमिताविवापरोक्षत्वं न स्यादिति चेत् ? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०६० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] न, ईश्वरस्य मायावृत्तिविषयतयाऽतीता-ऽनागतानामपरोक्षवत् प्रकृतेऽपि तथात्वात, भ्रमप्रमानु मित्यादावविद्यान्तःकरणवृत्तिविपयतया वह्न : साक्षिसंबन्धेऽपिलिङ्गादिप्रतिसंधानापेक्षत्वादपरोक्ष. स्वव्यवहाराभावात् , अज्ञानविपयतया घटबयादेः साक्षिसंघन्धे तूक्त हेतोरभावात् तद्भावात् । ततो विषयपक्षपातितया नमोनिष्ठसंकीर्णताभावाज्ञानस्य नभोऽवच्छिन्नचेतन्यनिष्ठापि संकीणेता साक्षिणि स्वाकाराविद्यावृत्तिविषयतया स्वाध्यस्ता लिङ्गादिप्रतिसंधानाभावादपरोक्षैव व्यवह्रियते । 'अधिष्ठानझानं विना कथं नभसि संकीर्णतानमः, न च केवलस्याधिष्ठानस्याविद्यावृत्तिरूपं ज्ञानं संभवति, प्रामाणिकत्वात् ?' इति चेत्त ? न तज्ज्ञानस्यानुमितिरूपत्वात् , भ्रमात् प्रागधिष्ठानस्य परोक्षत्वेऽपि भ्रमदशायामपरोक्षत्यात. प्रागपरोक्ष एवाधिष्ठानेऽपरोक्षभ्रम इति नियमामावादिति । ततः स्थितमेतदाफाशमसंकीर्णमप्यविद्यावृत्त्या संकीर्णमिव पश्यतीति ॥ २ ॥ [ आकाश-अपरोक्ष न हो सकने की पुनः आर्शका ] उक्त प्रतिपादन के सम्बन्ध में शंका हो सकती है कि 'आकाश' अविधा की वृत्ति के विषयरूप में साक्षि द्वारा ग्रहीत होने के कारण अपरोक्ष नहीं हो सकेगा। क्योंकि 'हृयो वह्निमान्' = इत्यादि भ्रमात्मक अनुमिति स्थल में हव में भासित होने वाला अनिर्वचनीयाह्न अविद्यावृत्ति के विषयरूप में साक्षि का विषय होने पर भी अपरोक्ष नहीं होता। किन्तु यह शंका कुछ क्षति नहीं कर सकती, क्योंकि जैसे प्रतीत-अनागत पदार्थ माया की वृत्ति के विषयरूप में ईश्वर साक्षी का विषय होने से ईश्वर को अपरोक्ष होते हैं उसी प्रकार केशादि संकीर्णरूप में गृहीत होने वाले प्राकाश की भी अपरोक्षता हो सकती है। यद्यपि भ्रमात्मक और प्रमात्मक अनुमिति आदि स्थलों में भी बात का क्रम से अविद्या और अन्तःकरण को वृत्ति के विषय के रूप में साक्षी से सम्बन्ध होता है तथापि लिंगव्याप्ति-पक्षधर्मता के निश्चय की अपेक्षा होने से उसमें अपरोक्षरव्यवहार नहीं होता। किन्तु जब घट और वह्नि आदि का 'घटमहं न जानामि'- 'वह्निमहं न जानामि' इस प्रकार अज्ञान के विषय में साक्षी के साथ सम्बन्ध होता है लब उस में लिङ्ग प्रावि के निश्चयरूप हेतु की अपेक्षा न होने से उन में अपरोक्षस्वव्यवहार होता है । निष्कर्ष यह है कि प्राकाश में केशादि संकीर्णता के अभाव का अज्ञान अधिष्ठानरूप विषय का पक्षपाती होता है । अतः उससे जो अनियंचनीय केशसिंकीर्णता उत्पन्न होती है यह आकाश से अवच्छिन्न चैतन्य में ही रहती है । तथापि अदिद्यावृत्ति के विषयरूप में साक्षी में अध्यस्त होने से अपरोक्ष होती है। उस में लिङ्गादि के ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती। अत एव वह अपरोक्ष शब्द से व्यवहत होती है। [ केशादि संकीर्णता का प्रत्यच भ्रमरूप कैसे ? ] इस संदर्भ में यह शंका हो सकती है फि-"केशादि संकीर्णता के भ्रम का अधिष्ठान आकाश होता है किन्तु अतीन्द्रिय होने से उसका प्रत्यक्ष ज्ञान सम्भव नहीं है अतः उस में केशादि संकीर्णता का प्रत्यक्ष भ्रम कैसे हो सकता है ? इस के उत्तर में यह भी नहीं कहा जा सकता कि संकोणताभ्रम के पूर्व केवल प्राकाश का अविद्यावृत्तिरूप ज्ञान होता है, क्योंकि प्राकाश ब्रह्म में Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ [ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो० ३ अध्यस्त होने से व्यावहारिक और प्रामाणिक है और जो ब्रह्म में अध्यस्त प्रामाणिक पदार्थ होता है वह अविद्यावृत्ति का विषय नहीं होता।" किन्तु इस शंका से भी कोई क्षति नहीं है क्योंकि श्राकाश का प्रत्यक्षज्ञान सम्भव न होने पर भी अनुमितिरूप ज्ञान हो सकता है। और इस प्रकार भ्रम से पूर्व आकाशरूप अधिष्ठान के परोक्ष होने पर भी भ्रम दशा में उसकी अपरोक्षता हो सकती है। क्योंकि जो अधिष्ठान भ्रम के पूर्व अपरोक्ष होता है उसी अधिष्ठान में अपरोक्षश्रम होता है - यह नियम नहीं है । अतः frfaara सिद्ध है कि मनुष्य केशादि से असंकीर्ण भी आकाश को अविद्यावृत्ति द्वारा केशादि से संकीर्ण जैसा प्रत्यक्ष देखता है । तीसरी कारिका में उक्त दृष्टान्त की दान्तिक यानी दृष्टान्त द्वारा संवेध ब्रह्म में योजना बतायी गयी है । दान्तिक योजनामाह मूल - तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते || ३ || www तथेदं = सातादपरोक्षम्, अमलं = सजातीयमेदरहितम्, निर्विकल्पं विजातीयमेदविकल्पविकलम् ब्रह्म अविद्यया हेतुभूतया कलुपत्त्रमित्रापन्न = सजातीय भागिव, , भेदरूपं = विजातीय भेदभाव प्रकाशते । अविद्यानिवृत्तौ च शुद्धब्रह्मप्रतिपत्तिः । तथाहि - कश्चित् खलु नित्याध्ययनविधिना सम्यगधीतवेदान्तो वेदान्तवाक्यानामापाततोऽर्थमवगच्छति । [ अविद्या से ब्रह्म में भेद प्रतीति ] [ जिस प्रकार केशादि से प्रसंकीर्ण आकाश अविद्यावृत्ति से केशादि से संकीर्ण दोखता है ] उसी प्रकार श्रमल = सजातीय भेद से शून्य, निर्धकल्प = विजातीयभेद से शून्य ऐसे ब्रह्म में सजातीयभेद और विजातीय भेदरूप कलुषत्व को प्राप्त जैसा प्रतीत होता है, तथा अविद्या की निवृति होने पर शुद्ध ब्रह्म का बोध होता है । जैसे कोई मनुष्य- जिसने 'स्वध्यायोऽध्येतव्यः - वेदाध्ययन करना चाहिये। इस नित्य विधि के अनुसार वेदान्त का सम्यक् अध्ययन किया है वह आपाततः वेदान्त वाक्यों का अर्थबोध प्राप्त करता है । ननु कथमध्ययनविधेर्नित्यत्वम्, स्वाध्यायाध्ययनस्यार्थबोधफलकत्वात् ? न ह्यध्ययनयावघातादिवदुत्तरत्वङ्गत्वम् श्रुत्याद्यसच्चात् । तदवश्यं फले कल्पनीये न विश्वजिद्वत् स्वर्गः फलम् , स्वर्गोपस्थितेस्तस्य प्रकृतकर्मफलतायाश्च फल्पनायां गौरवात् । न चार्थवादिक पितॄणां पयःकुल्याप्राप्त्यादि 'यद् वचोऽधीते' इत्याद्युक्तं तत्फलम् तस्य ब्रह्मयज्ञार्थवादत्वात्, दृष्टे संभवत्यष्टकल्पनानुपपत्तेश्वार्थावबोधस्यैव फलत्वात् । न च विधिर्वैयथ्यम्, नियमविधिस्वादुपदेष्ट्रादीनां साधनत्वेनाध्ययनस्य पक्षप्राप्तेः । तस्मात् काम्यत्वाद् न नित्यत्वमध्ययनस्येति चेत् ? Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] ६५ [ अध्ययनविधि नित्य न होने की आशंका ] स्वाध्याय के अध्ययनविधि के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि वह विधि नित्य कसे हो सकती है ? जब कि स्वाध्याय-वेद का अध्ययन अर्थबोध-फलक होता है। क्योंकि वहो विधि नित्य होती है जिस का सन्ध्यावन्दमादि के समान कोई पल नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि-वेदाथबोध भी वेदाध्ययन का फल नहीं है क्योंकि-वेदान्त का अध्ययन तण्डल के प्रवधातादि के समान अपने अनन्तर होने वाले यज्ञ का अङ्ग है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेदाध्ययन में यज्ञ को अङ्गता की बोधक कोई धुति आदि प्रमाण है नहीं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-वेवाध्ययन बेद से विहित है अत एव उस का कोई न कोई फल अवश्य कल्पनीय हैं, अतः जैसे 'विश्वजिता यजेत' विश्वजित् याग को इस विधि के कारण उस याग का 'स्वर्ग' फल माना जाता है उसी प्रकार वेदाध्ययन का भी स्वर्ग फल माना जा सकता है। क्योंकि अध्ययन विधि से अथवा उस के किसी शेष वाक्य से स्वर्ग को उपस्थिति नहीं होती। अतः स्वर्ग की उपस्थिति और उममें वेदाध्ययन रूप प्रकृत कर्म के फलत्य की कल्पना में गौरव है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'यद् वचोऽधीते, इत्यादि शास्त्रवचन से पितरों के श्राद्ध के समय थेदपाठ का विधान है अतः उसके अर्थवाद वाक्यों में पितरों क सम्बन्धी पयःकुल्या 'दुग्ध की नहर' आदि का उसके फस्ट रूप में जो वर्णन है उस के आधार पर उस घेदपाठ का उक्त फल माना जाता है वही वेदाध्ययन सामान्य का फल है।"-क्योंकि उक्त फल का बोधफ धायय ब्रह्मयज्ञ का अर्थवाद है । प्रत एव उस अर्थवाद में वर्णित फल ब्रह्मयज्ञ का ही फल हो सकता है, वेदाध्ययन का नहीं हो सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'पुण्य हो वेदाध्ययन का फल है, क्योंकि जब उसका अर्थबोधरूप फल सम्भव है, तो दृष्ट फल सम्भव होने पर अदृष्ट फल को कल्पना असङ्गत है:-इस न्याय से अर्थबोध को ही वेदाध्ययन का फल मानना उचित है। यदि यह कहा जाय-यदि अर्थबोध ही वेदाध्ययन का फल हो तो उसका विधान व्यर्थ है क्योंकि विधान के विना भी वेवाध्ययन करके वेदार्थबोधरूप फल प्राप्त किया जा सकता है । तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्तविधि नियमविधि है जिसका आशय यह है कि वेदाध्ययन से ही वेदार्थबोध प्राप्त करना चा इस नियम विधान की प्रावश्यकता इसलिए होती है जिससे अर्थबोध के अन्य साधन-उपदेष्टा के उपदेश धवण आदि से बेद अध्ययन पाक्षिक न हो जाय अर्थात वेवार्थ जिज्ञासु वेद का अध्ययन न कर उपदेष्टादि के द्वारा प्रकारान्तर से वेदार्थबोध को प्राप्त करने में प्रवत्त न हो। प्रश्नकर्ता के कथन का निष्कर्ष यह है कि वेदाध्ययन यतः अर्थबोधफलक है अतः वेदार्थ जिज्ञासु के लिये काम्य होने से नित्यविधि रूप नहीं हो सकता; क्योंकि नित्यविधि काम्य नहीं हो सकती। अत्र वदन्ति-काम्यत्वेऽपि फलतो नित्यत्वमविरुद्धम् । अत एव 'जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिऋणवान् भवति-१. यज्ञेन देवेभ्यः, २. प्रजया पितृभ्यः, ३. ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यः' इति ऋणश्रुतिः । "योऽनधीत्य द्विजो वेदानन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीवन्नेव शुद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥१॥" इति स्मृतिश्च । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो० २ । [प्रणश्रुति और शूद्रव स्मृति से वेदाध्ययन की फलतः नित्यता सिद्धि ] इसके उत्तर में वेदान्ती विद्वानों का यह कहना है कि वेदाध्ययन काम्य होने पर भी उस को फलत: नित्यता में कोई विरोध नहीं है । आशय यह है कि नित्यविधि दो प्रकार की होती हैस्वरूपतः और फलतः । इन में पहली काम्य और नैमित्तिक विधि से भिन्न विधि है जिसके अफरण में प्रत्यवाय होता है। दूसरी वह जिसकी किसी अनुद्दिष्ट फल के लिये अनुमान द्वारा नित्यानुष्ठेयता सिद्ध हो। वेदाध्ययन की फलतः मित्यता ऋणश्रति और शद्रत्व 'स्मति से सिद्ध होती है। आशय यह है कि 'जायमानो वै.' इस ऋणधति में यह बताया गया है कि ब्राह्मण दम्पती से उत्पन्न होने वाला मनुष्य जन्मकाल से ही देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण इन तीन ऋणों से ग्रस्त होता है। इन से मुक्ति (१) देवप्रोति के लिये यज्ञानुष्ठान (२) पितृप्रोति के लिये पुत्रोत्पादन और (३) ऋषिप्रीति के लिये वेदाध्ययन करने से सम्पन्न होती है। इस से स्पष्ट है कि ब्राह्मण बालक पर जन्म से ही लदा हुआ ऋषिऋण यतः वेदाध्ययन से ही निवृत्त होता है अतः ब्राह्मण बालक के लिये वेदाध्ययन नित्यअनुष्ठेय है । एवं योऽनधीत्य०' इस स्मति से बताया गया है-जो द्विजवाह्मण वेदों का अध्ययन न कर अन्य कार्यों में श्रम करता है वह जीते ही सान्वय यानी-शसहित शीघ्र ही शूद्र हो जाता है। इस स्मृतिवचन से भी पूर्णतया स्पष्ट है कि यतः वेदाध्ययन के अभाव में ब्राह्मण शूद्र हो जाता है अतः शूद्रत्वप्राप्ति के परिहार के लिये वेदाध्ययन ब्राह्मण का नित्य अनुष्ठान कर्म है। नन्वेवं स्वरूपत एव नित्यत्वमस्तु, तथा चाग्निहोत्रादिवत् काम्यत्वब्याघात इति चेत् ? किमिदं स्वरूपनित्यत्वम् ? यदि तावदवश्यकर्तव्यता, तदा तदुच्यत एव फलतः । अथाऽकरणे प्रत्यवायः, सोऽपीप्यत एव, अध्ययनाऽकरणे धर्मानवबोधेनोत्तरकर्माभावात् । अथ नैमित्तिकत्यम् ? तदयुक्तम् , अग्निहोत्रादिवद् निमित्ताऽश्रवणात् , फलतो नित्यत्वेन ऋणश्रुत्यायुपपत्ती निमित्तकल्पनानवकाशात् । अत एवाध्ययनाऽकरणनिपित्तको न प्रत्यवायः ।। अथवा, तदकरणेऽपि प्रत्यवाय एव, 'विहितस्थाननुष्ठानात्' इत्यत्रावश्यकत्वेनानुगतीकृतयोः फलतो नित्य-नैमित्तिकयोर्विहितपदेनोपादानात् । [ स्वरूपनित्यत्व किस को कहते हैं ! ] उक्त प्रतिपादन के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि ''वेदाध्ययन को फलतः नित्य न मानकर स्वरूप से ही नित्य क्यों न मान लिया जाय, जिस से अग्निहोत्रादि के समान उसमें काम्यत्व का प्रभाव हो?" इस प्रश्न के संदर्भ में स्वरूपनित्यत्व के विषय में जिज्ञासा होती है कि वेदाध्ययन में जिस स्वरूपनित्यत्व के प्रभ्युपगम का प्रश्न प्रस्तुत है वह क्या है ? यदि अवश्यकतन्यतारूप हो तो वह फलतः नित्यता पक्ष में भी मान्य ही है । 'न करने में प्रत्यवाय' रूप हो अर्थात् जिसको न करने से पाप लगे वह स्वरूपतः नित्यविधि होती है यदि यह स्वरूपतः नित्यता का अर्थ हो तो वह भी फलतः नित्यता पक्ष में इष्ट हो है। क्योंकि वेव-अध्ययन न करने पर धर्म का प्रवबोध न होने से उत्तर कर्म का अनुष्ठान न होगा। अतः उत्तर फर्म के परित्यार से प्रत्यवाय-पापसंबन्ध होना अनिवार्य है । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ स्वा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन यदि यह कहा जाय कि स्वरूपतः नित्यत्व नैमित्तिकस्वरूप है तो यह अध्ययनविधि में नहीं घट सकता क्योंकि अग्निहोत्रादि के समान अध्ययनविधि में निमित्त का श्रवण नहीं है । तथा फलत: नित्य होने से भी उक्त ऋणभूति आदि को उपपत्ति सम्भव होने से निमित्त की कल्पना भी नहीं की जा सकती । अध्ययन नैमित्तिक न होने से ही उसके कारण से प्रत्यवाय नहीं होता । अथवा अध्ययन के अकरण में भी प्रत्यवाय होता हो है क्योंकि 'विहितस्याऽननुष्ठानात्.' इस वचन में फलतः नित्य और नैमित्तिक दोनों का श्रावश्यकत्वरूप से अनुगम करके विहितपद से ग्रहण होता है । अर्थात् 'विहितस्या' का 'आवश्यकस्य श्रननुष्ठानात्' में तात्पर्य है । अतः पलतः नित्य अध्ययन के प्रावश्यक होने से उस का अनुष्ठान न करने पर प्रत्यचाय होता है । 1 अर्थाधफलकत्वं तु प्रकृतस्वाध्यायविधेग्युक्तम्, श्रवणादिविधेः साधनचतुष्टय संपनाधिकारवश्रवणात् अनन्तर दृष्टा हरहा कर्तव्य ब्रह्मयज्ञाद्यर्थावशप्तेरेव तत्फलत्वात् । ' स्वाध्यायोSध्येतव्यः' इत्यत्राध्ययन संस्कृतेन स्वाध्यायेनार्थावबोधं भावयेदित्यर्थात्, संस्कारवााप्तिः, इति श्रुतिपरित्यागाऽयोगात क्षत्रियस्य निषादेष्ट्यादिवाक्याध्ययनेऽर्थावबोधस्य निष्प्रयोजनखेनावासिफलत्वावश्यकत्वाच्चेति दिग् । ' [ वेदाध्ययन का फल वेद प्राप्ति ] इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि स्वाध्यायविधि को जो अर्थावबोधफलक बताया गया है वह प्रकृत में सङ्गत नहीं है, क्योंकि प्रकृत में स्वाध्यायविधि का अर्थ है वेदान्ताध्ययनविधि । उसे अर्थावबोधफलक कहना उचित नहीं है। क्योंकि वेदान्त का अध्ययन श्रवणादि में उपयोगी है और sarafafa का अधिकारी श्रुति के अनुसार साधनचतुष्टय से सम्पन्न पुरुष है । वेदान्त का अर्थावबोध श्रवणादि के अधिकार नियामकों में श्रुत नहीं है । अतः अनन्तरपूर्व में उक्त प्रतिदिन कर्तव्य ब्रह्मयज्ञादि रूप अर्थ की प्राप्ति हो बेदान्त का फल है। क्योंकि ब्रह्मयज्ञ में वेदान्त पठनीय होने से उस के अध्ययन बिना ब्रह्मयज्ञ की सम्पन्नता नहीं हो सकती । दूसरी बात यह है कि 'स्वा ध्यायोsध्येतव्य:' इस विधिवचन का 'अध्ययन संस्कृतस्वाध्याय वेद से प्रर्थावबोध प्राप्त करें यह अर्थ होता है । प्रध्ययन से वेद के संस्कार का अर्थ है - श्रध्ययन से वेद की प्राप्ति । अतः इस श्रुतिवचन से ज्ञात होने वाले वेदप्राप्तिरूप वेदाध्ययन के फल का परित्याग उचित नहीं है । एवं निषाद = एक विशेष जाति के शूद्र के लिये विहित इष्टि याग आदि से सम्बन्धित वेदवाक्यों के अध्ययन से, उन वाक्यों से अर्थबोध प्राप्त करना क्षत्रिय के लिये निष्प्रयोजन है। क्योंकि उस का याजन और अध्यापन एवं उस वेदभाग से वर्णित यज्ञादि में भी उसका अधिकार नहीं है । किन्तु अध्ययन विधि के अनुसार उस बेवभाग का भी अध्ययन क्षत्रिय के लिये अनुष्ठेय है | अतः वेद की अवाप्ति को ही अध्ययन का फल मानना आवश्यक है । आपातता च वेदान्तवाक्यार्थावगमस्य निःसामान्यविशेषत्र ह्मावधारणरूपस्यापि संशयाविरोधितैव । यश्वेक कोटिका निश्चयरूपतैवाऽऽपाततेति तन्न, अनिश्चयरूपस्यानेकको टिकत्वेन क्लृप्तत्वात् । 'अनिश्चयमपि किञ्चिदेककोटिकं कल्पयिष्याम' इति चेत् १ निश्चयमेव कश्चित् Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ८ श्लो० २ संशयाविरोधिनं कल्पन्ताम् वेदानां स्वार्थे निश्चितप्रमाजनकत्वात् । वस्तुतः परेषामप्रामाण्यज्ञानस्थलेऽस्माकं दोपविशेषस्य लाघत्रादुत्तेजकत्वम् । अत एव व्यवसायसामर्थ्यात् तद्वचस्य तत्प्रकारकत्वस्य चानुपस्थितस्यापि 'जलमहं जानामि इति ज्ञानेऽवश्यं भानात् प्रामाण्यनिश्चयेऽप्यनभ्यासादिदोषात् तत्संशयः । दृश्यते च काशीस्थस्याप्यार्द्रा मरिचप्रस्य क्षेऽसंभावनादोषात् तत्संशयः, तद्वदधीताद् वेदान्तवाक्यादब्रह्मवोधेप्यसंभावनादोषाद् युक्तः संशय इति । हृदयमापातज्ञानवानिह जन्मनि जन्मातरे वाऽनुष्ठितकर्मभिर्विशुद्धान्तःकरणो नित्यानित्यादिविवेकं लभते । ६५ + [ आपात यानी संशयाविरोध ] पूर्व में कहा गया था कि वेदान्त के विधिवत् अध्ययन से वेदान्त वाक्यों का आपाततः प्रबोध होता है । उसमें अर्थबोध की प्रापातता संशय की प्रविरोधमा रूप है । इस प्रकार वेदान्त के अर्थबोध को श्रापाततः कहने का अर्थ यह हैं कि वेदान्त वाक्य से जो अर्थावगम होता है वह सामान्य विशेष सभी प्रकार के धर्मों से मुक्त ब्रह्म का अवधारण स्वरूप होने पर भी संशय का विरोधी नहीं होता । अर्थात् वेदरन्त से श्रवगत ब्रह्मस्वरूप के विषय में अन्यथा संशय सम्भव रहता है । श्रापात के सम्बन्ध में यह कहना कि 'आपात' का अर्थ है एक कोटिक अनिश्चय यह ठीक नहीं है क्योंकि अनिश्चय यानी निश्चयभिन्नज्ञान अनेक कोटिक हो सिद्ध है; और यदि आपात का उक्त अर्थ बताने के लिये यत्किचित एक कोटिक अनिश्चय की भी कल्पना की जाय तो वह भी उचित नहीं है। उसकी अपेक्षा संशयाविरोधी निश्चय को ही कल्पना उचित है क्योंकि वेद अपने अर्थ के निश्वयात्मक प्रमाण के ही अनक होते हैं, अनिश्चय के जनक नहीं होते । वेदान्त से उत्पन्न ब्रह्मस्वरूप का निश्चय दोषवश प्रप्रामाण्य ज्ञान से अस्कन्दित होने के कारण संशय का अविरोधी हो जाता है । क्योंकि अप्रामाण्यज्ञान से अनास्कन्दित निश्चय ही अपने में प्रकारविधया भासमान धर्म के विरोधी धर्म को ग्रहण करने वाली समानधर्मिक बुद्धि का प्रतिबन्धक होता है । जैसे 'घट: रूपवान्' यह निश्चय अप्रमाण्यज्ञानाभाव दशा में ही 'घटो न रूपवान्' अथवा 'घट: रूपवान् न वा' इस बुद्धि का विरोधी होता है । [ प्रमानिश्रय प्रतिबन्धकता में दोषविशेष की उत्तेजकता ] किन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि न्यायादि मत में ही अप्रामाण्यज्ञान प्रतिबन्धकता में उत्तेजक होता है, वेदान्तमस में नहीं । वेदान्त मत में अप्रामाण्यज्ञान सर्वत्र प्रतिबन्धकता में उत्तेजक नहीं होता; क्योंकि प्रमात्मक निश्चय की प्रतिबन्धकता में श्रप्रामाण्यज्ञान के स्थान में लाघव से दोषविशेष ही उत्तेजक माना जाता है। जैसे 'पर्वतो वह्निमान्' यह निश्चय स्व में अप्रामाण्यभ्रम का जनक दोष रहने पर 'पर्वतो वह्नयभाववान्' इस बुद्धि का प्रतिबन्धक नहीं होता । अतः उक्त बुद्धि के प्रति उक्त दोषाभाव विशिष्ट वह्नि निश्चय प्रतिबन्धक होता है । इस प्रतिबन्धकता में विरोध्यबुद्धि के प्रति अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित विरोधी प्रमात्मकनिश्चय को प्रतिबन्धक मानने की अपेक्षा लाघव स्पष्ट है क्योंकि श्रप्रामाण्य सदभाववति तत्प्रकारकत्व, तद्वति तत्प्रकारकत्वाभाव, निरषत्व Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] निविशेष्यकत्वादि बहु प्रकार का होने से और उनका कोई अगुगमक रूप न होने से पृथक पृथक तत्तदप्रामाण्यज्ञानाभाव का प्रतिबन्धकतायच्छेदक कोटि में प्रवेश करने में गोरव है और दोष का उक्त अप्रामाण्य ज्ञानों में यफिश्चित अप्रामाण्यभ्रमजनकत्वरूप से अनुगम कर एक दोषाभाय का प्रतिबन्धकतावच्छेदक कोटि में प्रवेश सम्भव होने से लाधय है। [ अप्रामाण्यज्ञान की उत्तेजकता असंमवित ] यह भी ज्ञातव्य है कि प्रतिबन्धकता में अप्रामाण्यज्ञान सर्वत्र उत्तेजत हो भी नहीं सकता क्योंकि अनेक बार अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित विरोधी निश्चय के रहने पर भी दोषवश प्रतिबध्य बुद्धि का उदय हो जाता है। जैसे 'इदं जलम्' इस व्यवसाय से तत्त्व: तद्विशेष्यकत्व-जलत्ववद्विशेष्यकत्व एवं तत्प्रकारकरव-जलस्वप्रकारकत्य की उपस्थिति न होने पर भी उस व्यवसाय के 'जलमहं जानामि' इस अनुषसाय में stशानाश जलस्वद्विशेष्यत्व और जलत्वप्रकारकत्व का भान होने से उक्त ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय हो जाता है। अर्थात यह अनुव्यवसाय ही व्यवसाय में प्रामाण्यनिश्चयात्मक होता है तथा उन में अप्रामाण्यज्ञान नहीं रहता। इस प्रकार अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितप्रामाण्य का निश्चय हो जाने पर भी उक्त 'इदं जले' इस ज्ञान में अनभ्यासदोषवश प्रामाण्य का संशय होता है। आशय यह है कि एक ही व्यक्ति को 'इदं जलम्' इस ज्ञान के समानविषयक ज्ञानों का पुनः पुनः उदय होकर जब इस प्रकार के शान में प्रामाण्य निश्चय हो जाता है तब उस के बाद पुनः जब इस प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है और उस में निश्चितप्रामाण्य वाले पूर्वज्ञान के समानविषयकत्वरूप साजात्य का निश्चय ही य हो जाता है तो यह निश्चय दशा हो अभ्यास कहा जाता है; और इस स्थिति के पूर्व की स्थिति को अनभ्यास कहा जाता है। यह अनभ्यास ही ज्ञान में अप्रामाण्यसंशय का उत्पादक दोष होता है । इसीलिये जब भी 'इदं जलम्' इत्यादि रूप में कोई ज्ञान पहली बार उत्पन्न होता है तो उस के अनुच्यवसाय से उस ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय हो जाने पर भी अनभ्यासवश उस ज्ञान में प्रामाण्य का सशय होता है। प्रामाण्यसंशय में अप्रामाण्यज्ञानानारकन्दित प्रामाण्य निश्चय को प्रतिबन्धक न मानकर अनभ्यास दोषानास्कन्वितप्रामाण्यनिश्चय को प्रतिबन्धक मानना प्रावश्यक है। (असम्भावना दोष रहने पर संदेह का सम्भव ) एवं यह भी देखा जाता है कि काशीस्थ व्यक्ति को जिसे मरिच में आवत्व बुद्धि के पोनः पुन्य से मरिच में आईता के प्रत्यक्ष में प्रामाण्यनिश्चय हो जाने से उस में अप्रामाण्यसंशय न उसे भी कभी विशेषकारण से 'मरिचमान न सम्भवति' इस प्रकार की बुद्धिरूप असम्भावना दोष के उपस्थित होने पर मरिच में आद्रता का अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित प्रत्यक्ष रहने पर भो मरिच में पात्रता का संदेह होता है । उस के अनुरोध से उस प्रत्यक्ष को भी अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित मातानिश्चयत्वरूप से आर्द्रत्व संशय का प्रतिबन्धक न मान कर असम्भावनादोषानास्कन्दितआर्द्रतानिश्चयत्वरूप से ही प्रतिबन्धकता मानना उचित है । तो इस प्रकार से असम्भावना दोष से आर्द्रमरिच के प्रत्यक्ष में काशीस्थ व्यक्ति को भी अप्रामाण्यसंशय होता है उसी प्रकार अधीतवेदान्तवाक्य से अद्वितीय ब्रह्म का बोध होने पर भी 'ब्रहा में अद्वितीयत्वादि सम्भव नहीं है। इस प्रकार भी बुद्धिरूप असम्भावना दोष से ब्रह्म में अद्वितीयस्वादि का संशय होना युक्तिसङ्गत है। इस प्रकार जिस मनुष्य को वेदान्तवाक्य से अद्वितीय ब्रह्म का Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता० स्त०८ श्लो० २ आपातज्ञान प्राप्त है और जिस का अन्तःकरण इस जन्म में अथवा पूर्वजन्म में पुन्यकर्मों के अनुष्ठान से विशुद्ध: = निष्पाप हो चुका है वह नित्य-अनित्य वस्तु का विवेक, भेदज्ञान आदि साधनचतुष्टय को प्राप्त करता है । ७० " ननु ? कथं कर्मणां तत्तत्फलसाधनानामन्तःकरण शुद्धिहेतुत्वम् ? इति चेत् १ अत्र वदन्ति - नित्यानां तावत् कर्मण पापक्षयहेतुत्वमावश्यकम्, ज्ञानाऽज्ञानकृतानां सर्वपापान पुरुषेषु सच्चात्, तत्त्रयस्य सर्वदा सर्वाभीप्सित्त्वात् दुःखवत् पापस्यापि द्वेष्यतया तन्निवृतेः काम्यत्वात्, अहरहःकर्तव्यत्वेनावगतानां नित्यानां तेनैव फलवच्चात्, स्वर्गादनियतानुपस्थितिकत्वाद, प्रत्यवायप्रागभावस्य चाऽसाध्यत्वादिति । तदुक्तम्- 'घर्मेण पापमपनुदति' इत्यादि । यद्वा, तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन' इत्यादिश्रुत्वा तत्तत्फलसंयुक्तानामपि कर्म 'एकस्य तु संयोगपृथक्त्वम्' इति न्यायाद् विविदिषासंयोगस्य ज्ञानसंयोगस्य चा(चा) विधानात् तत्रान्तःकरण शुद्धेर्द्वारत्वम् । [ विहित कर्मों से अन्तःकरण शुद्धि की मीमांसा 1 पुण्यकर्मानुष्ठान से अन्तःकरणशुद्धि के विषय में यह प्रश्न होता है कि शास्त्र द्वारा तत्तत्कर्म ततत्फल के साधनरूप में विहित है। अतः जन के अनुष्ठान से तत्तत्फलों का ही उदय हो सकता है वे अन्तःकरण की शुद्धिरूप फल के हेतु कैसे हो सकते हैं ? इस के उत्तर में वेदान्ती विद्वानों का यह कहना है कि नित्यकर्म को पापक्षयरूप अन्तःकरण शुद्धि का हेतु मानना श्रावश्यक है क्योंकि पुरुष में ज्ञान अथवा अज्ञान से किये गये अनेक पाप होते हैं; और उन का क्षय सभी को सर्वदा अभीष्ट होता है। क्योंकि दुःख के समान दुःखजनक पाप भी द्वेष का विषय होता है। अतः पाप की निवृत्ति सभी को काम्य होती है । 'अहरहः संध्यामुपासीत' इत्यादि विधिवचनों से प्रतिदिन कर्त्तव्यरूप में जो कर्म अवगत होते हैं वे नित्य कहे जाते हैं। उन का कोई अन्य फल नहीं होता । वे पापक्षय करने से ही फलवान् होते हैं । स्वर्गादि उन का फल नहीं माना जा सकता क्योंकि उन कर्मों के अनबोध के साथ स्वर्गादि को नियमतः उपस्थिति नहीं होती । उन कर्मों के न करने से प्रत्यवाय होता है अत एव प्रत्यवाय की अनुत्पत्ति का अर्थ है प्रत्यवाय का प्रागभाव और वह अनादि होने से साध्य नहीं हो सकता । शास्त्र भी पापक्षय को हो उन का फल बताता है। इस में 'धर्मेण पापमपनुदति' 'धर्म से पाप का क्षय करें' इत्यादि शास्त्रवचन साक्षी है । | संयोगपृथक्स्त्र न्याय से काभ्यकर्मों से अन्तःकरणशुद्धि की सिद्धि ] aarat की ओर से उक्त प्रश्न का यह भी उत्तर ज्ञातव्य है कि 'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञ ेन दानेन तपसा नाशकेन' - ब्राह्मण (पाप) नाशक वेदाध्ययन-यज्ञ दान और तप से पूर्वोक्त आत्मा की जिज्ञासा (सन् प्रत्ययान्त विविदिषा शब्द से लभ्य ) अथवा ज्ञान (स्वार्थिक सन् प्रत्ययान्त विविदिषा शब्द से लभ्य) का सम्पादन करे' इस श्रुति से तत्तत्फल से संयुक्त कर्मो के साथ भी मीमांसकों के संयोगपृथक्त्व' न्याय से जिज्ञासा और ज्ञानरूप फल के सम्बन्ध का विधान है अतः rasi भी पापक्षयरूप अन्तःकरणशुद्धि के हेतु हैं । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] आशय यह है कि जिन कर्मों का शास्त्र में एकाधिक फल बताया गया है उन के सम्बन्ध में मीमांसा दर्शन में 'एकस्य तभयत्वे संयोगपथवत्वमएस सत्र से यह व्यवस्था की गई है कि एककम शास्त्र में पांदे उभय से सम्बद्ध असाये गये हो, तो दोनों फलों के साथ उस कर्म का पृथक पृथक्क सम्बन्ध होता है । अर्थात शास्त्रोक्तफलों में जिस फल की कामना से जब वह कर्म अनुष्ठित होता है तब वह उस फल का साधक होता है। उस व्यवस्था के आधार पर प्रकृत में काम्य कमों के सम्बन्ध म भी यह मानता उचित है कि जो कर्म अन्य फल के साधनरूप में विहित हैं वे उस फल की कामना से अनुष्ठित होने पर उस फल के साधक होते हैं और विविदिषा अथवा ज्ञान की कामना से अनुष्ठित होने पर विचिदिषा किंवा ज्ञान के साधक होते हैं । अन्तःकरणशुद्धि यह विविदिषा और ज्ञान के उदय में वेदविहितकर्मों का द्वार है । न च प्रकरणान्तरे प्रयोजनान्यत्वमिति न्यायाद् यत्र प्रकरणान्तरपनुपादेयगुणश्च, तत्र 'मासमग्निहोत्रं जुहोति', 'आग्नेयं निर्व पेव ऋद्धिकाम' इत्यादाविव कर्मान्तरत्वनियमादत्रापि तत्प्राप्तिरिति वाच्यम, यज्ञादिसंबद्धविधेरत्राऽश्रवणात , प्रसिद्धानामाख्यातासमानाधिकरण व्यवहितपरामर्शसमर्थसुबन्तपरामृष्टानां कर्मणां फलसंवन्धमात्र विधानोपपत्तावपूर्वविध्यकल्पनात् । अत एव 'सर्वेभ्यो दर्श-पूर्णमासी' इत्यादौ सर्वसंबन्धमापरत्वाद् न कर्मान्तरत्वम् । उक्त च "सर्वकामार्थता तस्मादप्राप्तेह विधीयते" इति । [अन्तःकरणशुद्धिफलक यज्ञादि काम्यकर्म यज्ञादि से भिन्न हैं ? ] फलान्तर के उद्देश से विहित कर्मों को अन्तःकरणशुद्धिफलक मानने पर यदि यह कहा जाय कि-'तमेतं वेदानुवचनेन ' इस श्रुति में जिस यज्ञादि को चर्चा है उस को अन्य फल के उद्देश से विहित यागादि से भिन्न कर्म मानना उचित है। क्योंकि मीमांसा का यह न्याय है कि 'प्रकरणान्तरे प्रयोजनान्यत्वम्' अर्थात्-अन्य प्रकरण में कर्म का प्रयोजन मेद उस कर्म के कर्मान्तरत्व से होता है । इस के अनुसार, जो कर्म पूर्व प्रकरण में विहित कर्म के नाम से अन्य प्रकरण में भी विहित होता है और उस में पूर्व प्रकरण में उक्त कर्मगुण का उपादान नहीं होता वह कर्म पूर्व प्रकरण के कम से भिन्न कर्म होता है। जैसे 'मासमग्निहोत्रं जुहोति' = 'मास पर्यन्त अग्निहोत्र हवन करे।' एवं 'आग्नेयं निर्वपेत् ऋद्धिकामः'='ऋद्धि सम्पत्ति का इच्छुक व्यक्ति आग्नेय याग का निर्वाप-अनुष्ठन करे' इन प्रकरणान्तरगत वाक्यों से विहित अग्निहोत्र एवं आग्नेयादि 'यावज्जीवमग्निहोत्रं जुयात्' इत्यादि अन्यप्रकरणगत वाक्यों में विहित अग्निहोत्रादि से भिन्न कम होते हैं तो जैसे वहां प्रकरणान्तर और अप्रतिपादित गुणत्व के कारण कर्मभेद होता है उसी प्रकार 'तमेतं वेदानुवचनेन' इत्यादि प्रकरणान्तर के वचन से चचित यज्ञादि का भी कर्म प्रकरण में विहित अग्निहोत्रादि से भेव आवश्यक है अतः उस वचन से अन्य फल के उद्देश से विहित कर्मों में अन्तःकरणशुद्धिफलकत्व का अभ्युपगम युक्तिसङ्गत नहीं है।' [कर्मान्तरत्व की कल्पना अस्वीकार्य ] तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'तमेतं.' इत्यादि वाक्य में यज्ञादि से सम्बद्ध विधि का श्रवण नहीं होता। अत: प्रख्यात का असमानाधिकरण-तिप्रत्ययार्थ से अन्वितार्थ का अबोधक और व्यवहित Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ । शास्त्रवास्ति० श्लो०२ प्रकरणान्तरगत अर्थ के परामर्श में समर्थ ऐसे सुबन्तपद से अन्य प्रकरण में प्रसिद्ध कर्मों का परामर्श मानकर उनके साथ फलसम्बन्ध मात्र के विधान की लपपत्ति सम्भव होने पर, ऐसे वचनों में जिन में कविधि का श्रवण नहीं होता-अपूर्वविधित्व को कल्पना अनुचित है । इसलिये ऐसे बचनों से निदिष्ट कर्म में कर्मान्तरत्व मानना असम्भव है। इसीलिये 'सर्वेभ्यो दर्शपूर्णमासौ' इस वचन को भी दर्शपूर्णमास का सम्पूर्ण फलों के साथ सम्बन्ध मात्र के बोधन में ही तात्पर्य माना जाता है । उस में चचित दर्शपूर्णमास प्रसिद्ध दर्शपूर्णमास से कर्मान्तर नहीं होता। मोमांसाशास्त्र में यह कहा भी गया है कि-इस वचन में दर्शपूर्णमासशब्द से प्रसिद्ध दशंपूर्णमास का विधान नहीं होता किन्तु वचनान्तर से अप्राप्त सर्वकामार्थता यानी सर्वपलसम्बन्ध का ही विधान होता है। ननु किमत्र पशुकामस्योद्भिच्चित्रादिष्विव विविदिषादिकामस्य यज्ञादिषु विकल्पः, उत स्वर्गकामस्याग्नेयादिष्विव समुच्चयः ? इति चेत् । अत्र केचित्-'यज्ञादीनामेकवाक्यगतत्वेन दर्शादिवत् समुच्चयः' इति वदन्ति । तत्रैकवाक्यत्वमर्थैकत्वात, यथा 'अग्निहोत्रं जुहोति' इति । 'अरुणयकहायन्याः' इत्यादौ सत्यप्यारुण्याद्यर्थ मेदविशिष्टक्रियाविधानादेकवाक्यत्वम् । सत्याप च विशिष्टविधानस्य गौरवग्रस्तत्वेऽगत्या तदाश्रयणम् । क्रियायाः प्रकरणान्तरप्राप्ती हि विशेषणमात्रविधानम् , यथा 'दधना जुहोति' इति, तत्राप्येकमेव विशेषणं विधातु शक्यते, नानेकम् , वाक्यभेदप्रसङ्गात् । अप्राप्ता हि क्रियाऽनेक विशेषणान्युपसंगृती विशिष्टा विधातु शक्या, प्राप्तायां तु तस्यामनेकार्थविधाने विधिप्रत्य. यावृतिलक्षणो वाक्य भेदः । तदुक्तम्--"प्राप्ते कर्मणि नानेको विधातु' शक्यते गुणः" इति अत्र च 'कर्मणि' इत्युपलक्षणम् , प्राप्तमात्रमुद्दिश्यानेकविधानस्याऽशक्यत्वात् । अत एव 'ग्रहं संमाष्टि' इत्यत्र ग्रहोद्देशेनैकत्व-संमार्गयोविंधाने वाक्यभेदः ! एकोद्देशेनानेकविधानवदनेको शेनेकविधानमध्यशक्यम् , यथाऽत्रैवैकत्वग्रहोदे शेन संमार्गविधानम् । तदत्र 'विविदिषन्ति' इत्यत्र न तावदरुणादिवाक्यवदेकविशिष्टक्रियाविधायकत्वम्, असंभवात् , अनंगीकृतेश्च, येन तदेकवाक्यत्वम् । नापि 'दना जुहोति' इतिवत् कस्याचित् क्रियायामेकविशेषणविधानम्, उक्तहेतोरेव, यज्ञदानादीन्युद्दिश्य विविदिषाफलसंबन्धविधाने एकत्वग्रहोद्देशेन संमार्गविधानवद् वाक्य भेदः, विविदिषाफलं चोद्दिश्य यज्ञदानादिविधाने ग्रहोद्द शेनैकत्वसंमार्गविधानवद् वाक्यभेदः । [ यज्ञदानादि कर्तव्य विकल्परूप से या समुच्चयरूप से ] 'तमेतं वेदानुवचनेन०' इस वाक्य के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि जैसे 'उद्भिदा यजेत पगुकामः पशु को कामना वाला उद्भिद्नामक याग करें' एवं "चित्रया यजेत पशुकामः पशु को Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था क. टीका एवं हिन्दी विवेचन ७३ कामना वाला चित्रा संज्ञक याग करे" इत्यादि वचनों से विहित पशुपालक कर्मों में विकल्प होता है अर्थात् पशुकामना वाले को उन में कोई एक ही कर्म करणीय होता है उसीप्रकार 'हमेतं०' इत्यादि वचनों के अनुसार यज्ञ-दानादि विविदिषा-कामना वाले पुरुष के लिये विकल्परूप से कर्तव्य होते हैं ? अथवा जैसे स्वर्गकाम को 'आग्नेय' 'ऐन्द्र' आदि कर्म समुच्चयरूप में कर्त्तव्य होते हैं उसीप्रकार यज्ञदानादि भो विविदिषा-कामना वाले के लिये समुच्चयरूप में कर्तव्य होते हैं। समलनया में यनदानादि की कर्तच्यता ] इस प्रश्न के उत्तर में कुछ विद्वानों का यह कहना है कि यज्ञदानादि समेतं.' इत्यादि एकवावय से ही निधिष्ट हैं। अतः असे सर्वेभ्यो नर्शपूर्णमासौं इस वाक्य से निर्दिष्ट दर्श-पूर्णमास स्वर्णकामना वाले के लिये समुच्चयरूप में कर्तव्य होते हैं उसीतकार विविक्षिा कामी के लिये यज्ञ-दानादि भी निविष्ट होने से समयलप में काव्य.. क्योंकि उक्त वाक्य में अग्निहोत्रं जाहोति' इस धाषय के समान अर्थैक्य अर्थात विशिष्ट एकार्य का प्रतिपादकत्व होमे से अथवा एकप्रयोजनबदर्थप्रतिपांवकता होने से उस में एकवाययता है। __किन्तु 'अरुणया एकहायच्या गवा सोमं क्रोणाति' = रक्तवर्णा एकवर्षक्यस्का एक गौ से सोम (लता) का क्यण करे।' इस वचन में आरुण्यादिरूप अर्थभेद से विशिष्ट एक सोमक्रयणरूप क्रिया का • विधान होने से विधयेक्य होने से एकवाक्यता होती है । यद्यपि विशिष्ट का विधान गौरवग्रस्त होता है फिर भी प्रकारान्तर से एकवाक्यता को उपपत्ति के लिये अन्य कोई गति न होने के कारण विशिष्टविधान का आश्रयण आवश्यक होता है। क्योंकि विशेषणमात्र का विधान वहीं होता है जहाँ क्रिया अन्यत्रकरण से प्राप्त होती है। जैसे 'दना जुहोति' इस वाक्य से दधिविशिष्ट होम का विधान नहीं किन्तु होमको उद्देश कर के दधिरूप विशेषरण काही विधान होता है, क्योंकि होम प्रकरणान्तर से प्राप्त है। विशेषणविधि में भी यह ज्ञातव्य है कि विशेषणविधि से एक ही विशेषण का विधान शक्य हो सकता है-अनेक का नहीं। क्योंकि अनेक विशेषण का विधान मानने पर विधेयमेव और अर्थभेद हो जाने से वाक्यभेद का प्रसङ्ग होता है, क्योंकि जब क्रिया अप्राप्त होती है तब उस क्रिया का अनेकविशेषणविशिष्ट क्रिया के रूप में विधान होता है। किन्तु क्रिया प्रकरणान्तर से प्राप्त रहेगी तो उस में अनेक अर्थ का विधान करने पर विधिप्रत्यय का आवर्तन रूप वावयमेव प्रसक्त होगा । जैसा कि मीमांसाशास्त्र में प्राप्ते कमणि' इत्यादि बचन द्वारा कहा गया है। इस वचन में 'कर्मणि' यह उपलक्षण है इसलिये कर्म पव से कर्म और कर्म से इतर दोनों का ग्रहण होता है। प्रतः किसी भी प्राप्त को उद्देश्य कर अनेक का विधान प्रशक्य होता है। इसी लिये 'ग्रहं संमाष्टि' इस वाक्य में ग्रह-यज्ञीय पानविशेष को उद्देश्य कर एकत्व और संमार्गफुशादि से संमार्जन का विधान मानने पर बावयमेद होता है। जिस प्रकार एक को उद्देश्य कर अनेक विधान वाक्य भेद को आपसि के कारण अशक्य होता है, उसोप्रकार अनेक को उद्देश्य कर एक का विधान भी अशक्य होता है-जैसे उक्त वाक्य में ही एकत्य और ग्रह दोनों को उदय कर संमार्ग मात्र का विधान करने पर। [विधेयस्य से एकवाक्यता प्रस्तुत में नहीं है ] 'तमेतं ब्राह्मणाः विधिदिषन्ति' इस वाक्य में 'अरुपया एकहायन्या' इत्यादि वाक्य के समान एक विशिष्ट क्रिया का विधान नहीं होता क्योंकि वह सम्भव नहीं है और इस वाक्य में विधायकता अजीकृत भी नहीं है । अतः प्ररणादि वाक्य के समान इस में एकवाक्यता नहीं हो सकती । एवं इस वाक्य में 'दध्ना जुहोति' इस वाक्य के समान किसी क्रिया में एक विशेषण का विधान भी उक्त हेतु Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता. स्त०८ श्लो०२ असंभव और विधायकत्व के अनडीफार से अशक्य है। प्रतः उक्तवाक्य के समान भी इस वाक्य में प्रता नहीं हो सकती। एवं प्रकृतवाक्य में यज्ञदानादि अनेक कर्मों को उद्देश्य कर विविदिषारूप फल के सम्बन्ध का मिशाल मानना नहीं है. क्योंकि ऐसा मानने पर उसी प्रकार वाक्य भेद होगा जसे एकत्व और ग्रह को उद्देश्य कर संमार्ग का विधान करने पर ग्रह समाष्टि' इस वाक्य में होता है। इसी प्रकार विविविषारूप फल को उद्देश्य कर यज्ञदानादि कर्मों का विधान करने पर भी ठीक उसी प्रकार वाफ्यभेद होगा जैसे ग्रह को उद्देश्य कर एकत्व और संमार्ग का विधान मानने पर 'ग्रहं समाष्टि' इस वाक्य में होता है। 'दर्श-पौर्णभासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत' इत्यत्रै कस्वर्णोद्द शेन दर्श-पौर्णमासात्मकानेकयागविधानबदन विविदिपोद्देशेन यज्ञदानाद्यनेकविधानं किं न स्यात् । इति चेत् ? न, तत्र 'बीहिभिर्यजेत' इत्यत्र वीहीणामिव पण्णामपि यागानां यजतिसमानाधिकरणकपदोपात्तत्वेन वाक्यमेदाभावेऽपि प्रकृते 'यक्षेन' 'दानेन' इत्यादौ तदभावान । तेनैकस्य श्रोतव्यादिवाक्येष्वनुपङ्गपदेकस्य विविदिषन्तिपदस्यानुषङ्गः कल्प्यः- 'यज्ञेन विविदिन्ति'-'दानेन विविदिषन्ति' इति । यज्ञदानादि अनेक कर्म विधान में वाक्यभेद प्रसक्ति ] ___यदि यह कहा जाय कि जैसे 'दर्शपूर्णमासाम्यो स्वर्गकामो यजेत' इस वाक्य से एक स्वर्ग को उद्देश्य कर वर्श और पूर्णमासस्वरूप अनेक माग का विधान होता है उसी प्रकार 'तमेतं०' इत्यादि वाक्य से भी विविविषा को उद्देश्य फर यज्ञदानादि अनेक कर्मों का विधान क्यों नहीं हो सकता?" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दर्शादि वाक्यों में वर्श और पूर्णमास रूप छः याग 'यजति' यज धातु के समानाधिकरण दर्शपूर्णमासरूप एफ समस्तपद से गहीत होते हैं । अतः एक स्वर्ग के उद्देश्य से छः याग का विधान मानने पर भी उक्त वाक्य में वाक्यमेद उसीप्रकार नहीं होता जैसे “वीहिभिर्यजेत" इस वाक्य में एक याग को उद्दश्य कर यज़ धातु से समभिव्याहुत वीहि पद से गृहीत अनेक व्रीहि का विधान करने पर नहीं होता। किन्तु प्रकृत में 'यज्ञेन यानेन' इत्यादि शब्द से घटित 'तमेत०' इत्यादि वाक्य में यज्ञदानादि का यज् धातु समानाधिकरण एक पद से ग्रहण नहीं है । अतः श्रोतव्यादि-'आत्मा वा अरे ! इष्टव्यः श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्यः' - मुमुक्षु को आत्मा का श्रवण-अर्थात् अद्वितीय आत्मा में समस्तवेदान्त वाक्यों के तात्पर्य का निर्णय करना चाहिये, फिर उस निर्णीत प्रर्थ की मनन यानी अनुमान द्वारा पुष्टि करनी चाहिये, उस के बाद वेदान्त से निर्णीत और अनुमान से परिपुष्ट द्वितीय आत्मा का निदिध्यासन = अनवरतध्यान करना चाहिये, उसके बाद आत्मा का साक्षात्कार करना चाहिये।'-इस वाक्य में जैसे एक 'आत्मा' का 'आत्मा श्रोतव्यः' 'मात्मा मन्तव्यः' इत्यादि रूप में अनुषङ्ग होता है उसोप्रकार 'तमेतं.' इत्यादि विविदिषा वाषय में 'विविदिषन्ति' इस एक पद का 'यजेन दानेन' इत्यादि पदों के साथ 'यज्ञेन विविविषन्ति' 'दानेन विविदिन्ति' इसप्रकार अनुषङ्ग करना प्राधश्यक है। अत: इस वाक्य के विविदिषा रूप एक उद्देश्य में यज्ञदानादि अनेक का विधान मानने पर ग्रह को उद्देश्य कर एकत्व और संमार्ग का विधान करने पर 'ग्रह समाष्टि' इस वावय के समान वाक्यभेद अनिवार्य होगा। परन्तु जब इस वाक्य को विधायक नहीं माना जाता तो विधायक वाक्यों में सम्भावित वाक्यभेद के समान वाक्यभेद की प्रसक्ति नहीं होती और 'अग्निहोत्रं जुहोति' के समान प्रर्थक्यमूलक एकवाक्यत्व अक्षुण्ण रहता है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] कथं तहि समुच्चयः ? इति चेत् ? भिन्नवाक्यविहितानामपि सोमप्राप्त्यर्थानां क्रयाणामित्र संभवत्समुच्चयो, यज्ञादीनां नित्यवत्समुच्चये हि क्रयाणां प्रत्येकविधिषु नियमत्रिधित्वं न स्यात् , आर्थिकी हि तत्रेतरनिवृत्तिः, अरुणाऽक्रयेणेव सोमं भावयेदिति । संभवत्समुच्चये तु सोमप्राप्त्यर्थत्वात् क्रयाणां तत्रानतिद्वारस्यकैनै सिद्धौ न नियमभङ्गः । असिद्धौ तु प्रत्येकावगत नियमं मार्माधेिर गरिर मुखर बावन्तरविहितकयसापेवत्वं पूर्वक्रयस्य कल्प्यते । अत एव ध्यादिषु नासौ, होमनिष्पत्तेद्वारस्यकेनव सिद्धेः। एवमिहापि यज्ञादिनै केनैवान्तःकरणशुद्धिद्वारसिद्धौ नान्यापेक्षा, अन्यथा तु स्यादेव । अत एव यज्ञानधिकारिणां ब्रह्मचारिणां वेदानुवचनेन केवलेनाप्यन्तःकरण शुद्धिद्वारा विविदिषासिद्धिः । तथा व स्मृतिः-"जपेनष तु संसियेत्" इत्यादि । न च स्वर्गकामाग्निहोत्रवत् सदनुष्ठाननियमा, सदनुष्ठानस्य साधनचतुष्टयसंपत्तिगम्यान्तःकरणशुद्धिपर्यन्तत्वात् ।। [ यज्ञदानादि का यथासम्भव समुच्चय ] विविदिषा का उक्तरीति से अर्थ वर्णन करने पर यह प्रश्न हो सकता है कि जब यज्ञदानादि का विविदिषायशात् पृथक २ सम्बन्धबोध होगा तो विविदिषा के उद्देश्य से एक व्यक्ति के द्वारा यज्ञवानादि के समुच्चय को कर्तव्यता कैसे होगी ? किन्तु इसका उत्तर यह है कि जैसे सोमप्राप्ति के उद्देश्य से विभिन्न वाक्यों से विहित कयों में सम्भवत्समुच्चय अर्थात् यथासम्भव समुच्चय होता है उसी प्रकार विविदिषा के लिये यज्ञदानादि का भी सम्भवत्समुच्चय होता है। स्पष्ट है कि क्रयवाक्य में भी सम्भवत्समुश्चय ही होता है नित्यरसमुरघय अर्थात-अनिवार्य समुच्चय नहीं होता, क्योंकि अनिवार्य समुच्चय मानने पर 'अरुणया सोम कोणाति' इत्यादि प्रत्येक विधि में नियमविधित्व न हो सकेगा। क्योंकि नियमविधि में इतर की निवृत्ति प्राथिक-प्रथंगम्य होती है। अर्थात् नि-मविधि इतरनिवृत्ति में पर्यवसित होती है, प्रतः प्रत्येक विधि को नियमविधि मानने पर कविधायकवाय का 'अरुणाव से ही सोम को प्राप्त करें इस प्रकार अर्थ होगा जो नित्यवत्समुच्चय पक्ष में सङ्गत नहीं हो सकता क्योंकि उस पक्ष में अरुणाक्रयण-एकहायनीकयण, गोक्रयण सब का समुच्चय सोमप्राप्ति के लिये अपेक्षित होगा। किन्तु सम्भवत्समुच्चय पक्ष में समुच्चय अनिवार्य न होने से सोमप्राप्ति के लिये विहित कयों में किसी एक क्रय से भी अनतिद्वार-बहारनिरपेक्ष सोम की सिद्धि होने से नियमभङ्ग नहीं होता। किन्तु जब एक क्रय से सोम को प्राप्ति नहीं होतो तब प्रत्येक विधि वाक्य से अवगत नियम का कार्यानुरोध से परित्याग कर पूर्वक्रय में अरुणादिक्रय में एकहायन्यादि वाक्यान्तर विहित क्रय की सापेक्षता की कल्पना की जाती है। तदनुसार सोमार्थी को कभी मयसमुच्चय अपेक्षणीय होता है। होम को उद्देश्य कर विहित दधि आदि द्रव्यात्मक गुणों में परस्पर सापेक्षता की कल्पना नहीं होती क्योंकि किसी एक द्रव्य से ही होमनिष्पत्तिरूप द्वार की सिद्धि हो जाती है। [सम्भवत्सगुच्चय का स्पष्टीकरण ] इसी प्रकार विविदिषा वाक्य के अनुसार यज्ञादि किसी एक से ही अन्तःकरणशुद्धिरूप द्वार की सिद्धि हो जाने से अन्य की अपेक्षा नहीं होती। किन्तु यदि किसी एक से अन्तःकरण की शुद्धि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रवा० स्त०८ श्लो०२ नहीं होतो तो यज्ञदानादि का यथापेक्ष समुच्चय अपेक्षणीय होता है। इस धाश्य में सम्भवत् समुच्चय होने से हो यज्ञ के अधिकारी ब्रह्मचारियों को केवल वेवानुवचन से ही अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा विविदिषा को सिद्धि होती है । स्मति भी इस बात में साक्षी है जैसा कि 'अपेनैव तु संसिध्येत्' इत्यादि अनेक स्मृति वाक्य स्पष्ट उघोष करते हैं कि ( ब्रह्मचारी प्रावि ) मन्त्रजप से ही संसिद्धि प्राप्त कर । स्वर्गकामो के लिये अग्निहोत्र के समान विविविषाकामी के लिये यज्ञादि के प्राजीवन अनुष्ठान का नियम नहीं है। क्योंकि उसका अनुष्ठान अन्तःकरणशुद्धिपर्यन्त ही अपेक्षित है और अन्तःकरणशुद्धि साधनचतुष्टय की प्राप्ति से विदित होती है। यदि वा, 'जातपुत्रः कृष्णकेशोऽग्नीनादधीत' इत्यत्राधाने जातपुत्रकृष्णकेशत्वविधाने वाक्यभेदात् ताभ्यामवस्थाविशेषलक्षणवदत्र यत्रादिपदेः प्रसिद्धं कर्मसामान्यमुपलक्ष्य विविदिषादिफलोद्देशेन विधीयते । सम्भवति चैवं संभवत्समुच्चयः, न च वाक्यमेदः । लक्षणापि दोष एवेति चेत् ? तथापि वाक्यार्थभेदे प्रधानविशिष्टवाक्यार्थभङ्गः, लक्षणायां तु गुणीभूत पदशक्यार्थत्यागमात्रम् इत्यत्रादरः । अत एव 'अर्धमन्तर्वेदि मिनोति, अर्घ च बहिर्वेदि' इत्यत्रापि वास्योदो मा विरगन्तशिशिदिशब्दाभ्यां देशविशेषलक्षणाश्रयणम् इत्यपरे । यद्वा, ईश्वरार्पणबुद्धथानुष्ठितानां कर्मणामन्तःकरण शुद्धिः फलम्, 'यत् करोषि०' इत्यादिस्मृतेः । तत् सिद्धमेतत्-कर्मभिः शुद्धान्तःकरणो नित्यानित्यविवेकादि लमत इति । तत्र नित्यानित्यविवेकः 'इदं सर्वमनित्यम्, एतस्याधिष्ठान किश्चित् नित्यम्' इत्येवमालोचनात्मकः । तत ऐहिकपारलौकिकफलेच्छाविरोधिचेतोवृत्तिविशेषात्मको विरागः, ततः शमादिषट्कम् । तच्च शम-दमोपरति-तितिक्षा समाधान-श्रद्धाः। अन्तःकरणनिग्रहः शमः | बाह्य न्द्रियनिग्रहो दमः। उपरतिः सन्यासः । द्वन्द्वसहिष्णुत्वं तितिक्षा । श्रवणादिप्रावण्य समाधानम् । सांप्रदायिक विश्वासः श्रद्धा । ततो मोक्षेच्छा मुमुक्षा । तदेतत् साधनचतुष्टयं श्रवणाधिकारिविशेषणम् ।। [सम्भवत्समुच्चय की दूसरे प्रकार से उपपत्ति ] अयया अपर विद्वानों का इस सम्बन्ध में यह मत है कि जिस प्रकार 'आतपुत्रः कृष्णकेशोनीनादधीत "जिसे पुत्र उत्पन्न हो चका हो और जिस के केश काले हो यह अग्नि का आधान करे।' इस वाक्य से प्राधान में जातपुत्रत्व और कृष्णकेशत्व का विधान मानने पर वापयभेद होता है, प्रत: जातपुत्र और कृष्णकेश इन दोनों पदों से लक्षणा द्वारा अवस्थाविशेष-युवावस्था का बोध मानकर आधान में उस अवस्था का विधान होता है। उसी प्रकार विविदिषा वाग्य में भी यज्ञादिपदों से लक्षणा द्वारा प्रसिद्ध कमसामान्य का बोध मानकर विविदिषारूप फल के उद्देश्य से कर्मसामान्य का विधान होता है। ऐसा मानने पर सम्भवत्समुच्चय भी हो सकता है और वाषयभेद भी नहीं होता। यद्यपि ऐसा मानने में लक्षणारूप दोष होता है, तथापि वाययार्थभेद होने पर वाक्य के विशिष्ट अर्थ-प्रधान अर्थ का भङ्ग होता है जब कि लक्षणा मानने पर पद के शवयार्थ अप्रधान Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याका टोका एवं हिन्दी विवेचन ] अर्थमात्र काही त्याग होता है, इसलिये लक्षणा का आदर किया जाता है और इसीलिये 'अर्धमन्तर्वेदि मिनोति, प्रधं च बहिर्वेदि' इस वाक्य में वाक्यभेद न हो इसलिये वेदि के आराध्यदेवता और हवनकुण्डादि की स्थापना के लिये शास्त्रीयविधि से बनाये गये ऊँचे चबूतरे के भीतर आधाभाग का और बाहर आधाभाग का (अपेक्षितमिविस्तार के लिये माप करे यह अर्थ न कर के 'अर्धमन्तर्वेदि अधं च बहिर्वेदि' इन दोनों शब्दों से लक्षणा द्वारा अपेक्षित देशविदेश का बोध माना जाता है। अतः उक्त वाक्य का यह अर्थ प्राप्त होता है कि-'( अपेक्षित विस्तार के लिये ) देशविदेश का माप करे।' अथवा यह कहा जा सकता है कि 'यस्करोषि यदनासि यजुहोसि वक्षासि यत् । यत् तपस्यसि कौन्तेय ! तत्कुरुष्व मर्पणम् ॥' इस भगवद्गीता स्मति के अनुसार ईश्वर को अपित करने की वृद्धि से जो कर्म अनष्ठित किये जाते हैं उनसे अन्तःकरणशखिरूप फल की सिद्धि हो जाती है। अतः उक्त रीति से यह सिद्ध है कि कर्मों द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाने पर नित्यानित्य वस्तु के विवेकादि साधनचतुष्टय को मनुष्य मन करता है । [ नित्यानित्य विवेक-विराग शमादिषट्क-मुमुक्षा) नित्य-अनित्य विवेक का अर्थ है कि-'दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् अनित्य है और सबका जो कोई अधिष्ठान-आधार है वह नित्य है'-इस प्रकार का निश्चय । इस निश्चय के प्राप्त हो जाने के बाद मनुष्य को विराग-वैराग्य को प्राप्ति होती है-जिसका अर्थ है चित्त की ऐसी अवस्था जिसमें इस लोक में प्राप्त होने वाले पुत्र-स्त्री-धन-धान्य आदि कर्मफलों की और परलोक में प्राप्त होने वाले दिव्य विषयों को इच्छा का उवय ही प्रतिबद्ध हो जाप । वैराग्य प्राप्ति के बाद शमादि षटकछह गुणों की प्राप्ति होती है, वे हैं-शम-बम-उपरति-तितिक्षा-समाधान और श्रद्धा। शम का अर्थ है अन्तःकरण का निग्रह प्रति अन्तःकरण द्वारा विषय-कषायों के चिन्तन का परित्याग । दमका अथ है-बाह्यन्द्रियों का निग्रह सांसारिक विषयों से इन्द्रियों को विमुख करना । उपरति का अर्थ है संन्यास अर्थात् विरति यानी हिसादि पापों के त्याग की प्रतिज्ञा जिससे यथोचित और परिपूर्ण रूप से विषयों से अन्तःकरण और इन्द्रियों को सर्वविध निवृत्ति हो । तितिक्षा का अर्थ है द्वन्द्व यानी सुखदुःख की सहिष्णुता-दुःख से कायर न होना और सुख से उन्मत्त न होना। समाधान का अर्थ है आत्मा के श्रवण आदि में अन्तःकरण का नियोजन । श्रद्धा का अर्थ है संप्रदाय, शास्त्र और प्राचार्य के वचन में विश्वास । उक्त तीनों साधन के प्राप्त हो जाने के बाद मुमुक्षा-मोक्षेच्छा होती है। यह साधन चतुष्टय श्रवणादि के अधिकारी का विशेषण होता है अर्थात् इन साधनों से सम्पन्न पुरुष ही वेदान्त से ब्रह्म के श्रवण और मननादि का अधिकारी होता है। यसु-'मुमुक्षौवाधिकारिविशेषणम्, तस्या एव निरपेक्षाधिकारनिमितत्वात्' इति । तन्न, सामर्थ्यादेरप्यधिकारनिमित्तत्वात् । अथ कामनार्थिक सामर्थ्याधपेक्षते न श्रुतमन्यत् , तत् किं श्रुतलिङ्गयोलिङ्ग बलवत् ? । तस्माद् 'राजा राजसूयेन यजेत' इत्यादी राजत्वादेरिख श्रुतस्य विवेकादेरप्यधिकारिविशेषणत्वं युक्तम् । 'मुमुक्षायाः सार्वत्रिकत्वात्, त्यविवेकादीनां त्वेकैकशावापर्यालोचितानां सर्ववेदान्तप्रत्ययन्यायवाधितत्याद्न तथात्वमिति चेत् ? न, सर्ववेदान्तप्रत्यय Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] न्यायेन साधनान्तरोपसंहारेऽपि तत्तच्छाखोपस्थितैकैकसाधनाऽबाधात्, इतरसाधनाभावस्य शब्दादनुपस्थिते, आर्थिकस्य तदसाधनान्ययस्य दानवायात् । [ केवल मुमुक्षा अधिकार सम्पादक नहीं ] कुछ विद्वानों का जो यह कहना है कि मोक्ष की इच्छा हो श्रवणादि के अधिकारी का विशेषण है क्योंकि वही अधिकार का अन्यनिरपेक्ष निमित्त है।' किन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि श्रवणादि के लिये अपेक्षित शरीरावि का सामर्थ्यादि भी अधिकार का निमित्त होता है । यदि यह कहा जाय कि'अधिकार में मोक्षकामना श्रर्थतः - लिङ्गतः प्राप्त सामर्थ्यादि की अपेक्षा होती है किन्तु उससे अन्य afara fair को अपेक्षा नहीं होती' ' तो ऐसा कहने वाले विद्वानों को यह सोचना होगा कि क्या श्रुति और लिङ्ग में लिङ्ग श्रुति की अपेक्षा बलवान् है ? निविवाद है कि लिङ्ग की अपेक्षा श्रुति बलवती होती है, अतः श्रुति से जब उक्त तीन साधन भी अधिकारी के विशेषण रूप में अवगत होते है तो केबल मुमुक्षा को तथा लिङ्गगम्य सामर्थ्यादि को ही अधिकारी का विशेषण मानना अनुचित है । अतः जैसे 'राजा राजसूयेन यजेत' - राजा राजसूयनामक याग से इष्ट प्राप्त करें - इश्यादि स्थल में श्रुतिप्राप्त राजत्वादि अधिकारी का विशेषण होता है इसीलिये राजस्व से च्युत हुआ व्यक्ति राजसूय यज्ञ में अधिकारी नहीं होता, उसीप्रकार श्रुतिप्राप्त नित्याऽनित्यविवेकादि को भी अधिकारी का विशेषण मानना श्रावश्यक है। शास्त्रवाल० स्त० ८ श्लो० २ यदि यह कहा जाय कि मुमुक्षा सार्वत्रिक प्रर्थात् वेदान्त की समस्त शाखाओं में श्रवणादि के अधिकार के निमित्तरूप में उक्त है और तत्त्वविवेक = नित्याऽनित्य वस्तु विवेकादि साधन वेदान्त की एकैकशाखामात्र में श्रवणादि के अधिकार के निमित्त रूप में उक्त है । श्रतः वे 'सम्पूर्ण वेदान्तजन्यare से एक एक शाखावबोध दुर्बल होता है' इस न्याय से बाधित हो जाते हैं । अतः वे अधिकारी के विशेषण नहीं हो सकते' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण वेदान्त के प्रत्ययन्याय से उपसंहार में साधनान्तर मुमुक्षा का प्रतिपादन होने पर भी तत् तत् शाखाओं से ज्ञात एकैकसाधन का बोध नहीं होता । क्योंकि उपसंहार में शब्द से इतर साधन के अभाव की उपस्थिति नहीं होती । अतः वहां मी सत्त्वविवेकादि में श्रवणादि के अधिकार की असाधनता के अभाव का अर्थात् साधनता का श्रतः प्रत्यय होने में कोई बाधा नहीं होती । नन्वेधं 'शान्तो दान्त उपरत' इति पुरुषविशेषणत्वात् संन्यासोऽप्यधिकारिविशेषणं स्पात् । न चानङ्गभूतस्य तस्य तथात्वम्, विहितत्वात् नाप्यङ्गभूतस्य तस्य श्रवणगिरये श्रुत्याद्यसन्वात् । न च प्रकरणात् तस्य तथात्वम्, आत्मनः प्रकरणात् संविधानात् तथात्वे वैपरीत्येऽप्यविनिगमात् फलवन्वस्योभयत्राविशेषेण समप्राधान्यात् । किञ्च, 'शान्तो दान्त' इत्यादापरतिपदाभिधेयस्य सन्न्यासस्य शान्त्यादिपदोपस्थिततद्वत्कतु कविचारस्य च समुच्चयो विधीयते, अव्यभिचरितसंबन्धेन जुहुपदेन क्रनुपस्थितिवच्छान्त्यादिपदैस्तद्वत्कत् 'कविचारो पस्थिते, अन्यथा ज्ञानस्य फलत्वेन विध्यगोचरत्वात् ज्ञानोद्देशेन शान्त्याद्यनेकगुण विधाने वाक्यमेदप्रसङ्गात् इति ज्ञानाङ्गत्वमेव सन्न्यासस्य । न च 'वेदानिमं लोकमसु' च परित्यज्या , Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था.क० टीका एवं हिन्दी विबेचन ] स्मानमन्विच्छेत' इति वाक्यात् अत्रणाङ्गत्वम्, 'दर्श-पौर्णमासाभ्यामिष्ट्वा सोमेन यजेते'तिक्त कालसंयोगपरत्वात् तस्य । अत एव जन्मान्तरीयोऽप्ययमुपयुज्यते, ज्ञानप्रतिवन्धकदुरितनिवृत्तिद्वारनिष्पत्तः। अत एव जनकादीनामपि ज्ञानश्रवणम् , 'यद्यातुः स्याद् मनसा याचा च सन्न्यसेत्' इत्यापरसन्न्यासविधानं च, स्वस्था-ऽऽतुरसन्न्यासयोरेककर्मत्वेऽप्येकवाल्पाङ्गताया अन्यत्र सर्वाङ्गतायाश्चोपपत्तेः, नित्येषु शक्त्यपेक्षया तथात्वादिति चेत् ! अन्नाहु-फलववेन नितिश्रवणसंनिधावफलस्य श्रुतत्वात् संन्यासस्य श्रवणाङ्गत्वम् , उपकार्योपकारकोभयाकाङ्क्षारूपस्यात्मप्रकरणान्यस्य प्रकरणस्याङ्गत्वावेदकत्वात् , प्रयाजादीनामिव । एवमप्यार्थवादिकफलकल्पने प्रवाजादीनामपि 'कम वै वद्यनस्य' इत्यार्थबादिकफलकल्पनाप्रसङ्गात् । किञ्च संन्यासस्य फलकल्पने[s]फल[स]वलान्यतराकाङ्क्षा, अङ्गत्वकल्पने तूमयाकाक्षेति श्रुतिलिङ्गेत्यादिन्यायादुभयाफाक्षारूपप्रकरणस्यान्यतराकांक्षारूपस्थानात चलवत्वात् श्रवणांगत्वमेव, फलश्रुतेस्र्थवादत्वात् ।। [संन्यास अधिकारिविशेषण माना जाय या नहीं ? ) श्रवणादि अधिकारी की चर्चा होने पर यह प्रश्न प्रसङ्ग से ऊठता है कि 'शान्तो वान्त उपरत' इत्याविवचन द्वारा पुरुष के विशेषणरूप में सम-बम और उपरति थानी संन्यास-निदिष्ट है, अतः संन्यास भी अधिकारी का विशेषण होना चाहिये। किन्तु यह संम्भव नहीं है, क्योंकि संन्यास श्रवण का अंग न होकर श्रवणाधिकारी का विशेषण नहीं हो सकता, क्योंकि संन्यास विहित है, जो विहित होता है वह अन्य विहित का अंग हुये विना उसके अधिकारी का विशेषण नहीं होता। श्रवणादि के अंगरूप में भी संन्यास को श्रवणाधिकारी का विशेषण नहीं माना जा सकता, पयोंकि 'संन्यास श्रवण का अङ्ग है, इस बात में श्रुति आदि कोई प्रमाण नहीं है। प्रकरण से भी संन्यास को अषण का अंग नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रकरण से आत्मा का संनिधान है, श्रवण का नहीं। दूसरी बात यह कि संन्यास को श्रवण का अङ्ग माना जाएगा तो इस पक्ष में विनिगमना न होने से विपरीत पक्ष- श्रवण संन्यास का अंग है '-को उद्भावना हो सकती है, क्योंकि दोनों ही पक्ष में फलसम्बन्ध में कोई विशेष अन्तर नहीं है, अत एव दोनों में समान प्राधान्य हो सकता है। [संन्यास श्रवणादि का अंग नहीं हो सकता ] इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि 'शान्तो दान्त' इत्यादि वचन में उपरतिपद से अभिहित संन्यास और शान्ति प्रादि पद से उपस्थित शान्त्याविवत्पुरुषकर्तृक विचार के समुच्चय का विधान होता है, क्योंकि जैसे जुहू (=काष्ठनिमित्त यज्ञीयपात्रविशेष) में क्रतु-यज्ञ का अव्यभिचार होने से जैसे जुहुपद से कतु की उपस्थिति होती है उसी प्रकार शान्ति प्रादि में विचार का अव्यभिचार होने से शान्ति आदि पद से शान्त्यादिवतकर्तृक विचार की उपस्थिति होती है। यदि ऐसा न माना जायगा तो ज्ञान फल होने से विधि का विषय नहीं हो सकता। प्रतः ज्ञानरूप फल के उद्देश से शान्ति आदि अनेक गुणों का विधान मानने पर वाक्यमेव की प्रसक्ति होगी। प्रत: संन्यास ज्ञान का हो अंग है-श्रवणादि का नहीं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो० २ यदि यह कहा जाय कि-'वेदानिमं०' वेद-वैदिककर्म तथा इहलोक और परलोक का परित्याग कर आत्मान्वेषण-प्रात्मविषयक श्रवणादिका सम्पादन करें-इस वावय से संन्यास में श्रवणांगता सिद्ध होगी।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसे 'दर्श-पूर्णमासयाग करने के बाद सोमयाग करे एतदर्थक वाक्य, वर्शपूर्णमासयाग में सोमयाग की अङ्गता का बोधक नहीं होता, किन्तु सोमयाग के साथ दशंपूर्णमासोत्तर काल के सम्बन्धका बाधक होता है। उसीप्रकार विनिमं०' यह बाक्य भी सन्यास में श्रवणाडता का बोधक नहीं होता किन्त श्रवणादि के साथ संन्यासोत्तर काल के सम्बन्ध का बोध होता है। इसीलिये जन्मान्तर का संन्यास भी वर्तमान जन्म में श्रवणादि में उपयोगी होता है। क्योकि जन्मान्तर के संन्यास से भी ज्ञान के प्रतिबन्धक दुरित की निवृत्ति रूप द्वार संपन्न हो जाता हैं । इसीलिये गृहस्थाश्रम में भी जनकादि को ज्ञानप्राप्ति सुनी जाती है, और "पुरष यदि आतुर हो जाय तो मन और वाणी से संन्यास ग्रहण करे एतदर्थक वाक्य से आपसंन्यास-आपत्तिकालीन संन्यास के विधान की उपपत्ति होती है। संन्यास यह श्रषण का असा होने पर उसको उपपत्ति नहीं होगी। यदि यह कहा जाय कि "आतुरसंन्यास श्रवण के अंग भूत संन्यास से भिन्न फर्म है क्योंकि संन्यास के जो अंग शास्त्र में वर्णित हैं ये प्रापत-संन्यास में सम्भव नहीं है"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि स्वस्थ संन्यास और आपत्संन्यास दोनों एक कर्म होने पर भी आतुर संन्यास अल्पाङ्ग होता है और स्वस्थ संन्यास पूर्णाङ्ग होता है, क्योंकि नित्यकर्मों में शक्ति के अनुसार अल्पाङ्गता और पूर्णाङ्गता मानी जाती है। [संन्यास श्रवणादि के अंगरूप होने का समर्थन ] उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में यह सिद्धान्त स्थापित किया गया है कि-श्रवणादि में फलवत्ता निर्णीत है और उसके संनिधान में संन्यास विना फल हो पठित है। अतः संन्यास श्रवणादि का अङ्ग है और इस अंगता का ज्ञान आत्मप्रकरण के अन्तर्गत उपकार्य-उपकारक उभय को आकांक्षारूप प्रकरण से उसी प्रकार होता है जैसे फलवान दर्शपूर्ण मास की संनिधि में फल विना पठित प्रयाजादि में दर्शपूर्णमास की अङ्गता का। और यदि उक्तरुप से श्रवण का अङ्ग होने से संन्यास के फल की उपपत्ति हो जाने पर भी प्रार्थवादिक अर्थवादोक्तफल की कल्पना की जायगी तो प्रयाजादि के भी 'कर्म वा एतद्यजस्य' इस अर्थवाववाक्य में उक्त फल की कल्पना का प्रसङ्ग होगा। दूसरी बात यह है कि संन्यास के पृथक् फल की कल्पना केवल फलकांक्षा से होगी एवं श्रवणादिविधि को सहकारीबल की कल्पना केवल तन्मात्र की प्राकांक्षा से होगी। यदि सन्यास में श्रवणादिविधि के अङ्गत्व की कल्पना की जायगी तो श्रवणादिविधि की बलाकांक्षा और संन्यासविधि की फलाकांक्षा दोनों अपेक्षित होगी। इन में अन्यतर आफांक्षा स्थानरूप है और उभयाकांक्षा प्रकरणरूप है। अत: उभयाकांक्षारूप प्रकरण अन्यतर आकांक्षा प्रकरणरूप स्थान से 'श्रुति-लिङ्गवाक्य-प्रकरण-स्थान-समाल्यानां पारदौर्बल्यम् अर्थ-चित्रकर्षात' इस न्याय के अनुसार बलथत् होने से संन्यास में श्रवणादि के अङ्गत्व की सिद्धि अनिवार्य है। अतः संन्यास श्रवण के फल से ही फलवान है, अन्य फल की श्रुति केवल अर्थवाद है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] ज्ञानाङ्गत्वं तु न, प्रकरणावगतत्वात् श्रवणाङ्गत्वस्य, शान्त इत्यादिवाक्ये दूपणाभावेन स्वार्थाऽपरित्यागात् । कृतेऽपि स्वार्थपरित्यागे ज्ञानोद्देशेन संन्यास- श्रवणयोविंधाने वाक्यभेदाऽपरि हारात, समुच्चयस्य द्वयानतिरेकेणैकसमुच्चयो विधीयत इत्यस्यापि दुर्बवत्वात् । वस्तुतोऽत्र 'ये मध्यमास्तानाग्नये दात्र' इत्यत्रेव सामानाधिकरण्यात् शान्तत्वादिविशिष्टे ककतृ विधानात् जातपुत्र इत्यादाविव शान्तादिपदोपलक्षितावस्थाविशेषविधानाद् वा, पश्येदित्यत्र ज्ञानस्य विध्ययोगात्, प्रकृतैस्तत्साधन श्रवणलक्षकत्वात्, शान्त्यादिविशिष्टैश्रवणक्रियाविधानात् 'सोमेन यजेत' इतिवद् वा न वाक्यभेदः । | संन्यास ज्ञान का अंग न होने का कारण ] ८१ संन्यास ज्ञान का अङ्ग नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकरण से उसमें श्रवणाङ्गत्व सिद्ध है और कोई दोष न होने से 'शान्तो दान्तः' इत्यादि वाक्य में स्वार्थपरित्याग करना उचित भी नहीं है । क्योंकि स्वार्थ का परित्याग करने पर भी ज्ञान उद्देश्य कर संन्यास और श्रवण दोनों का विधान मानने पर वाक्यमेव का परिहार नहीं हो सकता। दोनों के एक समुच्चय का भी विधान दुर्वच है क्योंकि समुच्चय उमय से अतिरिक्त न होने से समुच्चय विधान भी उभय विधान में ही पर्यवसित होता है । सच बात तो यह है कि 'ये मध्यमास्तानग्नये दात्र' इस बाध्य में जैसे मध्यमपद और तत्पद में सामानाधिकरण्य होने से मध्यमत्वविशिष्ट तत्पदार्थ का विधान होता है उसीप्रकार 'शान्तो दान्तः' इत्यादि वाक्य में शान्त दान्त प्रादि पदों में सामानाधिकरण्य होने से शांतत्वादिविशिष्ट एक कर्त्ता का विधान होता है । अथवा 'जातपुत्रः कृष्णकेशः अग्निमादधीत' इस वाय में जातपुत्र और कृष्ण केश शब्द से लक्षणा द्वारा उपस्थित यौवनरूप अवस्थाविशेष का विधान होता है उसीप्रकार 'शान्तो दान्तः' इत्यादि वाध्य में शाक्तादिपद से लक्षणा द्वारा उपस्थित श्रवस्थाविशेष का विधान होता है । अत एव उक्त वाक्य में 'पश्येत्' इस विधिप्रत्ययान्त क्रियापद के होने पर भी ज्ञान की विधि नहीं होती। क्योंकि विधिप्रत्यय का प्रकृतिभूत 'दृश् धातु' लक्षणा से दर्शन के साधनीसूत श्रवण का बाधक होता है अतः उस वाक्य से शान्त्यादि विशिष्ट एक श्रवणक्रिया का विधान होता है । अत: जैसे 'सोमेन यजेत' इस वाक्य से सोमविशिष्टयाग का विधान होने से उसमें वाक्यभेद नहीं होता उसीप्रकार 'शान्तो दान्तः' इत्यादि वाक्य में भी वक्ष्यभेद नहीं हो सकता । जन्मान्तरीयतदुपयोगस्तु नानिष्टः, द्वारस्य निष्पन्नत्वात् । 'श्रवणाङ्गत्वे जन्मान्तरीयप्रयाजादिवद् न तदुपयोगः स्यादिति चेत् ? न, अध्ययनादावदृष्टस्यापि जन्मान्तरोपकारकत्वस्य श्रवणदाविव प्रयाजादावदृष्टस्यापि तस्य तदङ्गसंन्यासादावविरोधात् । न चैतावता गृहस्थस्यापि श्रवणाधिकारः, विवेकादिवत् संन्यासस्याप्यधिकारिविशेषणत्वात्, जन्मान्तरीयस्य च तस्याऽनिश्चयात् । 'गृहस्थानामपि श्रवणं श्रूयत' इति चेत् १ न, 'घेदानिमं०' इत्यादिविधिविरोधेऽर्थवाद लिङ्गस्य वाक्यत्यात्, 'ब्राह्मणो यजेत' इत्यादिविधिविरोध इव देवानां यागादिश्रवणे | जनकस्य श्रूयत इति श्रद्धावन्तो मैत्रेय्याः श्रूयते इति स्त्रीणा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ [ शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो० २ मप्यधिकार कल्पयेयुः । तस्मात् संन्यासिन एवाधिकारः । गृहस्थस्य तु प्रवृत्तस्य दृष्टार्थत्वात श्रवणस्य प्रमाणसंभावनाददृष्टं निष्पद्यत एव । नियमादृष्टं तु नोत्पद्यते, विधेरप्रवृत्तेः, यथा शूदानुष्ठितयागान्तर्गतावधातात् । [जन्मान्तरीय संन्यास भी उपयुक्त है ] संन्यास को श्रवणाङ्ग मानने पर जन्मान्तरीय संन्यास का उपयोग अनिष्ट नहीं है क्योंकि जन्मान्तरीय संन्यास से भी दुरितनिवृत्तिरूप द्वार की निष्पति होती है। यदि यह शंका की जाय कि"संन्यास को श्रवण का अङ्ग मानने पर जन्मान्तरोय संन्यास का उपयोग नहीं हो सकेगा, क्योंकि जन्मान्तरोय प्रयाजादि का उपयोग दर्शपूर्णमाद के अनुसार में नहीं होता।" तो पर तीक नहीं है, क्योंकि जैसे अध्ययनावि में जन्मान्तरोपकारकत्व दृष्ट नहीं है फिर भी श्रवणादि में माना जाता है उसी प्रकार प्रयाजादि में जन्मान्तरोपकारकत्व का दर्शन न होने पर भी संन्यास में उसे मानने में कोई विरोध नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि-'यदि संन्यास जन्मान्तर में भी उपकारक होगा तो श्रवणादि में गृहस्थ को भी अधिकार की आपत्ति होगी। पयोंकि उस में भी जन्मान्तरीय संन्यास को सम्भावना है।"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि, जैसे विवेकादि श्रवणावि के अधिकारी का विशेषण है उसी प्रकार संन्यास भी अधिकारी का विशेषण है। अतः संन्यासविशिष्ट ही श्रवण में अधिकारी हो सकता है, संन्यास से उपलक्षित नहीं । [ जन्मान्तरीय संन्यास से श्रवणादि अधिकार की सिद्धि असंभव ) दूसरी बात यह है कि-जन्मान्तरीय संन्यास गहस्थ को श्रवणादि में अधिकृत नहीं बना सकता, क्योंकि गृहस्य जन्मान्तर में संन्यासो था उसके निश्चय का कोई उपाय नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'शास्त्रों में गृहस्थों का भी श्रवण सुना जाता है, अतः उसे श्रवणाधिकारी मानना उचित है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेदानिमत्यादि पर्वोक्त विधिवाक्य से जो संन्सास अङ्ग बताया गया है उसका विरोध होगा। अतः गृहस्थादि के श्रवणादिबोधक वाक्य को अर्थवाद हो मानना उचित है। क्योंकि 'ब्राह्मणो यजेत' इस विधिवात्रय के विरोध के कारण देवता यज्ञ में अधिकृत नहीं होते अतः उन के यज्ञादि श्रवण को अर्थवाद माना जाता है। दूसरी बात यह है कि यदि विदेहराजा गृहस्थजनक को श्रवणावि सुना जाता है इससे यदि श्रवणादि में गृहस्थ का अधिकार स्वीकार किया जायगा तो मैत्रेयी ( महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी) के यज्ञादि का श्रवण होने से यागादि में स्त्री के अधिकार की भी कल्पना प्रसक्त होगी। अतः सिद्ध है कि श्रवणादि में संन्याल का ही अधिकार है, गृहस्थ का नहीं । गृहस्थ पदि श्रवणादि में प्रवृत्त होता है तो श्रवण यद्यपि दृष्टार्थक-प्रदृष्टारिक्तप्रयोजनक है तो भी श्रवण में ग्रहस्थ की प्रवृत्ति से श्रवण की कर्तव्यताबोधक वेदवचन का सम्भावन-सम्मानन होता है । अतः उससे अदृष्ट को उत्पत्ति होती है। केवल नियमादृष्ट उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि श्रवणादि की विधि गहस्थ के उद्देश से प्रवृत्त नहीं है । यही बात याग के अन्तर्गत शूद्रादि द्वारा तण्डुलादि के अवघात के सम्बन्ध में भी है। यचातुरसंन्यासस्य ज्ञानार्थत्वमुक्तम् तत्र 'यद्यातुर०' इत्यादि वाक्ये किं विधीयते ? न तावत् संन्यासः, तस्य पूर्ववाक्यविहितत्वात् । नापि दशाविशेषे तद्विधानम् , अविरक्तस्य Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ स्या०० टीका एवं हिन्वी विवचन ) तदनधिकारात् , विरक्तस्थातुरम्यापि पूर्ववाक्येनैव संन्यासप्राप्तेः। नापि मनो वाचोविधानम् , तयोरपि पूर्वतः प्राप्तेः । नाप्यातुरे तद्विधानम् , अनाजुरे तत्मापनेव प्राप्तेः । अथ प्राप्त पुनासंकीर्तनमितरांगपरिसंख्यामित्यनेनेतरांगव्यावृत्तिः क्रियत इति चेत् ? न परिसंख्यायास्त्रिदोषत्वात् । श्रुतहान्य-ऽश्रुतकरूपनाप्राप्तबाधास्त्रयो दोषाः । तस्मात् 'यद्यातुर' इत्याद्यम्यासा. धिकरणन्यायेन कर्मान्तरमेव विशिष्टं विधीयते । तस्य च न पूर्वसंन्यासप्रकृतित्वम् , मानाभारात् । न च तत् पूर्वसंन्यासफलेन फलवत् , चोदकपकृत्यभावात् । नापि पूत्रसंन्यासवन् श्रवणांगम् , आतुरत्वसामथ्यस्य बलवच्चात् । [आतुर संन्यास वाक्य से किसका विधान !] अातुर संन्यास को जो ज्ञानफलक कहा गया है उस सम्बन्ध में यह विचार करना प्रावश्यक है कि प्रातुरसंन्यासबोधक उक्त वाक्य में क्रिसका विधान होता है ? विचार करने पर यह प्रवगत होता है कि उस में संन्यास का विधान नहीं माना जा सकता । बयोंकि संन्यास पूर्व वाषय से विहित है। अवस्थाविशेष में उससे संन्यास का विधान होता है। यह भी नहीं माना जा सकता क्योंकि आतुर यदि विरक्त नहीं है तो उसका संन्यास में अधिकार ही नहीं है और यदि विरक्त है तो पूर्ववाषय से ही उसे भी संन्यास प्राप्त है। 'संन्यास को उद्देश्य फर मन और वचन का विधान होता है यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन दोनों का भी विधान पूर्वदाय से प्राप्त है। आतुर के लिये भी उसका विधान नहीं किया जा सकता क्योंकि अनातुर में मन और वचन से संन्यास का प्रापक जो वचन है उसी से आतुर में भी प्राप्त है । यदि यह कहा जाय कि-"यह ठीक है कि प्रातुर-संन्यास पूर्वतः प्राप्त है किन्तु उसका कथन इतर अङ्ग को परिसंख्या के लिये है । अतः आतुर संन्यासबोधक वाक्य से संन्यास से इतर प्रङ्ग की व्यावृत्ति होती है ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि परिसंख्या में तीन दोष होते हैं. १. श्रुतहानि, तकल्पना और ३. प्राप्तबाध । जैसे, प्रकृत में संन्याससामान्य के जिस अंग की ध्यावत्ति होती है वह अंग भी श्रुत है, उसकी हानि होती है । एवं अश्रुत इतरांगत्याग की कल्पना होती है और व्यायत्तनीय अङ्ग प्राप्त है उसका बाघ होता है । अतः त्रिदोषग्रस्त होने से परिसंस्था नहीं मानी जा सकती। [ आतुरसंन्यास वाक्य से कर्मान्तर का विधान ] अतः यह मानना उचित है-मीमांसादर्शन के अभ्यासाधिकरण में जो अभ्यस्यमान कर्म को कर्मान्तर मानने का न्याय स्थापित किया गया है उसके अनुसार आतुरसंन्यास वाक्य पूर्वधावय से विहित संन्यास से भिन्न संन्यास संज्ञक कर्मान्तर का विधायक है और वह पूर्वविहित संन्यासप्रतिक अर्थात पूर्वविहित संन्यास का अंग नहीं है, क्योंकि उस में कोई प्रमाण नहीं है । एवं वह पूर्ण संन्यास के फल से फलवान भी नहीं है क्योंकि इस अर्थ को बताने में विधिवाक्य की प्रवृत्ति नहीं है। पूर्व संन्यास के समान यह श्रवण का अंग भी नहीं है क्योंकि उक्त वाक्य में प्रातुर पद का उपादान है प्रत एव उससे उपस्थित प्रातुरत्व हो सामर्थ्य है जिसके कारण उक्त वाक्य आतुरमात्र के ही संन्यास का Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ८ इलो० २ विधायक हैं । अतः वह श्रवणांग नहीं हो सकता । क्योंकि, श्रवण का अंग वही हो सकता है जिसका विधान श्रवणार्थीमात्र के लिये हो । ૪ तदवश्यं फले कल्पनीये केचिदाहुः वेदान्तविज्ञान सुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद् यतयः शुद्धसच्चाः । ते ब्रह्मलोके तु परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ १ ॥ -- इति श्रुतेर्दग्धरथन्यायेनातुरसंन्यासविषयत्वम् । न हि परिपक्वयोगस्य तत्र गमनम् | नापि 'प्राप्य पुण्यकृतान् ० ' इत्यादेरातुरसन्न्यासविषयत्वम्, 'योगाच्चलितमानसः' इत्यादिनोपक्रान्तश्रवणादिविषयत्वेन प्रतीतेः । नापि कृतपापसंन्यासि विपयत्वम्, कल्याणाभिधानात् । तस्मात् साधनसंपन्नस्योत्पन्नश्रवणादिप्रत्ययस्यापरिपक्वस्य प्राप्य पुण्यकृतान्' इत्यादिवचनविषयत्वम् आतुरस्य शमाद्यसंपन्नस्याऽकृतश्रवणत्त्वेनानुत्पन्नप्रत्ययस्य 'वेदान्त विज्ञान ० " इत्यादिवचनविषयत्वम् । परिपक्वयोगस्य तु नोभयविषयत्वमिति । 'वेदान्त०' इत्यादिश्रुतेनिंगुणत्रह्मविषयत्वेन व्याख्यानेऽपि - 2 ' सन्न्यस्तमिति यो ब्रूयात् प्राणः कण्ठगतैरपि । सोऽचयल्लभते भोगान् पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १॥ इत्यादिस्मृत्याऽऽतुरसंन्यासिनो ब्रह्मलोकं गतस्य तत्रोपदेशे सत्युत्पन्नज्ञानस्य मुक्तिः, इत्युपदेशद्वारा 'मुक्तिसाधनब्रह्मलोकगमनकाम आतुरः संन्यसेदिति विधिविपरिणम्यत इति । [ आतुरसंन्यास का फल क्या है ? ] इस स्थिति में अब यह प्रश्न उठता है कि यदि आतुर वाक्य से संन्याससंज्ञक कर्मान्तर का विधान होता है तो उसका फल क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कुछ विद्वानों का यह कहना है कि संन्यासफल के सम्बन्ध में एक ऐसा श्रुतिवचन उपलब्ध होता है जिसका अर्थ यह है कि "वेदान्त के अध्ययन से अर्थबोध प्राप्त अर्जित करने वाले शुद्धचित्त यति संन्यासयोग से ब्रह्मलोक में जाते हैं और वहां इस स्थिति को नियतावधि के अन्तकाल में वे सब वहीं से मुक्त हो जाते हैं।" इस प्रकार इस श्रुति को ऐसे संन्यास विधायकवावय की पेक्षा है जिससे विहित संन्यास का फल ब्रह्मलोकगमन हो और आतुरसंन्यासबोधक वाक्य को ऐसे वचन की अपेक्षा है जो ऐसे संन्यास का फल बतावे जैसा इस वाक्य से विहित है। इसलिये जिस का रथ दग्ध हो गया है और अश्व विद्यमान हो वह ऐसे व्यक्ति का संयोग चाहता है जिसके पास अश्व न हो किन्तु रथ हो । और रथ रखने वाला व्यक्ति ऐसे व्यक्ति की अपेक्षा करता है जिसके पास रथ न हो किन्तु अश्व हो अतः दोनों में सहयोग होने से रथ को अश्व की और श्व को रथ की प्राप्ति होती है उसीप्रकार ब्रह्मलोकगमन को संन्यास का फल बताने वाली श्रुति आतुरसंन्यासविषयक हो जाती है और आतुर संन्यास विधायकवचन ब्रह्मलोकगमन को संन्यास का फल बताने वाली श्रुति के सहयोग से अपने प्रतिपाद्य संन्यास की Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] ब्रह्मलोकगमनफलकता में पर्धयतित हो जाता है, और इस बबन को आतुरसंन्यासविषयक मानना हो उचित है, क्योंकि जिस का योग परिपक्व है उसका ब्रह्मलोक में गमन नहीं होता? [ प्राप्य पुण्यकृतान । इस वचन का विषय कौन ? ] यदि यह कहा जाय कि-"प्राप्य पुण्य कृतान लोकान् इत्यादि वचन आतुरसंन्यासविषयक हैं, अत: उक्त श्रुतिवचन 'नष्टाश्वदग्धरथ याय' से आलुस्संन्यासविषयक नहीं हो सकता ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'योगात् चलितमनसः' इत्यादि वचनों से यह बात है कि 'प्राप्य पुण्यकृतान् इस वचन का विषय बह व्यक्ति है जिसने श्रवणादि या उपक्रम कर दिया है. किन्तु अदृष्टयश जस पद से च्युत हो गया है, अतः इसमें 'भातुरसंन्यासविषयकत्व सिद्ध नहीं हो सकता'-यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'कृतपाप संन्यासी उक्त वचन का विषय है-श्योंकि उस वाक्य में ब्रह्मलोक प्राप्त संन्यासी के लिये वहीं से मोभलाभ का शब्द से अभिधान किया गया है जो इत्तपाप के लिये सम्भव नहीं है। अतः वस्तुस्थिति यह है कि जो साधनचतुष्टय से सम्पन्न होता है और श्रवणादि से जिसे प्रात्मबोध उत्पन्न हो जाता है किन्त अपरिपक्व होता है वह 'प्राप्य पुण्यकता का विषय है और जो शमादि से लम्पन्न नहीं होता, श्रवणादि न कर सकने से जिस को आत्मबोध उत्पन्न हुन्ना नहीं होता, ऐसा आतुर पुरुष, ब्रह्मलोकगमन को संन्यास का फल बताने वाले बचन का विषय है । किन्तु जिसका योग परिपक्व हो चुका है ऐसा व्यक्ति उन दोनों में से किसी भी धचन का विषय नहीं है। [ स्मृति से आतुर संघारफल का निर्णय ] इस संदर्भ में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यदि 'वेदान्तविज्ञान०' इत्यादि वचन का निर्गुणब्रह्मपरक इस प्रकार व्याख्यान किया जाय कि 'वेदान्त के श्रवणादि से जिसे निगुणब्रह्म का निश्चय हो चुका है ऐसे शुद्ध चित्त बाले पति संन्यासयोग से ब्रह्मलोक में जाते हैं और वहीं से मुक्त हो जाते हैं'-तब यह कहना कठीन होगा कि उक्त वचन आतुरसंन्यासविषयक है । अतः उस स्थिति में सके फल का निर्णय इस आशय की स्मति से करना होगा कि जो व्यक्ति प्राण कण्ठगत होने पर भी 'संन्यस्तं०'='मैंने संन्यास ले लिया इस प्रकार क्षतः मी संन्यासहण कर लेता है वह अक्षय भोग को प्राप्त करता है और उस का पुनर्जन्म नहीं होता। इस श्रुति के अनुसार आतुरसंन्यासी ब्रह्मलोक में जाता है और वहीं उसे उपदेश से ब्रह्मज्ञान का उदय होकर मुक्ति होती है । अतः आतुरसंन्यासबोधक विधिवाक्य को अर्थकल्पना इस प्रकार होती है कि 'उपदेश द्वारा मुक्ति के साधन ब्रह्मलोक में जाने की वांछावाला पुरुष प्रातुरसंन्यास ग्रहण करें।' अपरे तु-'यदहरेव बिरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्' इतिवाक्यं 'यस्याहिताग्नेग हानग्निदहेत् सोऽग्नये क्षामवतेऽष्टाकपालं निवपेत्' इतिवद् यदि पैराग्यनिमित्ते संन्यासविधायकम्, सदा निमिसे विधानादेवा ध्वसमर्थस्यातुरस्य निरङ्गासंन्यासप्राप्तेः 'यद्यातुर०' इत्यादेव्यर्थत्वाप(त्ते )चिः । नहि यावजीवनिमित्ते विहितस्याग्निहोत्रस्याऽसमर्थ प्रत्यङ्गामावबोधकं वचनान्तरमपेक्षितम् , यथाशक्तिन्यायेनैव सिद्धः। यदि च विरक्तस्याधिकारिणणस्तरफलकामस्य संन्यासविधायकम् , तदाङ्गवाक्यपालोचनयाङ्गेषु समर्थ प्रत्येवोक्तवाक्यप्रवृत्तिः । न ह्यङ्गेष्वसमर्थ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०२ प्रति वर्गकामाग्निहोत्रवाक्यं प्रवर्तते, अङ्गविकलस्याप्यधिकारापन्या । तियंगधिकरणविरोधात् । तशा न प्रकृते पगहाउपमर्थमातरं प्रति 'प्रव्रजेत्' इति पूर्ववाक्यस्याङ्गवाक्यै क्याक्यतापत्रस्याऽप्रवृत्तेः 'यद्यातुर' इति वाक्यमङ्गाऽसमर्थस्यातुरपदवाच्यस्य संन्यासकर्तध्यताविधायक, तद्विधिसामदेिव चाङ्गाभावः । न ह्य तावता स एव संन्यास आतुरस्य विधीयते, 'वाचा मनसा वा' इत्यस्यापि विधेयस्य दर्शनात् । न चार्थप्राप्तानुवादः, अर्थप्राप्त्यपेक्षया श्रुतेः प्रयलत्वात, इति प्राप्ते संन्यासेऽनेकविधानस्याऽशक्यत्वात् संन्यासान्तरं विधीयते । तस्य चातुर. स्वसामर्थ्यविरोधाद् न प्रकरणेन वाक्येन वा श्रवणसंवन्ध इति फलाकाक्षायां पापक्षयः फलं कल्प्यते, "संन्यासेन द्विजन्मनाम्" इत्यादिस्मृतेः । यदि तु संन्यासं कृत्वा जीवितस्तदा श्रवणाधिकारिविशेषणत्वबोधवाक्यप्रकरणबाधकं सामर्थ्यमपगतम् , इत्यधिकारिविशेषेणत्वमेव संन्यासस्य भवति । [यद्यातुर० वाक्य से विहित संन्यास में अन्य मत ] अपर विद्वानों का कहना है -'यस्याहिताग्निः०' इत्यादि वचन जैसे 'गहदाहरूप निमित्त उपस्थित होने पर ग्राहिताग्नि के लिये क्षामवान्' संज्ञक अग्नि उद्देश्य से आठ क.पालों के निर्वाप' का विधान करता है, उसी प्रकार यदि 'पदहरेव०' यह वचन वैराग्यरूपनिमित्त उपस्थित होने पर संन्यास का विधायक होगा तो इस नैमित्तिक विधान से ही संन्यास के अंगों के सम्पादन में असमर्थ आतुर को निरंगसंन्यास को प्राप्ति हो जायगी। अतः आतुर संन्याप्त बोधक अचन व्यर्थ होगा। क्योंकि यावज्जीवरूप निमित्त से विहित अग्निहोत्र के समस्त मङ्गों के सम्पादन में असमर्थ पुरुष के प्रति श्रमसाध्य अजों में प्रभावबोधन के लिये अग्निहोत्र के विधायक नये वचन की अपेक्षा नहीं होती । क्योंकि 'यथाशक्ति न्याय' से कतिपय अङ्गविकल अग्निहोत्र यावत् जीवनिमित्तक अग्निहोत्रविधायक वचन से ही सिद्ध हो जाता है । यदि 'यदहरेव०' यह वचन संन्यासफल के इच्छुक : विरक्त अधिकारी के लिये संन्यास का विधायक होगा तो अङ्गवाक्यों के पालोचन से अङ्गों के अनुष्ठान में समर्थ पुरुष के प्रति ही उक्त वाक्य की प्रवृति होगी। क्योंकि स्वर्गकाम के लिए अग्निहोत्र का विधायकवाक्य अग्निहोत्र के अंगों के अनुष्ठान में असमर्थ पुरुष के प्रति नहीं प्रवृत्त होता। क्योंकि प्रगविकल को भी अग्निहोत्र के अधिकार की प्राप्ति होने से मोमांसा के कर्माधिकारनिर्णायक तिर्यगधिकरण का विरोध होगा। क्योंकि उस अधिकरण में यह बताया गया है कि जैसे अध्ययनादि में असमर्थ होने से तियंग्योदि के जीव वैदिक कर्मों में अधिकृत नहीं होते हैं उसी प्रकार जो व्यक्ति सर्वानासमेत जिस कर्म के अनुष्ठान में असमर्थ है उसका उस कर्म में अधिकार नहीं होता। फलतः प्रकृति में भी संन्यास के अङगों के निर्वाह में असमर्थ आतुर के प्रति अङ्गबोधक वाक्यों के साथ एकवाक्यतापन होने के कारण संन्यास विधायक 'प्रव्रजेत्' शब्द से घटित पूर्वयाक्य की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अतः पातुरसंन्यासबोधक वाक्य आतुरपदवाच्य संन्यास के अङ्गों के पालन में असमर्थ पुरुष के लिये संन्यास का विधायक होगा। और उस विधि के बल से हो उस पुरुष के Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] संन्यासश्रमों के अनुष्ठानाभाव भी सिद्ध होगा। इससे सिद्ध है कि प्रातुर के लिये विहित संन्यास घही संन्यास नहीं है जो संन्यातफलेच्छ विरक्ताधिकारी के लिये उक्त विरक्त प्रवजयावावय से विहित है। क्योंकि प्रातुरसंन्यास बोधक धाक्य में संन्यास के विशेषणरूप में वाणी और मन की भी विधेय रूप में उपलब्धि होती है। [ वाणी और मन अर्थतः प्राप्त होने की शंका और उत्तर] यदि यह कहा जाय फि-"संन्यास के साथ पाणी और मन अर्थतः प्राप्त है और उक्त वाक्य में तो उसका अनुवाद मात्र है"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थ प्राप्ति की अपेक्ष होती है। अतः आतुरसंन्यास वावय में जब वाणी और मन का विधेयरूप में शब्दशः उल्लेख है तो उसे अर्थतः प्राप्त वाणी और मन का अनुवाद कहना उचित नहीं है। अतः बास्यभेद के भय से प्राप्त संन्यास में अनेकगुण का विधान अशक्य होने से आतुर संन्यासवाषय से अन्यसंन्यास का विधान ही मानना उचित है । अतः पातुरत्वरूप सामर्थ्य के विरोध से प्रकरण अथवा वाक्य द्वारा श्रवणादि के साथ उसका सम्बन्ध नहीं हो सकता । वयोंकि यदि वह श्रवणादि का अङ्ग होता तो आतुर के लिये उसका विधान ही असङ्गत होगा। क्योंकि उस पक्ष में श्रवणादि होने पर ही उस संन्यास की फलवत्ता होगी और पातुर व्यत्ति श्रवणादि सम्पादन कर नहीं सकता। अतः पातुरवाषय से विहितसंन्यास जब श्रवणादि से असम्बद्ध यदि एक अलग ही संन्यास है लब ३ तब उसके फल की आकांक्षा होने पर यही मानना उचित है कि इस संन्यास का फल है पापक्षय, क्योंकि 'संन्यासेन द्विजन्मनां' इत्यादि श्रुति वचन में संन्यास से द्विजामा के पापक्षय का अभिधान है। इस संन्यास के सम्बन्ध में यह विशेषतः ज्ञातव्य है कि यदि कोई मनुष्य प्रातुर संन्यास लेने के बाद जीवित रह आता है तब याश्य एवं प्रकरण द्वारा आतुर संन्यास में श्रवणाधिकारी को विशेषणता के बोध फा बाधक प्रातुरत्वरूप सामर्थ्य निवृत्त हो जाता है। अतः उस स्थिति में संन्यास श्रवणाधिकारी का विशेषण होता ही है । ब्रह्मलोका दिगमनं तु न सन्न्यासफलम्, 'सन्न्यासाद् ब्रह्मणः स्थानम्' इत्यादेशलोकान्तभोगाऽविरक्तसन्न्यासविषयत्वात् , 'प्राप्य पुण्यकृतान्' इत्याधुक्तस्य सन्न्यासपूर्वकानुष्ठितश्रवणादिसामथ्र्योबुद्धपूर्वशुभकर्मफलत्वात् । अत एव तदभावे "अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्" इत्युक्तेरातुरस्यापि सर्वतो विरक्तस्य तुल्यन्यायतया कदाचित तत्सामोबुद्धपूर्वशुभकर्मफलानि मुक्त्या पुनर्जातस्य श्रवणादिना शीघ्रमुक्तिरेव । अन्यथा श्रवणार्थसन्न्यासिनो देवादक श्रवणाद् मृतस्य नान्तरीयकफलाङ्गीकारे च सन्न्यासिनो वैराग्यात् प्रकृतौ लय इत्यस्यापि प्रसङ्गात् , परिपक्कयोगस्यापि तत्प्रसङ्गाच्च । तत् सिद्धं सन्न्यासः श्रवणार्थ एवेति । ततश्च सिद्धं-साधनचतुष्टयसंपन्नः श्रवणाधिकारी श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं गुरुमनुसृतः श्रवणादि संपादयति । [ ब्रह्मलोक प्राप्ति आदि संन्यास का फल नहीं है ] 'वेदान्त विज्ञान०' इत्यादि वाक्य से जो संन्यास से ब्रह्मलोकगमन की बात कही गयी है Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ [ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो०२ उससे यह समझना ठीक नहीं है कि ब्रह्मलोक में गमन संन्यास का फल है । सत्य यह है कि ब्रह्मलोकादिगमन संन्यास का फल नहीं है, क्योंकि संन्यास से ब्रह्मलोक प्राप्त होता है इस आशय के जो शास्त्रवचन उपलब्ध होते हैं वे ब्रह्मलोकान्त भोग से वैराग्य हुये विना जो संन्यास ले लिया जाता है उससे सम्बन्धित है; हिरवर संन्यास से गम्भ क्वित नहीं है। 'प्राप्य पुण्यकृतान्०' इत्यादि बचन से संन्यासी को लभ्य जिस फल का प्रतिपादन किया गया है वह भी संन्यास का फल नहीं है किन्तु संन्यासपूर्वक श्रवणादि के अनुष्ठान से जो साधक को सामर्थ्य प्राप्त होता है उससे उद्बुद्ध फलोन्मुखीभूत पूर्वजन्माजित शुभकर्मो का फल है । इसीलिये उक्त कर्म के अभाव में 'श्रवणादि में लगा हुआ साधक बुद्धिमान् योगिनों के कुल में ही उत्पन्न होता है।' इस उक्ति से, जिस प्रकार अनातुर संन्यासी को श्रवणादि के परिपाक के पूर्व श्रवणादि से निवृत्ति हो जाने पर उक्त पूर्वोपाजितभोक्तव्य शुभ कर्मों के सद्भाव-असद्भाव से उबत दो स्थिति होती है और बाद में थवणादि का परिपाक होने पर शीघ्र मुक्ति होती है उसी प्रकार सर्वतः विरवत मातुर संन्यासी भी कभी वैराग्य और संन्यास से प्राप्त सामर्थ्य से उद्बुद्ध पूजित शुभकर्मों का तत्तल्लोकों में फल भोग कर पुनः सत्कुल में उत्पन्न होता है और श्रवणादि द्वारा उसको भी शीघ्र मुक्ति होती है। ब्रह्मलोक-पुण्यलोकादि भी संन्यासो के पूर्वजन्माजित शुभकर्म का ही फल है यही मानना उचित भी है। अन्यथा जिस मनुष्य ने बराग्यपूर्वक श्रवणादि के लिये संन्यास लिया है वह देववश श्रवण से पहले मर जाता है, उसे भी यदि संन्यास का उक्त नान्तरीयक फल माना जायगा तो वह जैसे संन्यस्त है वैसे विरक्त भी है, अतः यदि संन्यास से उसको ब्रह्मलोकादि की प्राप्ति होगी तो उसी प्रकार बैराग्य से उसे प्रकृतिलय की भी प्राप्ति होगी, किन्तु ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते और क्रम से होने में कोई प्रमाण नहीं है। इसी प्रकार जिसका योग परिपक्व हो गया है उसे भी संन्यास और वैराग्य से उषत फलों की प्राप्ति का प्रसङ्ग होगा। अत: उषत रीति गे यह सिद्ध है कि संन्यास धवणार्थ ही होता है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि उक्त साधन चतुष्टय से सम्पन्न श्रवणाधिकारी पुरुष श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ गुरु की शरण में जाकर श्रवणादि का सम्पादन करता है। श्रवणादिकं तु श्रवणम् , मननम् , निदिध्यासनं चेति । श्रवणं नाय वेदान्तानां शक्ति(? सति)तात्पर्यावधारणानुकूलो व्यापारः। श्रुतस्यार्थस्य युक्तितोऽनुसंधान मननम् | विजातीयप्रत्ययतिरस्कारेण सजातीयप्रत्ययप्रवाहीकरणं निदिध्यासनम् । एतेषां श्रवणं प्रधानम्, इतरे फलोपकायेंगे, श्रोतव्यादिवाक्येषु प्राथमिकत्वात श्रवण विधेरेवावादिक्रफलकल्पनयेतरयोस्तत्कल्पनाफ्लेशनिवृत्तः। श्रवणस्य तत्वज्ञाने प्रधानभूतशब्दप्रमाणस्वरूपनिर्वाहकतया प्राधान्यम्, अन्यतोऽवगतार्थे गृहीतशक्तितात्पर्यस्यय शब्दस्य प्रमाणत्वात् । ये तु श्रवणादिषु विधिरेव नास्तीति, मनसैव च तत्त्वज्ञानोत्पत्ति मन्यन्ते, तेषां निदिध्यासनस्य मनःसहकारितया, श्रवणादेश्च तदर्थतया न अवणे प्राधान्यादरः । [श्रवण-मनन-निदिध्यासन की व्याख्या ) श्रवणादि का अर्थ है-श्रवण-मनन और निदिध्यासन । उनमें श्रवण का अर्थ है-परमार्थसस ब्रह्म में सम्पूर्ण वेदान्तों के तात्पर्यनिर्णय का प्रयोजक व्यापार। वह व्यापार है मीमांसादर्शन में Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेघन ] कथित तात्पर्यनिर्णय के छः लिग उपक्रम-उपसंहार की एकरूपता, अभ्यास, अपूर्वप्ता, फल, अर्थवाद और उपपत्ति इन छह लिङ्गने का वेदान्त की अवित्तीयब्रह्मपरता में योजन । __ मनन का अर्थ है जिस अर्थ में वेदान्त वाक्यों का तात्पर्य निर्णीत हो जाय उस अर्थ का युक्तिपूर्वक प्रतुसंधान-अनुमान द्वारा पुष्टिकरण । ___ निदिध्यासन का अर्थ है-विजातीयप्रत्यय-ब्रह्मभिन्नवस्तुग्राही मनोयसि का निरोध कर सजातीय प्रत्यय = ब्रह्माकार मनोवृत्ति को प्रवाहित करना। अर्थात् अविच्छिन्नरूप से ब्रह्म का अनुध्यान करना। इन तीनों में श्रवण प्रधान है और मनन तथा निदिध्यासन उसके फलोपकारी अङ्ग है। क्योंकि 'आरमा वाऽरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निविध्यासितव्यः' इस आत्मदर्शनोपाय के प्रतिपादक श्रुति में श्रवण का प्रथम उल्लेख है । प्रतः श्रवण विधि के ही अर्थवादोक्त फल की कल्पना से मनन और निदिध्यासन को फलवत्ता सिद्ध हो जाती है, अत: उनके पृथक फल को कल्पना का क्लेश अनावश्यक है। उक्त तीनों में श्रवण की प्रधानता इसलिये भी होती है कि वह तत्त्वज्ञान में शब्दात्मक प्रधान प्रमाण के प्रमाकरणस्वरूपस्वरूप का निर्वाहक है, क्योंकि अन्य साधन से ज्ञात अर्थ में जिस शम्ब की शक्ति और तात्पर्य अवधारित होता है, यही प्रमाा का जनक होता है। अतः ब्रह्मातस्य में पेक्षान्तों के तात्पर्य का अवधारणरूप अथवा उस अवधारण का प्रयोजक व्यापाररूप श्रवण, वेदान्तवाक्य से होने वाली ब्रह्मप्रमा का प्रयोजक है। कुछ विद्वान ऐसे हैं जो तत्त्वज्ञान के लिये श्रवणादि की विधि नहीं मानते किन्तु मन से ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं। उनके मत में निदिध्यासन मन का सहकारी है और श्रवण एवं मनन निदिध्यासनाथं अपेक्षित है । अत एव उनकी श्रवण की प्रधानता में अभिरूधि नहीं है। विधिश्चात्र नियम एव, निर्विशेषात्मबोधेऽपि पुराणप्राकृतवाक्यश्रवणादेः प्रासत्वात्, वेदान्तश्रवणस्य नियमनात् । संभवति हि शूद्रादेः शमादिसंपन्नस्य पुराणश्रवणादिना तत्त्वबोधः । ब्रामणस्य तु न वेदान्तपरित्यागेन पुराणश्रयणमिति नियमविधः फलम् । एतच्च श्रवणाद्यावृचं तत्वधीहेतुः, दृष्टार्थत्वात् । एवं बहुजन्मलब्धपरिपाकवधादसौ 'तत्वमसि'आदिवाक्यार्थ विशुद्ध प्रत्यभिन्न परमात्मानं साक्षात् कुरुते । श्रवणादि का विधि यह नियम विधिरूप है ] जो विद्वान् श्रवणादि की विधि मानते हैं उनके मन में श्रवणादि की विधि अपूर्वविधि अथवा अन्य कोई विधि न होकर नियमविधि ही है । क्योंकि निविशेष आत्मा के बोध में भी वेदान्त श्रवण के समान पुराण और प्राकृतवाक्य आदि का भी श्रवण प्राप्त होता है। अत: इस नियम विधि से पेदान्तश्रवण का नियमन होता है । शूद्रादि जो शमादि से सम्पन्न है उसे पुराण के श्रवणादि से भी सस्वज्ञान होता है। किन्तु 'ब्राह्मण वेदान्त का परित्याग कर पुशण का श्रवण न करें' यही नियमविधि का फल है। श्रवणादि तीनों उपाय पुनः पुनः आपत्तित होने पर तत्वज्ञान के जनक होते हैं क्योंकि उनका तत्वज्ञानरूप दृष्ट फल है । अत: इस फल की सिद्धि न होने तक उनका आवर्तन प्रावश्यक होता है। इस प्रकार अनेक जन्मों में श्रवणादि के आवर्तन से उनका परिपाक होने Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त०८ श्लो०३ पर ब्रह्मजिज्ञासु साधक 'तस्वमसि' इत्यादि महावाक्यों से प्रतिपाद्य विशुद्ध-निरुपाधि प्रत्यगभिन्नजीवात्मा से अभिन्न परमात्मा का साक्षात्कार करता है। तत्र त्वंपदार्थः प्रसिद्ध एव संयोध्यो जीवः। तत्पदार्थश्चेश्वरः, स च 'विम्बचैतन्यम्' इति केचित्, 'विक्षेपशक्तिप्रधानाज्ञानप्रतिविम्बितं चैतन्यम्' इत्यन्ये, जीवनिष्ठावान विषयभूतं चैतन्यम्' इत्यपरे । उक्तार्थयोश्च तत-त्वम्पदयोरत्र सामानाधिकरण्यं न सिंहो देवदतः' इतिवद् गौणम् , मुख्ये संभवति तस्याऽन्याय्यस्यात् । नापि 'मनो ब्रह्म' इतियदुपासनार्थम् , श्रुतहान्यऽश्रुतकल्पनापत्तः । मुख्यत्वेऽपि न नीलोत्पलादिस्थानीयम् , गुण-गुणिभावाद्यसंभवात् , 'निगुणाऽस्थूल'-आदिवचनविशेधाच्च । नापि यः सर्पः स रज्जुः" इतिवद् बाधीयम् , उभयोश्चिद्रूपतया बाधाऽयोगात् । तस्मात् पदार्थयोः परस्परभेदव्यावर्तकतया विशेषण-विशेष्यभावप्रत्ययानन्तरं लक्षणया 'सोऽयं देवदतः इतिच विशुद्धसत्यमभिन्नाखण्डपरमात्मप्रतीतिः । [ 'तत्'-'त्वम्' पदों का वाच्यार्थ ] 'तत्त्वमसि' वाक्य में 'स्वम्' पद का अर्थ प्रसिद्ध है और वह है संबोध्य जीव । संबोध्य का अर्थ है युष्मतपदघटिलवाक्यजन्यबोधाश्रयरूप में वक्ता को अभिमत । अर्थात् , जिस व्यक्ति को बोध कराने के अभिप्राय से युष्मतपघटित याक्य का प्रयोग होता है वह संबोध्य होता है । यह संबोध्यता जीव में ही होती है क्योंकि जोव को बोध कराने के लिये ही युष्मत्पदघटित वाक्य का प्रयोग होता है । तथा उक्त वाक्य में 'तत्' पद का अर्थ है ईश्वर - ब्रह्मा। कुछ लोगों के अनुसार तत् पद से प्रतिपाद्य ईश्वर बिम्बचैतन्यरूप है। अन्य विद्वानों के मत में विक्षेपशक्ति प्रधान अज्ञान में प्रतिबिम्बित चैतन्य हो ईश्वर है । अपर विद्वानों के मत में जीवनिष्ठ अज्ञान का विषयभूत चैतन्य ही ईश्वर है । ईश्वर और जीव के बोधक क्रमशः 'तत्' और 'त्वम्' पद का तत्वमसि' इस महावाक्य में सामानाधिकरण्य है । सामानाधिकरण्य का अर्थ है परस्परान्वितार्थक होते हुये समान विभक्तिक होना। यह सामानाधिकरण्य 'तत्' पद और 'स्वम पद में है, क्योंकि उनका प्रयोग उनके अर्थों के परस्पर अन्वयबोध के लिये प्रयुक्त है और समान विभक्तिक भी है। किन्तु यह सामानाधिकरप्य सिहो देवदत्तः' इस वाक्य में सिंहपद और देवदत्त पद के सामानाधिकरण्य के समान गौण नहीं है, क्योंकि सिंहो देवदत्तः' वाक्य में सिंहपद सिंहसदृश का लक्षक है, किन्तु इस चालय में तत्' या 'त्वम्' सादृश्यविशिष्ट का लक्षक नहीं है। कारण, मुख्य अर्थ सम्भव रहने पर लाक्षणिक अर्थ का अभ्युपगम न्यायसंगत नहीं होता। [ 'तच्चमसि' वाक्य में सामानाधिकरण्य मीमांसा ] एवं, 'मतो ब्रह्म' इस वाक्य में मन और ब्रह्म पद का सामानाधिकरय जिस प्रकार उपासनार्थ है इसप्रकार 'तत्त्वमसि' इस वाक्य में तत्-त्यम् पद का सामानाधिकरण्य उपासमार्य नहीं है । क्योंकि उपासनार्थ मानने पर श्रुतहानि और अथत कल्पना की अापत्ति होगी। वह इस प्रकार--जीव और ब्रह्म का ऐक्य 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म-'अयमात्मा ब्रह्म' इत्यादि वाक्यों से श्रुत है अतः उसकी हानि होगी। जीव और ब्रह्म में अश्रुतकल्पना यानी अन्य श्रुति से अश्रुत उपास्य-उपासकभाष की कल्पना की भी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] आपत्ति होगी। इसीप्रकार तत्त्वमसि वाक्य में तत् पद और स्वम् पद मुख्य शक्या का बोधक होने पर भी उनका सामानाधिकरण्य 'नीलोत्पलं' इस वाक्य में नीलपद और उत्पलपर के सामानाधिकरण्य जैसा भी नहीं हो सकला, क्योंकि तत् पदार्थ और ला जदार्थ में गुणगुलिभानानि का अभाव है। तथा कश्चिद् गुण-पुणिभाव का अभ्युपगम करके भी उसका समर्थन नहीं किया जा सकता । क्योंकि ईश्वर को निर्गुण और स्थल आदि बताने वाले वचन का विरोध होगा । एवं 'यः सर्पः स रज्जुः इस में जैसे बाधा में सामानाधिकरण्य होता है वैसे तत और त्वम् पब का बाधा में सामानाधिकरण्य भी नहीं है। क्योंकि बावा में सामानाधिकरण्य का अर्थ है कि बाधित अभेव का बोधक होते हुये समानविभक्तिक होना। 'यः सर्पः स रज्जुः' इस वाक्य में ‘रज्जु' पद 'तत्' पद ये दोनों रज्जु पोर प्रभेद का बोधक है और परस्पर समानाधिकरण है-किन्त 'तत्त्वमसि' याषय में इस प्रकार का सामानाधिकरण्य सम्भव नहीं है क्योंकि तत-त्वम पदार्थ का अभेद बाधित नहीं है । दोनों में चिदुपता अबाधित है। इसलिये तत' पद और 'त्यम्' पद के अर्थों में परस्परभेदच्यावृत्तिफलक विशेषणविशेष्यभाव की प्रतीति हो जाने के बाद लक्षणा द्वारा जैसे 'सोऽयं देवदत्तः' इस वाश्य से तत्कालीन और एतत्कालीन एक अभिन्न देवदत्त का बोध होता है उसी प्रकार 'तत्त्वमसि' इस वाक्य में भी तत् पद और स्वम् पद के उपस्थित अर्थों में विशेषण-विशेष्यभाव को प्रतीति के बाद परमात्मा का बोध होता है। . ['तत्वमसि' वाक्य में शुद्ध चैतन्य में लक्षणा ] प्राशय यह है कि जिन पदार्थों में प्रभेद सम्बन्ध से विशेषणविशेष्यभावशाली बोष होता है उन पदार्थों में उस बोध से परस्पर भेव की व्यावृत्ति होती है। क्योंकि भेद और प्रभेद में सहज विरोध होने के कारण अभेद प्रत्यय द्वारा भेव का निवर्तन आवश्यक होता है। किन्तु 'सोऽयं देवदत्तः' य है, क्योंकि इस वाक्य में 'पद परोदेशतित्वविशिष्ट का शक्ति से बोधक है और 'तत्' पव पुरोदेशान्यदेभवृत्तित्वविशिष्ट अर्थ का बोधक है। इसप्रकार इवं पदार्थ में और तत्पदार्थ में एक दूसरे के भेवक धर्म विद्यमान हैं। अतः इन दोनों में पदार्थों के अभेद बोथ से उनके परस्पर भेव को व्यावृत्ति सम्भव नहीं है। अत एव तत्' और 'इदं' दोनों पद को, विशेषण का त्यागकर विशेष्यमात्र में लक्षणा को जाती है। प्रतः लक्षणाजन्य अभेव बोध से परस्पर भेद की व्यावृत्ति होती है। उसी प्रकार 'तत्वमसि' इस स्थल में भी 'तत्' पद का अर्थ सर्वज्ञत्वादिविशिष्ट ब्रह्मचैतन्यात्मक ईश्वर और 'स्वम्' पद का अर्थ है अल्पमत्व-अल्पकर्तृत्वादि विशिष्ट चैतन्य । अतः जब इन दोनों का अभेद बोध होगा तो उस ओष से उन दोनों के परस्परभेद की ध्यावृत्ति के लिये उन में विद्यमान परस्पर मेदक धर्मों का त्याग कर शुद्धतन्यमात्र में दोनों पदों को लक्षणा करके लक्ष्यार्थ बोध का अभ्युपगम करना होगा। फलतः उक्त वाक्य से विशुद्ध प्रत्यगभिन्न परमात्मा का बोध होने में कोई बाधक नहीं हो सकता। सा च लक्षणा पदद्वयेऽपि विशेषणांशत्यागेन चिन्मात्रे स्ववाच्यैकदेशे, अन्यथाऽखण्डार्थप्रतीत्यनुपपत्तेः, लक्षणाची जविरोधासमाधानाच । इयमेव जहदजहल्लक्षणा, भागलक्षणा च गीयने । न चामेदान्वयिचैतन्यांशोपस्थितिरवि शक्त्यैव, वैशिष्टयां शम्य त्यनुपपत्त्याऽनन्वय इति न लक्षणायाः प्रयोजनमिति वाच्यम्, जीवत्वेश्वरन्याभ्यामुपस्थितयोरभेदान्वयाऽसंभवाद् Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ [ शास्त्रया० स्त०८ श्लो०३ विशेष्यांशमात्रोपस्थित्यर्थं तदादरात् । न च शक्तिजन्ययैवोपस्थित्या विरुद्ध प्रकारांशपयुदासेनान्वयः, 'गौनित्यः' इत्यादावपि भागलक्षणोच्छेदात् । 'तत्र विशेषणत्वेनोपस्थितस्य न नित्यत्वान्वययोग्यता' चेत् १ अत्रापि जीवत्वेश्वरत्वाभ्यामपस्थितयो ऽभेदान्वययोग्यतेति तुल्यम् ।-'गोत्वं नित्यम्' इति चोधानुरोधात् तत्र विशेष्यतयोपस्थित्यर्थ लक्षणादर इति चेत् ? अत्रापि विशेष्यतयोपस्थितयोविशेष्याशयोरमेदः संसर्गविधया भायात, इष्टं पाऽखण्डार्थत्वम् , इति लक्षणयैव शुद्धवस्तूपस्थितिः । अत एव निर्विकल्पको वाक्यार्थबोधः, पदार्थस्यैव वाक्याथेत्वात् । न च वाक्यवैयर्थ्यम, पदस्याऽप्रामाण्यात् , बास्योत्थयोधमन्तरेण भेदभ्रमाऽनिवृतेश्च । न हि सः' इति 'अयम्' इति च देवदत्तस्वरूपमात्र विवक्षया प्रयुक्तपदजन्यबोधाद् भेदभ्रम. निवृत्तिः, 'सोऽयम्' इति वाक्याच्च भवति सेति । [विशेष्यरूप वाच्यएकदेश में तत्-त्वम् पदों की लक्षणा ] उक्त लक्षणा यानी 'तत्त्वमसि' इस वाक्य से अखण्डार्थप्रतीति के लिये अपेक्षित लक्षणा उस वाक्य के तत और स्वम दोनों पक्षों में होती है और वह भी उन दोनों पक्षों के अर्थों में विशेषणांश को त्याग कर उन पदों के वाच्यार्थ के विशेष्यात्मक एकदेशा चिन्मात्ररूप अर्थ में। क्योंकि यदि दोनों पदों की निमात्र में लक्षणा नहीं मानी जायगी तो चिन्मात्रस्वरूप प्रखण्डार्थ की प्रतीति नहीं हो सकेगी। और त्वम् पवार्थ और तत् पदार्थ के अमेव को अनुपपत्तिरूप लक्षणाबीज का भी समाधान नहीं होगा । विशेषणांश को छोड़कर विशेष्यमात्र में होने वाली यह लक्षणा ही जहदजहरुलक्षणा या भाग (त्याग) लक्षणा कही जाती है। जहवजहल्लक्षणा की व्युत्पत्ति है-'जहती चाऽसौ अजहतीच इति जहदजहतो, जहदजहती चासो लक्षणा चेति जहवजहल्लक्षणा ।'-अर्थात वाच्यार्थ के यत्किश्विद् एक अंश का त्याग करने वाली और वाच्यार्थ के अन्यर्थ का त्याग न करने वाली लक्षणा । भागलक्षणा का अर्थ है-भाग में-एकदेश मात्र में लक्षणा। [ शक्ति से शुद्ध चैतन्य की उपस्थिति का असंभव । इस लक्षणा के विरोध में यह शंका होती है कि 'तत्त्वमसि' इस वाक्य में तत और त्वम् पद की, विशेषण को छोड़कर केवल चैतन्यमात्र में शक्ति मानना आवश्यक है क्योंकि अभेद के अन्वयी दोनों पदार्थों का घटक चैतन्यमात्र है और उसकी उपस्थिति भी उन पदों की शक्ति से होती है। यद्यपि शक्ति में विशेषणांश भी उपस्थित होता है किन्तु उन दोनों पदार्थों के घटक विशेषणों में अभेदा अनुपपन्न है । अत एव उनमें अभेदान्वय न होकर विशेष्य में ही अभेदान्वय होता है अतः लक्षणा का काई प्रयोजन नहीं है।"-किन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि जोवत्व और ईश्वरत्व परस्पर में भिन्न होने से उन दो रूप से उपस्थित अर्थों में अभेदान्वय नहीं हो सकता। अतः विशेषणों में अमेव न से विशिष्ट में भी अभेव नहीं हो सकता। क्योंकि. विशिष्ट यह विशेषण और विशेष्य से भिन्न न होने के कारण कोई भी वस्तु विशेषण में अवृत्ति होकर विशेष्यमात्र में वृत्ति नहीं हो सकती। इसलिये विशेष्यांशमात्र की उपस्थिति के लिये लक्षणा का आदर आवश्यक है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन । [ शक्ति द्वारा उपस्थित अर्थों का आंशिक बोध अमान्य ] यदि यह कहा जाय कि-शक्तिजन्य ही उपस्थिति से विरुद्ध प्रकारांश का त्याग कर विशेष्यमात्र में परस्पर में अन्यथ हो सकता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शक्ति द्वारा उपस्थित अर्थ का आंशिक बोध अप्रामाणिक है। अन्यथा गौनित्यः' इस वाक्य से गोपदशक्ति द्वारा ही गोत्व में नित्यपद के अर्थ का अन्वय हो जाने से गोपद की गोत्व में भागलक्षणा का उच्छेद हो जायगा । अर्थात् शक्ति द्वारा अर्थ बोध के तात्पर्य से 'गौनित्यः' इस प्रयोग के प्रामाण्य को आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-- 'गौनित्यः' इस वाक्य में गो शब्द से गौ विशेष्यरूप में उपस्थित है किन्तु उसमें नित्यत्व के अन्वय की योग्यता नहीं है। अतः गोत्व में नित्यत्व के प्रन्वय के लिये गोत्व में गोपद को मागलक्षणा प्रावश्यक है-तो यह बात 'तत्त्वमसि' इस स्थल में भी समान है, क्योंकि यहाँ भी जीवत्व और ईश्वरत्वरूप से उपस्थित अर्थों में अभेवान्यय की योग्यता नहीं है, अतः जीवश्व और ईश्वरत्व को छोड़कर विशेष्यमात्र की उपस्थिति के लिये भागत्यागलक्षणा आवश्यक है। [ गो पद की लक्षणा के प्रयोजन की आशंका का उत्तर ] यदि 'गौनित्यः' इस वाक्य में गो पद को लक्षणा के समर्थन में यह कहा जाय कि-"उक्त वाश्य से 'गोत्वं नित्यम्' इस बोध की उपपति के लिये विशेष्यविधया गोत्व को उपस्थिति अपेक्षित है, क्योंकि विशेष्यतासम्बन्ध से पदार्थान्वयबोध के प्रति विशेष्यतासम्बन्ध से पदजन्य उपस्थिति कारण होती है-इस कार्यकारणभाव के अनुरोध से 'पदार्थः परार्थनान्वेति न तु पदार्थकदेशेन'-एक पदार्थ का पदार्थान्तर के साथ ही अन्वय होता है, किन्तु पदार्थ के एकदेश के साथ नहीं होता-यह नियम है। अतः गोपनिष्ठशषितजन्य उपस्थिति विशेष्यतासम्बन्ध से गोत्व में न रहने से गोस्व में नित्यत्व अन्धय नहीं हो सकता। अत एव गोपद से गोस्वविशेष्यकोपस्थिति के लिये गोत्व में गोषद को भागत्यागलक्षणा का प्रावर होता है '-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'सत्वमसि' इस वाक्य में भी 'सत्' और 'त्वम्' पद से शक्तिजन्य बोध माना जायगा तो तत् और त्वम् पद से शक्ति से उपस्थित ईश्वरत्वविशिष्ट और जीवत्वविशिष्ट में जीवत्व और ईश्वरत्व को छोड़कर जीव पदार्थ चैतन्य और ईश्वरपदार्थ चैतन्य के अभेद संसर्ग का हो भान होगा किन्तु इस वाक्य से अभेदसंसर्गक बोध इष्ट नहीं है, इष्ट तो है अखण्डार्थ का बोध, जिसके लिये लक्षणा से शुद्ध वस्तु को उपस्थिति प्रावश्यक तत्वमसि' इस वाक्य में तत् और त्वम् पद से लक्षणा द्वारा शुद्ध चैतन्यात्मक वस्तु की उपस्थिति होने से ही उक्त वाक्य का अर्थबोध निविकल्पक होता है। क्योंकि वहाँ पदार्थ ही वाक्यार्थ होता है । ऐसा मानने पर यह शंका कि--'यदि पदार्थ और वाक्यार्थ में भेद नहीं है तो वाक्य का प्रयोग व्यर्थ है। किसी एक पद मात्र का बोध ही पर्याप्त है।'-नहीं की जा सकती क्योंकि पद अप्रमाण है- अर्थात् एक पद मात्र से प्रमात्मक ज्ञान का उदय नहीं होता। दूसरी बात यह है कि चाक्यजन्यबोध के अभाव में जीव और ईश्वर में मेवभ्रम की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि 'सोऽयं देववत्तः' इत्यादि लौकिकवाक्यस्थल में भी केवल 'सः' अथवा केवल 'अ' इस पद का देवदत्त के स्वरूपमात्र की विवक्षा से प्रयोग करने पर उस एक एक पद मात्र से जन्य बोध से 'अयं न सः' इस भेदभ्रम की निवृत्ति नहीं होती है-किन्तु 'सोऽयं' इस वाक्यजन्य देववत्तस्वरूपविषयक बोष से ही होती है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता हत०८ इलो० ३ तदिदमात्मज्ञानमुत्पन्नमात्रमेवानन्तजन्मार्जितकर्माशि विनाशयति, " चीयन्ते चास्य कर्माणि ०" इति श्रुतेः । तेन कर्मक्षयार्थे न कायव्यूहकल्पना, 'स एकधा भवति' 'स त्रेधा' इत्यादिवाक्यानामुपासकविषयत्वात् । न च देहनाशप्रसङ्गः, प्रारब्धप्रतिबन्धात्, 'तस्य तावदेव चिरं यावद् न विमोक्ष्ये, अथ संपत्स्ये' इति श्रुत्याकर्मविपाकेनाऽप्रारूप निवृत्तावपि सस्य ज्ञानाऽनिवर्त्यत्वाभिधानात् । तस्यां चावस्थायां प्रारब्धफलं भुञ्जानः सकलसंसारं बाधितानुवृया पश्यत् आरमाराजे विधिनिधिकारमात्रात् सदाचारः प्रारम्भक्षयं प्रतीक्षमाणो 'जीवन्मुक्तः' इत्युच्यते । अस्य च प्रारब्धतो जन्मान्तरमपि । अत एव सप्तजन्मविप्रत्व कर्मण प्रारब्धे उत्पन्न तत्वज्ञानस्य पुनर्देहान्तरं, प्रारब्धस्य ज्ञानाऽनाश्यत्वादिति केचित् । [आत्मज्ञान से कर्मबन्धनों का विनाश ] उक्त रीति से अर्जित श्रात्मज्ञान उत्पन्न होता है, वह उत्पन्न होते ही अनन्त जन्मों से अर्जित कर्मराशि को नष्ट कर देता है। जैसा कि कहा गया है- मिद्यने हृदयग्रन्थिः छिद्यते सर्व संशयः । क्षीयन्ते चाऽस्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे || अर्थ::-परावर जिससे परब्रह्मभिन्नत्वरूप से ज्ञायमान समस्त पदार्थ अवर अपकृष्ट है, अथवा अवर= जिससे कोई चर= श्रेष्ठ नहीं है, एवम्भूत पर यानी इन्द्रिय-वाणी और मन का जो अविषय है उस ब्रह्म का दर्शन प्रखण्ड साक्षात्कार होने पर दृष्टा के हृदय को गांठ - अन्तःकरण के साथ आत्मा का आध्यामिक तादात्म्य छूट जाती है, और सभी संशय निवृत्त हो जाते हैं, तथा समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं । यतः आत्मतत्त्वज्ञान से ही सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है, प्रत एव कर्मक्षय के लिये भोग की अपेक्षा न होने से तस्वज्ञानी को, भोग द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का युगपद् नाश करने के लिये, कायव्यूह = अनेक विलक्षण शरीरों की रचना को आवश्यकता नहीं होती । 'स एवधा भवति', 'स त्रेधा भवति' इत्यादि श्रुतिवचन जो साधक को दो तीन रूप में अवस्थित होने का निर्देश करते हैं यह तत्वज्ञानी के सम्बन्ध में नहीं, किन्तु उपासक यानी सगुण ब्रह्म की उपासना करने वाले के सम्बन्ध में है । [ तत्रज्ञान के बाद त्वरित देहनाश में प्रारब्ध का प्रतिबन्ध ] यह शंका कि आत्मस्वज्ञान से ही सम्पूर्ण कर्मों का नाश होने पर तत्त्वज्ञान होते ही 'तत्त्वज्ञानी के देहनाश की प्रसक्ति होगी' नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रारम्भकर्य का आत्मलत्य के ज्ञान से नाश नहीं होता, श्रतः प्रारब्ध कर्म से बेहनाश का प्रतिबन्ध हो जाता है। तात्पर्य यह है कि उबत श्रुति तत्त्वज्ञान को प्रारम्यकर्मों से भिन्न समस्त कर्मों का ही नाशक बताती है। क्योंकि ऐसा न मानने पर 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म फल्पकोटिशतैरपि = भोग किये बिना सेकड़ों कल्पों (युगों) में भी कर्म Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन । नष्ट नहीं होता।' इस वचन की कथमपि उपपत्ति नहीं हो सकेगी। इसलिये पूर्वश्रुति में कर्मपद को प्रारब्ध कमतर कर्मपरक और इस वचन में कर्मपद को प्रारब्धकर्मपरक मानने से दोनों वचनों की उपपत्ति हो जाती है। एवं उक्त वचन के अतिरिक्त उपनिषद का हो एक दूसरा 'तस्य तावदेव०' वचन है जिससे यह ज्ञात होता है कि कर्मविपाक के बिना ज्ञानमात्र से प्रारधभिन्नकर्म की निवृत्ति तो होती है किन्तु प्रारब्धकर्म की निवृत्ति ज्ञान से नहीं होती। उक्त बचन का अर्थ यह है कि'उसे तत्त्वज्ञानी को पूर्णमुक्त होने में केवल उतना ही विलम्ब होता है जितने में वह प्रारब्धफर्मों से मुक्त नहीं होता। उसके बाद उसे ब्रह्मात्मतासम्पत्ति-विदेहमुक्ति-पूर्णमुक्ति प्राप्त होती है। [ तसज्ञानी की अन्तकालीन दशा ] उस अवस्था में-अर्थात् तत्त्वज्ञान हो जाने पर देहपात न होने तक की अवधि में तत्त्वज्ञानी प्रारब्धको का फलभोग करता है और सम्पूर्ण संसार को बाधित - पारमार्थिकरूप से असत् देखता है । एवं संसारिक बातों से रुचिहीन होकर केवल अपने आत्मानन्द में मग्न रहता है। विधि और निषेध अधिकार से शून्य हो जाता है । केवल अच्छे कर्म करने के दीर्घकालीन अभ्यासजनित संस्कारमात्र से सवाचारों का पालन करता है। उस समय उसे अपने प्रारब्ध कर्मों के क्षय की ही प्रतीक्षा शेष रहती है। ऐसे तत्त्वज्ञानी पुरुष को ही जीवन्मुक्त कहा जाता है । जीवन्मुक्त के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का यह मत है कि उसके प्रारब्ध कर्म का नाश उसके उसी जन्म में हो जाय जिसमें उसे तत्त्वज्ञान प्राप्त हुआ है-यह प्रावश्यक नहीं है। यदि उस जन्म में प्रारम्घकर्मों का फल भोग पूरा नहीं हो पाता तो उसे जन्मान्तर भी लेना आवश्यक होता है। इसीलिये लगातार सातवार विप्रकुल में जन्मप्रद प्रारब्ध कर्म के रहते तत्त्वज्ञान प्राप्त करने वाले पुरुष को पुनः वेहान्तर की प्राप्ति होती है क्योंकि प्रारब्धकर्म का नाश ज्ञान से नहीं होता। संपदायस्तु-नैवम् , कर्म हि नैकमेव प्रारब्धता भजते, एकेन कर्षणा भोजनादिक्षुधादिजन्यसुखदुःखमोगानुपपत्तेः । 'भोजनादिजन्यसुखादेने कर्मजन्यत्वम् , स्वाभाविकत्वात्' इति तु न युक्तम , दृष्टहेतुनिष्पादनेनैव कर्मणां सुखादिहेतुत्वात् , कर्मविशेषाभावादेव भोजनाद्यमावे सुखाभावात् । तस्मात् तचक्षणवर्तिबह्वल्पसुख-दुःखहेतुगुरुलघुकर्मणामनेकेषां प्रायणकालोबुद्धवृत्तिकानां प्रारब्धता वाच्या । इत्युत्पत्रज्ञानस्य देहान्तरस्वीकारे ज्ञानोत्पादक देहनाशकाल एव करणा प्रारब्धतापत्तेः प्राक् संचितावस्थानां तेषा ज्ञानेन नाशाभावे संचितकर्मनाशकताबोधकोक्तश्रुतियाधः | नाशे वा कथं मनुष्यदेहान्तरोत्पत्तिः, तस्य प्रतिक्षणवतिक्षुधादिंदुःखबहुलत्वात् ? । तस्मात् सर्वेषां संचितानां नाशात् सप्तजन्मपदस्याप्यन्तिमतत्त्ववोधेनाऽज्ञानतत्कानिवृत्ती निवृत्तिरिति न तस्य देहान्तरम् । इन्द्रादीनां तु ज्ञानिनां देहान्तरम् , पारधेनैव तन्नाशाभावात् ! न १ प्रकृतेऽपि तथा, उत्पन्नवानस्य प्रतिक्षणभोगप्रदतत्तत्कर्मणां प्रारब्धत्वे मानाभावात् , इन्द्रादीनां तु देहश्रवणस्यैव मानत्वात्, देहान्तरस्य ताइक्सामध्यकल्पने गोवाच । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० - इलो०३ [ मृत्युकाल में फलोन्मुख कर्मों की प्रारब्धता ] वेदान्तदर्शन का साम्प्रदायिक सिद्धान्त यह है कि-पोक्त मत ठीक नहीं है, क्योंकि प्रारब्ध यह कोई एक कर्म नहीं है, क्योंकि एक फर्म से भोजनादिजन्य सुख और क्षुधादिजन्य दुःख का भोग नहीं हो सकता और एक कर्म में अनेकविध सुख-दुःख को जनकता युक्तिविरुद्ध भी है। यदि यह कहा जाय'भोजनाविजन्य सुखादि कर्मजन्य नहीं होता किन्तु स्वाभाविक-दृश्यकारणमात्रजन्य होता है-तो यह युक्तिसङ्गत नहीं है, क्योंकि कोई भी कर्म साक्षात् सखादि का हेतु नहीं होता किन्तु सुख दुःखादि के दृष्ट कारणों के सम्पादन द्वारा ही सुखादि का हेतु होता है। भोजनादि के प्रभाव में जो सुख का प्रभाव होता है वह भी भोजनादि के सम्पादक फर्मविशेष के अभाव से ही होता है। अतः भोजनादि दृष्ट कारणों से सुखादि की उत्पत्ति मान कर कर्म में सुस्वादिजनकता का खप्न नहीं किया जा सकता। अतः यही मानना युक्तिसङ्गत है कि केवल एक कर्म ही प्रारब्ध नहीं होता किन्तु पूर्वअन्म के प्रायणकाल - मत्युकाल में जिन कर्मों को फलोन्मुखवृत्ति का उद्बोधन हुआ है वे सभी छोटेबडे कर्म प्रारब्ध होते हैं, जिनसे विभिन्न क्षणों में न्यूनाधिक अथवा अल्प सुख अथवा दुःख की प्राप्ति होती है। [तत्वज्ञानी को नये देहधारण की अनुपपत्ति ] अब तत्त्वज्ञानी को देहान्तर की प्राप्ति मानने पर ज्ञानोत्पादक देह के नाशकाल में ही कर्मों को प्रारब्धता प्राप्त होगी और उसके लिये यदि पूर्वसश्चित कर्मों का ज्ञान से नाश नहीं मानेंगे तो तत्त्वज्ञान से सश्चित कर्मों का नाश बताने वाली श्रुति का बाध होगा। यदि तत्त्वज्ञान से सश्चित कर्मों का नाश माना जायगा तो प्रारयता प्राप्त करने वाले कर्मों का अभाव होने से अन्य मनुष्य के प्राप्ति कैसे होगी? क्योंकि वह शरीर प्रतिक्षण में होनेवाले क्षुवादिजन्य दुःखादि से भरा होता है, अतः कर्म के विना उसको उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिये यही मानना उचित है कि तत्वज्ञान से सभी सश्चित कर्मों का नाश होता है। सप्तजन्मप्रद कम की भी, अन्तिम तत्त्वज्ञान से अज्ञान और अज्ञान के समस्त कार्यों की निवृस्ति होने पर, निवृत्ति हो जाती है। क्योंकि अज्ञान ही समस्त कार्यों का उपादान कारण होता है और उपादान कारण का नाश होने पर निराधार कार्य का अस्तित्व नहीं हो सकता, इसलिये तत्त्वज्ञानी को देहान्तर प्राप्ति नहीं होती। इन्द्रादि तत्वज्ञानीओं को जो देहान्तर की प्राप्ति होती है वह उनके प्रारब्ध कर्म से ही होती है, क्योंकि उनके प्रारब्ध कर्म का तत्त्वज्ञानोत्पादक देह में तत्त्वज्ञान से नाश नहीं होता। किन्तु सर्वसाधारण तत्वज्ञानी के विषय में ऐसी कल्पना नहीं की जा सकतो. नयोंकि सर्वसाधारण तत्वज्ञानी के प्रतिक्षण भोग प्र तत्तत्कर्म प्रारब्धरूप होने में तथा वे देहान्तर का आरम्भक होने में कोई प्रमाण नहीं है । इन्द्रादि के तत्तत्कर्मों की प्रारब्धता में उनके देहान्तरप्राप्ति का बोधक शास्त्र ही प्रमाण है। सभी तत्वज्ञानी को देहान्तर और देहान्तरप्रापक सामर्थ्य की कल्पना करने में गौरव भी है। ततश्च ज्ञानिदेहारम्भकेष्वनेकजन्मप्रदेवनेकेषु सुकृत-दुष्कृतेषु सत्स्वपि न जन्मान्तरमेतम्य सुवचम् , ससि देहे देहान्तराऽयोगाद । तन्नाशानन्तरं तदुपगमे च "यं यं पापि स्मरन भावम्" इति स्मृतेर्दैवान्तरविषयान्तिमप्रत्ययस्यावश्यकत्वाज्ज्ञानिनापि तदापातात् । तता प्रायणकाले उत्पादितदेहान्तर विषयान्तिमप्रत्ययत्वं प्रारब्धत्वम्, इति ज्ञानिदेहारम्भकाणा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] तजन्मभोगप्रदत्वावच्छेदेनैव प्रारब्धत्वात् तज्जन्मभोगसमाप्तावज्ञाननिवृत्तेर्न देहान्तरम् 1 न चेदेवम्, उत्क्रमणस्यावश्यकत्वाद् 'न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति' इति श्रुतिसंकोचः । इति न ज्ञानिनो जन्मान्तरम्, किन्तु प्रारब्धक्षयेऽज्ञाननिवृत्तौ चिन्मात्रमेवावशिष्यत इति । ९७ अयं वेदान्तिनां सर्वः संप्रदायो निरूपितः । स्वैरं यत्राग्रहग्रस्ताः पतन्त्येते तपस्विनः ॥ ३ ॥ = पूर्वोक्त कारण से तत्त्वज्ञानी के बेहारम्भक अनेक जन्मप्रद अनेक सुकृत- दुष्कृत रहने पर भी'तत्वज्ञानी को जन्मान्तर प्राप्ति होती है- यह कथन कहना कठीन है। क्योंकि तत्वज्ञानोत्पादक देह से हार नहीं होता और उसके बाद यदि बेहान्तर का उपगम माना आयगा तो "यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते क्लेवरं । तं रामेति कौन्तेय ! सदा तद्भावभावितः ।”–मृत्यु के समय मनुष्य जिन-जिन भावों का स्मरण करता है उन उन भावों से भावित होने के कारण मृत्यु के बाद उस भाव को प्राप्त करता है' - ( भगवद्गीता में कुन्तीपुत्र अर्जुन के प्रति श्रीकृष्णोक्ति ) इस स्मृति वचन के अनुसार तत्त्वज्ञानी को भी देहान्तर विषयक अन्तिम प्रत्यय श्रावश्यक होगा । afe मृत्युकाल में जिस कर्म से बेहान्तरविषयक प्रक्तिम प्रत्यय उत्पन्न होता है उसी को प्रारब्ध कहा जाता है, इसलिये तत्त्वज्ञानी के देहारम्भक कर्म उस जन्म में भोगप्रद होने से उसी जन्म के लिये प्रारब्ध होते हैं । अतः उस जन्म के भोग की पूर्ति होने पर अज्ञाननिवृत्ति हो जाने से तत्त्वज्ञानी को बेहान्तर की प्राप्ति नहीं होती । यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो तत्त्वज्ञानी का भी प्राणोत्क्रमण = लिङ्गशरीर का मृत देह से निकलकर नवीन स्थूल देह प्राप्ति के लिये उर्ध्वगमन मानना होगा । अतः 'न तस्य प्राणाः उत्क्रामन्ति = तत्वज्ञानी का प्राणोत्क्रमण नहीं होता' यह श्रुति यात अर्थ में प्रमाण न हो सकेगी किन्तु उस में संकोच करना पड़ेगा । इसलिये यही मानना उचित है कि ज्ञानी को जन्मान्तर नहीं होता किन्तु प्रारब्ध का क्षय = तत्त्वज्ञानोत्पादक देह के आरम्भ कर्मों का नाश होने पर अज्ञान की निवृत्ति होने से चिन्मात्र ही अवशिष्ट रहता है। तत्वज्ञानी की यह चिन्मात्रता हो मोक्ष है । इस प्रकार वेदान्तीओं के पूरे सम्प्रदाय का वर्णन किया गया। जिस में आग्रह प्रस्त होने से ये तपस्वी स्वेच्छया कूद पड़ते हैं ।। ३ ।। एतन्निराकरणवार्तामाह - अत्राप्यन्ये वदन्त्येवमविद्या न सतः पृथक् । तव तन्मात्रमेवेति भेदाभासोऽनिबन्धनः ॥ ४ ॥ अत्रापि = अद्वैतपक्षे अन्ये = वादिनः वदन्ति यदुत अविद्या न सतः - ब्रह्मणः पृथक् = तत्वान्तरम्, द्वैतापत्तेः । तच्च = सच, तन्मात्रमेव = सन्मात्रमेव इति हेतोः, भेदाभासः = मेदाध्यवसायः अनिबन्धनः- जनकविषयाभावादकारणः ॥ ४ ॥ [ वेदान्तमतनिरसन- उत्तरपक्ष प्रारम्भ ] चौथी कारिका में वेदान्तमत के निराकरण की वार्त्ता का उपक्रम किया गया है Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवास० स० ८ श्लो० ५-६ पक्ष के विषय में अन्य वादीओं का यह कहना है कि यदि हंसापत्ति के भय से ब्रह्म से for fair का अस्तित्व नहीं है किन्तु ब्रह्ममात्र का ही अस्तित्व है तो लोकसिद्ध मेदबुद्धि अकारणक हो जायगी। क्योंकि अतपक्ष में भेद बुद्धि के कारणीभूत विषय का अस्तित्व नहीं है ॥४॥ vat कारिका में उपर्युक्त आपत्ति के वेदान्तो अभिमत उत्तर का परिहार किया गया हैपराशयं परिहरति १८ वायाभेदरूपापि भेदाभासनिबन्धनम् | प्रमाणमन्तरेणैतदवगन्तु न शक्यते ॥ ५ ॥ अथ सेंच - अविद्या अभेदरूपापि सन्मानाऽभिनापि भेदाभासनिबन्धनम् = अविद्यमाननीलादिप्रतिभासकारणम् । एतत् परोक्तम् प्रमाणमन्तरेण = एतदर्थनिश्चायकप्रमाणं विना अवगन्तुं न शक्यते, प्रमेयव्यवस्थितेः प्रमाणाधीनत्वात् ॥ ५ ॥ " उक्त आपत्ति के उत्तर में यदि कहा जाय कि "अविद्या ब्रह्म से अभिन्न स्वरूप होते हुये भी भेदप्रतीति यानी अविद्यमान नीलादिविषयों के प्रतिभास का कारण होती है ।" तो यह कथन प्रमाण शून्य होने से नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि किसी भी वस्तु की स्वीकृति प्रमाण के अस्तित्व पर निर्भर होती है ॥ ५ ॥ ast कारिका में प्रमाण के भावाभाव दोनों पक्ष में, वेदान्त मत में दोष बताया गया हैतद्भावाभावयोरुभयतो दोषमाह = भावेऽपि च प्रमाणस्य प्रमेयव्यतिरेकतः । ननु नाईतमेवेति तदभावेऽप्रमाणकम् ॥ ६ ॥ भावेऽपि च = उपगमेऽपि च प्रमाणस्य = उक्तार्थनिश्चायकस्य प्रमेयव्यतिरेकतः = तस्य प्रमेयभिन्नत्वाद् हेतोः, ननु = निश्चितम् अद्वैतमेवेति न प्रमाणप्रमेयद्वैविध्यध्यवस्थानात् । तदभावे = प्रमाणानभ्युपगमे अप्रमाणकमद्वैततच्चम्, तथा को नाम विनोन्मत्तं श्रद्दधीत ११ ।। ६ ।। 'लोक में अनुभूयमान भेदबुद्धि विषयजन्य नहीं, प्रविद्याजन्य होती है इस अर्थ में यदि किसी प्रमाण का अस्तित्व होगा तो ब्रह्मभिन्न प्रमाण का अस्तित्व होने से ब्रह्माद्वैतवाद का भङ्ग हो जायगा और यदि उक्त अर्थ में प्रमाण का प्रभाव होगा तो श्रद्वैत का भङ्ग होगा अर्थात् अद्वैतवाद निष्प्रमाणक हो जायगा और निष्प्रमाण वस्तु उन्मत्त को छोड़कर कोई समझवार व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता ॥ ६॥ ७वीं कारिका में वेदान्ती की इस उक्ति का निराकरण किया गया है कि उपर्युक्त उपालम्भ ऐसी बात पर दिया जा रहा है जो वेदान्त मत में नहीं मानी जाती | क्योंकि, वेदान्त मत में विद्या में ब्रह्म का व्यावहारिकभेद एवं प्रमाण- प्रमेयादि का विभाग कर उनमें भी व्यावहारिकभेद पूर्वोक्त रीति से स्वीकार किया गया है और यह कहा गया है कि व्यावहारिकरूप में पूरे प्रपश्व का Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] इ8 अस्तित्व है, किन्तु पारमाथिकरूप में तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्य के अनुसार एक प्रखण्ड ब्रह्म का हो अस्तित्व है- इस पर ग्रन्थकार कहते हैं नन्धयमनुक्तोपालम्भः, अविद्यायाः पुमनाय, शमा प्रमेयानिविभागेन व्यावहारिकभेदस्य च प्रागुक्तरीत्याऽभ्युपगमादेव, परमार्थतस्तु तत्वमसि' इत्यादिनोक्तमखण्डमेव सद, इत्यत आह विचाऽषिद्यादिभेदाच्च स्वतन्त्रणव बाध्यते। तत्संशयादियोगाच प्रतीत्या च विचिन्त्यताम् ॥ ७ ॥ विद्याऽविधादिभेदाच्च स्वतन्त्रेणेव = स्वाभ्युपगतप्रामाण्येन शास्त्रेणैव याध्यतेऽद्वैतम् । तथाहि-"विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोमयं स हाविद्यया मृत्यु तीर्खा विद्ययाऽमृतमश्नुते" इति श्रुतौ विद्याऽविद्ययोरमृताप्तिमृत्युतरणफलयोः स्फुटमेवोक्तो भेदः, स चाद्वैतेन विरुध्यते । [अद्वैतवाद स्वशास्त्रों से बाधित ] वेदान्त का अद्वैत सिद्धान्त अपने शास्त्र से ही बाधित हो जाता है, क्योंकि उसमें विद्याअविद्यादि का मेव स्वीकार किया गया है। इसी लिये अद्वैत के विषय में इसप्रकार का संशयादि भी सम्भव है कि वेदान्त में प्रतिपादित द्वैत सत्य है अथवा अद्वैत सत्य है ? तथा, जो विभिन्न घटादि पदार्थों को मदरूप से अभिन्नता को और प्रातिस्विकरूप से भिन्नता की प्रतीति होती है उस प्रतीति से भी यह प्रवतमत विचारणीय हो जाता है, क्योंकि एकमात्र अद्वैत का ही अस्तित्व होने पर घटादिभावों की भिन्न-भिन्न रूप में प्रतीति को उपपत्ति नहीं हो सकतो। आशय यह है कि विद्यां च अविद्या च' इस श्रुतिवचन में अविद्या से भत्यु का तरण और विद्या से अमृत की प्राप्तिरूप फल बताया गया है। उक्त फलों में भेद स्पष्ट होने से उनके उत्पादक अविद्या और विद्या में भेद स्पष्ट है और वह भेद अद्वत से विरुद्ध है। नन्वत्राविधया श्रवणादिलक्षणया मृत्यं तीत्वाऽविद्यामेव निवन्य विद्ययोपलचितममृतमश्नुते. स्फटिकमणिरिवोपाधित्यागादन्तरेण प्रयत्नान्तरं स्वरूपेऽवतिष्ठत इत्यर्थः । अविद्ययवाविद्यानिवृतिश्च यथा पयः पयो जस्यति स्वयं च जीति, यथा विषं विषान्तरं शमर्यात स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकक्षोदादिरजो रजोन्तमणि संहरत स्वयमपि संहृतं भवति तथेति । न चासत्याद् न किश्चित् कार्यम्, मायायाः प्रीतेः, भयस्य रेखालादेश्च सत्यप्रतिपत्तेदर्शनावइत्यत आह-तत्संशयादियोगाच्येति = 'किमत्रोक्तार्थेन 'तत्वमसि आयुक्ताद्वेताबाधा, उत विद्याऽविद्यापदर्थाभ्यां ज्ञानकर्मभ्यामतिरिक्तमुक्तिसाधनस्क्योधात तबाधा ?' इति संशयात् । एवं " ब्रह्मणी वेदितव्ये परं चापरं च" इत्याधुक्तो भेदः सत्यः, उत प्रागुक्तोऽभेदः ?' इति संशयः । तथा "परं चापरं च ब्राह्म यदोङ्कारः" इत्याधुक्तं शब्दब्रह्माद्वैतम् , प्रागुक्तं निगुणब्रमाद्वयं वा ? इत्यपि । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०७ [ विद्यां च इत्यादि श्रुति के अन्य अर्थ की कल्पना | यदि यह कहा जाय कि उक्त वचन में यह कहा गया है कि श्रवणमननादिरूप अविद्या से मृत्यु का प्रतिक्रमण यानी मृत्यु शब्द से निर्दिष्ट अविद्या की निवृत्ति कर के मनुष्य विद्या से उपलक्षित भूत की प्राप्ति करता है । अर्थात् जैसे रक्तकुसुम की उपाधि के संविधान में रक्त दीखाई पड़ता स्फटिकमणि उपाधि के निवृत्त होने पर अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित हो जाता है । उसी प्रकार आत्मा जिस अविद्यारूप उपाधि से अन्य स्वरूप प्रतीत होता है उसकी निवृत्ति होने पर वह बिना किसी अन्य प्रयत्न, अपने विशुद्ध स्वरूप में अवस्थित हो जाता है | श्रवणादिरूप अविद्या से आत्मfare for it froत्त और उसकी निवृत्ति होने पर निवर्तक श्रवणादिरूप अविद्या की भी निवृत्ति उसी प्रकार होती हैं जैसे दूध का अजीर्ण, दूध को जीर्ण कर स्वयं भो जीर्ण हो जाता है। एवं रूप में प्रयुक्त विष, श्राक्रामक विष को शान्त कर स्वयं भी शान्त हो जाता है और कतकचूर्णादिरूप रज जलव्याकीर्ण अन्य रजकणों को शान्त कर स्वयं भी शान्त हो जाता है। यह भी शंका कि"यदि अविद्या असत्य है तो उससे उक्त कार्य नहीं हो सकता क्योंकि असत्य से किसी कार्य को उत्पति नहीं होती । "-ठीक नहीं है क्योंकि माया से इन्द्रजाल से उत्पन्न पुष्प फलादि श्रसत्य वस्तु से प्रीति की और सर्पादि से भय की उत्पत्ति एवं रेखा अङ्कादि से संकेतित सत्य वस्तु की प्रतिपसि देखी जाती है । [ साध्य और सिद्ध में भेद होने से अद्वैतवाघ | किन्तु वेदान्ती के इस लम्बे कथन से भी उसके अद्वैत सिद्धान्त की सुरक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त उत्तर से यह संशय होता है कि- 'तत्त्वमसि' आदि महायात्रयों से उक्त श्रत अबाधित है अथवा उक्त उपनिषद् वचन के विद्या और अविद्या पद का ज्ञान और कर्म अर्थ लेने से जो ज्ञानकर्म से अतिरिक्त मुक्ति को सिद्धि का बोध होता है उससे उक्त श्रद्वैत हो बाधित है ? क्योंकि अद्वैत सिद्ध वस्तु है और मुक्ति को उक्त वचन में विद्याविद्या से साध्य बताया गया है अतः साध्य और सिद्ध ये दो भिन्न वस्तुओं के होने से अद्वैतबाव को प्राप्ति अनिवार्य है । एवं 'हे ब्रह्मणी०' इत्यादि श्रुति यह कहती है कि ब्रह्म दो हैं पर और अपर । मुमुक्षु को दोनों का ज्ञान करना चाहिये । अतः यह शंका होती है कि इस श्रुति द्वारा जाने गये जीव और ब्रह्म का भेद सत्य है अथवा 'तस्वमसि' वाक्य द्वारा ज्ञात जीव-ब्रह्म का अभेद सत्य है ! इसी प्रकार 'परं चापरं च०' यह श्रुति यह प्रतिपादन करती है कि ओंकार हो पर और अपर ब्रह्म हैं । अतः संशय हो सकता है कि इस श्रुति के अनुसार शब्दब्रह्म अद्वैत है अथवा पूर्वोक्त निर्गुण ब्रह्म ब्रत है ! न च 'ष' च०" इत्यादावुपासनार्थे सामानाधिकरण्यम्, निर्गुणब्रह्मण उपासितुमशक्यत्वात् एतदालम्बने "ब्रह्मोपासितव्यम्" इति प्रतीकोपदेशात्, यथा देवतायाः साक्षात्, पूजाया असंभवात्, तलाउने दारुण्यश्मनिवा पूजाविधानं तद्बुद्धयेति वाच्यम्; "तत्वमसि " इत्यादावेवोपासनार्थं तद् भविष्यति, जीवेश्वरयोरभेदश्रुतेरिति संशयाविगमात् । एवं- "तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् "इति श्रुतेः सर्वस्य त्रात्मकत्वं वा, "सर्वगन्धः, सर्व रसः ०" इत्यादिश्रुतेर्ब्रह्मात्मकत्वं वा ? इत्याद्यूह्यम् Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १०१ [ तत्रमसि वाक्य में उपासनार्थता का संदेह ] यदि यह कहा जाय कि -'परं चापरं च' इस श्रुति में ब्रह्मपद और ओंकारपद का सामानाधिकरण्य उपासनार्थ है । क्योंकि निर्गुण ब्रह्म की उपासना शक्य नहीं है । अत एव इस श्रुति में ओंकार रूप आलम्बन में ब्रह्म को उपासनीय बताते हुये ब्रह्मप्रतीक का उपदेश किया गया है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे देवता की साक्षात् पूजा सम्भव न होने से देवता के प्रतीक रूप काळ या पाषाण में देवबुद्धि से पूजा का विधान होता है ।' -किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि इस संदेह की निवृत्ति फिर भी नही हो सकतो कि 'तत्त्वमसि' इस वाक्य में भी तत् और त्वम् पद का सामानाधिकरण्य अद्वैत बोधनार्थ नहीं है किन्तु उपासनार्थ है, क्योंकि दूसरी श्रुतियों में जीव और ईश्वर का मेव बताया गया है। इसी प्रकार 'तनेदं पूर्ण०' इस श्रुति में सम्पूर्ण प्रपख को ब्रह्मात्मक कहा गया है और 'सर्वगन्ध: सर्वरस:' इस श्रुति में ब्रह्म को सर्वात्मिक कहा गया है अतः इस से भी अद्वैत की प्रामाणिकता में संदेह अनिवार्य है । किञ्च, अनाकलितनयानां परेषां न क्वापि निायिका श्रुतिः, तत्र तत्र प्रदेशे विरुद्धा भिधानात नानासंप्रदायाभिप्रायव्याकुलतयैकव्याख्यानाऽव्यवस्थितेश्च । ननु युक्ति सिद्ध एवार्थे संप्रदायेन श्रुति शक्तितात्पर्यमवधार्यते, अन्यत्र 'यजमानः प्रस्तरः' इतिवदुपचार एव । युक्तिश्च प्रपञ्चासत्य एवोपदर्शितदिशा, इत्यद्वैतश्रुतीनां प्रामाण्यम् । अत एवानधिष्ठानस्य शून्यस्याभ्यासाऽयोगेन ब्रह्मरूपेण रूपवच्चात् सर्वस्य ब्रह्मात्मकत्वेऽपि ब्रह्मणो न सर्वान्मकत्वम्, सर्वस्वभावस्य सर्वस्माद् वियोजयितुमशक्यत्वेनानिर्मोचापातादिति-अत आह— प्रतीश्या ध= अनुभवेन च विश्चिन्तयतां यदुत - 'नाद्वैतम्' इति । [ वेदों का अर्थ सुनिश्चित नहीं है ] इसके अतिरिक्त यह ज्ञातव्य है कि नयदृष्टि की उपेक्षा कर देने पर वेदान्तीनों की कोई भी श्रुति किसी भी अर्थ का निश्चायक नहीं हो सकती, क्योंकि उसके विभिन्न भागों में परस्पर विरुद्ध अर्थ का अभिधान किया गया है। दूसरी बात यह कि वेदान्त दर्शन के भी विभिन्न सम्प्रदाय हैं, जिन्होंने अपने अपने अभिप्राय अनुसार श्रुति के अर्थ की कल्पना कर उसे ऐसी स्थिति में डाल दिया है जिससे उसका कोई एक सुव्यवस्थित व्याख्यान नहीं हो सकता । [ युक्तिसंगत अर्थ में वेदवाक्य प्रमाण होने की शंका ] यदि यह कहा जाय कि प्रमाणिक सम्प्रदाय युक्ति से अनुमोदित अर्थ में ही श्रुतिवचन की शक्ति और तात्पर्य का अवधारण करता है । जैसे 'यजमानः प्रस्तरः' यहां यह युक्ति के आधार पर निश्चय किया जाता है कि प्रस्तर पद औपचारिक है । अतः प्रपश्व की असत्यता के पक्ष में जो युक्ति प्रदर्शित की गयी है उसको दृष्टि में रखते हुये अद्वैत में श्रुति का प्रामाण्य निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है । यतः युक्तिसिद्ध अर्थ में हो श्रुति का तात्पर्यावधारण उचित है इसीलिये सब में ब्रह्मात्मकता और ब्रह्म में सम्पूर्ण विश्वात्मकता के प्रतिपादक श्रुतिवचनों के अर्थ निर्णय में कोई कठिनाई नहीं हो सकती। क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में ब्रह्मात्मकता के पक्ष में यह युक्ति है कि विश्व का Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रधास्ति०८इलो०७ प्रध्यास अधिष्ठान के विना तथा शुन्य में नहीं हो सकता किन्तु सदब्रह्म में ही हो सकता है। प्रतः ब्रह्म के सत्तात्मकरूप से विश्व का सत्तावान् होना युक्तिसंगत है। इस अभिप्राय से सम्पूर्ण विश्व की ब्रह्मात्मकता युक्तिसिद्ध है किन्तु ब्रह्म की सर्वात्मकता युक्तिसिद्ध नहीं है क्योंकि यदि ब्रह्म सर्वात्मक होगा तो सब से उसका पृथयकरण शक्य न होने से मोक्षाभाव को प्रापत्ति होगी। इस प्रकार जो युक्तिसिद्ध अर्थ है वही उक्त श्रुतियों का अभिप्रेत है। (अद्वैतवाद में अनुभववाध अनिवार्य ] किन्तु दिनार का वह है दि नेयम्तीओं के उस उत्तर से भी उनके प्रवत सिद्धान्त की सुरक्षा नहीं हो सकती क्योंकि प्रतीति यानी लोक सिद्ध अनुभव के आधार पर चिन्तन करने से अद्वत की उपपत्ति नहीं होती। तथाहि-अनुभूयन्ते तावदविगानेन घटादयो भावा मृद्-घटादिरूपेण भेदा-ऽभेदात्मका अवग्रहाद्यात्मनोपयोगेन । तत्र च स्वयमेकमेव चैतन्यं प्रमाण-फलस्वरूपम् , एकामेव च पदशक्ति पदार्थाशे सातामन्वयांशे पाऽज्ञाता स्वीकुर्वाणः परः कथमेकमर्थ द्विरूपमनुभवन्नपि प्रत्याचक्षीत ? यदि च त्रयां परित्यज्य 'अभेदस्यैवालोचनम्' इति परापेक्षतया भेदस्य मिथ्यात्वं ब्रूयात् , तदा प्रत्यक्षं चक्षुर्व्यापारसमनन्तरभावि वस्तु भेदमधिगच्छदेवोत्पद्यते, यती भेदो भावस्व माव इति भावमधिगच्छता कथं नाधिगम्येत ? । न च भेदः 'इदमस्माद्व्यावृत्तम्' इति कल्पनाविषय एव, अभेदस्यैव 'इदमनेन समानम्' इति कल्पनाविषयत्वात् । भेदस्य विविक्तपदार्थस्वरूपस्य पराऽसमिश्रितत्वात्, स्वस्वरूपव्यवस्थिताना भावानां कल्पनाशानमन्तरेण योजनाभावात्, अन्यथा व्यवहाराऽनिर्वाहात। तदुक्तम्-"अनलायनलं पश्यन् न तिष्ठेद् नापि प्रतिष्ठेत" इति । कहने का अभिप्राय यह है कि घट-शराब कपालादि भाव पदार्थ म रूप से परस्पर अभिन्न और घटकपालादि रूप से परस्पर भिन्न निर्विवाद रूप से अनुभूत होते हैं। अतः उनके अवग्रहइहा-अवाय-धारणा रूप उपयोग से भेदाभेद दोनों सिद्ध है। एवं वेदान्त में एक ही चैतन्य को अन्तःकरणवृत्ति से अवच्छिन्न चैतन्यरूप में प्रमाण और वृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यरूप में फल माना गया है । एवं इसीप्रकार वेदान्तसम्प्रदाय में यह भी माना गया है कि पद की शक्ति अन्वितार्थ में होती है और यह अर्थ में ज्ञात होकर और सम्बन्धांश में अज्ञात होकर एक पदार्थ से सम्बद्ध अपर पदार्थ के शब्दबोध का प्रयोजक होती है। इस प्रकार कूल्जशक्तिवाद का अभ्युपगम कर में ज्ञातत्व और अज्ञातत्व बोना का अभ्युपगम किया गया है। तो इसप्रकार मनुष्य को जब उभयात्मक एक अर्थ का अनुभव होता है तो वह वस्तु को अनेकान्तरूपता का प्रत्याख्यान कैसे कर सकता है ? यदि वेदान्तपक्ष को प्रोर से लज्जा का परित्याग कर यह कहा जाय कि परानपेक्ष प्रत्यक्षप्रभेदमात्र का ही होता है। भेव का प्रत्यक्ष परापेक्ष प्रतियोगी सापेक्ष होता है अतः परापेक्ष होने से भेव मिथ्या है । तो इसके उत्तर में यह भी कहा जा सकता है कि पक्षसंनिकर्ष के बाद जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह संनिकृष्ट वस्तु में इतरवस्तु के भेद को विषय करके ही उत्पन्न होता है क्योंकि मेद यह Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] - भाव का स्वभाव है तो फिर यह सोचने की बात है कि जब मनुष्य को किसी भाव का प्रत्यक्ष होगा तो उसके स्वभावभूत मेद का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होगा ? अतः अभेद का ही प्रत्यक्ष परानपेक्ष होता है और भेद का प्रत्यक्ष परापेक्ष हो होता है यह कहना नियुक्तिक है। इस पर यदि यह कहा जाय कि- "भेद 'इदमस्माद्वावृत्तम्' 'यह इससे भिन्न हैं- इस कल्पना-परापेक्षबुद्धि का ही विषय है" - तो अभेद के सम्बन्ध में भी यही बात इस प्रकार कही जा सकती है कि "प्रभेद 'इदमनेन समानम् ० ' इस कल्पना = परपेक्षबुद्धि का ही विषय है ।" सत्य यह है कि भेव विविक्तपदार्थस्वरूप है, उसमें पर का मिश्रण नहीं है । किन्तु अपने स्वरूप में व्यवस्थित भाव का योजन यानी नर की प्रवृत्ति प्रथवा निवृत्ति का विषय भवन, कल्पनात्मकज्ञान अर्थात् इष्टवस्तु को भिन्नता और प्रभिन्नता के ज्ञान के बिना नहीं होता, क्योंकि उक्त ज्ञान के बिना लोकव्यवहार उपपन्न नहीं हो सकता। जैसा कि कहा गया है कि श्रग्नि का अर्थी अतल को स्वरूपतः देखते हुए भी जब तक उसे अनलभिन्न अथवा अनलाभिन्न रूप में ग्रहण नहीं करता तब तक उसके सम्बन्ध में न तो प्रवृत्ति करता है और न निवृत्ति करता है । १०३ एतेन "आहुविधाद प्रत्यक्षम् ०" इत्यादि, निरस्तम् । विधातृत्वं हि भावस्वरूपग्राहित्वमिति प्रतिनियतार्थं प्रतिभासादेव भेदग्रहणाविरोधात | भिन्नत्वेन ग्रहणं त्वभित्वेनैव परापेक्षमौचरकालिकं न विशेत्स्यते । एतेन च इतरेतराभावरूपत्वाद् न भेदः प्रत्यक्षविषयः इत्यभ्यपास्तम्, भावस्वरूपग्रहणे तत्प्रतिभासनात् वस्तुनो देश-कालादिभेदाद् भेदेऽनवस्थाभिधानं स्वमेदेऽपि समानम् | [ प्रत्यक्ष केवल विधाता होने के विधान का प्रतिकार ] इसलिये 'प्रत्यक्ष विधाता होता है अर्थात् विधिरूप में ही वस्तु को ग्रहण करता है इतरनिषेधरूप में नहीं, यह कथन भी निरस्त हो जाता है । क्योंकि विधातृत्व का अर्थ है भावस्वरूप का ग्रहीता होना, भावस्वरूप का 'प्रतिनियत' प्रथं होता है और प्रतिनियत का फलतः प्रयं है इतरव्यावृत्त । अतः प्रत्यक्ष भावस्वरूप के प्रतिभास से ही उसमें भेद का ग्रहण भेदभान मानने में कोई विरोध नहीं है। आशय यह है कि यदि प्रत्यक्ष से वस्तु का ग्रहण होता है तो उसके इतरभेदात्मकस्वरूप का भी वस्तु के रूप में ग्रहण होता ही है। किन्तु उसका इतरभिन्नरूप से ग्रहण परापेक्ष होता है और प्रतियोगी की उपस्थिति होने पर वस्तुग्रहण के उत्तरकाल में वह होता है । अभवग्रहण भी इसी ढंग से सम्पन्न होता है। प्रर्थात् किसी वस्तु का जब ग्रहण होता है तब उस वस्तु में अभेद भी उस वस्तु के रूप में गृहीत होता है, किन्तु वस्तु का स्वाभिन्नत्वरूप से ग्रहण स्वग्रहण के उत्तरकाल में होता है । अतः वस्तु ग्रहण के साथ मेवग्रहण और वस्तुग्रहण के बाद इतरभिन्नत्वरूप से उसका ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है । [ भेद प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति की शंका का निरसन ] उक्त कारण से ही यह मत भी निरस्त हो जाता है कि 'भेद परस्पराभावरूप है, इसलिये भेद के लिये अपेक्षणीय दो वस्तु में किसी एकमात्र के प्रत्यक्ष के साथ भेद भी प्रत्यक्ष का विषय होता है ऐसा नहीं हो सकता । तथा भेद नियमतः प्रतियोगीघटितमूत्तिक हैं, जैसे घटभेद-पटभेद इत्यादि । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ [ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ८ श्लो० ७ क्योंकि प्रतियोगी से मुक्त भेद अनुभव विरुद्ध है श्रतः श्रनुयोगी में प्रतियोगी का प्रत्यक्ष सम्भव न होने से तद्घटितभेदस्वरूप का भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ।' यह मत निरस्त इस प्रकार है कि भेद अधिकरणात्मक होता है अत एक किसी भी भाव का प्रत्यक्ष होने पर तत्स्वरूप तदाश्रित भेद का भी प्रत्यक्ष होना अनिवार्य है । जो भेद को प्रतियोगिघटितमूत्तिक कहा गया है उसका अभिप्राय यह है कि त्वरूप से भेदग्रहण प्रतियोगिग्रहण के बिना नहीं हो सकता । अतः यह कथन तर्कहीन है कि'यतः घटादि में पटादि का ग्रहण नहीं होता अत एव पटादिघटितमूत्तिक पटादिभेद का भी ग्रहण नहीं हो सकता ।' क्योंकि पटादिभेद पटाद्यात्मकता का विरोधी है, अत एव जिस अधिकरण में भेद का ग्रहण होता है उसमें पटाद्यात्मकता के ग्रहण की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि उसका ग्रहण भेदग्रह् का विरोधी है। किन्तु पटादिभेदस्वरूप से भेदग्रहण के लिये पटादि को पटत्वादिरूप से प्रतीति अपेक्षित होती है जो अनुयोगी से पृथक् हो जाती है । [ देशकालभेदमूलकता में अनवस्था दोष का प्रतिक्षेप | पक्ष में जो यह दोष दिया जाता है कि- "वस्तुभेद को देश कालभेदमूलक मानने पर अनवस्था होगी, क्योंकि देश कालादि का भेद भी अन्य देशकालाविमूलक ही मानना पड़ेगा ।" यह कथन तो प्रभेद पक्ष में भी समान है, क्योंकि अभेद का देशकालभेदमूलक भेद का प्रभाव प्रर्थ करने पर वेशकाल मेद में अनवस्था होने से उसके अभाव में भी अनवस्था का होना अनिवार्य है । यदि भेद का अर्थ 'देशका संक्यमूलक ऐक्य' किया जायगा तो देशकाल में देशकाल के अमेव को भो अन्य देशकालैक्यमूलक मानने से अनवस्था होगी। एवं सम्पूर्ण विश्व में ब्रह्माभेद मानने पर भी अनवस्था होगी। क्योंकि ब्रह्माभेद में वही ब्रह्माभेद मानने पर श्रात्माश्रय होगा, अतः ब्रह्माभेद में अन्य ब्रह्माभेव मानना होगा । इसीप्रकार उसमें भी अन्य ब्रह्माभेद मानना होगा- इसप्रकार अनवस्थित ब्रह्माद की कल्पना अपेक्षित होने से अभेदपक्ष में भी श्रनवस्था अपरिहार्य है । एकस्य ह्यात्मकत्वायोगादन्यतर मिथ्यात्वावश्यकत्वे भेदानामेव मिथ्यात्वमिति तु विपरीतम्, नानाभेदानां मिथ्यात्वकल्पनापेक्षयैकस्याऽभेदस्यैव तत्कल्पनौचित्यात्, अन्यथा सर्वत्र सन्मात्राऽभेदनिश्चये कालभेदाभावेन 'सोऽयम्' इत्यवमर्शाभावेऽपि तद्भेदे घट-पटयोः 'सोऽयम्' इत्यवमर्शप्रसङ्गात् । न च देशान्तरस्थघटादिभेदानुगतत्वात् सद्रूपताया: पारमा थिकत्वम्, भेदानां तु प्रच्यवाद् न तथात्वमिति तत्प्रच्युतिं परिगतस्यानुगतत्त्वस्य तदभावेऽभानात् प्रातिभासिकस्यानुगतत्वस्योभयत्र तुल्यत्वात् प्रत्यभिज्ञानादपि नान्वयि सद्रूपत्वम्, निरासात् इत्यादि वदता पर्यायास्तिकनयानुसारिणा गले गृहीतः कांदिशीक: कां दिशमनुसरेत् १ । [ अभेदमिथ्यात्वकल्पना में लाघत्र ] भेदपक्ष के विरोध में जो यह बात कही गयी थी कि 'एकवस्तु मेवामेव उभयात्मक नहीं हो सकती । अतः यदि किसी वस्तु में उस का मेव अभेद दोनों प्राप्त हैं तो किसी एक को मिथ्या मानना आवश्यक होगा। ऐसी स्थिति में भेद को मिथ्या मानना ही उचित है क्योंकि भेद श्रनन्त Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १०५ होने से उसे सत्य मानने पर गौरव होगा" यह कथन विपरीताभिधान है, क्योंकि अनेकभेद में मिथ्यात्वकल्पना की अपेक्षा एक अभेद में ही मिथ्यात्व की कल्पना उचित है। यदि ऐसा न माना जायगा तो सम्पूर्ण पदार्थ में सम्मान के अभेद का निश्चय होने से कालभेद भी नहीं होगा तब अतीत. वर्तमान उभयकालावगाही प्रत्यभिज्ञात्मक सोऽयम' इस प्रकार की बुद्धि भी न हो सकेगी। यदि कालातिरिक्तमात्र में हो सन्मान का अभेव मानकर कालभेद का अभ्युपगम किया जायगा तो घट और पट में भी 'सोऽयम्' इस प्रकार की प्रतीति का अनिष्ट होगा। [अनुगत न होने से भेद अपारमार्थिकता की शंका का उच्छेद ] यदि यह कहा जाय कि-"सपता एतदेशस्थ तथा देशान्तरस्थ सभी घटादि पदार्थ में अनुगत होने से पारमाथिक है किन्तु भंद पारमाथिक नहीं है, क्योंकि उसकी प्रच्युति यानी प्रतियोगी से व्यावृत्ति होती है, अतः वह अनुगत न होने से पारमाथिक नहीं हो सकता "-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो वस्तु सत्ता से प्रच्युत हो जाती है अर्थात् निवृत्त हो जाती है, उस में सत्ता नहीं होतो, अत: सत्ता भी अनुगत नहीं है । अत एव अनुगत न होने के नात उस पारमाथिक नहीं कहा जा सकता। यदि सत्ता को अमगतत्वेन गहीत होने से अनगत माना जायगा तब तो यह प्राति अनुगतत्व होगा जो भेद में भी सम्भव है । अतः अनुगतत्व प्रतिभास के बल से सत्ता में पारमाथिकत्व और घटादि भेवों में अपारमायिकत्व का अभ्युपगम नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार 'सोऽयं' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा से भी सन्धियी सदूपता की सिद्धि नहीं हो सकतो, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा का निरास किया जा चुका है । यह कह कर पर्यायास्तिकनयानुसारी विद्वान् सत्ताऽद्वैतवादी वेदान्ती का गला पकड़ लेता है तब वह किस दिशा में जाय इसका निर्णय न कर सकने से कांदिशीक बन कर किसी भी दिशा में जाने में अर्थात् अपने पक्ष में उद्भावित दोष का परिहार करने में असमर्थ हो जाता है। किञ्च, सद्पत्वं ज्ञाने घटादिना सहैवानुभूयते, तत्र प्रमाणत्वेन सच्चाश्रयत्वे विषयं विना ज्ञानस्वरूपाऽप्रतिभासनाद् विषय एव सत्त्वं किं नोपेयते १। ज्ञानस्य सर्वत्रानुगतत्वेन स्वसत्तास्कोरकत्वे विषयस्यापि सामान्यतस्तथात्वेन तवस्य सुवचत्यात्, नीलायाकारणाननुगतत्वस्य चोभयत्र तुल्यत्वात् । एवं विषयं विनाऽभासमानस्य ज्ञानस्योषाधिभेदं विनाविभाव्यमानभेदत्वकल्पनेऽपि विषये तथाकल्पनं सुवचम् । प्रतीतिपरित्यागेन लाघवानुगेधे तु निराश्रयमेव सत्वं कल्प्यताम् । [विषय में सत्व की कल्पना अनिवार्य ] उसके अतिरिक्त दूसरी बात यह ज्ञातव्य है कि ज्ञान में सदूपत्व का अनुभव घटादि के साथ ही होता है, जैसे-'घटज्ञाने सत्' 'पटज्ञानं सत्' इत्यादि और यह अनुभव ज्ञान को सत्रूपता में प्रमाण होने से यदि ज्ञान को ही सत्ता का आश्य माना जायगा तो यह प्रश्न स्वाभाविक है कि विषय में हो सत्ता क्यों न मानी जाय? क्योंकि विषय के विना ज्ञानस्वरूप का भान होता नहीं, अतः विषयविनिमुक्त ज्ञानमात्र में ससा के अभ्युपगम में कोई युक्ति नहीं है। यदि यह कहा जाय कि "ज्ञान सर्वत्र अनुगत है, अर्थात् ज्ञान ज्ञानात्मकसामान्यरूप से सब विषयों से सम्बद्ध है, अत एव यह सब विषयों के साथ स्वयं ही अपनी सत्ता की सिद्धि में प्रयोजक होता है"- तो यह बात विषय के सम्बन्ध Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ [ शास्त्रधार्त्ता स्त० ८ श्लो० ७ में कही जा सकती है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि विषय भी सामान्यरूप से सर्वत्र अनुगत है, श्रतः वह भी अपनी सत्ता की सिद्धि में प्रयोजक है । यदि इसके विरुद्ध यह कहा जाय कि - ' विषय नीलादि श्राकार से अनुगत नहीं है' तो यह बात ज्ञान और विषय दोनों में समान है क्योंकि ज्ञान के लिये भी यह कहा जा सकता है कि ज्ञान भो तत्तदाकारज्ञानात्मना अर्थात् नीलाकारादिरूपेण अनुगत नहीं है । इसी प्रकार यह कहना कि विषय के बिना ज्ञान का भान नहीं होता, अतः विषयरूप उपाधि के भेद के बिना ज्ञान का भेद नहीं गृहोत होता । अतः ज्ञानभेद वास्तविक नहीं किन्तु विषयोपाधिक है। इस प्रकार ज्ञान की एकता सिद्ध होगी' - तो यह कथन विषय पक्ष में भी सम्भव हो सकता है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि 'ज्ञानभेद से हो विषयभेद गृहीत होता है । अतः विषयभेव ज्ञानोपाधिक है इस प्रकार विषय का श्रद्वैत सिद्ध होगा । किन्तु यह कथन प्रतिबन्धी उत्तर मात्र है ! इसलिये उक्त युक्ति से ज्ञानाद्वैत की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि 'घटः सन् पटः सन्' एवं 'घट जानामि' इत्यादि प्रतीति की अपेक्षा कर लाघव के अनुरोध से एकमात्र ज्ञान की कल्पना कर उसे ही सत्ता का श्राश्रय माना आयगा तो इस कल्पना में अधिक लाघव है कि सत्ता निराश्रय है । अतः इस पद्धति से ब्रह्माद्वैत की सिद्धि सम्भव नहीं है। 'प्रपञ्चप्रतिभासस्य मुक्तावभावात् तस्यात्म विशेषाऽदर्शनजन्यत्वेन भ्रान्तत्वात् प्रपञ्चस्यासच्चमित्यपि न रमणीयम्, मुक्तौ विषयाऽस्फुरणे ज्ञानस्यैवाभावप्रसङ्गात् सविषयस्यैव ज्ञानस्य दृष्टत्वात् निर्विषयस्य तस्य कल्पनायां दृष्टविपरीतकल्पनाप्रसङ्गात् । अत एव सर्वविषयत्वं ब्रह्मणः काल्पनिकतादात्म्याश्रयणेन इत्यपि निरस्तम्, सर्वविषयतायाज्ञानखवद् मुक्तज्ञानस्वभावत्वात् । ' सर्वापेक्षा सर्वविषयता न तत्स्वभावे 'ति चेत् ? सर्वापेक्षं सर्वाभिन्नत्वमपि न तत्स्वभाव इति कृतोऽद्वैतसिद्धिः । । ' क्लृप्त सर्वतादात्म्याभाव एव सर्वाभिन्नत्वमिति चेत् ? संसारेऽवि तदबाधितमिति नित्यमुक्ततापातः । १ [ प्रपञ्च प्रतिभास भ्रान्त होने से प्रपञ्च मिथ्यात्व शंका का छेद ] यदि यह कहा जाय कि 'मुक्ति में प्रपक्ष का प्रतिभास नहीं होता । अतः यह सिद्ध होता है कि वह आत्मा के विशेषाऽदर्शन से याती आत्मतत्त्व के अज्ञान उत्पन्न होता है और अज्ञान से उत्पश्न होने के कारण ही वह भ्रम हैं और भ्रम विषय का साधक नहीं होता। इसलिए प्रपश्व असत्य है ।"तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि मुक्ति में यदि विषय का स्फुरण नहीं होगा तो ज्ञान के ही अभाव की श्रापत्ति होगी। क्योंकि ज्ञान नियमतः सविषयक ही देखा जाता है । श्रतः मुक्ति में निश्षियक ज्ञान को कल्पना करने पर दृष्टिविपर्यय की कल्पना होगी । इसीलिये यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि 'ब्रह्म में सर्वविषयकत्व सर्व वस्तुओं के काल्पनिक तादात्म्य से होता है क्योंकि जैसे ज्ञानत्व मुक्तज्ञान का स्वभाव है उसी प्रकार सर्वविषयकत्व भी मुक्तज्ञान का स्वभाव है । यदि यह कहा जाय कि 'सर्वविषयता सर्वविषय सापेक्ष होने से वह ज्ञानस्वभावरूप नहीं हो सकती ।' तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार विचार करने पर भी श्रद्वैत की सिद्धि नहीं हो awat | क्योंकि सर्वाभिनत्व भी सर्वापेक्ष होने से वह भी ज्ञान का स्वभाव नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि 'ब्रह्म में जो सर्वतादात्म्याभाव क्लृप्त है अर्थात् सर्वतादात्म्य का पारमार्थिक रूप से Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा-कटाक्षा एवं हिन्दी विवेचन । १०७ अभाव है वही सर्वाभिन्नत्व है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह सर्वाभिनत्य संसारदशा में भी है, तब तो नित्यमुक्तत्व को आपत्ति होगी। किच, काल्पनिकसर्वतादात्म्येन सर्वज्ञत्वे रथ्यापुरुषस्यापि सर्वज्ञत्वाऽमिमानिनस्तव योगितुल्यत्वं स्थात् | योग्यऽयोगिवृत्तिविशेषोऽपि स्वभावभेदं विना दुर्वचः । मिथ्यास्वभावविशेषाद् विशेष इति तु 'मिथ्या च स्वभावश्च' इत्यत्यन्तन्याहतम् । एतेन "रजी सर्प इव सत्याऽसचाभ्यामनिर्वचनीयत्वाद् मिथ्या प्रपञ्चः" इति निरस्तम् । भ्रान्तिविषयत्वातिरिक्तस्य मिथ्यात्वस्याननुभवात् । "मिथ्यार्थानङ्गीकारे मिथ्याज्ञानस्याप्यङ्गीकस मशक्यत्वे प्राभाकरी न निराक्रियेत" इति तु मन्दप्रलयितम् , मिथ्याज्ञानस्थलीयप्रवृत्यन्यथानुपपत्यैव तमिराकरणादित्यन्यत्र विस्तरः । यदि च ज्ञानगतं मिथ्यात्वं साक्षादेवार्थेऽङ्गीक्रियते तदा ज्ञान विषयसंकरः स्यात् , रजतज्ञानस्यार्थमिथ्यात्वानिमि मिथ्यात्वे च मिथ्यारजतमनुभूतमिति बाधेऽपि मिथ्यात् स्यादिति प्रान्त भ्रान्तिासंकर इति न किञ्चिदेतत् । इसके अतिरिक्त यह नातव्य है कि यदि काल्पनिक सर्वतादात्म्य से ब्रह्म को सर्वज्ञ माना जायगा तो रथ्यापुरूष-यानी गलीकुची में भटकने वाला पामर पुरुष भी सर्वज्ञता का अभिमान होने पर वेदान्तमत में योगी के तुल्य हो जायगा, क्योंकि सर्वज्ञता के अभिमानकाल में उस में भी काल्पनिक सर्वतादात्म्य है । इसके उत्तर में यह नहीं कहा जा सकता कि 'योगोगत काल्पनिक सर्वतादात्म्य ही सर्वज्ञता है क्योंकि कौन योगी है-कौन अयोगी है-यह कहना स्वभावभेद के बिना कठिन है। यदि यह कहें कि-मिग्यास्वभावभेद से योगी और अयोगो का भेद सुवच हो सकता है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि स्वभाव भी है और मिथ्या भी है यह कथन अत्यन्त विरुद्ध है। 'रज्जु में सर्प के समान सत् प्रौर असत रूप में अनिर्वचनीय होने के कारण प्रपच भिध्या है-यह कथन भी निरस्त प्रायः है, क्योंकि भ्रमविषयकत्व से अतिरिक्त मिथ्यात्व अनुभवसिद्ध नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'मिथ्यापदार्थ का अंगोकार न करने पर मिथ्याज्ञान का भी अंगीकार अवश्य होगा अतः प्रभाकर के मिथ्याज्ञान के प्रभाववाद का निराकरण प्रशक्य होगा।' तो यह । कथन मन्दप्रलाप सःश है। क्योंकि प्रभाकर के मिथ्याज्ञान के अभावमत का निराकरण इस आधार पर नहीं किया जाता कि यतः अर्थ मिथ्या है प्रत एव मिश्याज्ञान भी अवश्य है, किन्तु इस आधार पर किया जाता है कि रजतार्थी की शुक्ति आदि के ग्रहण में जो यदा-कदा प्रवृत्ति होती है वह मिथ्याज्ञान को न मानने पर न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि-मिथ्याज्ञान यदि अवश्य मान्य है तो मिथ्या विषय भी मानना प्रावश्यक होगा मयोंकि विषय के मिथ्या हये विना ज्ञान मिथ्या नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मिथ्यास्त्र ज्ञान का स्वतन्त्रधर्म है । यदि विषय में भी उसकी कल्पना की जायगी तो ज्ञान और विषय में संकर हो जायगा, क्योंकि दोनों मिथ्या होने से समान हैं। एक बात यह भी है कि यदि रजतज्ञान में अर्थतः मिथ्यात्व होगा तो अर्थरूप निमित्त के मिथ्या होने से मिथ्यारजतमनेनानुभूतम्'='इसने मिथ्यारजत का अनुभव किया। यह भ्रान्ति का ज्ञान भी मिथ्या हो जायगा क्योंकि उसका विषयभूत अनुभव मिथ्या है और विषय के मिथ्यात्व से ज्ञान Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्त्ता ० स्त० ८ इलो० ७ मिथ्या होता है। इस प्रकार भ्रान्तिज्ञ भी भ्रान्त हो जायगा । श्रतः ज्ञान को विषयक के मिव्यात्थ से मिय्या मानना असङ्गत है । स्वाभाव सामानाधिकरण्यरूपं विध्यात्वं तु घटेऽपि तुल्यम्, स्वाधिकरणेऽपि परापेक्षया स्वाभावात् । सर्वथा स्वाभावसामानाधिकरण्यं तु विरुद्धमेव, गन्ध-रूपयोरपि स्वभावभेदमपेक्ष्यैव सामानाधिकरण्यात घाणग्राह्मता नियतगन्धस्वभावेन द्रव्यस्य चक्षुर्याह्मतानियत स्वभावरूपाधारतायोगात् । एतेन " अनुभवत्वस्यैव लाघवेन साधकतावच्छेदकत्वात् पुरोवर्तिनि सर्पसिद्धिः" इत्यपास्तम्, अनुभवस्यार्थसाधकत्वं हिं नार्थोत्पादकत्वम्, किन्त्वर्थग्रहण परिणामः इति तत्र सर्पज्ञानसिद्धावपि सर्वोत्वन्यसिद्धेः । न च तत्रानुभूयमानस्यान्यत्र सध्या दिकल्पने गौरवम्, तर्बंध तदुपादानाज्ञानस्याऽन्तरवच्छेदेन तदनुभवाय तदाकारवृत्तेःः रज्जुसत्वस्य तत्र मानेऽन्यथाख्यात्यापत्तिचिया तत्संसर्गात्पध्यादेश कल्पने गौरवात् । १०८ में गन्ध यदि मिध्यात्व की स्वाभाव सामानाधिकरण्यरूप माना जायेगा तो उसका अर्थ यह होगा कि जो वस्तु श्रपने अभावाधिकरण में रहती है वह मिथ्या होती है तो यह मिथ्यात्व शुक्तिरजतादि के समान व्यावहारिक घटादि में भी प्रसक्त होगा, क्योंकि प्रत्येक वस्तु के अधिकरण में परापेक्षया उसका श्रम होता है। यदि सना कामावरण को मिथ्यात्व कहा जायगा तो यह सर्वथा विरुद्ध होगा क्योंकि सर्वथा सामानाधिकरण्य किसी भी दो दस्तु में नहीं होता । जैसे, पुष्प और रूप का सामानाधिकरण्य होता है, किन्तु वह सर्वथा नहीं होता किन्तु स्वभावभेद की अपेक्षा से ही होता है क्योंकि पुष्पाविद्रध्य प्राणग्राह्यतानियतस्वभाव से जैसे गन्ध का आधार है वैसे रूप का नहीं है किन्तु गन्ध के प्राणग्राह्यता नियतस्वभाव से गन्ध का और रूप के चक्षुर्ग्राह्यतानियतस्वभाव से रूप का आधार होता है । : पूर्व में जो यह बात कही गयी थी कि "विषय की साधकता का अवच्छेदक प्रामाणिक अनुभव नहीं होता किन्तु लाघव से अनुनयत्वमात्र ही होता है, विषयत्वेनानुभवत्वेन साध्य साधकभाव ( बोध्यबोधकभाव ) होता है अतः पुरोवर्सी रज्जु में सर्प के अनुभव सर्प की सिद्धि होगी" - वह युक्ति से निरस्त हो जाती है। वह इस प्रकार अनुभव में जो अर्थसाधकता होती है वह अर्थोत्पादकतारूप नहीं होती, क्योंकि अनुभव से उसके विषय की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु अर्थग्रहण परिणामरूप है । इसके अनुसार अनुभव अर्थ का साधक होता है' इसका आशय यह है- 'अनुभव प्रमचंद का अर्थग्रहणात्मक परिणाम है। इसलिये रज्जु में सर्पानुभव से सर्वोत्पत्ति की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि यदि रज्जुस्थल में अनुभूयमान सर्प की उत्पत्ति नहीं मानी जायेगी तो उसकी अन्यत्र सत्ता आदि की कल्पना करने में गौरव होगा" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस की अपेक्षा वेदान्तमत में हो कल्पनागौरव है । जैसे, अज्ञान का शरीर के भीतर रज्जुसर्प के 'अहं इमं सर्वं जानामि = मैं इसको साँप जानता हूं' इस अनुभव के लिये उसके उपादानभूत रज्जु - अवच्छिन्न चैतन्य विषयक अज्ञान की तदाकारवृत्ति और उस सर्प में रज्जु-सत्य का भान मानने पर अन्यथाख्याति के आपत्ति के भय से सर्प में सत्त्व के संसर्ग की उत्पत्ति प्रादि की कल्पना श्रावश्यक होगी। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था क० टीका एवं हिन्धी विवेचन ] १०६ किच, तत्र सत्त्वसंसर्गोत्पत्तिस्त्रीकारेऽपि सत्त्वांशेऽन्यथाख्यातिभिया सच्चान्तरोत्पत्तिरेव युक्ताऽभ्युपगन्तुम् । तथा च स्वयमसती तत्रोत्पद्यमाना सत्चा स्वसंबन्धोत्पत्तिमपेक्षते, सोऽपि स्वसंवन्धान्तरोत्पत्तिमित्यनवस्था । सत्स्वभावस्य च तस्य सत्यरजतवदुत्पत्तौ किनिबैचनीयत्वम् ? ! 'स्वानुपादाने समुत्पन्नत्वात तत्त्व' चेत् ? अहो ! व्याहताभिधायी देवानांप्रिया, यद् भावकार्य स्वानुपादानोत्पन्नमङ्गीकुरुये । 'अत्र प्रसिद्धोपादानत्यागादयं विशेष'श्चेत् ? उपादानत्याविशेषे का प्रसिद्धयप्रसिद्धिकृतो विशेषः । दूसरी बात यह है कि सत्त्वसंसर्ग की उत्पत्ति स्वीकार करने पर भी सत्त्वांश में अन्यथाख्याति का भय होगा। प्रत: रज्ज-सर्प में प्रत्य सत्व को उत्पत्ति ही मानना उचित होग सत्ता यदि रज्जुसर्प में स्वयं असत रहते हये उत्पन्न होगी तो उसके सम्बन्ध की भी उत्पत्ति माननी पड़ेगी और वह सम्बन्ध भी यदि उसमें असत् होते हुये ही उत्पन्न होगा तो उसके भी सम्बन्धान्तर को उत्पत्ति माननी पडेगी । याद उस स्थल में भी सरस्वभाव सर्प को ही उत्पत्ति मानी जायगी तो उसकी अनिर्वचनीयता क्या होगी? यदि यह कहा जाय कि-'अपने अनुपादान में उत्पन्न होने से उसकी अनिर्वचनीयता होती हैं तो यह व्याहतवचन वक्ता को देवानाप्रियता-यानी अज्ञता का सूचक होगा। क्योंकि इस कथन से अपने अनुपादान में भाषकार्य को उत्पत्ति का अंगीकार सिद्ध होता है जो सिद्धान्तविरुद्ध है। यदि यह कहा जाय कि-'रज्जुसादि की उत्पत्ति सर्वथा सर्पोपादान के अभाव में नहीं है किन्तु सर्प के प्रसिद्ध उपादान के अभाव में है, इसीलिये उसे अनुपादान में उत्पत्ति कहा जाता है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि रज्ज-सर्पस्थल में और अण्डजसपस्थल के उपादानत्व कोई विशेष नहीं है तब मात्र प्रसिद्धि-अप्रसिद्धिकृत क्या विशेष हो सकता है ? किञ्च, एवं दण्ड-घटादौ दान-स्वर्गादौ च लोक-शास्त्रप्रसिद्धः कार्यकारणभावो भज्यते, भज्येत च कार्यात् कारणानुमानम , कारणाच्च कार्यानुमानादिकम् , अनिर्वचनीये व्यभिचारात् । विलक्षणदण्डत्वघटत्व-दानवस्वर्गवादिना कार्यकारणभावे चातिगौरवम् , वेदादौ दान स्वर्गादिपदानां सामान्यतो दानत्व-स्वर्गवाद्यवच्छिन्नोपस्थापकानां विलक्षणदानस्वस्वर्गवाद्यपस्थितये लक्षणापत्तिः, नानार्थत्वे च दानादिपदानां प्रतिपदं तात्पर्यग्रहाय प्रकरणाद्यपेक्षापत्तिः । तीसरी बात यह है कि यदि अनिर्वचनीय पदार्थ की उत्पत्ति मानी जायगी तो वण्ड और घटादि में लोकप्रसिद्ध एवं दान और स्वर्गादि में शास्त्रप्रसिद्ध कार्य-कारणभाव का भङ्ग हो जायगा जिसके फलस्वरूप घटादि कार्य से दण्डादिकारण के अनुमान का और चरम कारण से कार्यानुमान आदि का भङ्ग हो जायगा क्योंकि अनिर्वचनीय में व्यभिचार है-जैसे, अनिर्वचनीय घटावि दण्डादि के विना भी उत्पन्न होता है । अतः घटादिकार्य में दण्डादिरूप कारण का स्थाप्तिग्रह नहीं हो सकता। और इसीलिये दण्डादि में घटकारणता का निश्चय न होने से किसी में घटादि को चरमकारणता का निश्चय न होने से किसी कारण में कार्य का व्याप्तिग्रह न हो सकेगा। अतः चरम कारण से कार्यानुमान का भी भङ्ग हो जायगा। यदि उक्त दोषों के वारणार्थ सामान्य रूप से घट और दण्ड, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] शास्त्रवार्त्ता० स्त०८ श्लो०७ तथा स्वर्ग एवं दानादि में कार्यकारणभाव न मान कर विलक्षणघटत्य और विलक्षणदण्डत्वरूप एवं विलक्षणस्वर्गत्व और विलक्षणदानश्व रूप से कार्यकारणभाव माना जायगा तो अत्यन्त गौरव होगा क्योंकि दण्डादिसाध्य घटादि में दण्डादिसाध्यतावच्छेदक जाति की कल्पना कर के भिन्न-भिन कार्यकारणभाव की कल्पना करनी होगी । तथा वेदादि मे दत्व-स्वर्गत्यादि सामान्यधर्मावच्छिन के उपस्थापक दानस्वर्गादि पद से बिलक्षणदानत्वावच्छिन्न और विलक्षणस्वर्गत्वावच्छिन की उपस्थिति के लिये उन पदों की तत्तद्धर्मावच्छिन में लक्षण करनी पड़ेगी और दानादि पद अनेकार्थक हो जाने से प्रत्येक पद को अर्थविशेष में तात्पर्यज्ञान के लिये प्रकरणादि के अपेक्षा की आपत्ति होगी । किच, एवं चाधेऽपि व्यवहारापत्तिः, अनिर्वाच्यरजताभावज्ञानेऽपि रजतसामान्या भेदअमाऽनिवृत्तेः, रजतविशेषस्य ' इदं रजतम्' इति भ्रमविषयत्वे तद्रजतभ्रमेऽपि 'इदं रजतम् ' इत्युल्लेखापतेः । किञ्च, एवमिदंच्या चैत्राऽपरोक्षे इदम्शे उत्पन्नं रजतं तथा तत्र मैत्राऽपरीक्षे मैत्रस्याप्यपरोक्षं स्यात् । 'मैत्र- चैतन्या मेदेनानुत्पन्नखाद् नायं दोष' इति तु रिक्तं वचः, इदंवृत्त्या स्वाभिन्ने इदमंशचैतन्येऽध्यस्तत्वेन तस्य तदभिनत्वात् । 'अविद्यावृच्या तदभेदोऽपेक्षित' इति चेत् १ तादृशतदभेदस्याविद्यावृत्तिनियम्यत्व आत्माश्रयः । इदमंशावच्छेदेन चैत्रीय रजत इदमंशावच्छेदेन चैत्रीयाऽज्ञानहेतुत्वकल्पने चातिगौरवात्, सामान्यत एवेदं विशेष्यकरजतत्वप्रकारकभ्रम इदं विशेष्यक शुक्तिवत्रकारकज्ञानाभावस्य हेतुलौचित्यात् । इस प्रकार, 'नेदं रजतम्' इत्यादि रूप से शुक्तिरजतादि का बाध ज्ञान हो जाने पर भी 'इदं रजतम्' इस व्यवहार की आपत्ति होगी । क्योंकि बाध से अनिर्वचनीय रजत के अभाव का ज्ञान हो जाने पर भी रजतसामान्य के अभेद भ्रम को निवृत्ति नहीं होगी। एवं रजत विशेष को यानी अनिर्वचनीय रजत को 'इदं रजतम्' इस रअतसामान्यलेखी भ्रम का विषय मानने पर तरजतविषयक भ्रम में भी भ्रमविषयोभूत तद्जत का 'इदं तद् रजतम्' के समान ' इदं रजतम्' इस प्रकार उल्लेख की आपत्ति होगी । इसी प्रकार इदमाकार वृत्ति से चैत्र को जिस इदमंश का अपरोक्षज्ञान होने पर जो रजत उत्पन्न होता है, इदमाकार वृत्ति से मंत्र को उस इदमंश का अपरोक्षज्ञान होने पर मंत्र को भी उस रजत के अपरोक्षता की आपत्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि उस रजत की उत्पत्ति चैत्र चैतन्याभेदेन हुई है - मैत्रतन्याभेदेन नहीं हुई है, अतएव यह दोष नहीं हो सकता, क्योंकि अपरोक्ष चेतन्य et ध्यासिक अभेद ही विषय की अपरोक्षता होती है तो यह कथन युक्तिशून्य है । क्योंकि उक्तरजत मंत्र की इदमाकारवृत्ति द्वारा मंत्र चैतन्य से प्रभिन्न इदशचैतन्य में प्रध्यस्त होने से वह चैतन्य से भिन्न हो जाता है । इस दोष के निवारणार्थ यदि यह कहा जाय कि अविद्या वृत्ति द्वारा तत्तच्चैतन्याभेद प्रातिभासिक पदार्थ की तसत्पुरुषीय अपरोक्षता के लिये अपेक्षित है। अतः उक्त स्थल में मंत्र को अधिष्ठान का साक्षात्कार रहने के कारण रजताकार अविद्यावृत्ति नहीं होती । अतः चंत्रीय प्रज्ञान से उत्पन्न प्रातिभासिक रजत में भी अविद्यावृत्ति द्वारा मंत्रचतन्याभेद न होने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती ।' -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रतिभासिक रजतादि में अविद्यावृत्ति द्वारा प्रमातृ चैतन्याभेव को श्रविद्यावृत्ति से नियम्य मानने पर आत्माश्रय होगा। क्योंकि 7 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] अधिष्ठानतन्य और प्रमातृचतन्य का अभेद होने पर विशेषधर्मप्रकारक अधिष्ठान गोचर अज्ञान को वृत्ति होती है । किन्तु यदि उस अमेव को अविद्यावृत्तिनियम्य माना जायगा तो अविद्यावृत्ति में अविद्यावृत्ति को ही अपेक्षा हो जायगी। यदि चैत्र-मंत्र उभय से दृश्यमान इदमंश में चैत्रीय अज्ञान से उत्पन्न रजत में मंत्र की अपरोक्षतापत्ति का परिहार करने के लिये यह कल्पना की आय कि इदमंशावच्छेदेन घेत्रीयाज्ञानीस्पन्न रजत के अपरोक्षज्ञान में इदमंशावच्छेवेन अधिष्ठानविषयक चत्रीय अज्ञान कारण है। अतएव उक्तापति नहीं हो सकती क्योंकि मैत्र को इदर्मशावच्छेवेन अधिष्ठानविषयक अज्ञान नहीं है ।"-तो इस कल्पना में अत्यन्त गौरव है क्योंकि पुरुष भेद से कार्यकारणभाव में भेद होता है। अतः सामान्यरूप से इदंविशेष्यक रजतत्वप्रकारक भ्रम के प्रति इदं विशेष्यक शुक्तित्वप्रकारक जानाभाव को कारण मानना ही उचित है। क्योंकि इस कार्यकारणभाव को स्वीकार करने पर क्षेत्र को 'इव रजतम्' इस भ्रमदशा में मैत्र को 'इवं रजतम' इस भ्रम की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उसे इदंविशेष्यक शुक्तित्वप्रकारक ज्ञान ही है, इसका प्रभाव नहीं है। एवं भ्रमानुषितावपि पर्वते वह स्तसंसर्गस्य धोत्पत्तौ शुक्तौ रजतवत् तत्र तदपरीक्षवागतः । 'दृश्यमानप्रदेशावच्छेदेन वह्वयनुत्पत्तेर्न दोष' इति चेत् ? न, शुक्तिवानवच्छेदेनेदंत्वावच्छेदेन च शुक्नौ रजतोत्पादात् 'शुक्ति रजतं साक्षात्करोमि' इत्यप्रत्ययेऽपि शुक्तित्वपरित्यागेन 'इदं रजतं सादात्करोमि' इति प्रत्ययवदृश्यमानदेशावच्छेदपरित्यागेन प्रकते पर्वतवावछेदमादाय 'पर्वते बल्डिं साक्षात्करोमि' इति प्रसनात् ।-'यतत्त्रविषयिणी वृत्तिरिदत्वविषयिण्यपि, इदंत्वं च दृश्यमानप्रदेशावच्छिन्नत्वम् , तथा चैं पर्वतत्वं वहन्युत्पत्ति कथमच्छिन्द्यात् ?' इति चेत् । नन्वेवं 'अयं पर्वतो वद्धिमान्' इत्युल्लेखादेतद्देश एव बहन्युत्पत्तिर्वाच्येत्यतिसंकटम् । एतेन "पर्वतत्वेन ज्ञानादधिष्ठानज्ञानसिद्धिः, पक्षतापि पर्वतत्वेन" इति निरस्तम्, 'अयं पर्वतो वसिमान्' इति स्फुटमनुभवात् । [भ्रमानुमिति में यहि-अपरोक्षता आपत्ति ] भ्रम स्थल में अनिर्वचनीय विषय और विषय के संसर्ग की उत्पत्ति मानने पर जैसे शक्ति में रजतभ्रम स्थल में शुक्ति में अनिर्वचनीय रजत और उसके संसर्ग की उत्पत्ति होने से रजत अपरोक्ष होता है उसीप्रकार पर्वतत्वावच्छेदेन अह्निसाध्यक भ्रमात्मक अनुमिति स्थल में भी वह्निशून्य पर्वत में बह्नि और वह्निसंसर्ग की उत्पत्ति होने से उस स्थल में भी वह्नि में अपरोक्षस्व की आपत्ति हो जायगी। यदि यह कहा जाय कि-'अनुमिति स्थल में दृश्यप्रदेशावच्छेदेन वह्नि को उत्पत्ति न होने से यह दोष नहीं हो सकता-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसे शुक्तिस्वानवच्छेवेन और इदंत्वावच्छेदेन शुक्ति में रजत की उत्पत्ति होने से 'शुक्ति रजतं साक्षात्करोमि' अर्थात् 'शुक्ति रजत को देखता हूं इस प्रकार को प्रतीति न होने पर भी शुक्तित्व का परित्याग कर 'इदं रजतं साक्षात्करोमि'-'इस रजत को देखता हूँ इस प्रकार की प्रतीति होती है। उसी प्रकार उक्तभ्रमात्मक अनुमिति स्थल में अदृश्यमान देशरूप अवच्छेदक को छोड कर और पर्वतत्वावच्छेदक को Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता. स्त०८ श्लो० ७ लेकर 'पर्वते धति साक्षात्करोमि'-पर्वत में अति को देखता हूँ'-इस प्रकार पर्वत में वह्नि में अपरोक्षता की प्राप्ति होगी। [ इदंत्यविषयक वृत्ति मानने पर भी आपत्ति । इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-'पर्वतत्वविषयक बत्ति इदन्त्वविषयक भी है और इदत्व दृश्यमाणप्रदेशावच्छिन्नत्वरूप है। क्योंकि दृश्यमाण प्रदेश में ही पर्वत का 'अयं पर्वतः' इस रूप में व्यवहार किया जाता है। इस प्रकार जब इदन्त्व-पर्वतत्व दोनों रूप से पर्वत प्रातिमासिक वति और उसको भ्रमात्मकानमिति को उत्पत्ति के पर्व में ज्ञात है तब एफ पर्वतत्व ही वह्निउत्पत्ति का अवच्छेदक कैसे होगा? और जब केवल पर्वतत्व यति उत्पत्ति का अवच्छेदक नहीं हो सकता तो केवल पर्वतत्व अवच्छेदक को लेकर 'पर्वते वह्नि साक्षात्करोमि' यह आपत्ति कैसे हो सकती है ?" तो इस कथन से वेदान्तो को महान संकट की प्रसक्ति होगी क्योंकि इस कथन के अनुसार अनुमिति का 'पर्वतो वह्निमान्' इस रूप में उल्लेख न होकर 'अयं पर्वतो हिमान' इस रूप में उल्लेख होगा। अतः इदन्त्वविशिष्टदेश में ही वहि की उत्पत्ति माननी होगी। फलतः दृश्यमाणप्रदेशविच्छेदन भी यदि की उत्पत्ति हो जाने से वह्नि के अपरोक्षत्व का प्रसंग तदधस्थ रहेगा। ____ इस सम्बन्ध में यह कथन कि-'केबल पर्वतत्वरूप से पर्वत का ज्ञान होने से भी अधिष्ठान ज्ञान की सिद्धि हो जाती है और पक्षता भी थेवल पर्वतत्वरूप से हो सकती है । अत : 'पवतो वह्निमान्' इस प्रकार की हो अनुमिति होती है'-निरस्त हो जाता है क्योंकि 'अयं पर्वतो यहिमान्' इस प्रकार का अनुभव स्फुट है। अपि च, 'इमे रजत-शुक्ती' इत्यत्र संनिकृष्टशुक्ति-रजतयोरन्योन्यतादात्म्योपचारविनिगमः, धयंश इव प्रकारांशेऽपि प्रमाणतापत्तिः, संनिकर्षसत्वेऽन्यथाख्यातिस्वीकारे चान्यत्राप्येकत्र क्लप्तत्वेन तत्स्वीकारापतिः, तत्रान्परजतादिस्वीकारेऽपि 'इदमेब रजतं शुक्तित्वेनाबासिषम्' इत्याद्यनुमनविरोधः, एवमन्यत्र 'असदेव रजतमत्रान्वभवम्' इत्याद्यनुभवविरोधः, तस्य भ्रान्तत्वे बाधकत्वानापत्तिः, मिथ्यारजतस्य तत्रासत एवोपगमे चासरख्यात्यापत्तिः -"तत्र 'असदेव' इत्यस्य तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वार्थः अविरुद्धं च तत् सति तत्रासति च तत्रेति" चेत् ! कथं तर्हि तत्र सचा-ऽसत्वाभ्यां निरूक्तिविरहः १ | "पाधा ऽयाधदशयोः सत्राऽसवाभ्यां निरुक्तावप्येकदा तथा निरुक्तिविरहोपगमाद् न दोष" इति चेत् १ न, तुल्यन्यायेन घटादावप्येवमनिपनीयतापत्तेः । अत एवैकपदेन तथाऽप्रतिपाद्यवागत एवं तथात्वं व्यवस्थापितमवक्तव्यमझके । [ 'इमे शुक्ति रजते' इस भ्रमज्ञान में प्रामाण्यापत्ति ] दूसरी बात यह भी ज्ञातव्य है कि-जब रजत को शुक्तिरूप में और शुक्ति को रजतरूप में करनेवाला 'हमे रजतशक्ती' इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न होता है तो वहां शक्ति और रजत दोनों संनिकृष्ट रहते हैं और उन दोनों में अन्योन्य तादात्म्य की उत्पत्ति में कोई प्रमाण नहीं है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] अत एव वह ज्ञान जैसे धर्मों अंश में प्रमाण होता है उसी तरह प्रकारांश में भी प्रमाण होगा। क्योंकि 'एक का धर्म दूसरे में उत्पन्न होकर गहीत होता है। इसमें कोई प्रमाण नहीं है अतः जो धर्म जिसमें है उसी में गृहीत होगा अथवा स्वतन्त्र रूप से गहोत होगा। यदि इस दोष के परिहार के लिये संनिकर्ष के होने से एक के धर्म का दूसरे में ग्रहण माना जायगा तो अन्यथा स्याप्ति होगी और एक स्थान में अन्यथा ख्याति मान लो जायगी तो अन्यत्र सर्वत्र भी अन्यथाख्याति के स्वीकार की आपत्ति होगी। यदि उक्त स्थल में अन्य रजत का अभ्युपगम किया जायगा तो शुक्तिभ्रम के अधिष्ठानभूत रजत का साक्षात्कार होने पर 'इदमेव रजतं शुक्तिस्वेनाऽपश्यम-इसी रजत को मैंने शुक्ति समझ लिया था- इस अनुभव का विरोध होगा । एवं वहां केवल शुक्ति में रजतभ्रम के बाद अधिष्ठान का साक्षात्कार होने पर 'असदेव रजतमत्रान्वभवम' यहाँ हमने असत् ही रजत को देखा'-इस अनुभव का विरोध होगा क्योंकि वेदान्तमत में रजतभ्रमकाल में प्रातिभासिक रजत असत नहीं किन्तु सत् होता है। यदि इस अनुभव को भ्रमात्मक मानेंगे तो इस के विषयभूत अनुभव में असद्रजतविषयकत्व न होने से वह रजतभ्रम का बाधक न हो सकेगा। यदि इस अनुभव के अनुरोध से असत् ही मिथ्यारजत को स्वीकार किया जायगा तो असत् ख्याति की आपत्ति होगी। यदि कहिये कि-'तत्र असदेव' का अर्थ है-'तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्व' और वह शुक्ति देश में मिप्या रजत को सत् और असत् बोनों स्थिति में अविरुद्ध है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार शुक्तिरजतादि का सत्त्य-असत्त्व दोनों रूप से निर्वाचन सम्भव होने से सत्त्व और असत्त्व रूप से उसकी अनिर्वचनीयता कैसे होगी? यदि यह कहा जाय-'अबाध दशा में सत्व प्रौर बाध दशा में प्रसत्त्व रूप से निर्वचन होने पर भी एक काल में सत्व और असत्त्व रूप से निर्वचन का प्रभाव मानने से दोष नहीं हो सकता'- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस न्याय से घटादि में भी अत्यन्तसत्त्व और अत्यन्ताऽसत्त्वरूप से अवाच्यता न होकर एक काल में सत्वासत्त्वरूप से अनिर्वचनीयता की आपत्ति होगी। इस प्रकार अभ्युपगम करने पर वस्तु को अनिर्वचनीयता निरपेक्ष न होकर सापेक्ष सिद्ध होती है । इसीलिये अवक्तव्यभङ्ग में एक पद से सत्त्वाऽसत्व उभयरूप से वस्तु का प्रतिपावन न हो सकने से जगत् को अनिर्वचनीय कहा गया है। अथ नाऽशक्यनिरुक्तिकत्वमनिर्वचनीयपदार्थः किन्तु निरुक्तिनिमिचविरह इति चेत् ? ननु किं तद् निमित्तं १ ज्ञानं वा, विषयो वा ? | नाद्यस्य विरह: "रजतं भाति यद् भ्रान्तो तत् सदेके, परेत्वसत् । अन्येऽनिवेचनीयं तदाहुस्तेन विचार्यते ॥१॥ इति स्वयमेव तद्भानाभ्युपगमात् । 'सत्यस्थल इवात्रेद-जतयोरेफवृत्त्यनङ्गीकारा न दोष' इति चेत् ? अयमयरस्तव दोषः इदं च, रजतं च' इति समूहालम्बनव्यावृतविशिष्टज्ञानस्यैकत्ति विनाऽनुपपत्तेः । नापि द्वितीयस्य विरहा, सद्रूपस्याऽसदूपस्य वा विषयस्याऽसत्वेऽसरख्यातेः सख्यातेश्च प्रसङ्गाव, उभयरूपस्य निवृत्तेश्च लोकेऽप्रतीतेः, एकनिषेधेऽन्यविधिनियमात्, अलौकिकतभिवृत्तेवाऽकिश्चित्करस्यादितिदिक् । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ [ शास्त्रवात स्त०८ श्लो०७ [निर्वचन के निमित्त का विरह होने की बात गलत ] यदि यह कहा जाय कि-"अनिर्वचनीयपद का अर्थ अशक्य निरुक्तित्व नहीं है किन्तु निरुक्ति के निमित्त का अभावरूप है। तात्पर्य यह है कि-'शुक्ति में प्रतीयमान रजत निर्वचनीय है' इस का अर्थ यह नहीं है कि प्रपञ्च का निर्वचन अशक्य है किन्तु उसका अर्थ यह है कि जिस निमित्त से निरुक्ति होती है, प्रपञ्च में उस निमित का अभाव है।"- किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि प्रपञ्च में निरुक्तिनिमित्त का अमाव' ससिद्ध है । जैसे. निरुक्ति के दो निमित्त हो सकते हैं-१. ज्ञान और २. विषय । अर्थात् जो ज्ञान का विषय होता है वह निर्वचनीय होता है अथवा जिस का अस्तित्व होता है घह निर्वचनीय होता है। इन निमित्तों में शुक्ति-रजत में ज्ञानात्मक निमित्त का अभाव नहीं है, क्योंकि उसका ज्ञान सर्वसम्मत है जैसा कि कहा गया है कि 'भ्रमात्मक ज्ञान में जो रजत मासित होता है उसे कुछ लोग सत् कहते हैं, कुछ लोग असत् कहते हैं, और कुछ अन्य विद्वान् अनिवचनीय कहते हैं इसलिये उस रजत के सम्बन्ध में विद्वानों का वमत्य होने से उसका विचार मावश्यक है ।'-इस प्रकार इस कथन द्वारा शुक्तिरजत का ज्ञान वेदान्तीओं ने स्वयं स्वीकार किया है। [ इदमाकार-ग्जताकार वृत्तिभेद मानने पर आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'शुषितरजत में ज्ञान का प्रभाव है इस कथन का तात्पर्य ज्ञानसामान्य के निषेध में नहीं है किन्तु एक ज्ञान के निषेध में है। आशय यह है कि जैसे सत्यस्थल में 'इदं रजतम्' इस प्रकार इवमाकार-रजताकार एक ज्ञाम होता है रजप्तभ्रमस्थल में उस प्रकार एकज्ञान नहीं होता है किन्तु वहाँ इदमाकार अन्तःकरण की घृत्ति होती है और रजताकार अविद्या की वृत्ति होती है। इसलिये इदं और रजत दोनों वृत्त्यात्मक एकज्ञान के विषय नहीं होते हैं।"-किन्तु इस कथन से भी वेदान्ती को दोषमक्ति नहीं हो सकती । प्रत्युत इस कथन से वेदान्तमत में एक और दोष दृष्टिगोचर होता है-वह यह है कि 'हवं रजतम' इस प्रकार का ज्ञान 'इदं च रजतं च इस स समूहालम्धन ज्ञान से भिन्न होता है जो इवमाकार-रजताकार एकवृत्ति माने बिना अनुपपष्ट है । फलतः वृत्तिभेद मानने पर भ्रमस्थल में एक विशिष्टज्ञान की उपपत्ति न हो सकेगी। निरुक्ति के विषयरूप द्वितीय निमित्त का भी अभाव असिद्ध है क्योंकि यदि सप विषय को सत्ता न मानी जायगी तो असल्याति का प्रसङ्ग होगा। यदि असदपविषय की सत्ता न मानी जायगी तो सत्ख्याति का प्रसङ्ग होगा और सदसद् उभयरूप विषय की प्रसत्ता भी नहीं मान सकसे क्योंकि लोक में ऐसो असत्ता की प्रतीति नहीं होती। क्योंकि एक के निषेध में नियम से अ य का विधि होता है। उभयरूप विषय को अलौकिक निवृत्ति मानना भी निरर्थक है, क्योंकि जब उस विरह की लोक को प्रतीति नहीं होती तो उससे निरुक्ति का प्रघरोध नहीं हो सकता। एवं स्वप्नस्थादयोऽपि नाऽनिर्वचनीयाः, निद्रादोषेण स्वप्नेऽसंनिहितरथादीनामेव संनिहितत्वादिना भानात् । परेषा तु महत्यनुपपत्तिः, तथाहि-न ताबद्' मूलानानकार्य स्वप्ना, संसारदशायां बाधात् , रजतभ्रमस्य शुक्त्यज्ञानान्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वषजाग्रत्प्रपश्चाज्ञानान्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वाच्च । न च जाग्रत्प्रपश्चाऽज्ञानमेव तदारम्भकम् , शुक्तौ रजतोत्पत्तिबजायत्प्रपञ्चे स्वाप्निकरथाद्युत्पच्यापत्तेः । न चेष्टापत्तिः, तत्सामानाधिकरण्येन Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] स्फुरणाभावात् । 'यद्धि यदज्ञानेनोत्पद्यते तत् सत्सामानाधिकरण्येन स्फुरति' इति नियमात् । अत एवान्तःकरणावच्छिन्नचैतन्याऽज्ञानं न तदारम्भकम् , साक्षिवेद्येऽन्तःकरणेऽज्ञानाऽसंभवाच । [ स्वप्न में मासमान स्थादि अनिर्वचनीय नहीं है ] जिस प्रकार शुक्तिरजतादि को अनिर्वचनीयता नहीं सिद्ध होती उसी प्रकार स्वप्नरपादि की भी अनिर्वचनीयता सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि स्वप्न में असंनिहित रथावि का ही निद्रा दोषवश संनिहितत्य रूप से भान होता है। वेदान्तमत में तो स्वाग्निकपदार्थों के सम्बन्ध से भी भारी अनुपपति है, जैसे कि, स्वप्न को मूलासान का कार्य नहीं माना जा सकता क्योंकि संसारदशा में उसका ता है। दूसरी बात यह है-जैसे रजतभ्रम में शक्तिविषयक अज्ञान के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान होता है उसी प्रकार स्वप्न में जाग्रत प्रपञ्च के अज्ञान के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान होता है, अत: जैसे रजतभ्रम मूलाज्ञान का कार्य नहीं होता किन्तु शुक्ति के अज्ञान का ही कार्य होता है । उसी प्रकार स्वप्न भी मूलाज्ञान का कार्य न होकर जाग्रत् प्रपञ्च के अज्ञान का ही कार्य होगा। अब यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'जाग्रत प्रपश्च का अज्ञान हो स्वप्न का आरम्भक हैक्योंकि ऐसा मानने पर जैसे शुक्ति के अज्ञान से शुक्ति में रजत को उत्पत्ति होती है उसी प्रकार जाग्रत् प्रपन्न के अज्ञान से जाग्रत प्रपश्च में स्वप्नरथादि की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा। इस प्रसङ्ग को इष्टापत्ति भी नहीं माना जा सकता क्योंकि जाग्रत्प्रपञ्चसामानाधिकरण्येन स्वप्नरयादि का, आगत् प्रपञ्च को लेकर यह रथ हैं' ऐसा स्फुरण नहीं होता-जब कि नियम यह है कि जो जिसके अज्ञान से उत्पन्न होता है, उसका तत्सामानाधिकरप्येन स्फुरण होता है, जैसे शुक्ति के प्रज्ञान से उत्पन्न होने वाले रजत का उसी शुक्ति को ले कर 'इदं रजतम्' इस रूप में शुक्तिसामानाधिकरण्येन रजत का अनुभव होता है। इसी कारण अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य का प्रज्ञान भी स्वप्न का आरम्भक नहीं माना जा सकता एवं यह भी कारण है कि अन्तःकरण साक्षिवेद्य होता है, और अन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यविषयक प्रज्ञान नहीं हो सकता। यत्तु “चिन्मात्रनिष्ठमूलाज्ञानमेवेश्वग्त्यावच्छेदेन गगनादि सर्वमारभमाणं जीवत्वावच्छेदेनाप्यहवारस्वप्नादिचित्मामानाधिकरण्येन स्फुरदारभते, जाग्रत्तपश्चाज्ञानान्वय-व्यतिरेकानुविधानं तु स्वप्नारम्भकनिद्रादोषेणान्यथासिद्धम् , संसारदशायर्या वाधस्तु सक्लिासाज्ञाननिवृश्चिरूपो नेष्ट एव, अभावबोधो बाधस्तु स्वप्रारम्मकाज्ञानाऽनिवृत्वावपि तुलाज्ञानाऽनङ्गीकारपचे रजतादाविव मंभवी, स्वप्नारम्भकनिद्रादोषनिषश्याऽऽशेप्यामावज्ञानोपपत्तेः" इति तद्न, मूलाज्ञानजन्यत्वे स्वप्नस्थादेर्घटादेखि निवृत्तावपि मिथ्यात्वप्रतीत्यनुपपत्तः । तजन्यमिथ्यात्वप्रतिपत्तायाद्यशक्तेः प्रतिबन्धकत्वात् सामान्यतो मिथ्यात्वधीप्रतिबन्धिकायां तस्या तत्तदोषनिवृत्तरत्तेजकत्वे विनश्यदवस्थदोषजनिते रजतादौ तदानीमेव मिथ्यात्यप्रतिपच्यापत्तेः, एकदोषनिवृत्तावन्यमिथ्यात्यबुद्धचापत्तौ तत्तन्मिथ्यात्वबुद्धी तत्तद्दोषनिवृत्तिहेतुत्वावश्यकत्वाच । [ मूलाज्ञान से स्वप्नादि उत्पत्ति पक्ष की आशंका ] इस सम्बन्ध में वेदान्त की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'चिन्मान में विद्यमान जो Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो०७ चिन्मात्रविषयक मूलाज्ञान है बहो गगनादि सम्पूर्ण व्यावहारिक वस्तुओं को ईश्वरत्वावच्छेवेनईश्वरात्मक चैतन्य में उत्पन्न करता है और वही जोयत्यावच्छेदेन-जीवात्मक चैतन्य में अहंकार और स्वप्नादि को भी उत्पन्न करता है। तया, वह अहंकारावि चैतन्यसामानाधिकरण्येन- अहमस्मिरयोऽस्ति इत्यादि रूप में स्फुरित भी होता है। स्वप्नादि में जाग्रत् प्रपञ्च विषयक जिस प्रज्ञान का स्वप्न के साथ अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान होता है यह अज्ञान स्वप्न जनक निद्रादोष को उत्पन्न कर स्वप्न के प्रति अन्यथा सिद्ध होता है और संसारदशा में जिस स्वप्न का बाध कहा जाता है वह सकार्य (सविस्तार) अज्ञान की निवृत्तिरूप वास्तव बाध नहीं है, किन्तु स्वप्नादि के प्रभाव का बोधरूप गौण बाध है, जो स्वप्न के आरम्भकमूलाज्ञान को नियत्ति न होने पर भी उसी प्रकार सम्भव होता है जैसे तूलाज्ञान के अनङ्गीकारपक्ष में शुक्तिरजतादि के आरम्भक मूलाशान की निवृत्ति न होने पर भी शुक्तिरजतादि के जनक आगन्तुक दोष की निवृत्ति होने से शुक्तिरजतादि के अभाव का ज्ञान होता है, उसी प्रकार स्वप्न के आरम्भक निद्रा दोष की निवृत्ति से स्वप्नात्मक आरोप्य के अभाव का ज्ञान उपपन्न होता है।" [ मिथ्यात्य प्रतीति के अभाव की आपत्ति ] तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वप्नरथावि को मूलाज्ञानजन्य मानने पर जैसे घटादि की निवृत्ति होने पर भी घटादि में मिथ्यात्व की प्रतीति नहीं होती वैसे स्वप्नरथादि की निवृत्ति हो जाने पर भी उसमें मिथ्यात्व को प्रतीति नहीं होगी। क्योंकि भूलाज्ञानजन्य पदार्थ के मिथ्यात्वज्ञान में श्राद्यशक्ति यानी मलाज्ञान ही प्रतिबन्धक होता है। यदि स्वप्नरथादि में मिथ्यात्व उपपत्ति के लिये मिथ्यात्वज्ञानप्रतिबक प्राद्यशक्ति में तत्तदोषनिवृत्ति को उत्तेजक मान कर तत्तद्दोपनिवृत्तिबिरहविशिष्टाद्यशक्ति को मिथ्यात्वज्ञान का प्रतिबन्धक माना जायगा तो यद्यपि स्वाद रथादि के जनक निता वोष की निवृत्ति होने पर तदोषनिवृत्तिविरह विशिष्ट आद्यशवितरूप प्रतिबन्धक न रहने से स्वप्नरथादि में मिथ्यात्वज्ञान की उपपत्ति हो सकती है, तथापि यह कल्पना उचित नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसी कल्पना करने पर जो रजतादि विनश्यदवस्थदोष से उत्पन्न होता है उस रजतादि में उसकी उत्पत्ति के समय ही मिथ्यात्व प्रतिपत्ति की आपति होगी। क्योंकि उसी समय उस रजतादि के जनक दोष की निवृत्ति हो जाने से तदोषनित्तिविरहविशिष्टाद्यश वितरूप प्रतिबन्धक का अभाव हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह भी आपनि होती है कि चैत्र की प्रथमनिद्रा को निवृत्ति हो जाने पर द्वितीय निद्राकाल में स्वाप्निक रथादि में मिथ्यात्वबुद्धि की प्रापत्ति होगी क्योंकि उस समय सामान्यतः वोषनिवृत्तिविरहविशिष्ट्राधशक्तिरूप प्रतिबन्धक नहीं है। अतः इस आपत्ति का परिहार करने के लिये विशेषरूप से ततद्दोष का उपादान कर ततद्दोषजन्यमिक मिथ्यात्वबुद्धि में तत्तदोषनिवृत्ति को कारण मानना आवश्यक होगा। इस प्रकार इस पक्ष में महान् गौरद होगा। न च तथापि निद्रादोषनिवृत्तौ स्वप्नावगतार्थमिथ्यात्वधीः, शुभादृष्टोपनीतजागरसंत्रादिभाव्यर्थदर्शनेन तदसिद्धे, हेतुविशेष विना निद्राविशेषानुपपत्तेश्च । अपि च एवं जाग्रदशायामिव स्वप्नदशायामपि मोदकभक्षणजन्यं सुखं समानं स्यात्, स्वाध्यस्तत्वाविशेषात् । तथा चायातोऽयं न्यायः-- Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] "आशामोदकप्ता ये ये चास्वादितमोदकाः । रस-वीर्य विपाकादि तुल्यं तेषां प्रसज्यते ॥१॥" इति । 'जागर-स्वप्नसुखयोः स्वाध्यस्तत्वेन तुल्यत्वेऽपि सत्याऽसत्यमोदकभक्षणजन्यत्वेन विशेष' इति चेत् १ न, तुल्यानानजन्यत्वेन द्वयोस्तुल्यत्वात् . तत्र पहिरन्तविभाग स्यापि स्वप्ने मोदकादेहिष्ट्वेनानुभवेन तुल्यत्वात् । 'तत्र बहिष्ट्वमध्यस्तमिति चेत् ? अन्यत्रापि तदध्यस्तत्वं सुवचम् । 'एकस्यैव सत्यमोदकस्य बहिर्बहुभिरनुभवात् तत्र बहिष्टवं नागेपितमिति चेत् ? स्वप्नेऽपि सुवचमेतत् । स्वप्ने प्रतिसंतानमनुभूतानां नानात्वे च जागरेऽपि प्रतिसंतानमनुभृतानाभेकत्वे का प्रत्याशा । गदृश्यसंबन्धाऽयोगादनन्तानिचनीयानां काल्पनिकतादात्म्याश्रयणापेक्षया तत्तदाकारगुत्पत्तेरेव लघुत्वेन वक्तुं युक्तत्त्वात् । [ स्वप्नज्ञानीय पदार्थ में सर्वत्र मिथ्यात्वबुद्धि असिद्ध ] यदि यह कहा जाय कि-'उक्त गौरव फलानुगुण होने से दोष नहीं माना जा सकता क्योंकि उक्त कल्पना मलने पर एक मिद्राोष की निसि होने पर भी स्वप्नायगत अर्थ में मिध्यात्वज्ञान को उपपति होती है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शुभाइष्ट से जहां किसो मावि अर्थ का स्वप्नज्ञान होता है और वह जानतकाल में अवश्य होने वाला है, उस अर्थ में निद्रादोष की निवृत्ति हो जाने पर भी मिथ्यात्वज्ञान नहीं होता। अतः निन्द्रानिवत्ति को स्वप्नावगत अर्थ में मिथ्यात्वद्धि का कारण नहीं माना जा सकता। यदि निवाविशेष को निवृत्ति को निद्राविशेषजन्य स्वप्नदृष्ट अर्थों में मिथ्यात्व प्रतिपत्ति का कारण माना जाय तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि हेतुविशेष के विना निद्वाविशेष की उपपत्ति नहीं हो सकती। अत: इस कल्पना के लिये निद्राविशेष के कारण विशेष की कल्पना करनी होगी जो दुर्वच है। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि यदि स्वाप्निपदार्थ मूलाज्ञान से जीव में अध्यस्त होगा तो जाग्रदशा में जीव में मूलाज्ञान से अव्यस्त होने घाले वस्तु के समान होगा, अतः जाग्नदशा में मोदकभक्षणजन्य जैसा सुख होता है स्वप्नदशा में भी उसी प्रकार के सुख को आपत्ति होगी। अतः यह न्याय बल से प्रसक्त होगा कि जो पाशामोदक यानी काल्पनिक लड्डु से तृप्त होते हैं और जो वास्तवमोदक का भक्षण करते हैं उन दोनों में प्रतीयमान मोदकों में साम्य मानने पर समानरूप से रस-बीर्थ-विपाकादि की प्रसक्ति होगी। यदि यह कहा जाय फि-'जाग्रत्कालीन सुख और स्वप्नकालीन सुख दोनों प्रमातृचैतन्य में अध्यस्त होने से यद्यपि तुल्य है तथापि एक सत्यमोद कभक्षणजन्य है और एक असत्यमोदकभक्षणजन्य है अतः उन दोनों में वैलक्षण्य न्यायसङ्गत है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तुल्य अज्ञान से जन्य होने के कारण मोदकों में भी तुल्यता होने से उसमें सत्यासत्य का भेव नहीं हो सकता। बाह्म और प्रान्तर रूप से भी जाग्रत्कालिक मोदक और स्वामकालीन मोदक में अन्तर नहीं हो सकता क्योंकि स्वप्नकालीन मोदक में भो बहिष्टद का अनुभव होता है । स्वप्नमोदक में बहिष्ट्र को प्रध्यस्त कह कर भो उसमें जाग्रत्कालोनमोदक का वैलक्षप्य नहीं उपपन्न किया जा सकता क्योंकि जाग्नत् मोदक में भी बहिष्व अध्यस्त ही होता है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो०७ यदि यह कहा जाय कि “एक हो सत्यमोदक में बहु लोगों को बहिष्ट्य का अनुभव होता है। प्रत एव उसमें बहिण्टव को पारोपित नहीं माना जा सकता"-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वप्न में भी यह बात समानरूप से कही जा सकती है, अर्थात् स्वप्न में दृश्यमाण एक मोदक में स्वप्नावस्था में अनेक मनुष्य को बहिष्टव का दर्शन होता है क्योंकि निद्रित मनुष्य यह अनुभव करता है कि जिस मोदक को यह देख रहा है उसे उसकी स्वप्नावस्था में दोखने वाले अन्य अनेक मनुष्य भी देख रहे हैं। यदि यतका कहा जाय कि-"स्वप्न में भिन्न भिन्न दृष्टासन्तान को दीखाई देने वाला मोदक एक नहीं किन्तु अनेक होता है"-तो यह प्राशा भी कैसे की जा सकती है, कि जाग्रदयस्था में विभिन्न घटासन्तानों में दिखाई वेने वाला मोदक एक ही होता है। अतः दृग् और दृश्य में सम्बन्ध को अनुपपत्ति से हग में दृश्य के अनन्त अनिर्वचनीय पदार्थों के काल्पनिक तादात्म्य का अभ्युपगम करने की अपेक्षा लाधष के कारण तत्तदृश्याकार दृफ की उत्पत्ति मानना ही युक्तिसङ्गत है। क्योंकि वेदान्तमत में तत्तदाकार हग के स्थान में तत्तदाकारवृत्ति की उत्पत्ति माननी पड़ती है, अत एव तत्तदाकार हा पौर तत्तदाकारत्ति की कल्पना में साम्य है। किन्तु वेदान्तमत में हग के साथ तत्तत्पदार्थ के काल्पनिक तादात्म्य की भी कल्पना करनी पड़ती है अतः उसमें गौरव स्पष्ट है। "ष्टमेवेदं दृष्टिसृष्टिवादे, तथाहि नास्मिन् मते चैतन्यातिरिक्तपदार्थानामझातसत्त्व मस्ति, मिथ्यात्वस्य स्वप्नादिदृष्टान्तसिद्धत्वात् , तादृशस्यैव सत्त्वस्याङ्गीकारात् । एवं च 'घटादीनां यदा प्रतीतिस्तदा सत्त्वं नान्यदा, इति न दण्डादिजन्यत्वम्, किन्त्वज्ञानमात्रजन्यत्वं, स्वप्नवञ्च दण्डाधुपादानम् , अज्ञानदेवादिकं तु भासमानमेव तिष्ठति, अभावनिश्चयाभावाच्च पुत्राद्यभावकृतरोदनाद्यप्रसङ्गः, प्रत्यभिज्ञानमपि भ्रम एव, ततश्चाकाशादिक्रमेण सृष्टिः पश्चीकरणं ब्रह्माण्डाद्यत्पत्तिः इत्यादिकं मतान्तरे देवतारिग्रहन्यायसिद्धमपि नास्मिन् मते दृष्टिव्यतिरेकेण सिध्यति । अत एवार्थानां नानेकप्रमाणवेद्यत्यम् , किन्तु 'चक्षुपा पश्यामि' इत्यादि व्यवहारस्य स्वप्नतुल्यत्वात् सुखादिवत् केवलसाक्षिवेद्यत्वम् । 'कथं तर्हि घटादेपरोक्षत्वम् , वहन्यादेश्च परोक्षत्वम्, अज्ञानजन्यत्वस्य साक्षिण्यध्यस्तत्त्वस्य च तुल्यत्वात् ?' इति चेत् ? वहन्यादौ परोक्षवस्याप्यध्यस्तत्वाद् विशेषसिद्धेः । न च बौद्धमतप्रवेशः, अधिष्ठानस्य स्थायिवात् , अबाधितखाच्च । अज्ञानस्याप्यनादेः सकलदृष्टिदेतोरङ्गीकारात्' इति चेत् ? [दृष्टिसृष्टिवादी वेदान्ती का पूर्वपक्ष ] उक्त कयन के प्रतिकार में वेदान्ती की ओर से यदि यह कहा जाय कि-"तत्तदाकार दृग् को उत्पत्ति दृष्टिसृष्टिवाद में इष्ट ही है, क्योंकि इस मत में चैतन्य से अतिरिक्त पदार्थ की अज्ञात सत्ता नहीं है। इन पदार्थों में स्वप्नादि के दृष्टान्त मे मिथ्यात्व सिद्ध है। धयोंकि स्वप्नादि में दृश्यमाण पदार्थ की जैसी सत्ता होती है वैसी ही सत्ता जागृतिकाल में दृश्यमान पदार्थ में भी होती है । इस प्रकार इस मत में अब घटादि की प्रतीति होती है तभी घटादि की सत्ता होती है, अन्यकाल में नहीं होती। इसीलिये घटादि दण्डादिजन्य नहीं होता किन्तु अज्ञानमात्रजन्य होता है । घटादि के उत्पादनार्थ कुम्हार द्वारा जो दण्डादिग्रहण की बुद्धि होती है वह स्वप्न में होने वाले दहा विग्रहण Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] के तुल्य है । अज्ञान-देहादि सर्वदा भासमान ही होता है। पुत्रादि को अप्रतीतिकाल में पुत्रादि का अभाव होने पर भी रुवनादि का प्रसङ्ग नहीं हो सकता । क्योंकि रुदनावि के प्रति पुत्रादि के अभाव का निश्चय कारण है और वह पुत्रादि को अप्रतीतिकाल में नहीं होता। इस मत में 'लदेवेदम् यह प्रत्यभिज्ञा भो भ्रम है। आकाश वायु आदि के क्रम से मूतों को सृष्टि-आकाशादि का पन्नीकरण और ब्रह्माण्डादि को उत्पत्ति ये सब इस मत में उसी प्रकार सिद्ध होता है जैसे मीमांसकों के मत में देवतादि का विग्रहशरीर सिद्ध होता है। इसलिये इस मत में दृष्टि के प्रभाव में दृश्य की सिद्धि नहीं होती। [ देवताशरीरवत् दृष्टिसृष्टिवाद में दृश्य का अभाव ] कहने का आशय यह है कि मीमांपादन में देवता को सशरीदी नहीं माना जाता क्योंकि शरोरवान मानने पर एक ही काल में सुदरबत्तौ विभिन्नकर्मस्थलों में शरीरवान देवता की उपस्थिति नहीं हो सकती। अत: यह माना जाता है कि देवता वस्तुतः अशरीर है किन्तु तत्तत्कमकाल में सदेह देवता की उपस्थिति को बद्धि होती है । अर्थात देवता का वास्तविक शरीर नहीं है किन्तु वैज्ञानिक शरीर है। ठीक उसी प्रकार दृष्टिसष्टिवाद में दृष्टि के अभाव में दृश्य को सत्ता नहीं होता फिन्तु दृश्य और दृष्टि दोनों की प्रज्ञान द्वारा सहोत्पत्ति होती है। इसीलिये इस मत में प्रथ में अनेकप्रमाणवेधता नहीं होती। जागतिकाल में जो 'चक्षुषा पश्यामि' यह व्यवहार होता है यह स्वप्न में जैसे चक्षुजन्य दर्शन न होने पर चक्षुर्जन्यत्वेन दर्शन का व्यवहार होता है, ठीक उसीप्रकार जाग्रत्काल में भी उक्त व्यवहार होता है । इसीलिये इस मत में सुखादि के समान सर्वपदार्थ केवल साक्षिवेद्य है।-व्यवहार का उक्त रीति से समर्थन करने पर यह प्रश्न होता है कि-'यदि अर्थ का दशन चक्षुआदि से नहीं होता तो निकट से दृश्यमान घटादि को अपरोक्षता और दूर से अनुमीयमान वह्नि आदि को परोक्षता कैसे हो सकती है ? षयोंकि अज्ञानजन्यता और साक्षि में प्रध्यस्तता दोनों में समान है ।" तो इसका उत्तर यह है कि वह्नि आदि में परोक्षता भी अध्यस्त है । इसलिए अपरोक्ष घटादि और परोक्ष वह्वयादि में बौलक्षण्य की सिद्धि होती है। यदि यह कहा जाय कि-'वह्नि आदि में परोक्षता का अध्यास मानने पर अध्यस्ताधिष्ठानक अध्यास अभ्युपगत होगा अतः बौद्धमत का प्रवेश होगा क्योंकि शून्यबादी बोद्धमत में अध्यस्ताधिष्ठानक हो श्रध्यास होता है"-तो यह ठीक नहीं है । वेदान्त मत में अधिष्ठान स्थायी और अबाधित होता है । जब कि बौद्ध मत में अधिष्ठान अस्थायी और बाधित होता है । इस मत में सम्पूर्ण दृश्य का हेतुसूत अनावि अज्ञान मान्य है जब कि बौद्धमत में इस प्रकार के अज्ञान की मान्यता नहीं है ।" न, अधिष्ठानस्य स्थायित्स्वासिद्धः, नीलाद्याकाणाऽस्थायित्वदर्शनात् । 'नीलाद्याकाराः स्वाध्यस्ता अतिरिक्ता एव, साक्षी तु चिद्रूपः स्थायी ति चेत् ? न, नीलादिविनिमुक्तस्य चिद्रूपस्याभासमानत्वेनाऽसच्चात् । 'नीलपीतादिभानानुगतं चिद्रपमेव स्थायी ति चेत् ? तर्हि नीलादिरूपमपि प्रतिप्रपात्रनुगतं स्थायीभवेत् । 'संतानभेदाद् नीलादिभेद'श्चेत् । नीलाद्याकारभेदाच्चिद्रूपस्यापि किं न भेदः १ । अज्ञानमपि नानादिसकलदृष्टिहेतुः, नित्यस्य क्रमिकनानादृष्टिहेतुत्वानुपपत्तः, कारणान्तरविलम्याभावादेकस्मादेकदैव सर्वोत्पचिप्रसङ्गात् । 'तजनित Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ताः स्त०८ श्लो. ७ क्रमिकाज्ञानेभ्यः कार्यभेदनिर्वाह' इति चेत । न, एकस्य तस्य जन्यनानाऽज्ञानजननेऽप्यस्य प्रसङ्गस्य तुल्यत्वात् । 'कालभेदान ततो भिन्नभिन्नकार्योत्पत्तिसंभव' इति चेत् ? कालभेदादेव तहि कार्यभेदनि हे दत्तोऽशानाय जलाञ्जलिः । न चैकस्य स्वभावभेदं विना कालभेदस्यापि सहकार, ल च गामनादित्वेनेति । [दृष्टिसृष्टिवाद का प्रतिक्षेप-उत्तर पक्ष ) दृष्टिसृष्टिवाद पर अवलम्बित वेदान्ती का उक्त कथन समीचीन नहीं है क्योंकि 'नीलं सत्' 'पीतं सत्' इत्यादि प्रतोति के अनुरोध से अधिष्ठानभूत सत नीलाथाकार होता है और नीलाधाकार 'नीलं नष्टम् पोतं नष्टम, इत्यादि प्रतीति के अनुरोध से अस्थायी होता है अतः नीलाद्याकार से सद्रूप अधिष्ठान में अस्थायित्व का दर्शन होने से अधिष्ठान का स्थायित्व असिद्ध है । _ यदि यह कहा जाय कि-"नीलाघाकार चैतन्य में अध्यस्त है, चैतन्य से अतिरिक्त है; और साक्षि चिद्रूप एवं स्थायि है और वही दृष्टि सष्टिघाव में समस्त पदार्थों के अध्यास का अधिष्ठान है। अतः नीलाद्याकार के अस्थायी होने से अधिष्ठान की अस्थायिता नहीं सिद्ध होती।"-तो यह ठोक नहीं है। क्योंकि नीलादि से मुक्त चिद्रप की प्रतीति नहीं होती अतः नीलादिमुषत चिद्रूप को सत्ता है ही नहीं। - यदि यह कहा जाय कि-"ऐसा नियम है-'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यत्र ब्रह्म न भासते' =ऐसी काई प्रतीति नहीं है जिसमें ब्रह्म का भान नहीं होता, क्योंकि घटायाकार वत्त्यात्मक ज्ञान यदि घटाद्यवच्छिन्न चैतन्यवियषक नहीं होगा तो उससे उक्त चैतन्यविषयक अज्ञान की निवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि समानविषय ही अज्ञान और शान में निवत्य निवर्तभाव होता है यह नियम है, इस नियम के अनुसार नीलपीताविविषयक सभी ज्ञानों में एक अनुगत चैतन्य भासित होता है और इसलिये यह चंतन्य स्थायी है'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सभी प्रमाता के प्रति एक अनुगत नोलादिरूप की भी स्थायिता हो जायगी। क्योंकि विभिन्नकाल में एक ही नील का अनेक प्रमाताओं को अनुभव होता है । यदि यह कहा जाय कि 'सन्तानभेव स-प्रमातृभेद से नीलादि में भेद है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार भेद मानने पर नीलादि आकार के भेद से चिद्रूप में भेव क्यों न होगा? [एक ही काल में एक अज्ञान से सकल कार्य आपत्ति ] __यह जो कहा गया कि 'अनादि प्रज्ञान सफल दृष्टि का हेतु है' वह भी ठीक नहीं है क्योंकि नित्य-स्थायो अज्ञान क्रमिक विविध दृष्टि का हेतु नहीं हो सकता। क्योंकि कारणान्तर का विलम्ब सम्भव न होने से एक कारण से एक काल में ही उसके सम्पूर्ण कार्यों की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा। यदि यह कहा जरय कि-'अज्ञान से क्रमशः उत्पन्न होने वाले अज्ञानों से कार्य विशेष का निर्वाह होगा"तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अकेले एक प्रज्ञान से जन्य विविध अज्ञान का अभ्युपगम करने पर भी एक ही काल में नाना अज्ञानों की उत्पति का प्रसंगरूप दोष समान है। कालभेड से भी अज्ञान द्वारा क्रमिक भिन्न-भिन्न कार्यों की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि कालभेव से कार्यभेद मानने पर अज्ञान को ही जलाञ्जली हो जायगी क्योंकि तब जो कार्य कालभेव से हुआ किन्तु अज्ञान से नहीं । दूसरी बात यह है कि यदि प्रज्ञान में स्वभावभेद नहीं माना जायगा तो काल भेद उसका सहकारी भी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] नहीं हो सकता हो सकेगी। श्राशय यह है कि यदि तत्तत्काल में अज्ञान में स्वभावभेद का आधान नहीं होगा तो सभी काल में अज्ञान एकरूप ही रहेगा । अतः विभिनकाल में होने वाले कार्यों को एककाल में हो उत्पत्ति की प्रापति होगी। क्योंकि faraकालों में विभिन्न कार्यों का उत्पादक जो प्रज्ञान वह सर्वत्र एकरूप है । यदि कालभेद से अज्ञान में स्वभावभेद का आधान माना जायगा तो स्वभावभेव सावि ( श्रादि वाला) होने से तदात्मना अज्ञान भी सादि हो जायगा । श्रतः श्रज्ञान को अनादिता समाप्त हो जायगी । १२१ " किञ्च, एवं लोकसिद्धदण्ड घटादिकार्यकारणभाववत् शब्द सिद्धयागस्वर्गाद्यगम्यागमननरकादिसाध्यसाधनभावस्यापि स्वानिकतुल्यत्वात् वेदान्तेष्वप्यनाश्वासप्रसङ्गाच्च वेदान्तिन यथेष्टाचरणप्रसङ्गात् । यदि हि विहितात् स्वर्गः निषिद्धाद् नस्को वा न स्याद, किमर्थं तहिं विहितमनुतिष्ठन्तः निषिद्धं चाऽवर्जयन्तः क्लिश्येरन् ! इति । अपि च, अनात्मदृष्टिसृष्टेरनवसानप्रसङ्गः । न चाधिष्ठानज्ञानात् तदवसानम्, तद्धेत्वभावात् । 'अज्ञानं तद्धेतुरिति चेत् १ ज्ञानतोऽमत्यपि दण्डादौ घटाद्युत्पत्तिवत् शापाद्यसवेऽपि तत एवाधिष्ठानज्ञानोत्पत्तेः शमाधननुष्ठानप्रसङ्गात् । 'भ्रान्त्या तदनुष्ठानमिति चेत् १ न सकृद्वेदान्तार्थश्रवणवतां तदभावप्रसङ्गात् । न च प्राथमिकपदप्रतिभासे दण्डाद्यपेक्षावत् प्राथमिकाऽधिष्ठानज्ञाने शमाद्यपेतोपपत्तिः, क्वचित् तावत्प्रतिभासद्दे तूपनिपातेऽपि नियमाsसिद्धेः । [ दृष्टि-सृष्टिवाद में दोष परम्परा ] इस मत में दूसरा दोष यह है कि--जैसे घटादि और दण्डादि में लोकसिद्ध कार्यकारणभाव स्वप्नतुल्य है उसी प्रकार स्वर्गादि का यागादि के साथ एवं नरकादि का अगम्यागमनादि के साथ शास्त्रसिद्ध कार्यकारणभाव भी स्वप्न तुल्य हो जायेगा । एवं शमवमावि में आत्मज्ञानसाधनता के बोधक वेदान्त में भी अनास्था को प्रसक्ति होगी। फलतः यथेष्टाचरण में वेदान्ती की प्रवृत्ति का प्रसङ्ग होगा । एवं यदि विहित कर्म से स्वर्ग और निषिद्ध कर्म से नरक नहीं होगा तो मनुष्य विहित कर्म के अनुष्ठान और निषिद्धकर्म के परिवर्जन का क्लेश क्यों करेंगे ! एवं आत्मभिन्न पदार्थों की दृष्टि-सृष्टि का श्रावसान कभी नहीं होगा। इसके प्रतिवाद में यह नहीं कह सकते कि 'अधिष्ठानज्ञान से भी उसका अवसान होगा'-क्योंकि अधिष्ठानज्ञान का कोई हेतु हो नहीं है। "अज्ञान ही अधिष्ठान का हेतु है - यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे इस मत में दण्डादि के प्रभाव में भी श्रज्ञान से घटादि की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार शमदमादि के अभाव में भी अज्ञान से ही अधिष्ठानज्ञान की उत्पत्ति हो जाने से शमदमादि का अनुष्ठान अनावश्यक हो जायगा । यदि यह कहा जाय कि' शमदमादि में अधिष्ठानज्ञानसाधनता के भ्रम से शमदमादि का अनुष्ठान होता है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जो लोग एक बार वेदान्तार्थ का श्रवण कर लेंगे उन में शमदमादि के अनुष्ठानाभाव का प्रसङ्ग होगा क्योंकि श्रवणादि की आवृत्ति में वेदान्तबोध्य श्रधिष्ठानज्ञानसाधनता भी स्वाप्तिक साधनता तुल्य है, अधिष्ठानज्ञान केवल प्रज्ञान से ही होता है । यदि यह कहा जाय कि 'जैसे घट के प्राथमिक प्रतिभास में दण्डादि की अपेक्षा होती है किन्तु द्वितीयादि प्रतिभास में नहीं होती, उसी प्रकार अधिष्ठान के प्राथमिक ज्ञान में शमदमादि की अपेक्षा होगी' तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०७ किसी एक प्रतिभास में उतने हेतुओं का संनिधान हो जाने पर भी वे सब प्रतिभास के कारण हैं।' इस नियम की सिद्धि नहीं हो सकेगी। अतः शमदमादि और श्रवणादि की आवत्ति के अभाव के प्रसंग का परिहार नहीं हो सकता।। किच, भ्रमहेतोरज्ञानाद् नाधिष्ठानज्ञानोत्पत्तिरन्यत्र दृष्टा । न हि शुक्त्यज्ञानाद् रजतभ्रमः, तत एव च शुक्तिज्ञानमिति । 'अविद्यया मृत्यु तीा-शास्त्रात् तथा कल्प्यत' इति चेत् ? न, शास्त्रस्य स्वप्नतुल्यत्वात् , शमाद्यनुपसंग्रहानुद्धाराच । अथ लोकेऽज्ञानातिरिक्तकारणाभावेऽपि वेदेयागादौ म्वर्गादिसाधनता संमतैव । ततश्च यागादेः स्वर्गादिसायनत्वं प्रतीत्यागमनुतिष्ठतामुरपन्नस्य स्वर्गसूक्ष्मरूपस्य यागसूक्ष्मरूपस्य वाऽपूर्वस्य स्वर्गजनकत्वम् , अन्यथाऽव्यवस्थाप्रमङ्गाद, ततश्च वेदान्तेष्वप्याश्वासात् शमादिसंपत्या ब्रह्मज्ञानसिद्धिरिति चेत ? न, लोकसिद्धकार्यकारणभावपरित्यागे वेदेऽप्यनाश्वासात् । न हि स्वप्रयोजनमपेक्ष्यक प्रमाणं अपरं चाप्रमाणं भवितुमर्हति । न च बलववाद या प्रमाण, नतु प्रत्यापिकमिति यायम्, प्रत्यचादिवाधितेऽर्थे वेदाऽप्रामाण्येन प्रत्यक्षादीनामेव वलयत्वात् । [ श्रमोत्पादक अज्ञान से अधिष्ठानज्ञान का असंभव ] दूसरी बात यह भी है कि जिस अज्ञान से भ्रम की उत्पत्ति होती है उससे अधिष्ठान ज्ञान को उत्पत्ति कहीं अन्यत्र नहीं देखी गयी है क्योंकि जिस शुक्ति के अज्ञान से रजतभ्रम होता है उसी से शुक्तिज्ञान कभी नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि 'अविद्यया मत्युतीत्वा विद्ययामतमश्नुते' =मुमुक्षु अविद्या से मृत्यु-देहात्मतादात्म्यभ्रम को दूर कर विद्या से अमतत्व को प्राप्त करता है इस शास्त्र के अनुरोध से भ्रम फे हेतुभूतअज्ञान से अयिष्ठानज्ञानोत्पत्ति की कल्पना की जा सकती है"-- तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि दृष्टिसष्टिवाद में शास्त्र भी स्वप्नतुल्य है। साथ ही शमदमादि की अनुपादेयता की अम्पत्ति का उद्धार फिर भी नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-'लोक में यद्यपि पदार्थ का, प्रज्ञान से अतिरिक्त, कोई कारण मान्य नहीं है किन्तु पेव में यागादि की स्वर्गादिसाधगता मान्य है । अतः वेद से यागादि में स्वर्गादिसाधनता का ज्ञान प्राप्त कर याग का अनुष्ठान करने वालों को सूक्ष्मस्वर्गरूप अथवा सुक्ष्मयागरूप अपूर्व उत्पन्न होता है और वही कालान्तर में स्वर्ग का जनक होता है । क्योंकि ऐसा न मानने पर अव्यवस्था हो जायगी । अर्थात याचादि के अनुष्ठान न करने वालों को भी स्वर्गादि की प्राप्ति का प्रसङ्ग होगा। इस प्रकार वेदान्तों में भी विश्वास होने से अर्थात् शमवमादि आत्मज्ञान का कारण है-इस वेदान्तोपदेश पर आस्था होने से शमावि के सम्पादन द्वारा ब्रह्मज्ञान की सिद्धि होगी।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि लोफसिद्ध कार्यकारणभाव का परित्याग करने पर वेदनोध्य कार्यकारणभाव में भी शनवास अनिवार्य योंकि समान दो वस्तु में, व्यक्ति के अपने प्रयोजन के प्राधार पर एक प्रमाण और दूसरा प्रप्रमाण नहीं हो सकता। 'वेद बलवान् होने से प्रमाण है-यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित अर्थ में वेद अप्रमार होने से प्रत्यक्षादि प्रमाण हो वेद की अपेक्षा बलवान् है । किच, याग स्वर्गादिहेतुहेतुमद्भाव प्रतिपादयन वेदः स्वप्नयागस्वर्गयोपि हेतु-हेतुमद्भावं Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १२३ किं न बोधयेत् ? । 'तत्र वेदाप्रामाण्यादिति चेत् ? कुन तर्हि तस्प्रामाण्यम् ? । 'तद्विलक्षणयाग-स्वयोरिति चेत् । न, आभासमानसच्यानङ्गीकारे तद्वैलक्षण्यासिद्धे, सिद्धौ वा दण्डघटादेपि कार्यकारणभावः सिस्येत् । किञ्च, मागएि लायसिद्धबात कथमभ्युपेयम् । "अज्ञानकारणत्यात साक्षिसिद्धमेव तत्, उक्तं हि संस्कारस्य साक्षिसिद्धत्वममियुक्तः 'सुप्तेऽस्मिन् विषयग्रामे योऽसुप्तोऽलुप्तदृष्टितः । वासनारूपकान पश्यन् प्राणान् प्राणिति वायुना ॥ भावनाकारकेक्षित्वादात्मैकः कारकायते ॥' इत्यादाविति" चेत् ? न, सूक्ष्मरूपेण साक्षिसिद्धत्वे तस्य श्रद्धामात्राद, अन्यथा घटादिज्ञानोत्तरमपि सूक्ष्मरूपेण तद्भानोपगमप्रसङ्गश्त । [स्वप्न में किये गये याग से स्वर्गोत्पत्ति का प्रसंग ] इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि वेद यदि सामान्यरूप से स्वर्ग-यागादि में कार्यकारणभाव का प्रतिपादन करेगा तो स्वाप्निक स्वर्ग और स्वाप्निकयाग के कार्यकारणभाव का क्यों नहीं करेगा? यदि यह कहा जाय कि-स्वाप्निकस्वर्ग और स्वाप्निकयाग के कार्यकारणभाव में वेव अप्रमाण है-तो यह बताना होगा कि वेद किसमें प्रमाण है ? यदि कहा जाय कि-'स्वाप्निक स्वर्ग और स्वास्निकयाग से विलक्षण स्वर्गयाग को कारणता में वेद प्रमाण है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रतीयमान की सत्ता का स्वीकार न करने पर स्वाप्निक स्वर्गयागादि और जानरकालीन स्वर्गयामादि में लक्षप्य की सिद्धि नहीं हो सकती और यदि सिद्धि होगी तो स्थानिक घट-दण्डादि से जाग्रत्कालीन घट-दण्डादि में भी वैलक्षण्य सिद्ध होने से घटादि-दण्डावि में भी कार्यकारणभाव की सिद्धि हो जायगी। इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि मागादिजन्य अपूर्व भी साक्षिसिद्ध नहीं है-अतः उसका भी अभ्युपगम कैसे किया जा सकता है ? और उसके बिना यागादि से कालान्तर में स्वर्गोत्पत्ति कैसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि-'अपूर्व अज्ञानकारक है अतः प्रज्ञानकारक शुक्तिरजतादि के समान वह भी साक्षि सिद्ध ही है। क्योंकि मान्य आचार्यों ने संसार को भी साक्षिसिद्ध है जैसे उनका कहना है कि-सषप्ति के समय जब सम्पूर्ण विषय सप्त अज्ञान में लीन हो जाता है तब भी श्रात्मा प्रसुप्त रहती है अर्थात् जाग्रत्काल के समान ही अवस्थित रहता है । उसकी चैतन्यात्मक दृष्टि लुप्त नहीं हो सकती । अतः उस समय भी यह वासना स्प में विनमान प्राणों का अनुभव करता है और वायु से श्वास-प्रश्वास भी लेता है। उस समय भावनामत्क ईक्षण:संस्काररूप में वस्तु के दर्शन का कर्ता होने से एक आत्मर ही कारकरूप में अवस्थित रहता हैकिन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'पदार्थ सूक्ष्म रूप से साक्षिवेध होता है इसमें केवल श्रद्धा ही प्रमाण हो सकती है । यदि वस्तु का सूक्ष्मरूप में अवस्थान माना जायगा तो घटादिज्ञान के बाद भी लक्ष्मरूप से घटादिभान के अस्तित्व का अभ्युपगम प्रसक्त होगा। किश्च, अस्मिन पक्षे परचित्ताऽग्रहणे परं प्रति पर्यनुयोगाप्रसङ्गः, तद्ग्रहणं च Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता ० स्त० ८ इलो० ७ स्वाध्यस्तत्वेनेति स्व- परचित्तङ्गः । स्वचितं परकीयत्वमध्यस्थ कथायां त्वच्यवस्था | तस्माद दृष्टिसृष्टिवादेऽपि वेदान्तिनां शून्यतावादाद् न विशिष्यते । तथा च सुष्ठुपहसितमेतत्"प्रत्यक्षादिप्रसिद्धार्थविरुद्धार्थाभिधायिनः । वेदान्ता यदि शास्त्राणि बौद्धः किमपराभ्यते १ ॥” इति । दूसरी बात यह है कि इस पक्ष में दृष्टिसृष्टिवाद में पदार्थ को अज्ञात सत्ता नहीं होती, दूसरी और परचित्त का ग्रहण अनुमानसाध्य होता है और अनुमान गृहीत लिङ्ग से अगृहीतसाध्य में ही प्रवृत्त होता है । किन्तु इस मत में अगृहीतः अज्ञात की सत्ता सम्भव नहीं है अतः परचित्त का ग्रहण न हो सकने से पर के प्रति प्रश्न की अनुपपत्ति होगी। यदि परचित्त को भी स्व में अध्यस्त मानकर उसके ग्रहण का अभ्युपगम किया जायगा तो स्वचित्त और परचित में सांकर्य का प्रसङ्ग होगा । अर्थात् स्वचित्तगतभावों के समान परचित्तगतभावों के ग्रहण की भी प्रसक्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि - 'परचित्त का अस्तित्व ही नहीं है' किन्तु स्वचित्त में ही परकीयत्व का अभ्यास कर कथा होती है तो ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर जयपराजयादि की व्यवस्था न हो सकेगी । १२४ freni यह है कि उपर्युक विचारों के अनुसार वेदान्तीओं का दृष्टिसृष्टिवाद बौद्धों के शून्यतावाद से भिन्न नहीं सिद्ध होता । अतः इस मत का विद्वानों ने यह कहते हुये उचित हो उपहास किया है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रसिद्ध अर्थ से विरुद्ध अर्थ का अभियान करने वाले 'वेदान्त' यदि प्रमाणभूत शास्त्र हो सकते हैं तो फिर बौद्धों का क्या अपराध है कि उनके शास्त्र को प्रमाणभूत शास्त्र न माना जाय ? अपि च, अविद्यायामेव मानाभावाद् विशीर्यते सबै तन्मूलं वेदान्तिमतम् । न च 'न जानामि' इत्यनुगतः प्रत्ययस्तत्र मानम् ' अहम् अहम्' इत्यनुगतमत्यात्वस्याप्यनुगतस्य सिद्धयापतेः । न च न जानामि' इत्यत्रानुगत विषयानुपपत्तिरप्यस्मान् प्रति सिद्धा, सर्वात्मना स्वरूपज्ञानाभावस्य सर्वत्रानुगतत्वाद, सर्वात्मना स्वरूपज्ञानस्यानुवृत्ति-व्यावृत्तिपर्यायद्वारा सर्वज्ञान नियतत्वाद्, विना सर्वज्ञं कुत्राप्यर्थे तदनुपपत्तेः । तदयमाचाशंगे [३-४-११२] परस्परसमनियमाभिप्रायः परमर्षिवचनोद्गारः- “जे एगं जाणइ से सच्चं बाण, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ" इति । मुख्य बात यह है कि श्रविद्या के अस्तित्व में कोई प्रमाण नहीं है । अतः अविद्यामूलक सम्पूर्ण वेदान्तमत अनायास निरस्त हो जाता है। जो विद्या के सम्बन्ध में 'न जातामि' इस अनुगत प्रत्यय को प्रमाण कहा गया यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि, यदि 'घटं न जानामि' 'पटं न जानामि' इत्यादि प्रतोतियों को 'न जानामि' इस अंश में समान होने से उन प्रतीतिओं से यदि एक अनुगत अज्ञान (अविद्या) की सिद्धि की जायगी तो 'अहं घटं जानामि' 'अहं पटं ज्ञानामि' इत्यादि प्रतीतियां 'अहं' इस श्रंश में समान होने से एक धनुगत अहंत्व की भी सिद्धि की आपत्ति होगी। जिसके फलस्वरूप अमर्थ में भिन्नता का लोप हो जायगा । एवं अविद्या के समान महत्व भी अनावि सिद्ध होगा । [ व एक जानाति स सर्वं जानाति यः सर्वं जानाति स एक जानाति । ] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १२५ । दूसरी बात यह है कि-'प्रज्ञान का अभ्युपगम न करने पर 'न जानामि' इन प्रतोतिओं में अनुगत विषय को अनुपपत्ति होती हैं-यह बात भी जैनष्टि से प्रसिद्ध है, क्योंकि जैन मत में 'सर्वात्मनास्वरूपज्ञानाभाव' ही 'न जानामि' इस प्रकार की सभी प्रतीतियों का अनुगत विषय है और यह अनुपपन्न भी नहीं है क्योंकि अनसनि-रान्ति पर्यायों द्वारा सर्वात्मना स्वरूपज्ञान सर्वविषयकज्ञान नियत है, अतः सर्वज्ञ को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को किसी भी पदार्थ का सर्वाश्मना स्वरूपज्ञान नहीं हो सकता। अतः असमात्र में सर्वात्मना स्वरूपज्ञानाभाव सम्भव होने से उसे न जानामि इस प्रतीति का अनुगतविषय मानने में कोई बाधा नहीं है। जैसा कि आगम-'आचाराङ्ग' नामक प्रथम अङ्ग में एकवस्तु के सर्वात्मना ज्ञान और सर्ववस्तुत्रों के ज्ञान में समध्यापकत्व के अभिप्राय से परमषि का यह बचनोद्गार उपलब्ध होता है कि-"जो एक वस्तु को (सर्वांश में) जानता है वह सम्पूर्ण यस्तुओं को जानता है और जो सम्पूर्ण वस्तुसों को जानता है वही एक वस्तु को (साँव में) जानता है।" ___ घटज्ञानादिनियर्त्यमपि मिथ्याज्ञानरूपं सम्यग्ज्ञानप्रागभावरूपं वाऽज्ञानं त्यतिरिक्तम् | परेषां तु घटादिज्ञानात् तदज्ञानाऽनिवृत्तिप्रसङ्गः, अनुगताज्ञानस्य चुक्तावेवनिवृत्तेः । न च घटज्ञाना(द )घटविपयतामात्रस्य निवृत्ति ज्ञानस्य, यथा परेषा घटनाशे घटसंबन्धनाशः सत्ताया इति वाच्यम् , दृष्टान्तस्यैवाऽसंप्रतिपत्तः। न हि घटनाशे स्वरूपात्मकपटसंवन्धनाशो न तु सत्तानाश इति जैनाः प्रतिपद्यन्ते, न चोत्पाद-व्यय-ध्रौव्यपरिगतरूपयहिस्कृतां सत्तामेव प्रमाणयन्तीति । न च घटविषयतानिवृत्तिरपि सुवचा, स्वभावभूताया घटसंपृक्तावरणजनकतारूपायास्तस्या निःस्वभाववतोऽनिवृत्ती निवतीयतुमशक्यत्वादिति । विषयाऽस्फुरणप्रयोजकतयापि न तसिद्धिा, विषयस्फुरणस्वभाव एवात्मन्यभ्युपगम्यमाने परनिमित्ततदस्फुरणस्वभावनिर्वाहाय तत्प्रतिबन्धकज्ञानावग्णकर्मकल्पनौचित्यात् । तदस्फुरणस्वभावे तु किं स्फुरणप्रतिवन्धकेन ? न हि प्रतिबन्धकनिवृत्यापि तदस्वफुरणम्भावस्य तत्स्फोरकस्वं नाम, मणिनिवृत्तावपि दाइकस्य दहनस्येवाऽदाहकस्याम्भसो दाहकत्वाऽदशेनादिति । घटज्ञानादि से जो प्रज्ञान निवत्त होता है वह सर्वात्मना स्वरूपज्ञानाभाव रूप प्रज्ञान नहीं किन्तु उससे मिथ्याज्ञानरूप प्रथया सम्यग्ज्ञान के प्रायभात्ररूप प्रज्ञान होता है। वेदान्ती के मत में घटाविज्ञान से संसारदशा में घटादि के अज्ञान की निवृत्ति न होने की अनिष्ट प्रसत्ति होगी। क्योंकि उनके मत में अज्ञान अनुगत है अत एव मुक्ति में ही उसकी निवृति हो सकती है। यदि यह कहा जाय कि घशान से अज्ञान को निवृत्ति नहीं होती किन्तु अज्ञान में घटविषयकत्व की निवृत्ति होती है, जैसे कि न्यायमत में घट का नाश होने पर घर की सत्ता का नाश नहीं होता किन्तु सत्ता के साथ घटसम्बन्ध का नाश होता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैन को यह दृष्टान्त मान्य नहीं है कि'घट का नाश होने पर उसके साथ घर के स्वरूपात्मक सम्बन्ध का तो नाश होता है किन्तु सत्ता को नाश नहीं होता।मरी बात यह है कि इनों को उत्पाद-ध्यय-प्रौय नियतस्वरूप से भिन्न सत्ता की प्रामाणिकता भी मान्य नहीं है । वेदासी की ओर से जो यह कहा गया कि घशान से अज्ञान की निवृत्ति नहीं होती किन्तु अज्ञान में घविधयकत्र को निवृत्ति होती है वह भी उचित नहीं है क्योंकि Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] [ शास्त्रवार्ता ० स्त०८ श्लो०७ अज्ञान में घटविषयता घटसम्पृक्कावरण की जनकतारूप है अतः वह श्रज्ञान का स्वभाव है, इसलिये स्वभाव के आश्रयभूत अज्ञान की निवृत्ति न होने पर उसके घटविषयतारूप स्वभाव की निवृत्ति शक्य है । विषय के प्रस्फुरण के प्रयोजकरूप में भी अज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि यदि विषयस्फुरण आत्मा का स्वभाव होगा तो उसमें विषय का प्रस्फुरणस्वभाव किसी अन्य निमित्त से ही मानना होगा । अतः उस अन्य निमित्त के रूप में अज्ञान की कल्पना न कर कर्म द्वारा ज्ञान के आवरण की कल्पना हो उचित है क्योंकि कर्म प्रदृष्ट दोनों मत में क्लृप्त है । यदि विषय का अस्फुरण आत्मा का स्वभाव होगा तो स्फुरण का प्रतिबन्ध मानना व्यर्थ है क्योंकि विषय का अस्फुरण स्वभाव से ही सम्पन्न होगा। दूसरी बात यह है कि स्फुरण के प्रतिबन्धक की निवृत्ति होने पर भी आत्मा विषय का स्कोरक नहीं हो सकेगा क्योंकि विषय का अस्फुरण उसका स्वभाव है क्योंकि जैसे दाह के प्रतिबन्धक मणि की निवृत्ति होने पर भी दाहकस्वभाव श्रग्नि में हो वाहजनकत्व देखा जाता है, प्रवाहक स्वभाव जल में नहीं देखा जाता । * एतेन -- "त्रिवादगोचरतापन्नं प्रमाणज्ञानं स्वप्रागभावव्यतिरिक्तस्वविषयावरणस्वनिव स्वदेशगत वस्त्वन्तरपूर्व कम्, अप्रकाशितार्थप्रकाशकत्वात् अन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावत् । अतीतत्वज्ञानं घटादिज्ञानं चोक्तसाध्यवदिति वेदान्तिनः । नेत्यपरे । इति विवादविषयतापनज्ञानानां पक्षत्वात् सुखादिज्ञाने विवादाभावेनाऽपचत्वाद् न बाधः । उक्त कारण से एवं आगे कहे जाने वाले कारण से वेदान्ती द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले निम्नोक्त महाविद्या अनुमान से भी अज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती । | वेदान्तीओं का अज्ञानसाधक महाविद्या अनुमान - पूर्वपक्ष | arrata का अज्ञानसाधक महाविद्या अनुमान इस प्रकार है 'बियाविषयीभूत प्रमाणज्ञान स्वप्रागभाव से भिन्न, स्वविषयावरण स्वनिवर्त्य, स्वदेशगत अन्य वस्तु पूर्वक होता है क्योंकि वह अप्रकाशित अर्थ का प्रकाशक होता है । जैसे-अन्धकार में प्रथमोपन प्रदीप की प्रभा अन्धकाररूप उक्त अन्य वस्तु पूर्वक होती है ।' इस अनुमान से यह सिद्ध होता है कि विवादास्पद प्रमाणज्ञान के पूर्व ऐसी कोई वस्तु रहती है जो ज्ञान के प्रागभाव से भिन्न और उस ज्ञान के विषय का आवरण एवं उससे निवर्त्य, तथा उस ज्ञान का समानाधिकरण होती है । वेदान्ती का कहना है कि इस प्रकार जो वस्तु प्रमाणज्ञान पूर्व सिद्ध होती है वही अज्ञान है । श्रतोत्थ का ज्ञान और घटादि ज्ञान उक्त साध्य का श्राश्रय होता है - यह वेदान्तोओं का मत है और 'यह ज्ञान उक्त साध्य का श्राश्रय नहीं होता है' यह अन्य दार्शनिकों का मत है । इस प्रकार जिस ज्ञान में उक्त साध्य होने और न होने में वेदान्तो और अन्य दार्शनिकों के मध्य विवाद है, ऐसे विवादविषयीभूतज्ञान को ही पक्ष बनाने के अभिप्राय से प्रमाणज्ञानरूप पक्ष में विवादविषयत्व' विशेषण दिया गया है। जिसका अर्थ है 'साध्यसंशयविषयत्व ।' यदि पक्ष में यह विशेषण न दिया जाय तो सुखादिज्ञान भी पक्षान्तर्गत होगा। दूसरी भोर वेदान्ती के मल में सुखादि की प्रज्ञातसत्ता न होने से उसमें प्रज्ञानरूप उक्त अन्य वस्तु पूर्वकश्व रूप साध्य न होने से ..मपास्तम्' इत्यनेन दीर्घान्वयो बोध्यः । एतत्पदस्य 'स्त्रगृह. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन 1 बाध प्रसक्त होगा। अतः पक्षा में उक्त विशेषण देकर सुखाविज्ञान में पक्षान्तर्गतत्व का परिहार किया गया है। नापि धारावाहिकज्ञाने बाधः, एकस्या एत्र वृत्तरेतावमवस्थानाऽसंभवेन तदभावात , भावे वोक्तविवादगोचरत्वाभावेन पक्षताया अभावात् । न च घटादिनाने स्वविषयस्य घटादेजेंडत्वेन तदावरणाभावाद् वाधा, घटावच्छिनचैतन्यस्यैव धृत्तिरूपघटादिज्ञानविषयत्वात् । अज्ञानेन तत्रावरणजननात, अज्ञानविषयत्ववज्ज्ञानेनापि सत्रैव तमिसिजननाज्ञानविषयत्वो पपत्ते, ज्ञाना-ज्ञानयोः समान विषयत्वप्रसिद्धः, अदरविप्रकर्षण घटादेरुमयविषयस्वव्यपदेशात् । नाप्यनुमितिज्ञाने बाधः, तस्याप्यज्ञाननिवर्तकत्वात् । न च परोक्षज्ञानादशाननिवृत्तावपरोक्षभ्रमनिवृत्तिप्रसङ्गा, इष्टापत्तेः, 'रज्जुरियं न सः' इत्याप्तोपदेशे तद्दर्शनात् । धारावाहिक ज्ञानस्थल में बाघ का निवारण ] धारावाहिकज्ञानस्थल में द्वितीयादिज्ञान में भी बांध नहीं हो सकता, क्योंकि वेदान्तमत में एक ही अर्याकारवृत्ति का लम्बे समय तक अवस्थाम सम्भव होने से उस मत में धारावाहिक ज्ञान का अभाव है। यदि हो तो भी धारावाहिक स्थल में द्वितीय विज्ञान में वेदान्ती को भी प्रज्ञानपूर्वकत्व मान्य न होने से वह विवाद का गोचर नहीं है। अतः वह पक्षान्तर्गत ही नहीं है । यदि यह कहा जाय कि-'घटादि ज्ञान में बाध होगा क्योंकि उसका विषय घटादि जड़ है अत एव उसमें आवरण नहीं है। अत: स्वपद से घटादि ज्ञान को लेने पर स्वविषयावरण को प्रसिद्धि न होने से अन्यत्र प्रसिद्ध स्वविषयावरणधटित साध्य का घटाविज्ञान में अभाव है।'-तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि घटावच्छिन्न चैतन्य ही वृत्तिरूप घटादिज्ञान का विषय होता है और उसका प्रज्ञान से प्रावरण होता है। प्रतः स्वपद से घटादिज्ञान को पकड़ने पर स्वविषयावरण की अप्रसिद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि घटावधिन चैतन्य जैसे अज्ञान का विषय होता है उसी प्रकार घटादिज्ञान का भी विषय होता है; ज्ञान से उसो में अज्ञान की निवृत्ति होती है, वयोंकि ज्ञान और अज्ञान में समानविषयकत्व का नियम है। अज्ञान एवं वृत्तिरूप ज्ञान का घटादि साक्षात् विषय नहीं होता किन्तु उसके विषयभूत चैतन्य से अदूरविप्रकृष्ट यानो संनिहित होने से उसमें उभयविषयत्व को व्यवहार होता है। [ अनुमितिञान में बाध निवारण | अनुमितिरूपज्ञान में भी बाध नहीं हो सकता, क्योंकि यह भी अनुप्रीयमान वस्तु में असत्यागदक अज्ञान का निवर्तक होता है, अतः उसमें उक्त मन्यवस्तु पूर्वकत्वरूप साध्य विद्यमान होता है । आशय यह है कि अज्ञान के दो भेद हैं-(१) असस्वापादक प्रज्ञान और (२) अभानापावक प्रज्ञान । पहले अज्ञान से 'नास्ति' इस व्यवहार का जन्म होता है और दूसरे से न भाति' इस व्यवहार का जन्म होता है । इनमें प्रथम प्रशान की निति अनुमिति आदि परोक्षज्ञान से भी होती है और द्वितीय अज्ञान की निवृत्ति प्रत्यक्षज्ञान से ही होती है । इसीलिये अनुमिति के पूर्व जो पक्षे साध्यं नास्ति' यह व्यवहार होता है वह अनुमिति के बाद नहीं होता, क्योंकि अनुमिति से उस व्यवहार का प्रयोजक अज्ञान नष्ट हो जाता है । पौ साध्यं न भाति' यह व्यवहार तभी अवरुद्ध होता है जब प्रत्यक्ष द्वारा अभानापादक अज्ञान को नियत्ति हो । प्रत्यक्षाज्ञान से दोनों ही प्रकार के ज्ञान की नियति होती है, इसलिये भूतल Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ शास्त्रवार्ता स्त. लो. ७ में घटादि प्रत्यक्ष होने पर 'भूतले घटोनास्ति, भूतले घटो न भाति' दोनों ही व्यवहारों का प्रतिरोध हो जाता है। इस प्रकार अनुमिति रूप ज्ञान में भी प्रज्ञाननिवर्तकता होने से बाध नहीं होता। - इस पर यह शंका हो सकती है कि-'यवि परोक्षज्ञान से प्रज्ञान को निवृत्ति होगी तो परोक्षजान से अपरोक्षभ्रमात्मक प्रत्यक्षविषयीभूत अधिष्ठान में प्रत्यक्षयोग्यवस्तु के भ्रम की निवृत्ति का प्रसंग होगा, क्योंकि भ्रम के उपादानभूत प्रज्ञान का नाश होने पर भ्रम का अवस्थान सम्भव नहीं हो सकता।"-किन्तु यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि 'रज्जुरियं न सर्पः' इस प्राप्तवचन से 'यह रज्जु है सर्प नहीं है। ऐसा परोक्षज्ञान होने पर रज्जु में सर्पभ्रान्ति की निवृत्ति होने से उक्त प्रसङ्ग को इष्टापत्तिरूप में स्वीकृत किया जा सकता है। न च 'पीतः शङ्खः' इत्यादौ चैत्यानुमित्या तदज्ञाने नष्टे भ्रमनिवृत्तिप्रसङ्ग, अस्य भ्रमस्य सोशधिकत्व उपाधेरेयाज्ञाननिवृत्ती प्रतिबन्धकत्वात् । यदि च रविरश्मिभिः सह पित्तधातोः शङ्खदेशं यावद् गमने शङ्खसंपृक्तस्य च तस्य चाक्षुषयोग्यत्वे दोषयशेन च द्रव्याऽग्रहेणेऽपि रूपमात्रग्रहणे मानाभावाद् गौरवाच्च, भ्रमस्य च पीतत्वसंस्कारादेव पित्तदोषसहितादुपपत्तेनाय पित्तोपाधिका, तदा पित्तदोषस्यैव तथात्वादिति । रजतज्ञानेऽपि न बाधः, तस्य सुखादिज्ञानवत् पक्षत्वाभावात् । [ 'पीतः शंख' भ्रम के उच्छेद की शंका का निवारण ] यपि यह कहा जाय कि-'परोक्षजान से अज्ञान की निवृत्ति मानने पर 'पीत: शंखः' इस भ्रमस्थल में शंख में श्वत्य की अनुमिति से श्वैत्य के प्रज्ञान का नाश होने पर पीतः शंखः' इस भ्रम को निवृत्ति का प्रसहोगा।'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शंख में पीतत्व का भ्रम सोपाधिक है अतः उक्त स्थल में उस भ्रम की प्रयोजक उपाधि ही अज्ञाननिवत्ति में प्रतिबन्धक हो जाती है। इस पर यदि यह कहा जाय कि -'उक्त भ्रम पीत्तद्रव्योपाधिक नहीं है अपितु निरुपाधिक है, क्योंकि वह भ्रम पीत्तचोष सहकृत पीतत्वविषयक संस्कार से ही उत्पन्न होता है। यदि वह इसलिये होता हो कि सूर्य से अधिष्ठित चक्षरश्मिओं के साथ नेत्रगत पित्तधातु शंख देश में जाकर शंख पर आवत होता है और उसके चाक्षुष योग्य होने पर भी दोषवश द्रव्यांश का ग्रह न होकर शंख में केवल उसके रूपमात्र का ग्रहण होता है-तो इस बात में कोई प्रमाण नहीं है और गौरव भी है।"- तो इस कथन से भी उक्त आपत्ति का समर्थन नहीं हो सकता क्योंकि पित्तदोष ही अज्ञान की निवत्ति में प्रतिबन्धक है। शुक्तिरजतज्ञान में भी बाध नहीं हो सकता, क्योंकि सुखादिज्ञान के समान विवाद का विषय न होने से उसका भी पक्ष में अन्तर्भाव नहीं होता। साध्ये ज्ञानप्रागभावच्यावृत्यर्थमाद्यं विशेषणम् । न च म्वनिवर्त्यपदेन तद्यावृत्तिः, निवृत्तेः स्वानतिरेकादिति वाच्यम् , 'सादिरनन्तो ध्वंसः' इति मते तदतिरेकात् । उत्तरज्ञाननिवर्त्यपूर्वज्ञानेन भिन्नविषयेण सिद्धसाधनवारणाय स्वविपयावग्णेति । यस्मिन सति ज्ञानविषयो न स्फुरति तत् स्वविषयावरणम् , न च पूर्वज्ञानं तथा, तस्योत्तरज्ञानविषयस्फुरणाभावाप्रयोजकत्वात् । असंभावनाविपरीतभावनात्मका दृष्टव्यावृत्तये तृतीय विशेषणम् । प्रमानिष्ठाऽ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] ज्ञानसिद्धयर्थ 'स्वदेशगते'ति । मिश्याझानं व्यावर्तयितुं 'वस्त्वन्तरे'ति । हेतावपि द्वितीयादिधारावाहिकजाने व्यभिचारवारणाय 'अप्रकाशिते'ति । अप्रकाशितप्रकाशशब्देन म्वविषयावरणनिवृत्तिरूपो व्यवहारो विवक्षितः, न च धारावाहिकद्वितीयादिज्ञाने तद्धेतुत्वमस्ति, स्वविषयावरणनिवृत्तेराधनानकायवाद। [ 'स्वप्रागभावपतिरिक्त' विशेषण की सार्थकता ] ज्ञानप्रागभाव को लेकर सिद्धसाधन अथवा अर्थान्तर का वारण करने के लिये साध्य में आद्यविशेषण 'स्वप्रागभावव्यतिरिक्तत्व' का निवेश किया गया है। यदि यह कहा जाय कि-"स्वनिवर्त्य पद से ही उसकी व्यावत्ति हो जायगी क्योंकि प्रमाणज्ञान के प्रागभाव को निवृत्ति प्रमाणज्ञान से भिन्न नहीं कितु तद्रूप ही है, अतः स्वजन्यनिवृत्तिप्रतियोगित्वरूप 'प्रमाणज्ञान से निवर्त्यत्व' उस के प्रागभाव में नहीं रहेगा"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'ध्वंस सादिजन्य और अनन्त=अबिनाशी होता है।' इस मत में प्रमाणज्ञान के प्रागभाव को निवृत्ति प्रमाणज्ञानस्वरूप नहीं हो सकती, क्योंकि प्रमाणज्ञान विनाशो है। अतः स्वनिवर्त्य पद से प्रागभाव का व्यवच्छेद सम्भव न होने से आद्य विशेषण कर उपादान आवश्यक है। 'विभु के प्रत्यक्षयोग्य विशेषगुण स्वोत्तरवर्ती गुण से नाश्थ होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार भिन्नविषयक पूर्वज्ञान उत्तरज्ञान से निवर्त्य होता है अतः प्रमाणज्ञान के पूर्वज्ञान को लेकर सिद्धसाधन का वारण करने के लिये 'स्वविषयावरण' विशेषण दिया गया है। इस विशेषण के देने से पूर्वज्ञान का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि जिसके रहने पर जिस ज्ञान के विषय का स्फुरण नहीं होता बहो उस ज्ञान के विषय का प्रावरण होता है । पूर्वजान उत्तरज्ञान के विषय का प्राधरण नहीं होता क्योंकि वह उत्तरज्ञान के विषय के स्फुरणाभाव का प्रयोजक नहीं होता। [ 'स्वनियत्य' विशेषण की सार्थकता ] असम्भावना प्रयोजक एवं विपरीत भावनाजनक अदृष्ट को व्यावत्ति के लिये तोसरा विशेषण 'स्वनिवर्त्यत्व' का उपादान किया गया है। इसका निवेश न करने पर 'तादृश अन्य वस्तु' पद से असम्भावना प्रयोजक और विपरीतभावना के जनक अदृष्ट को पकड़ा जा सकता है । किन्तु यह भी असम्भावना-विपरीतभावना के द्वारा प्रमाणज्ञान के विषय का आवरण होता है, तथा प्रमाणज्ञान के प्रागभाव से व्यतिरिक्त और प्रमाणज्ञान का समानाधिकरण होता है। अतः प्रमाणज्ञान में तत्पूर्वकत्व रहने से सिद्धसाधन दोष को प्रसक्ति हो सकती है। किन्तु, स्वनियंत्य विशेषण देने पर यह दोष नहीं होगा, क्योंकि अदृष्ट स्वकार्य से निवर्त्य होने के कारण उक्त अदृष्ट प्रमाणज्ञान से निवर्त्य नहीं होता। [ 'स्वदेशगत' विशेषण की सार्थकता ] साध्य में 'स्वदेशगतत्य स्वसामानाधिकरण्य' विशेषण इसलिये दिया गया है, जिससे प्रमाता में अज्ञान को सिद्धि हो । अन्यथा 'स्व प्रागभावव्यतिरिक्त स्वविषयावरण स्थनियय अन्य यस्त' शाम्य से विषयचैतन्यगत अजान को लेकर सायसिद्धि का पर्यवसान हो जाने से प्रमातृगत अज्ञान की सिद्धि अवरुद्ध हो सकती है। यस्त्वन्तर (अन्य बस्तु) शब्द न देने पर मिथ्याशानपूर्वफत्व को लेकर सिद्ध साधन प्रथया अर्थान्तरदोष की प्रसक्ति हो सकती है। किन्तु चस्त्वन्तर (अन्य वस्तु) विशेषण देने Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० [ शास्त्रवार्त्ता० त०८ दलो०७ पर यह दोष नहीं हो सकता, क्योंकि 'वस्त्वन्तर' शब्द का अर्थ है वस्तुभिन्न वस्तुसदृश । प्रकृत में वस्तु है प्रमाणज्ञान । वह होता है ब्रह्मज्ञानेतराबाध्य । श्रत एव उससे भिन्न ब्रह्मज्ञानेतराइबाध्यत्लेन तत्सदृश ही इस्त्वन्तर शब्द का पर्यवसित अर्थ होता है ब्रह्मज्ञानेतराबाध्य । मिथ्याज्ञान अधिष्ठानज्ञान से बाध्य होने के कारण ब्रह्मज्ञानेतराबाध्य नहीं होता । अतः 'वस्त्वन्तर' शब्द से उसका परिहार हो सकता है। [ 'अप्रकाशित' विशेषण की सार्थकता ] हेतुदल में 'अप्रकाशितत्व' विशेषण न देने पर धारावाहिक ज्ञानस्थल में द्वितीयादि विज्ञान में हेतु में साध्य का व्यभिचार हो जायगा । श्रतः उसका वारण करने के लिये उक्त विशेषण का उपादान किया गया है। यदि यह शंका की जाय कि ' धारावाहिकज्ञान स्थलीय द्वितीयाविज्ञान भी जिस अर्थ का प्रकाशक होता है वह पूर्वज्ञान के पहले अप्रकाशित रहता है अत एव अप्रकाशितत्वघटित हेतु में भी उक्त ज्ञान से साध्य का व्यभिचार होगा' - तो इसका उत्तर यह है कि- 'अप्रकाशितार्थप्रकाश' शब्द से स्वविषयावरणनिवृत्तिरूप व्यवहार विवक्षित है । धारावाहिकज्ञानस्थलीय द्वितीयादिज्ञान में स्वविषयावरणनिवृत्ति को कारणता नहीं है क्योंकि उक्त निवृत्ति आद्यज्ञान का ही कार्य होती है । अतः उक्त ज्ञान में व्यभिचार नहीं हो सकता । न च हेत्वसिद्धिः साध्योपात्तस्वविषयावरणनिवृत्तेर प्रकाशितार्थव्यवद्दारशब्देनाऽविवचितत्वात् । न च चक्षुरादौ व्यभिचारः, तस्य ज्ञानजननेनान्यथासिद्धत्वात् । नच साधनवैकल्यं दृष्टान्तस्य, स्वविषयावरणान्धकारनिवृत्तिहेतुत्वात् । न च सुखादिज्ञाने व्यभिचारः, तस्य स्वविषयावरणनिवृत्तिहेतुत्वा मावात् । न च स्मृतौं व्यभिचारः, तस्याः स्मृतिप्रागभावरूपस्वविषयावरणनिवर्तकत्वादिति वाच्यम् तस्य स्वविषयावरणत्वाभावात्, तत्सच्चेऽप्यनुभवदशायां तद्विषयस्फुरणात् । 1 [ हेतु असिद्धि की शंका का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि - 'उक्त अनुमान से पूर्व प्रमाणज्ञान के विषय का प्रज्ञानात्मक आदरण सिद्ध न होने से स्वविषयावरणनिवृत्तिजनकत्वरूपहेतु प्रसिद्ध है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि साध्यकुक्षि में प्रविष्ट स्वविषयावरण की निवृत्ति अप्रकाशितार्थप्रकाशशब्द से विवक्षत नहीं है । अतः मिथ्याज्ञानात्मक श्रावरण को लेकर पक्ष में 'स्वविषयावर निवृतिजनकत्व' गृहोत हो सकता है। यदि यह शंका की जाय कि - 'साध्यकुक्षि में 'स्वविषयावरण' शब्द से मिथ्याज्ञान अथवा चाक्षुषप्रागभाव को लेकर स्वविषयावरण निवृत्तिजनकत्वरूप हेतु चक्षु आदि में भी है किन्तु उसमें उक्त अन्य वस्तु पूर्वकत्वरूप साध्य नहीं है, अत: चक्षु आदि अर्थ में उक्त साध्य का व्यभिचार होगा"तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि चक्षु आदि प्रज्ञान को उत्पन्न कर चरितार्थ हो जाने से अर्थावरण की निवृत्ति के प्रति अन्यथासिद्ध हो जाता है । अतः उसमें स्वविषयाचरणनिवृत्तिजनकत्व न रहने से व्यभिचार नहीं हो सकता । [ दृष्टान्त में हेतु असिद्धि शंका का निवारण ] यदि यह शंका की जाय कि - 'चक्षु आदि में व्यभिचार का वारण करने के लिये यदि उक्त Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १३१ रोति से हेतु का असत्व माना जायगा तो प्रदीपप्रभारूप दृष्टान्त में भी साधन का प्रभाव होगा, क्योंकि प्रवीपप्रभा भी प्रर्थज्ञान को उत्पन्न कर अर्थावरणतिवृत्ति के प्रति अन्यथासिद्ध हो जाती है।"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वह स्वविषय के अन्धकाररूपाधरण की निवृत्ति का हेतु है। यदि यह कहा जाय कि-'सुखादि की अज्ञात सत्ता न होने से, सुखादिशान में उक्त साध्य न रहने से, जसमें उक्त हेतु साध्य का व्यभिचारी होगा'-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि उसमें स्थविषयावरणनिवृत्तिजनकत्वरूप हेतु ही नहीं है, क्योंकि उसका विषयभूत सुख आवृत नहीं होता। [ स्मृतिम्थल में अनेकान्तिक दोष का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि 'स्मृति में स्वविषय के स्मृतिप्रामभावरूप आवरण को निवर्तकता होने से उक्त हेतु स्मृति में है, किन्तु स्मतिविषय के आवारक अज्ञान की अनुभव से ही निवृत्ति हो जाने के कारण उसमें उक्त बस्स्वन्तरपूर्वकत्यरूप साध्य नहीं है अतः उसमें हेतु साध्य का ध्यभिचारी हो जायगा -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि हमतिप्रागभाव स्मतिविषय का प्राधरण नहीं है क्योंकि आवरण का निर्वचन यह किया गया है कि जिसके रहने पर जिस ज्ञान के विषय का स्फुरण नहीं होता वह उस ज्ञान के विषय का प्रावण होता है । यह लक्षण स्मतिप्रागभाव में नहीं घटता, क्योंकि अनुभवदशा में स्मतिप्रागभाव के रहने पर भी भावी स्मृति के विषय का अनुभवमहिमा से स्फुरण होता है । अत एव स्मृति में स्वविषयावरणनिवर्तकत्वरूप हेतु न होने से व्यभिचार नहीं हो सकता। न चैवं प्रमाण ज्ञानप्रागभावस्यापि स्वविषयावरणवाभावात तब्धावृत्यर्थम्याविशेषणस्य वैयर्यम् , अत्यन्तापूर्वार्थज्ञानप्रागभावस्य तथात्वात् । आद्यज्ञानग्य पक्षत्वाद् न तत्र व्यभिचाः। हेतुत्वं च पुष्कलहेतुत्वम् , तेन नेश्वरादौ प्रतियोगिनि चापरणे व्यभिचारः । न चाऽसंभावनादिनिवर्त के श्रवणादौ व्यभिचारः, असंभावनादेः स्वविषयावरणत्वे साध्यसद्भावात् । न च तेनैव सिद्ध साधनम् , तस्य ज्ञानाऽनिवत्यत्वात् । दृष्टान्तेऽपि सविकिरणस्थासु द्वितीयाद्यासु च दीपप्रभासु साध्यसाधन कल्यपरिहाराय विशेषणद्वयोपादानम्-'' इति स्वगृह विचारपरिष्कृतमनुमानमपास्तम्। [ आद्यविशेषण व्यर्थ होने की शंका का निवारण ] इस पर यदि यह कहा जाय कि-'तब तो इसो रोति से प्रमाणज्ञान का प्रागभाव भी उसके विषय का आवरण नहीं होगा, अतः उसकी व्यावृत्ति के लिये प्रायविशेषण का उपादान व्यर्थ हैतो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो अर्थ जिस प्रमाणज्ञान के पूर्व कभी गहीत नहीं है जस अर्थ के ज्ञान का प्रागभाव उक्त रीति से स्वविषयावरण हो सकता है । क्योंकि उस ज्ञान के प्रागभावकाल में उस ज्ञान के विषय का स्फुरण कभी नहीं होता । अतः उस प्रागभाव को व्यावृत्ति के लिये प्रथम विशेषण की सार्थकता संगत है । यदि यह शंका की जाय कि-'पायज्ञान में हेतु में साध्य का व्यभिचार होगा, क्योंकि प्राधज्ञान के प्रागभावकाल में उसके विषय का स्फूरण नहीं होता प्रतः उसका प्रागभाव स्वविषय का आवरण है, अत एव आद्यज्ञान में स्वविषयावरणनित्तिजनकस्वरूप हेतु है, किन्त साध्य नहीं है तो यह लोक नहीं क्योंकि प्राद्यज्ञान भी पक्षान्तर्गत है अत एव उसमें व्यभिचार का निरूपण नहीं हो सकता। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो०७ [ हेतुत्व चरमकारणत्वरूप होने से व्यभिचार निरवकाश ] अनुमापक हेतु में प्रविष्ट हेतुत्व पुष्कलहेतुत्व चरमकारणत्वरूप है। अत: कार्यमात्र के गनिमारण होने से स्थविमानत ईश्वारदि में और प्रतियोगिविघया स्वविषयावरणनिवृत्ति के प्रतियोगीभूत ईश्वरावि में और प्रतियोगिविधया स्वविषयावरणनित्ति के प्रतियोगीभूत आवरण में साध्य का व्यभिचार नहीं हो सकता, क्योंकि उनमें स्वविषयावरणनिवृत्ति का चरमकारणत्वरूप हेतु नहीं है। यदि यह शंका को जाय कि आत्मा का श्रवणमननादि प्रात्मविषयक असम्भावनावि का निवर्तक होने से स्वविषयावरणनिवृत्ति का जनक है, किन्तु साध्य उसमें नहीं है। उसके विषयभूत आत्मा के अज्ञान को निवृत्ति प्रात्मदर्शन से के कारण उसमें उक्त साध्य नहीं है. अतः उसमें हेत साध्य का ध्यभिचार होगा"तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि असम्भावनादि यदि श्रवणादि के विषय का आवरण है तो उसी को लेकर उक्त वस्त्वन्तरपूर्वकत्वरूप साध्य भी उसमें रहेगा। यदि वह स्वविषयक आवरण नहीं होगा तो श्रवणादि में स्वविषयक आवरणनिवृत्तिजनकत्वरूप हेतु का प्रभाव होगा । [ 'वस्त्वन्तर' शब्द से असम्भावनादि के ग्रहण पर सिद्धसाधन ] यदि यह कहा जाय कि-"तादश घस्त्वन्तरशद से असम्भावनादि को लेकर प्रमाणज्ञान में उक्त साध्य सिद्ध होने से सिद्धसाधन होगा"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि असम्भावनादि को प्रमाणजानमा नमात्र से निवृत्ति न होने के कारण 'स्वमिवत्यताहशवस्त्वन्तर' शब्द से असम्भावनादि का ग्रहण नहीं हो सकता। श्रवणादिरूप प्रमाणज्ञान में असम्भावनादि को लेकर उक्त साध्य की सिद्धि होने पर भी सिद्ध साधन नहीं हो सकता क्योंकि प्रमाणज्ञानसामान्य में साध्यसिद्धि उद्देश्य है। दृष्टान्तभूत प्रदीपप्रभा में 'अन्धकार' शब्द से जो अधिकार का समानदेशकालस्थत्वरूपविशेषण और प्रथमोत्पन्नस्वरूपविशेषण दिया गया है, यदि उन विशेषणों को न दिया जाय तो सूर्यप्रकाशस्थ दीपप्रभा और द्वितीयतृतीयदीपप्रभा भी दृष्टान्तान्तभूत होगी, तो अन्धकार को लेकर उनमें तादृशवस्त्वन्तरपूर्वकत्वरूप साध्य के न रहने से दृष्टान्त में साध्यवैकल्य होगा। तथा उनमें सूर्यप्रकाश और प्रथमदीपप्रभा से प्रकाशित ही अर्थ का प्रकाशत्व होने से अप्रकाशितार्थप्रकाशकत्वरूपसाधन का भी अभाव होगा। अतः साध्य-साधन के इन अभावों के परिहार के लिये प्रदीपप्रभारूप दृष्टान्त में उक्त विशेषणद्वय का उपादान किया गया है। इस प्रकार उपर्युक्त महाविद्या अनुमान से वेदान्तीओं द्वारा अज्ञान का साधन किया जाता है । निरुक्तस्वविषयावरणत्वस्वनिवर्त्यत्वाभावेनास्मात् मूलाज्ञानस्यासिद्धः, विशिष्टतथास्वस्य धातिप्रसक्तत्वात् , तूलाज्ञानसाधनेऽपि वैत्यानुमित्यादेः पक्षीकरणे बाधात् , तद्वहिर्भावेच व्यभिचारात् । तत्यक्षीकरणेऽपि 'असति स्वनित्तिप्रतिबंधके तद्विषयस्फुरणाभावप्रयोजकत्वं तद्विपयावरणत्वम्' इत्युक्तो न दोष इत्यस्यापि येषां पक्षीकृतज्ञानानामावारके स्वनिवृत्तिप्रतिचन्धकाऽसिद्धिः तत्र साध्याऽसिद्धया वक्तुमशक्यत्वात् । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ महाविद्या का अनुमान दोषपरम्पराग्रस्त-उत्तरपक्ष ) इस अनुमान के विरुद्ध व्याख्याकार श्री यशोविजय उपाध्याय का कहना है कि अनुमान का यह परिष्कृतरूप वेदान्तीओं के अपने गृह के भीतर किये गये विचार का फल है किन्तु अन्य विद्वानों के साथ विचार होने पर यह अनुमान विविध दोषों से ग्रस्त होने के कारण निरस्त हो जाता है। वह इसलिये कि मूलाज्ञान के रहते हुये भी प्रमाण से घटादिज्ञान उत्पन्न होने पर उसके विषय घटादि का स्फुरण होता है, अतः मूलाज्ञान में स्वविषय आवरण के उक्त निर्वचनानुसार मूलाज्ञान घटादिज्ञान के विषय का आवरण नहीं होता। एवं ब्रह्मज्ञान से ही मूलाज्ञान की निवृत्ति होने से वह घटाविज्ञान से निवर्त्य भी नहीं होता। प्रतः स्वविषयावरण एवं स्वनिवर्त्य तादृशवस्त्वन्तर शब्द से मूलाज्ञान का ग्रहण शक्य न होने से घटाविज्ञानरूप प्रमाणज्ञानपक्षक इस अनुमान से मूलाज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती। [ विशेषण भेद करने पर अतिप्रसंग ] यदि यह कहा जाय कि "प्रज्ञान मूलतः एक है । वही अनवच्छिन्न ब्रह्मविषयक होने से 'मूलाज्ञान' और घटाधवच्छिन्न चैतन्यविषयक होने से 'घटादिविषयक अज्ञान' कहा जाता है और विशेषणभेद से विशिष्ट में भेद नहीं होता। इसलिये घटादिज्ञान के विषयावरण और घटादिज्ञान से निवर्त्यरूप में घटाद्यन्छिनचैतन्यविषयक अज्ञान का ग्रहण होने से मलाज्ञान का भी ग्रहण हो सकता है अत एव इस अनुमान से मूलाज्ञान की प्रसिद्धि की शंका नहीं की जा सकती" तो यह ठोक नहीं है क्योंकि यदि विशेषणमेव से विशिष्टों में भेव न होने के आधार पर मूलाज्ञान को घटादिज्ञान के विषय का प्रावरण और घटादिज्ञान से निवर्त्य माना जायगा तो पटादि के अज्ञान में भी घटज्ञान के विषय के आधरणत्व और घटज्ञान से निवर्त्यत्व को अतिप्रसक्ति होगी। अतः इस रीति से प्रस्तुत अनुमान द्वारा मूलाजान की सिद्धि नहीं हो सकती। [ तुलाज्ञान विशिष्ट चैतन्य विषयक अज्ञान की अमिद्धि ) एवं उक्त अनुमान से 'तूलाज्ञान' प्रवच्छिन्न चैतन्यविषयक अज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि शंख में श्वेत्य की अनुमिति आदि का पक्ष में अन्तर्भाव करने पर बाघ होगा, क्योंकि श्वैत्य के अज्ञान को लेकर उक्त अनुमिति में वह साध्य नहीं रहेगा। उस अनुमिति के होने पर भी पीत्तदोषवश 'शंखो न श्वेतः' यह बुद्धि होती है, अतः यह सिद्ध है कि उससे श्वैत्य के अज्ञान को निवृत्ति नहीं हो सकती। अतः उक्त वस्त्वन्तर शब्द से श्वत्य के अजान को लेकर उक्त अनुमिति में वह साध्य नहीं रहेगा। यदि उसे पक्षबहिमूत कर दे तो उसमें उक्त हेतू में साध्य का व्यभिचार होगा। क्योंकि श्वत्यानुमिति में प्रागभावरूप स्वविषयावरण को लेकर स्वविषयावरणनिवृत्तिजनकरवरूप हेतु रहता है किन्तु उक्त साध्य नहीं रहता। इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-"श्वत्यानुभिति को पक्ष में अन्तभूत करने पर भी बाध नहीं होगा क्योंकि साध्य की कुक्षि में स्वनिवृत्ति के प्रतिबन्धकाभाव विशिष्टस्वविषयावरण में स्वनिवर्त्यत्व के निवेश से उक्त अनुमिति में साध्य का सद्भाव उपपन्न हो सकता है, क्योंकि अनुमिति के विषयीभूत श्वत्य का आवरणभूत अज्ञान अपनी निवृत्ति के प्रतिबन्धक पीत्तदोष के रहने से ही उक्तानुमिति से निवर्त्य नहीं होता, किन्तु उक्त प्रतिबन्धकाभाव होने पर Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] [ शास्त्रवार्ताः स्त०८ श्लो०७ उससे निवृत्त होता है अतः उपतानुमिति में 'स्वप्रागभाव व्यतिरिक्त स्वनिवर्ण-स्वनिवृत्तिप्रतिबन्धकामावविशिष्ट स्वविषयावरणस्वदेशगत वस्त्वन्तरपूर्वकत्व' है ।"-किन्तु यह कथन भी शक्य नहीं है, क्योंकि पक्षान्तर्गत जिन ज्ञानों के विषयावरण को निवृत्ति का प्रतिबन्धक असिद्ध है उन ज्ञानों में उक्त साध्य को सिद्धि नहीं हो सकती। हेतोरपि स्वविषयावरणनिवर्तकत्वरूपस्योपादानेऽसिद्धः, अप्रकाशितप्रकाशशब्देन तदुपादानेऽपि तदपरिहारात , न खलु शब्दान्तरोपादानेनाप्याच्छादनं भवति । स्वविषयावरणनिवर्तकत्वव्यपदेशविषयत्वस्य हेतुत्वे तु सुखादिक्षाने द्वितीयादिधारावाहिकेषु च मिथ्याज्ञाननिकतैकत्वव्यपदेशविपयेषु व्यभिचारो दुनिचारः । [ अज्ञानसाधक अनुमान में हेतु-असिद्धि ] अज्ञान की सिद्धि के लिये अपेक्षित हेतु के विषय में भी विचार करने पर उक्तानुमान निर्दोष नहीं प्रतीत होता, क्योकि यदि स्वविषयावरणनियतकत्वरूप हेत का उपादान किया जायगा तो पक्ष में हेतु का अभावरूप हेत्वसिद्धि होगी। क्योंकि प्रमाणज्ञान के विषय का कोई ऐसा प्रावरण सिद्ध नहीं है जिसका प्रमाणज्ञान निवर्तक हो। स्वविषयावरणशाद से प्रमाणज्ञान के प्रागभाव को लेकर हेतु-असिद्धि का परिहार नहीं किया जा सकता, ययोंकि प्रागभाव भी सर्वमान्य न होने से विधादग्रस्त है एवं प्रमाणज्ञान के प्रागभाव को नियत्ति प्रमाणज्ञानस्वरूप है, अतः प्रमाणज्ञान में उसकी जनकता सम्भव न होने से स्वागभाव द्वारा स्वविषयावरणनिवर्तकस्वरूप हेतु की सिद्धि सम्भव नहीं हो सकती। मिथ्याज्ञान को भी 'स्वविषयावरण' शब्द से ग्रहण कर हेतु-असिद्धि का परिहार नहीं किया जा सकता क्योंकि मिथ्याज्ञान वस्तु दोषावृत होने से उत्पन्न होता है, अतः मिथ्याज्ञान के लिये प्राधरण अपेक्षित होने से मिच्याजान को विषय का आवारक नहीं कहा जा सकता। जिस दोष से आवत वस्तु में मिथ्याज्ञान होता है, वह दोष स्वविषयावरण अवश्य है किन्तु प्रमाणज्ञान उसका निवर्तक नहीं है, क्योंकि प्रमाणज्ञान को उत्पत्ति उसकी निवृत्ति होने पर होती है । अतः प्रमाणज्ञान में स्थविषयावरणनिवर्तकत्वरूप हेतु की प्रसिद्धि अनिवार्य है। हेतु अप्रसिद्धि की आपत्ति 'अप्रकाशितार्थ प्रकाश शब्द से हेतु का उपादान करने पर भी दोष का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि उसका यथाश्रुत अर्थ लेने पर ज्ञानविषयत्वरूप प्रकाशितत्व केवलान्य होने से अप्रकाशितार्थ की अप्रसिद्धि होने से हेतु की अप्रसिद्धि होगी। यदि 'स्व के पूर्व स्वाश्रय को अप्रकाशित' यह अर्थ किया जायगा तो धारावाहिक द्वितीयादिजान में व्यभिचार होगा। धोंकि प्रथमज्ञान का पूर्वकाल द्वितीयादि ज्ञान का भी पूर्वकाल है और उस पूर्वकाल में उसका विषयभूत अर्थ उसके आश्रय प्रमाता को अप्रकाशित है। यद्यपि इसका परिहार स्वाट्यवहित पूर्व कह देने से हो सकता है, किन्तु स्वत्व के अननुगत होने से तटित हेतु सर्वपक्षसाधारण न हो सकने से भायाऽसिद्धि होगी । यदि 'अप्रकाशितार्थप्रकाश' शब्द से भी स्वविषयावरणनिवर्तफत्य का ही उपादान किया जायगा तो स्वविषयावरणनिवर्तकत्व से शब्द से उस हेतु का प्रयोग करने पर जो हेतु-असिद्धि बतायी गयी है उसका परिहार न होगा क्योंकि अर्थ में भेद न होने पर केवल शब्द परिवर्तन कर देने से उस अर्य के ग्रहण से प्रसक्त होने वाले दोष का नाच्छादन-निराकरण नहीं होता। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. क० टीका एवं हिन्दी विवेचन 1 __ यदि यह कहा जाय कि-"स्वविषयावरणनिवर्तकत्वध्यवहारविषयत्व को हेतु मानने पर उक्त दोष नहीं हो सकता, क्योंकि 'प्रमाणज्ञान स्वविषयावरणनिवर्तक होता है-यह व्यवहार लोकसित है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त हेतु सुखादिज्ञान में तथा द्वितीय-तृतीयादि धारावाहिकज्ञान में भी रहता है । अतः उक्तज्ञानों में हेतु में साध्य के व्यभिचार का वारण अशक्य होगा। दृष्टान्तेऽयि साध्यगतज्ञानविषयतायाः प्रमाविषयवासाधारणवाभावेन साध्यवैकल्यम् । उपाधिश्चात्राऽचेतनत्वादि । न चात्रानुकूलतकोऽपि कश्चिदस्ति, अप्रकाशितार्थप्रकाशकेऽपि प्रकाशितार्थप्रकाशक इवोक्तवस्त्वन्तरपूर्वकत्वं विनापि विषयस्फोरकत्वोपपत्राद्यत्वस्य चाऽनिय. म्यत्वादिति न किश्चिदेतत् । [ दृष्टान्त में साध्यासिद्धि दोष ] दृष्टान्त सम्बन्ध में विचार करने पर वह भी असङ्गत प्रतीत होता है क्योंकि साध्य में स्वविषयावरण के गर्भ में स्वविषयता शब्द से ज्ञानविषयता प्रविष्ट है और व वह प्रमाविषयता साधारण यानो प्रभाविषयता की सधर्मा नहीं है अतः दृष्टान्त में साध्य का प्रभाव है । इन सब दोषों के अतिरिक्त उषत हेतु में अचेतनत्व अथवा प्रमातृवत्तित्त्वाभावरूप उपाधि भी है, क्योंकि दृष्टान्त में जहाँ साध्य सिद्ध है वहां अचेतनत्व विद्यमान होने से वह साध्य का व्यापक है और साधन के प्राश्रयभूतपक्ष में विद्यमान न होने से साधन का प्रध्यापक है । उक्त दोषों के अतिरिक्त उक्तानुमान में अनुकूलतर्क-व्यभिचारशंकानिय तक का सामान भी है। गोंकि जैसे प्रकाशितार्थ प्रकाशक धारावाहिक स्थलीय द्वितीयादिज्ञान उक्त वस्त्वन्तरपूर्वकरव के विना भी अपने विषयस्फुरण का प्रयोजक होता है उसी प्रकार अप्रकाशितार्थ का प्रकाशकलान भो उक्त साध्य के बिना अपने विषय के स्फुरण का प्रयोजक हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि-'आद्यविषयस्फुरणप्रयोजकत्व-अनुकल तर्क हो सकता है। अर्थात् उक्त हेतु में, प्रमारगज्ञान अप्रकाशितार्थ का प्रकाशक हो किन्तु उक्त वस्त्वन्तरपूर्वक न हो इस शंका को निवृत्ति के लिये इस प्रकार तर्क प्रयोग हो सकता है कि प्रमाणज्ञान यदि उक्तवस्त्वन्तरपूर्वक न होता तो अपने विषय का आद्यस्फोरक न हो सकेगा । इस तर्क के निष्कर्षरूप में यह विपरोतानुमान उपलब्ध होगा कि 'यतः प्रमाणज्ञान अपने विषय का आधस्फोक है अतः उक्तवस्त्वन्तर पूर्वक है। किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि आयत्यविशिष्ट विषयस्फारकत्व में उक्तस्त्वन्तरपूर्वकत्व की व्याप्ति सिद्ध न होने से उक्त वस्स्वन्टरपूर्वकस्वाभाव में आद्यविषयस्फोरकत्वाभाव का व्याप्तिग्रह न हो सकने से उक्तवस्त्वन्तरपूर्वकस्वाभावरूप आपादक से आधविषयस्फोरकत्वाभाव का प्रापादानरूप तर्क नहीं हो सकता। एवं च जीवेश्वरादिविभागोऽप्यनुपपन्न एव | न च प्रतिबिम्बवादे आभासयादे वा दृष्टान्तोऽपि दृष्टः, मुखे द्वित्वस्य, आदर्शस्थत्यस्य चानिर्वचनीयस्योत्पत्ती 'आदर्श वें मुखे' इति प्रतीतिप्रसङ्गात् , आदर्श मुखान्तरोत्पत्तौ च तदवेदं मुखं यदादस्थित्वेन दृष्टम्' इति प्रत्यभिज्ञानाबाधात् । अथ प्रतिबिम्बबाद आदर्शस्थत्वस्थ मुखे द्वित्वावच्छेदेनानुत्पत्तेः 'आदर्श द्वे मुखे' इति न प्रतीतिः, आभासवादे च तदेवेदम्' इति भ्रम एवेति चेत् ! न 'आदर्श Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ [ शास्त्रयाता० स्त० ८ श्लो०७ मुखप्रतिबिम्बम्' इति प्रतीतिप्रामाण्यात् तत्र प्रतिबिम्बद्रध्यस्येवोत्पत्तेः स्वीकतु युक्तत्वात् , द्वित्वाख्यस्य प्रतिबिम्बस्यादर्शऽभावात् , अनिर्वचनीयमुखोत्पत्तौ च प्रतिविम्यप्रतीतेः प्रामाण्यानुपपत्तः । 'कथं तहि तत्र भ्रमव्यवहारः।' इति चेत् ? विम्ब-प्रतिविम्बायोरमेदप्रतीतेः । अत एवं न 'तदेवेदम्' इति प्रत्यभिज्ञापि दुरुपपादा, प्रतिविम्बाऽभेदभ्रमविषयस्य तदर्थस्येदम भेदावाधादिति अधिकं सांख्यवार्तायां विवेचितम् । [जीव ईश्वरादि के विभाग की अनुपपत्ति ] उक्त विचारानुसार जब यह निश्चित हो गया कि अज्ञान प्रसिद्ध है, तो उस के आधार पर जो जीव-ईश्वरादि का विभाग होता है वह भी अनुपपन्न हो है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य हैप्रतिबिम्बबाद और आभासवाद में कोई दृष्टान्त न होने से उन वादों द्वारा भी जोव और ईश्वर का निरूपण नहीं हो सकता । प्रतिबिम्बवाव के सम्बन्ध में जो यह बाहा गया कि-दर्पण में बिम्बभूत मुख से भिन्न प्रतिबिम्बात्मक मुख की उत्पति नहीं होती किन्तु बिम्बभूत मुख में ही अनिर्वचनीय द्वित्व और अनिर्वचनीय दपरणस्थत्व को उत्पत्ति होती है-वह सङ्कत नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर 'दर्पण में दो मुख हैं। इस प्रकार की प्रतीति को आपत्ति होगी क्योंकि यह प्रतीति मुख में द्वित्व और दर्पणनिष्ठत्व को विषा काली है और रोगों डीई मुख मिजमान है । एवं आभासवाद के सम्बन्ध में जो यह बात कही गयो कि 'आदर्श में बिम्बभूतमुख से भिन्न प्रतिबिम्बात्मक मुख की उत्पत्ति होती है'-यह भी असङ्गत है, क्योंकि आदर्श में अन्यमुख की उत्पत्ति मानने पर जो आदर्श एवं प्रीया दोनों स्थानों में मुखदृष्टा व्यक्ति को यह प्रत्यभिज्ञा होती है कि 'यह ग्रीवास्थसुख यही है जिसे आदर्श में देखा है। इस प्रत्यभिज्ञा को अनुपपत्ति होगी। [ आपत्ति और अनुपपत्ति के बचाव की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि-'प्रतिबिम्बवाद और प्राभासवाद दोनों ही में कोई दोष नहीं है, जैसे कि-प्रतिबिम्बबाद में जो 'आदर्श में दो मुख हैं। इस प्रतीति की आपत्ति दी गई वह असङ्गत है, क्योंकि यह प्रतीति मुख में द्वित्वावच्छेदेन प्रादर्शनिष्टत्व को विषय करती है किन्तु मुख में प्रादर्शस्थत्व को वित्वावच्छेदेन उत्पत्ति नहीं होती। एवं आभासवाद में जो प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति बतायी गयी वह भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि आभासवाद में उक्त प्रत्यभिज्ञा भ्रमरूप ही मानी जाती है ।"किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि 'प्रादर्श में प्रतिबिम्बभूत मुख है। यह प्रतीति प्रामाणिक है, अतः इस प्रतीति के अनुरोध से प्रादर्श में प्रतिबिम्ब का अभाव होने से दो मुख हैं। इस प्रतीति की आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु प्राभासवाद के समान आदर्श में अनिर्वचनीयमुख की उत्पत्ति मानना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर प्रतिबिम्ब प्रतीति में लोकसिद्ध प्रामाण्य को उपपत्ति नहीं हो सकेगी। आदर्श में प्रतिबिम्बनामक सत्यमुख की उत्पत्ति और उसकी प्रतीति को प्रमा मानने पर यह प्रश्न हो सकता है कि आदर्श में होने वाली मुखप्रतीति में जो किसी किसी को कभी-कभी भ्रमव्यवहार होता है वह कैसे होगा ?- इसका उत्तर यह है कि बिम्ब और प्रतिबिम्बभूत मुस्थ में अभेदप्रतीति होने से उक्त व्यवहार होता है। इस मान्यता में एक यह भी गुण है कि इस मत में 'सवेवेदम्' यह बहो मुख है जो आदर्श में देखा गया इस प्रत्यभिज्ञा के उपपादन में भी कोई कठिनाई नहीं है क्योंकि Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १३४ 'सदेवेदम्' में तत् का अर्थ है प्रतिबिम्बाभेद भ्रम का विषय और उसका अमेव इवमय में प्रवाधित है। भतः उक्त प्रत्यभिज्ञा की 'यह ग्रोषास्थ मुख यही है जो प्रतिबिम्बामेव भ्रम का विषय हो चुका है इस प्रर्थ से उपपत्ति हो सकती है। इस सम्बन्ध में उपर्युक्त से अधिक बात साल्पमत चर्चा के प्रसङ्ग में विवेचित की जा चुकी है। ततः प्रतिबिम्बस्य रूपयर एव मापा जेभरमीचोलिम्त प्रतिबिनादिमावः । न चाकाशस्यामृतस्यापि प्रतिविम्ब दृश्यत इति युक्तम् , आकाशस्याऽयोग्यत्वे तत्प्रतिविम्बस्य सुतरामयोग्यत्वात् , जले प्रभामण्डलाधवच्छिन्नयोग्यदेशस्यैव प्रतिबिम्बोपपत्तेः। 'अमूर्तेऽपि ज्ञाने विषयप्रतिविम्याभ्युपगन्त्रा कथममूर्ते विम्पप्रतिविम्वभावः शक्यः प्रतिक्षेप्तुम् ?' इत्यप्यज्ञानविजम्भितम् , विषयग्रहणपरिणामस्यैव प्रतिविम्बत्येनाभ्युपगमात् , इत्थमेव विषयाकाराप्रतिसंक्रमादिना ज्ञानस्य प्रतिविम्बाकारताप्रतिक्षेपस्य ज्ञानवादिकृतस्य प्रत्युक्तरित्यन्यत्र विस्तरः । [अरूपी वस्तु का प्रतिविम्ब असंभव ] ___ इस प्रकार उक्त विचार से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि रूपवान् वस्तु का ही प्रतिमिम्ब होता है। ईश्वर और जीव में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर रूपी नहीं है। इस पर यदि यह शंका हो कि "अमूर्त-नीरूप प्राकाश का भी प्रतिबिम्ब जलावि में देखा जाता है अतः रूपवान् का ही प्रतिबिम्ब होता है। ऐसा नियम नहीं है"-तो यह शंका उचित नहीं है क्योंकि आकाश अयोग्य है, अतः उसका प्रतिबिम्ब भी निश्चितरूप से प्रयोग्य ही है। जल में जो प्रतिविम्म देखा जाता है उसे आकाश का प्रतिबिम्ब न मान कर प्रभामण्डलादि से विशिष्ट प्रत्यक्षयोग्य देश का ही प्रतिबिम्ब मानना उचित है। यदि यह कहा जाय कि-"ममूर्तज्ञान में विषम का प्रतिबिम्ब मानने वाले जंन के लिये अमूर्त में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव का निषेध करना शक्य नहीं है"सो यह कथन अज्ञानमूलक है क्योंकि जैन मत में धात्मस्वरूपज्ञान के विषयग्रहणपरिणाम को ही प्रतिबिम्ब माना गया है न कि आदर्श में मुखप्रतिबिम्ब के समान अमूर्त ज्ञान में विषय का प्रतिबिम्ब माना जाता है। इसी प्रकार विज्ञानवादी का यह आक्षेप कि-'ज्ञान में विषयाकार का संक्रमण माने बिना उसमें विषयप्रतिबिम्ब के प्रकार का प्रभ्युपगम नहीं हो सब ता'-निःसार हो जाता है, क्योंकि जैन मत में शान में विषयप्रतिविम्ब का आकार न मान कर ज्ञान का ही विषयग्रहणरूप परिणाम माना गया है और उसका प्रतिबिम्ब शम्द से व्यवहार होता है। इस विषय का विस्तृत विचार अन्यत्र उपलब्ध है। ननु-अस्माभिरपि जीवेश्वरमावेन द्वित्वमेव प्रतिविम्वत्वेनोपैयत इति न दोषा-इति चेत् १ न, अतत्स्वभावस्य तच्चायोगात् , तत्स्वभावत्वे चैका-ऽनेकवस्त्वङ्गीकारे परमताश्रयणात् । तदुक्त ग्रन्यकृतवान्यत्र-"तदिमागानामेव नीत्यात्मत्वाद" इति । दिलरूप प्रतिबिम्ब की उत्पत्ति का अयोग] यदि वेवान्तीओं की ओर से यह कहा जाय कि-'हमें भी जीव और ईश्वरभाव से ब्रह्म में द्विस्वात्मक प्रतिबिम्ब की उत्पत्ति ही मान्य है न कि ईश्वर और जीव में बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव मान्य है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो० ७ अतः वेदान्तमत में भी कोई दोष नहीं हो सकता'-तो यह टोक नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्म इयस्वभाव नहीं है अत एव उसमें द्वित्व का अभ्युपगम नहीं हो सकता। यदि द्वयस्वभाव माना जायगा तो एकानेकारमक वस्तु का अङ्गीकार हो जाने से जैन मत का आश्रयण प्रसक्त होगा । जैसा कि ग्रन्थकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने ही अन्यत्र कहा है कि ब्रह्म में विभागनानात्व की कल्पना ही जैन सम्मत नीति में पर्यवसित हो जाती है। क्योंकि एकवस्त की अनेकात्मकता जैनों की ही नीति है। एतेन 'अज्ञानतद्विषयतोपाध्यवच्छिन्नत्वेन चैतन्यस्य जीश्वेश्वरत्व विभागः' इत्यपि मतं निरस्तम, स्वभावतोऽनवच्छिन्नस्योपाधिमहस्रणाप्यवच्छेत्तमशक्यत्वात् , आकाशेऽपि घटायच्छिम्भवम्य चित्रस्वभावत्व एव सुवचत्वात , अन्यथा तत्संवन्धाऽनिरुक्तेः, अवच्छिना. ऽनच्छिन्नस्वभावब्रह्मोपगमे च परमताङ्गीकागत, स्वनीत्याऽनिर्मोक्षापाताच्चेति । न चावच्छिन्नत्वं विभागरूपमवास्तवम् , अनवच्छिन्नत्वं त्वविभागरूपं वास्तवमिति युक्तम् , विपर्यय. स्यापि सुवचत्वात , अन्यथा "यथा यथाऽर्याश्चिन्त्यन्ते विशीयन्ते तथा तथा" इति व्यामोहेन शून्यताया एवापत्तेरध्यस्ताविद्यमानरूपप्रकाशोपगमेऽधिष्ठानस्याप्यनावश्यकत्वात् , व्यवहार दृष्टी चैकानेकरूपस्यैव घटपानत्वात् । [ उपाधिभेद से जीय-ईश्वरविभाग की अनुपपत्ति ] ___अज्ञानात्मकोपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य ईश्वर और अज्ञानविषयतात्मकोपाधि से प्रवच्छिन्न चैतन्य जीव-इस प्रकार जोव और ईश्वर के विभाग का समर्थक मत भी निरस्त प्रायः है क्योंकि चैतन्य स्वभावतः अनयच्छिन्न है अत एव सहन उपाधि मिलकर भी उसको अवच्छिन्न नहीं बना सकती। आकाश में जो घटाद्यवच्छिन्तत्व माना जाता है वह मी आकाश को प्रनवछिन्नस्वभ पर नहीं उपपन्न हो सकता किन्तु उसे चित्र-स्वभाय अस्तिकाय' अर्थात् प्रदेशसमूहात्मक मानने पर उपपन्न हो सकता है। अन्यथा आकाश को चित्र स्वभाव न मानने पर उसके साथ घटादि के सम्बन्ध का भी निर्वचन नहीं हो सकता । यदि ब्रह्म को अवच्छिन्न-अनच्छिन्न उभय स्वभाव माना जायगा तो वस्तु को परस्पर विरुद्ध अनेक स्वभावात्मक मानने वाले जैनमत के स्वीकार की प्रापत्ति होगी और वेदान्तनोति के अनुसार मोक्षाभाव की भी प्रापत्ति होगी क्योंकि वेवान्त की यह नीति है कि जिस वस्तु का स्वभाव होता है वह वस्तु कभी उससे मुक्त नहीं होती। अत: यदि अबच्छिन्नत्व अह्म का स्वभाव होगा तो कभी निवृत्त नहीं होगा। अतः ब्रह्म की प्राज्ञानाद्यवच्छिन्नता शाश्वत होने से मोक्षाभाव का प्रसंग दुनिबार होगा । [ वास्तव-अवास्तव की प्रमाणशून्य कल्पना अनुचित ) यदि यह कहा जाय कि-"ब्रह्म में प्रज्ञानादि का प्रवछिन्नत्व विभागरूप भेवरूप है और वह प्रवास्तव है; और अनवच्छिन्नत्व अविभावरूप-अभेदरूप है और वह वास्तव है। अतः उपाय द्वारा अवास्तव को नियत्ति होने से मोक्षाभाव की प्रसक्ति नहीं हो सकती"-तो यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि जब विना प्रमाण ही कुछ कहना है तो इसके विपरीत भी कहा जा सकता है कि अभेदरूप अनवच्छिन्नत्व अवास्तव है और मेवरूप अवच्छिन्नत्व ही धास्तव है। अतः इन सब कल्पनाओं का Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन | परित्याग कर वस्तु को अनेकान्तात्मक मानना ही उचित है अन्यथा प्रकारान्तर से अर्थ के सम्बन्ध में जितना ही विचार किया जायगा तो उतना ही वह दोषजर्जर होता जायेगा' फलतः अर्थ के प्रकारान्तर से निर्वाचन करने के व्यामोह से शून्यवाद की प्रसवित होगी। क्योंकि वस्तुतः श्रविद्यमान अध्यस्त पदार्थ का भी ज्ञान यदि माना जा सकता है, तो अधिष्ठान भी अनावश्यक हो जायगा क्योंकि उसकी भी वास्तविक विद्यमानता न मानकर अध्यस्तरूप में ही उसका भी ज्ञान माना जा सकता है । अतः व्यवहार के अनुरोध से एकानेकात्मक वस्तु ही उपपन्न होती है । किश्च प्रतीयमानं सर्वेषां स्याद्वादमुद्रानतिमेदि सत्रम विशिष्टमपोद्य सच्चान्दर-तत्प्रतीत्यनुकूलशक्त्यादिकल्पने व्यसनमात्रमेव परेषाम्, न तु मानवस्ति, "तस्याभिध्यानात् ०" इत्यादिश्रुते:-"तस्यात्मनोऽभिमुखं ध्यानं क्षीणमोहगुणस्थान संभवी केवलज्ञानाभिमुखः शुक्लध्यानपरिणामः ततो घातिकपेक्षयात्. युज्यतेऽनेनेति पो फेलिमु ततो वेदनायुःकर्मप्रदेशसमीकरणात् तच्चभावः = सर्व संवरः, ततोऽन्ते ऽन्तक्रियायां विश्वमायानिषृतिः = सकलकर्म निवृत्तिः, प्रतिक्षणं बहुतरनिर्जरासुचनाय 'भूयश्र' इत्युक्तम्, कारणोपचय एव कार्योपचयसिद्धेः” इत्यस्यैवार्थस्य सम्यग्दृष्टिपरिग्रहप्राशस्य न्याय्यत्यात् । तदुक्तम्- "सम्म - दिपरिगहियं मिच्छतु पि सम्मसुअं" इति । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि सभी वस्तु में स्याद्वादमुद्रा का अतिक्रमण न करते वाले जिस 'समान सत्त्व' सापेक्ष सत्त्व की प्रतीति होती है उसे छोडकर यदि वेदान्ती नये ढंग से ही सत्य यानी ब्रह्म का पारमार्थिक सत्त्व, प्रपश्व का व्यावहारिक सत्व और शुक्तिरजतादि का प्रातीतिक सत्य एवं उनकी प्रतीति के अनुकूल अज्ञान श्रौर उसकी आवरण-विक्षेपादि शक्ति की कल्पना करते हैं, यह उनका केवल व्यसन दुराग्रहमात्र है उस में कोई प्रमाण है नहीं । [ 'तस्याभिध्यानाद्' श्रुति का विशिष्ट अर्थ ] ० वेदान्ती जो अपने मत के समर्थन में 'तस्याभिध्यानाद्' इत्यादि श्रुति का उपन्यास करते हैं उसका भी वेदान्ती द्वारा प्रदर्शित अर्थ उचित नहीं है, किन्तु सम्यग्दष्टिप्राप्त पुरुषों को जो उसका श्रर्थ प्रतीत होता है वही न्यायसङ्गत है । यह अर्थ इस प्रकार है ―w आत्मा के श्रभिमुख ध्यान से अर्थात् बारहवे क्षीणमोहनामक गुणस्थान में उत्पन्न होने वाले केवलज्ञानप्रापक शुक्लध्यानात्मक परिणाम से, घातीकर्मात्मक ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय सोहनीय और अन्तरायरूप चार कर्मों का क्षय होने से एवं 'योजन' प्रर्थात् केवलसमुद्घात यानी केवलज्ञानीपुरुषद्वारा की जाने वाली कर्म स्थिति समीकरण की विशिष्ट प्रक्रिया, तथा तत्त्वभाव यानी सुख-दुःखप्रद वेदनीयकर्स एवं आयुष्कर्म ( =जीवन प्रयोजक कर्मप्रवेशदल )- इन दोनों के समीकरण से होने वाले सर्वसंबर अर्थात् नूतन कर्मबन्ध के द्वारनिरोध से अन्त में शंशी अवस्था प्रतिक्षण कर्मों की बहुतर निर्जरा होने से विश्वमाया अर्थात् सम्पूर्णकर्मों की निवृत्ति हो जाती है और यह निवृत्ति प्रतिक्षण फर्मों के बहुतर निर्जरण द्वारा सम्पन्न होने से मूयः निवृत्ति यानी सम्यगृष्टिपरगृहीतं मिथ्यामपि सम्प्रश्रुतम् । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रमा स्त० ८ श्लो० ७ परिपुष्ट निवृत्ति कही जाती है, क्योंकि कारण के उपचय से कार्य का उपचय होता है यह नियम है ।इस प्रकार अर्थ करने से यह श्रुति भी सम्यक श्रति हो जाती है। कहा भी गया है कि 'मिथ्याशास्त्र भो समयदृष्टि से ग्रहण करने पर सम्यक शास्त्र बन जाते हैं।' एवं च 'अपञ्चो मिथ्या, दृश्यस्वात, स्वप्नरथवत' इत्यनुमानमपि निरस्तम्, मिथ्यास्वस्यात्यन्ताऽसवरूपस्य साध्यत्वेऽसख्यातिप्रसङ्गात् , अन्यथाप्रतीयमानत्वरूपस्य साध्यरवेऽन्यथाख्यातेः प्रसङ्गात् , अनिर्वचनीयस्वरूपस्य साध्यस्वे च साध्याऽप्रसिद्धः, स्वप्नरथादों तथात्वाऽसिद्ध्या दृष्टान्तस्य साध्यबैकल्यात । स्वाभावसामानाधिकरण्यरूपस्य साध्यत्वेऽप्ययमेव दोपः, स्वस्यैव पररूपेण स्वाभावसामानाधिकरण्यात । सिद्धसाधनं वा, परमार्थसत्ताऽभावस्य माध्यत्वेऽपि परमार्थत्वस्याऽनिरुक्तेः, परमार्थसचग्राहकप्रत्यक्षेण बाधाश्च । न चानुमानमिथ्यात्वं साधयन्तं लोकायतं प्रति यथा नानुमानबाधोपन्यासः फलवान्, तथोक्तप्रत्यक्षस्यापि प्रपश्चान्तंगतत्वेन मिथ्यात्वं साधयन्तमद्वैतरादिनं प्रति न प्रत्यक्षबाधोपन्यासः फलवानिति पाच्यम् , तथा सत्येतदनुमानस्यापि मिथ्यात्वेनाऽसाधकतयोपन्यासानुपपत्तेः । न चैतदनुमानमेव प्रत्यक्षबाधकम् , 'प्रत्यक्षवाधारहारे तदनुमानप्रामाण्यम् , एतदनुमानप्रामाण्ये च प्रत्यक्षबाधपरिहार' इतीतरेतराश्रयाव, अनन्यथासिद्धत्वेन प्रत्यक्षस्यैव बाधकत्वाच्च । न हि सत्वं विना 'सत्' इति प्रत्यक्षमुपपद्यते, शशङगेऽपि तत्प्रसङ्गात , उपपद्यते च मिथ्यात्वं विनापि दृश्यमिति । [प्रपञ्चमिथ्यात्व साधक अनुमान की दुर्वलता ] इसीप्रकार 'प्रपञ्च दृश्य होने से स्वप्नदृष्ट रथ के समान मिथ्या है-यह अनुमान भी निरस्त हो जाता है क्योंकि अत्यन्ताऽसत्त्वरूप मिथ्यात्व का साधन करने पर विश्व की ख्याति प्रसत्ख्याति हो जायगी। अन्यथाप्रतीयमानत्व रूप मिथ्यात्वका साधन करने पर विश्व को ख्याति-अन्यथा ख्याति हो जायगी ये दोनों ख्याति वेदान्ती को अनिष्ट है । यदि अनिर्वचनीयत्वरूप मिथ्यात्व का साधन किया जायगा तो साध्य की अप्रसिद्धि होगी। क्योंकि स्वप्नरथादि में अनिर्वचनीयत्व को सिद्धि न होने से दृष्टान्त में सायकल्य यति स्वाभावसामानाधिकरण्यरूप मिथ्यात्वक किया जायगा तो भी यही दोष होगा क्योंकि स्वप्नरथादि में स्वाभावसामानाधिकरप्य सिद्ध: और प्रत्येक वस्तु का उसके अधिकरण में पररूप से अभाव होने से विश्वमात्र में स्वाभावसामानाधिकरण्य सिद्ध होने से सिद्धसाधन भी होगा। यदि परमार्थसत्त्वाभावरूप मिथ्यात्व का साधन किया जायगा तो परमार्थसत्व का निर्वचन न होने से साध्याऽप्रसिद्धि होगी। यदि किसी प्रकार उसका निर्वचन किया जा सकेगा तो प्रपञ्च में परमार्थ सत्त्व के ग्राहक 'घटः सन्-पटः सन्' इत्यादि प्रत्यक्ष से परमार्थसत्त्वाभाव के अनुमान में बाध प्रसक्त होगा । [ अनुमान में प्रत्यक्षमाध न होने की शंका का निराकरण ] इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-'जैसे अनुमानमात्र में मिथ्यात्व का साधन करने Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १४१ वाले चार्वाक के प्रति अनुमान द्वारा बाध का उपन्यास निष्फल होता है, क्योंकि अन्य अनुमानों के समात गवक रूप से उपन्यस्यमान अनुमान में भी उसे मिथ्यात्व अभिमत है । उसी प्रकार प्रपश्वमात्र में मिथ्यात्व का साधन करने वाले अद्वैतवादी के प्रति भी प्रत्यक्ष से बाघ का उपन्यास सफल नहीं हो सकता। क्योंकि जो प्रत्यक्ष बायकत्वेन उपन्यस्त होगा वह भी प्रपश्चान्तर्गत होने से अद्वैतवादी को इसमें भी मिथ्यात्व का साधन अभिप्रेत है।' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रपञ्च में मिथ्यात्वसाधन के लिये उपन्यस्तअनुमान भी मिथ्या होने से असाधक होगा। अत एव मिथ्यात्वसाधन के लिये उसका उपन्यास युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि'प्रपञ्च में मिथ्यात्व का साधक यह अनुमान हो प्रपत्र में सत्त्वग्राही प्रत्यक्ष का बाधक है- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षबाध का परिहार होने पर ही इस अनुमान में प्रामाण्य सिद्ध होगा और अनुमानप्रामाण्य सिद्ध होने पर हो प्रत्यक्षबाध का परिहार होगा। अतः इस अनुमान में प्रत्यक्षबाधकता का प्रभ्युपगम परस्पराश्रयदोष से ग्रस्त है । इतना ही नहीं, अपितु प्रपञ्च को मिथ्या मान लेने पर प्रपञ्च में सत्त्वग्राही प्रत्यक्ष अन्यथासिद्ध न हो सकने से प्रत्यक्ष हो अनुमान का बाधक होगा, क्योंकि यह स्प है कि यदि प्रपञ्च में सत्त्व नहीं माना जायगा तो प्रपञ्च में सत्त्वग्राही 'घट: सन' इत्यादि प्रत्यक्ष को उपपत्ति ही न हो सकेगी, क्योंकि सत्व के विना मी सवनाकार प्रत्यक्ष मानने पर शशशशृंग में भी सबआकार प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। एवं मिथ्यात्व के बिना भी दृश्यत्व न्यायमत के समान वेदान्तमत में उपपन्न हो सकता है। अतः दृश्यत्वसाधक अनुमान प्रत्यक्ष को अपेक्षा दुर्बल होने से उसको प्रत्यक्षबाध्य होना अनिवार्य है। ___हेतुपि दृश्यन्त्र हस्पियत्त्वरूपमनिरुक्तिपराहतम् , तथाहि-तद् यदि दृग-दृश्यस्वरूपसंबन्धविशेषः, तदोमय संघन्धिरूपस्य तस्य मिथ्यात्वे उभयोपि मिथ्यात्वम् , सत्पत्वे थोमयोरपि सत्यत्वं स्यात् । यदि च दृगभेदः, तदा पत्ते तदसिद्धिः, दृशि च व्यभिचारः । यदि च 'दृष्टो घटः' इत्यादिधीसाक्षिको विषयतापरपर्याय आध्यामिको दृगमेदस्तदा प्रतिवाद्यसिद्धिा, वादिनो हग्-दृश्याभेदे भागासिद्भिश्च, आध्यासिकदृगभेदे दृगभेदान्तरस्यानवस्थापत्तिभिया वादिनाध्यनङ्गीकारात् । विरुद्धत्वं च, दृश्यत्वस्य मिथ्यात्वाभावव्याप्तत्वादिति न किञ्चिदेतत् । तदेवं व्यवस्थितमेतत्-प्रतीत्यनुरोधेन नाऽद्वैतमेव तत्त्वम्, किन्तु प्रपञ्चोऽपि ब्रह्मवन् परमार्थपन्न वेति ॥ ७॥ [दृश्यत्व हेतु में दोष की परम्परा ] हेत के सम्बन्ध में विचार करने पर हेतु भी निर्दोष नहीं प्रतीत होता क्योंकि दृश्यत्वरूप हेतु को यदि हरिवषयत्वरूप माना जायगा तो विषयत्व का निर्वचन न होने से हेतु का बोध अशक्य हो जायगा-जैसे दृग्विषयत्व यदि दृक्-दृश्य का स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप माना जायगा तो उभयसम्बन्धीरूप सम्बन्ध मिथ्या होने से उभयसम्बन्धी में भी मिथ्यात्व को प्रसक्ति होगी। फलतः दृश्य के समान हग भी मिथ्या हो जायगा। यदि उभयस्वरूपसम्बन्ध को सत्य माना जायगा तो दो. सम्बन्धी में सत्यत्व होने से दृश्य भी सत्य हो जायगा। यदि विषयत्व को हमेदरूप माना जायगा तो प्रपञ्च में दृग का अमेव न होने से हेतु की प्रसिद्धि होगी और हग् में मिथ्यात्व न रहने से Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ [ शास्त्रवार्ता स्त० श्लोक तथा द्वग्अभेद रहने से व्यभिचार होगा। यदि इगअभेद को 'दृष्टो घटः' इत्यादि प्रतीति से सिद्ध आध्यासिक अभेदरूप माना जायगा और उसी का विषयता' इस अन्य नाम से व्यवहार किया जायगा तो प्रतिवादी के प्रति हेतु को अप्रसिद्धि होगी। क्योंकि उसके मत में प्राध्यासिक अभेद अमान्य है । एवं वादी के मत में प्रपञ्चरूप पक्षान्तर्गत पाने वाले हग-दृश्यामेद में आध्यासिक ग्अभेद न होने से भागासिद्धि होगी। क्योंकि प्रनवस्था को प्रापत्ति के भय से वादी भी आध्यासिक दृग्अभेव में अन्य हगभेद का अडोकार नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त मिथ्यात्व के अभाव का होने से दृश्यत्व हेतु मिथ्यात्वरूप साध्य के प्रति विरुद्ध भी है अत: उक्त अनुमान में कुछ भी सार नहीं है। इस प्रकार दीर्घ परामर्श से यह सिद्ध होता है कि अद्वैत ही तत्व नहीं है किन्तु प्रतीति के अनुरोध से ब्रह्म के समान प्रपञ्च भी परमार्थ सत् ही है ॥ ७ ॥ एतद्वादविषयविभागवार्तामाह ८ वी कारिका में यह बात बतायी गयी है-अबंतवाद के विषयरूप में जिसकी प्रसिद्धि हैअद्वैतवाद का विषय वस्तुतः उससे भिन्न है। मुलं-- अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये । अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः ॥ ८॥ अन्ये = जैनाः व्याख्यान यन्ति = व्याचक्षते एवं-यदत्त, समभावप्रसिद्धये = प्रपश्चस्पाश्चिाविलसितत्त्रपात्रप्रदर्शनेन स्वात्मन्येव प्रतिबन्धस्थैर्यात शत्रु-पुत्रादी द्वेष-रागादिभावविच्छेदात् परमचित्तप्रपादरूपमाम्यसिद्धयर्थम् शास्त्रे = श्रावकमज्ञप्तिवेदे, अबैतदेशमा = "आत्मैवेदं सर्व, ब्रह्म वेदं सर्वम्" इत्यादिका निविष्टा न तु तत्त्वतः = अद्वैतमेव तत्त्वमित्यभिप्रायेण | अत एव "पुरुष एवेदं स ग्निम्' इत्यादि श्रुतीनामापातार्थदर्शनजनिती गणधरसंशयस्तासामुक्तार्थमात्मार्थवादत्वेन तदीयसदाशयस्फातये प्रपञ्चमत्यतावेदकश्रुत्यन्तरप्रकटीकरणेन स्वयमेर भगवता निरस्तः । व्यक्तं चैतद् विशेषावश्यकावी। अद्वैत ब्रह्म का उपदेश समभाव की सिद्धि के लिये ] अद्वैतवाद के सम्बन्ध में जैन मनीषियों का यह कथन है कि शास्त्र यानी श्रावकप्रज्ञप्ति नामक वेदशास्त्र में यह सब आत्मा ही है-यह सब ब्रह्म हो है इस प्रकार जो अद्वैत का उपदेश किया गया है वह समभाव-साम्य की प्रकृष्टसिद्धि के लिये किया गया है । समभाव का अर्थ है सभी विषयों में चित्तको समानवृत्ति-जिसे चित्त का परमप्रसाब-नितान्तनमल्य कहा जाता है। इसकी सिद्धि शत्र-पुत्रादि में द्वेष-रागादिभावों के उच्छेद से होती है और वह अपनी आत्मा में ही चित्तवृत्ति स्थिरीकरण से होता है। चित्त का यह स्थिरीकरण जगत में अज्ञानमूलकत्व के दर्शन से होता है। इस प्रकार अद्वैतदेशमा का उद्देश चितनमल्य का सम्पादन है, न कि 'अद्वैतमात्र ही तत्व है- इस विषय का प्रतिपादन । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] इसीलिये पुरुष एवेदं ० यह सब दृश्यमान विश्व पुरुषस्वरूप ही है' इस प्रकार के अर्थ को प्रतिपादन करने वाली जो श्रुतियाँ हैं उनके आपाततः प्रतीयमान अर्थदर्शन से गणधरों को जो संदेह हुआ था, भगवान महावीर ने स्वयं उसका निराकरण उन श्रुतियों को चित्तप्रसादरूप प्रयोजन के लिये आत्मा के अयंधावरूप यानी आत्मप्रशंसापरक बचन बता कर और उन श्रुतियों के अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये प्रपञ्श्वसत्यतावेदक अन्य श्रुति वाक्यों को दीखा कर किया। यह तथ्य विशेषावश्यक भाष्य के द्वितीयगण धरवादप्रकरण में स्फुट किया गया है । यत्तु - " पुरुष एवेदम् ० " इत्यादावीश्वरस्य सर्वावेशनिबन्धनः सर्वतादात्म्य व्यवहारः' इति नैयायिकादीनां समर्थनम्- तन्तु तदभिमतेश्वरनिरासाद् न शोभतेः शोभते तु सर्वतादात्यप्रतिपादकश्रुतीनां सर्वविषयतारूपावेशपरत्वम् निश्रयतः सर्वस्य सर्वज्ञत्वात् परमत्रापि स्वस्यैव सर्वात्मकत्वादन्यस्यानुपयोगित्वादनात्मप्रतिबन्धनिवृत्या साम्यसिद्धिरेव प्रयोजनमिति युक्तं पश्यामः ॥ ८ [ ईश्वर वेशवादी नैयायिकमत अशोभास्पद ] नैयायिकादि उक्तार्थक श्रुतिवचनों का समर्थन यह कह कर करते हैं कि- 'ईश्वर का सम्पूर्ण विश्व में श्रावेश- संविधान विशेष संयोगविशेष है । इसलिये ईश्वर में सर्वतादात्म्यव्यवहार की सम्भाव्यता 'पुरुष एवेदम्' इत्यादि श्रुति से बतायी गयी है ।' उनका यह समर्थन उनको अभिमत ईश्वर प्रमाणशून्य होने से सर्वथा शोभाहीन = युक्तिहीन हैं। शोभायुक्त युक्तिसम्मत कथन तो यह है कि आत्मा में सर्वतात्म्य का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों का यह तात्पर्य लिया जाए कि प्रात्मा का सर्वत्र आवेश सर्वविषयकत्वरूप है। क्योंकि निश्चयनय से सभी सर्वश है, अर्थात् श्रव्यक्तसर्वज्ञता सर्व प्राणों में है । किन्तु इस कथन का भी प्रयोजन चित्तप्रसादरूप साम्य की सिद्धि ही है जो 'आत्मा ही सर्वात्मक है' इस कथन द्वारा आत्मान्य की अनुपयोगिता बता कर अनात्मा में वित्तप्रवृत्ति की निवृत्ति द्वारा सम्पन्न होती है ॥ ८ ॥ उक्तव्याख्यानस्य युक्तत्वमेव व्यवस्थापयन्नाह - ९ वीं कारिका में उक्त व्याख्यान की युक्तियुक्तता का समर्थन किया गया है -- मूलं -- न चैतद्बाध्यते युक्त्या सच्छास्त्रादिव्यवस्थितेः । संसारमोक्षभावाच तदर्थं यत्नसिदितः ॥ ६ ॥ " न च एतत् = उक्तव्याख्यानम् युक्त्या = न्यायेन बाध्यते । कुमः ? इत्याह--यतां = घटादिग्राहिणां शास्त्रादीनाम्, आदिनाऽनुमानादिग्रहः, व्यवस्थितेः = प्रामाण्योपपत्तेः । च = पुनः, संसारमोक्षभाषात् = संसारमोक्षविभागस्य ताविकत्वात् तदर्थं = [ स्वर्गरूपसंसार]-मोक्षार्थम्, तत्पदेन मोक्षस्यैवानुकणात् सकल पुरुषार्थाग्रणीन्येन पोक्षस्य प्रसिद्धत्वात् तत्पदस्य प्रसिद्धार्थत्वाद् वा तदर्थं = मोक्षार्थमिति वा, यत्मसिद्धितः = प्रेक्षायम-नियमादिव्यापारोपरत्तेः ॥ ६ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ [ शास्त्रवार्ता स्त० ८ श्लो०१० शास्त्र में उपलब्ध अवतदेशना का उक्त अर्थ न्याय से बाधित नहीं होता, क्योंकि घट-पादि पदार्यों के तत्वसूचक शास्त्र और प्रनमातादि का प्रामाण्य प्रमाण है। तथा संमार और मोक्ष में वास्तविक भेद है। अतः मोक्ष के लिये प्रेक्षावान् पुरुषों का यम-नियमादि के पालन में प्रयत्नशील होना युक्तिसङ्गत है। कारिका के उक्तार्थ का समर्थन करने के लिये व्याख्याकार ने यह कहा है कि कारिका के उत्तरार्ध में पठित 'तदर्थ' शब्द के पूर्व में यद्यपि संसार और मोक्ष दोनों का उल्लेख है तथापि तत् शव से मोक्ष का हो अतुकर्षण होता है। क्योंकि उसी के लिये यम-नियमादि के पालन का प्रयत्न अपेक्षित होता है। अथवा 'तस्पद' प्रसिद्धार्थ का बोधक होता है और मोक्ष सकलपुरुषार्थों में अग्रणी होने से प्रसिद्ध है इसलिये 'तदर्थ' शब्द का अर्थ 'मोक्षार्य' हो सकता है ।।६॥ विपक्षे वाधामाह १० वी कारिका में अद्वैतवेशना को उक्त व्याख्या से विपरीत ध्याख्या को स्वीकार करने में बाधक उपस्थित किय मृलं-अन्यथा तत्त्वतोऽबैते हन्त ! संसार-मोक्षयोः । सर्वानुष्ठानधैयर्यमनिष्टं संप्रसज्यते ॥१॥ __ अन्यथा - उक्तविपरीतव्याख्याने, 'हन्त' इति खेदे, संसार-मोक्षयोस्तस्यतोऽते= अविभागे सति सर्वानुष्ठानस्य = यम-नियमादेः, यय॑म् = निष्फलत्वम् , अनिष्टम् - परस्याप्यनभिपतम्, संप्रसज्यते प्राप्नोति । संसारनिवृत्यर्थः मोक्षार्थो वा मुमुक्षूणां सर्वोऽपि व्यापारः । स चाद्वैतवादे नोपपद्यते, संसारस्यासत्वेन नित्यनिवृत्तत्वात, मोक्षस्यापि सचिदानन्दरूपब्रह्मात्मस्य नित्यत्वेन निरयावासत्वात् । एवं च प्रपञ्चशून्यतायाः परमार्थत्वे नित्यमुक्ततापत्तिद्पणं मण्डनेनोक्तम् तत्र गत्वा स्वगृहे प्रत्यापत्तम् । अद्वैतवाद में यम-नियमादि की व्यर्थता ] यदि प्रवतवेशना का उक्त व्याख्यान न मान कर तास्विकदृष्टि से अत प्रतिपादन में ही उसका अभिप्राय माना जायगा तो खेव का विषय यह है कि संसार और मोक्ष में वस्तुतः अवंत हो जाने से यम-नियमावि समस्त अनुष्ठान निष्फल हो जायगा जो कि वेवान्ती को भी अभिमत नहीं है । प्रास्य यह है कि मुमुक्षु पुरुषों का सम्पूर्ण व्यापार संसारनिवृत्ति और मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही होता है । जो तात्त्विकरूप से अद्वैतवाद का अभ्युपगम करने पर नहीं उपपक्ष हो सकता है क्योंकि अवैत के सात्त्विकत्व पक्ष में प्रात्मा से भिन्न किसी भी वस्तु का अस्तित्व न होने से संसार असत् होने के कारण नित्यनिवृत है। अतः उसको नित्ति का प्रयत्न निरर्थक है। एवं मोक्ष भी उस मत में सच्चिदानन्वब्रह्मस्वरूप होने से नित्य सिद्ध है अतः उसकी प्राप्ति के लिये भी प्रयत्न की कोई सार्थकता नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रपश्चन्यता को परमार्थ सत मानने पर मण्डनमिश्र ने जो नित्यमुक्तता की आपत्तिरूप दोष बताया है यह वेदान्तीओं के गृह में जाकर पुन: अपने मीमांसागृह में प्रत्यावर्तन का सूचक है। 'अविद्यानिवृत्ययों मुमुक्षण यन' इति चेत् १ न, यतो न तनिवृत्तिः सती, नाय. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] सती, नापि सदसती द्वैवप्रसङ्गानुद्देश्यत्व विरोधेभ्यः, ज्ञानजन्यत्वाच्च । 'अस्तु तह्य निर्वचनीया, जन्यत्वात्, तदुक्तम्-जन्यत्वमेव जन्यस्य मायिकत्व समर्पकम्' इति चेत् १ न, अनिर्वचनीयस्य ज्ञाननिवस्वनियमाङ्गीकारेण तन्निवृत्तिपरम्पराप्रसङ्गात् अथ सदद्वैतव्या कोपादसत्येव सा, असवेऽपि तस्या उद्देश्यत्यज्ञानजन्यत्वादि कल्पयिष्यत इति चेत् ? नन्वेवमविद्यायसस्येव कार्यजननी कल्प्यतामिति कृतान्तव्याकोपः । कल्प्यादर्शन संत्रासस्तूभयत्र तुल्यः 1 पञ्चकारखाश्रयणं स्वत्वन्ताऽप्रसिद्धम् । 1 'अस्तु तर्हि चैतन्यात्मिकाऽविद्यानिवृत्तिरिति चेत् ! मदुक्तमेवेत्थं चैतन्यस्य सदा सच्वेन तदर्थप्रयत्नवैकल्यं दूषणम् । अथ तचज्ञानोपलक्षितं चैतन्यमज्ञाननिवृत्तिः तच्च न तवज्ञानतः प्रागस्ति, उपलक्षणस्वस्य संबन्धाधीनत्वात् काकसंबन्धो हि गृहस्य काकोपलचितत्वमिति तन, काकोपलचितत्वस्याप्येकान्ते काकसंबन्धोत्तरं तदा हितस्वभावा (न) नुवृत्त्याऽसंभव - दुक्तिकत्वात्, अनेकान्त एव तदुक्तेः 'अयं छत्री' इत्यादाविव योगतत्वपर्यवसानात् विश्व ज्ञानोपलक्षितत्वस्यापि सच्चेऽद्वैतव्याघातः असत्व उद्देश्यत्वानुपपत्तिः, मिध्यात्वे ज्ञाननिवर्त्य - स्वापत्तिः, चिन्मात्रत्वे चोक्तदोषानतिवृत्तिरिति न किञ्चिदेतत् । " [ अविद्यानिवृत्ति के लिये मोक्षार्थी का प्रयत्न अयुक्त ] यदि यह कहा जाय कि "मुमुक्षुओं का प्रयत्न अविद्यानिवृत्ति के लिये होता है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विद्यानिवृत्ति का स्वरूप दुर्बच है। जैसे अविद्यानिवृत्ति को सत्-असत् अथवा सदसत् (उभयात्मक ) नहीं माना जा सकता। क्योंकि, उसे सत् मानने पर ब्रह्म से भिन्न सत्पदार्थ के अभ्युपगम से द्वंत प्रसङ्ग होगा । असत् मानने पर वह मुमुक्षु के प्रयत्न का उद्देश्य न हो सकेगी और सत् असत् उभय मानने पर विरोध का प्रसङ्ग होगा अर्थात सत्त्व असत्व विरुद्ध धर्मो के एकत्र समावेश की प्रसक्ति होगी। साथ ही प्रविद्यानिवृत्ति ज्ञानजन्य है अतः वह सत् श्रसत् या उभयात्मक नहीं हो सकती क्योंकि सत् या असत् आदि जन्य नहीं होता । | अविद्यानिवृत्ति अनिर्वचनीय नहीं हो सकती ] यदि यह कहा जाय कि- 'उक्तदोष के कारण श्रविद्यानिवृत्ति अगर सत् या असत् नहीं हो सकती तो उसे अनिर्वचनीय माना जा सकता है क्योंकि वह जन्य है और यह कहा गया है कि जन्यत्व ही जन्य वस्तु के मायिकत्व मायाजन्यत्व अनिर्वचनीयत्व का बोधक है ।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अनिर्वचनीय में ज्ञाननिघत्व का नियम है । अतः श्रविद्यानिवृत्ति और उसकी भी निवृत्ति की परम्परा रूप अनवस्था का प्रसङ्ग होगा । यदि यह कहा जाय कि 'सद्वैतवाद के sana भय से अविद्यानिवृत्ति असत् ही है और असत् होने पर भी उसमें उद्देश्यत्व और ज्ञानजन्यत्यादि कल्पित है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर भी कहा जा सकता है कि प्रविद्या भी असत् ही है और प्रपश्वजनकत्व उसमें कल्पित है और ऐसा मान लेने पर वेदान्तसिद्धान्त का व्याघात होगा। यदि यह कहा जाय कि 'कल्पनीय असत् पदार्थ में कार्यजनकत्व के अवर्शन के भय से Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ [ शास्त्रवार्ता स्त० ८ श्लो० १० यह मानना सम्भव नहीं है तो यह भय अविद्यानिवृत्ति को असत् मानकर उसमें उद्देश्यत्व और ज्ञानजन्यत्वादि की कल्पना करने में भी समान है। उक्त सत्त्व, असस्य, सबसत्त्व और अनिर्वचनीयत्व इन चार प्रकार से अन्य कोई पांचवा प्रकार अत्यन्त अप्रसिद्ध है, अतः अविद्यानिवृत्ति के सम्बन्ध में किसी पांचवे प्रकार को श्राश्रय करने की सम्भावना शक्य नहीं है । यदि उक्त दोषों के कारण अविद्यानिवृत्ति को चैतन्यस्वरूप माना जायगा तो चैतन्य सदा विद्यमान होने से अविद्यानिवृत्ति भी सदा विद्यमान होगी । अतः उसके लिये मुमुक्षु के प्रयत्न के वैकल्यरूप पूर्वोक्त दोष प्रसक्त होगा । [ तच्चज्ञानोपलक्षित चैतन्य अविद्यानिवृत्तिरूप कैसे ? ] यदि यह कहा जाय कि - 'तत्त्वज्ञान से उपलक्षित चैतन्य ही अज्ञाननिवृति है और एवम्भूत तय तत्वज्ञान से पहले नहीं रहता क्योंकि उपलक्षणत्व सम्बन्धाधीन होता है । श्रतः संतन्य के साथ तत्त्वज्ञान का सम्बन्ध होने के बाद ही तत्त्वज्ञान चैतन्य का उपलक्षण और चेतन्य तत्त्वज्ञान से उपलक्षित हो सकता है। उपलक्षणत्व सम्बन्धाधीन होता है यह काकोपलक्षितगृह में दृष्ट है, क्योंकि वही गृह काकोपलक्षित कहा जाता है जिस में काकसम्बन्ध हो चुका है ।' किन्तु विचार करने पर यह har भी ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि एकान्तवाद में गृह में काकोपलक्षितत्व का भी कथन सम्भव नहीं traffic reसम्बन्धजनितस्वभाव एकान्तवाद में काकसम्बन्ध के बाद भी अनुवर्तमान नहीं रहता है | अतः अनेकान्तवाद ही गृह में काकोपलक्षितत्व की उक्ति एवं उस दृष्टान्त से चैतन्य में तत्त्वज्ञानोपलक्षितत्व की उक्ति 'अयं छत्री' इस उक्ति के समान योगसत्य रूप में पर्यवसित हो सकती है। कहने का प्राशय यह है कि जिस वस्तु में जिसका कभी योग हुआ रहता है उस योग का अभाव हो जाने पर भी वह वस्तु उस असोत योग द्वारा उस रूप में भी सत्य कही जाती है जिस रूप में वह योगकाल में सत्य कही जाती थी। जैसे, जब कोई मनुष्य छत्रधारण किये हुये रहता है तो उस समय उसे छत्री कहना सत्य होता है, उसी प्रकार जिस समय उसके पास छत्र नहीं होता उस समय भी पूर्व छत्र सम्बन्ध के कारण उसे छत्री कहना सत्य माना जाता है । किन्तु यह बात प्रनेकान्त पक्ष में अर्थात् एक वस्तु को परस्पर विरोधी धर्मात्मक मानने के पक्ष में ही सम्भव होती है । अतः तय को तत्त्वज्ञानोपलक्षित एवं गृह को काकोपलक्षित सभी कहा जा सकता है जब चैतन्य को तत्त्वज्ञान से सम्बद्धासम्बद्ध एवं गृह को काक से सम्बद्धाऽसम्बद्ध माना जाय । इसके अतिरिक्त अन्य बात यह है कि शानोपलक्षितत्व को भी यदि सत् माना जाएगा तो अत व्याघात होगा । यदि असत् माना जायगा तो वह उद्देश्य नहीं हो सकेगा । यदि मिथ्या माना जायगा तो ज्ञान निवर्त्यत्व की आपत्ति होगी । यदि चैतन्यमात्रस्वरूप माना जायगा तो बह नित्यसिद्ध होने से उसके लिये मुमुक्षु के प्रयत्नवैकल्यरूप उक्त दोष का परिहार नहीं हो सकेगा | अतः यह कथन भी निःसार हो है । *अथ नाऽज्ञानस्य निवृत्तिर्नामध्वंसः, रूपान्तरपरिणतोपादानस्यैव तद्रूपत्वाद, घटध्वंसो हि चूर्णाकारपरिणता मृदेव । न च चैतन्यस्य रूपान्तरमस्ति । तस्माद् नास्त्येवाज्ञानध्वंसः, ॐ इतः 'सर्वस्वम्' [पृ० १४७] इति पर्यन्तो वेदान्सिपूर्वपक्ष: Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक० टोका एवं हिन्दी विषेचन ] १४७ किन्त्वज्ञानस्य कल्पितत्वात् तदत्यन्ताभाव एष तभिवृत्तिः । कि तहि तत्वज्ञानस्य साध्यम् ?' इति चेत् ? नास्त्येज्ञानात्यन्तामावबोधात्मकवाधव्यतिरेकेण । तदुक्तम् "तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थसम्यग्धीजन्ममावतः | ___ अविद्या सह कार्येण नासीदास्त भविष्यति ॥१॥ इति । स चायमधिष्ठानात्मक एव, मिथ्याभूतस्य च बाध एव धंस इत्यभिधीयते । अत एव शुक्तिबोधे रजतध्वंसव्यवहारः, न तु शुक्तिबोधेन रजतध्वंसः संभवति, रजतात्पन्ताभावचोघात्मको बाधस्तु शुक्तिज्ञानात्मक एव भवतीति । 'कथं तहिं सर्वदा सत इच्छा, तदर्थेप्रयत्नविशेषो वा : इति चेत् । नास्माकै परेषामिव मुक्तिभिमा, किन्तु चिद्रूपैव, नित्यावाप्तव च, इच्छा-प्रयत्नविशेषौ तु कण्ठगतचामीकरन्यायेनानवाप्सत्वभ्रमात् । तन्निमिचं चाऽज्ञानमेव । न चैवं मुक्तेः पुरुषार्थत्वहानिः, तद्धि न पुरुषकृतिसाध्यत्वम् , विषभक्षणादेरपि तथात्वापत्तेः । नाभिलपितत्वे सति कतिसाध्यत्वं तत् , गौरवात , लाघवेनाभिलषितत्वमात्रस्येव पुरुषार्थत्वौचिस्यात् । चन्द्रोदये पुरुषार्थत्वमिष्टमेव, प्रवृत्तिविलम्बस्तु कृतिसाध्यताधीविलम्पान् । ततः सिद्धं नित्यावाप्तस्यैव कण्ठगतचामीकरवच्चतन्यस्य पुरुषार्थस्वम् । इत्यस्माकं वेदान्तविवेकस. स्वमिति चेत् ? [ अज्ञाननिवृत्ति अज्ञानात्यन्ताभावरूप है-पूर्वपच ] यदि यह कहा जाय कि-अज्ञान की नित्ति ध्वंसस्वरूप नहीं है क्योंकि रूपान्तर में परिणत उपादान हो सरूप होता है. जैसे. चर्ण के आकार में परिणत मत्तिकाही घरध्वंस है। चैतन्य का कोई रूपान्तर नहीं होता। अतः अज्ञान का ध्वंस नहीं माना जा सकता । किन्तु अजान कल्पित होने से अज्ञान का अत्यन्ताभाव ही अज्ञान को निवृत्ति है। यदि यह प्रश्न किया जाय कि-'यदि अज्ञान की निवृत्ति प्रज्ञान के अत्यन्ताभाव रूप होगी तो अत्यन्ताभाव साध्य न होने से तत्वज्ञान का साध्य क्या होगा?' तो इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है कि अज्ञान के प्रत्यन्ताभाव का बोधप बाथ ही उसका साध्य है। उससे अतिरिक्त उसका कोई साध्य नहीं है। जैसा कि वेदान्तमत में कहा गया है कि 'तत्त्वमसि' आदि वाक्यों से ब्रह्मा के सम्याज्ञान का जन्म होते ही यह बोध हो जाता है कि विद्या तथा उसका कार्य न पहले कभी था, न वर्तमान में है और न भविष्य में होगा। अर्थात प्रज्ञान का सार्वविक और सार्वत्रिक प्रभाव है। यही अज्ञान का अत्यन्ताभाव है और यह अभाव अधिष्ठानभूत ब्रह्मस्वरूप ही है । इसी को मिथ्या का बाष स्वरूप होने से ध्वंस कहा जाता है। इसीलिये शुक्तिस्वरूप से शुक्तिविषयक बोध में रजतध्वंस का व्यवहार होता है न कि शुक्तिबोध से रजतध्वंस की उत्पत्ति होती है। रजतात्यन्ताभाव का बोधरूप रजतबाध शुक्तिज्ञानस्वरूप ही होता है। यहां प्रश्न हो कि-'यदि अज्ञानात्यन्ताभावरूप अज्ञाननिवृत्ति यदि ब्रह्मस्वरूप है तब तो वह चैतन्यात्मना सत-सवासिद्ध है फिर उसकी इच्छा अथवा उसके लिये प्रयत्नविशेष कैसे होगा?' तो इसका उत्तर यह है कि नैयायिकादि के समान वेदान्ती के मत में मुक्ति-मुमुक्षु Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ [ शास्त्रवार्ता० स्त० - श्लो० १० से भिन्न नहीं है, किन्तु मुमुक्ष के समान चिद्रूप ही है, इसलिये नित्यप्राप्त भी है। उसकी इच्छा और उसके लिये प्रयत्न उसमें अप्राप्तत्वभ्रम के कारण ठीक उसी प्रकार होता है। जैसे कण्ठ में पहले हुए भुवर्णहार में अविद्यमानता का भ्रम होने से उसकी इच्छा और उसके पाने का प्रयत्न होता है और 'चैतन्यरूप मुक्ति प्रप्राप्त है'-इस भ्रम का निमित्त उसका अज्ञान ही होता है । [मुक्ति में पुरुषार्थत्य की हानि नहीं है ] यदि यह शंका को जाय कि-'मुक्ति को नित्यप्राप्त चैतन्यस्वरूप मानने पर उसमें पुरुषार्थत्व की हानि होगी-तो इसका उत्तर यह है कि मुक्ति को चैतन्यस्वरूप मानने पर भी यह दोष नहीं हो सकता, क्योंकि वह दोष तभी हो सकता है जब पुरुषकृतिसाध्य को ही पुरुषार्थ माना जाय । किन्तु यह सम्भव नहीं है, क्योंकि विषभक्षणादि भी पुरुषकृतिसाध्य होने से पुरुषार्थ हो जायमा । अभिलषितकृतिसाध्य को भी पुरुषार्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने में गौरव है, किन्तु लाघव से अभिलषितस्वमात्र को ही पुरुषार्थ मानना होगा। ऐसा होने पर उक्त रीति से चतन्यस्वरूप मुक्ति भी अभिलषित होने से उसमें पुरुषार्थत्व सर्वथा युक्तिसंगत है। यदि यह कहा जाय कि--'अभिलषितमात्र को पुरुषार्थ मानने पर चन्द्रोदय भी अभिलषित होने से वह भी पुरुषार्थ हो जायगा'-तो यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है अर्थात् चन्द्रोदय भी पुरुषार्थ रूप होता ही है। पुरुषार्थ होने पर भी जो उसके लिये मनुष्य को प्रवृत्ति नहीं होती उसका कारण,-प्रवृत्ति के कारणीभूत इष्टसाधनता के ज्ञान का प्रभाव है सपकार नह निविवाद सिद्ध है कि-नित्यप्राप्त चैतन्य ही काठगत सुवर्णहार के समान मोक्षरूप में पुरुषार्थ है । यहो वेदान्त के विवेकपूर्ण विचार का निष्कर्ष है। "मुक्ती भ्रान्तिन्तिरेव प्रपञ्चे भ्रान्तिः शास्त्रे भ्रान्तिरेव प्रवृत्तौ । कुत्र भ्रान्तिर्नास्ति वेदान्तिनस्ते बलप्ता मूर्तिन्तिभिर्यस्य सर्वा ॥१॥" कथं चास्य भ्रान्तस्य शास्त्रश्रवणाद् नित्याचाप्ते चैतन्येऽनवाप्तत्वभ्रमो न निवर्तते । कथं वा विदितवेदान्तः स्वयमनिवृत्तानवाप्तत्वभ्रमः परमुपदेशेन प्रवर्तयन् प्रतारको न स्यात् ।। [ वेदान्ती का समूचा निर्माण भ्रान्तिमूलक है-उत्तरपक्ष ] वेदान्तो के दीर्घप्रतिपादन के विरोध में व्याख्याकार यशोविजयजी महाराज का कहना है कि वेदान्त का यह निष्कर्ष वेदान्ती को अप्रतिमभ्रान्ति का ही सूचक है क्योंकि उक्त निष्कर्ष के अनुसार यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि वेदान्ती को मोक्ष के विषय में भ्रान्ति है, प्रपञ्च के विषय में भ्रान्ति है, शास्त्र के विषय में भ्रान्ति है, प्रवृत्ति के विषय में भ्रान्ति है । इस प्रकार एक शब्द में यह कहा जा सकता है कि वेदान्ती को किस विषय में भ्रान्ति नहीं है ? ऐसा लगता है कि वेदान्ती का पूरा निर्माण ही केवल भ्रान्ति से हुआ है। इसके अतिरिक्त वेदान्त के सम्बन्ध में यह भी प्रश्न उठता है कि जब चैतन्यरूप मोक्ष नित्य प्राप्त है, अप्राप्तता का तो केवल भ्रममात्र है तो वह भ्रम शास्त्रश्रवणमात्र से ही क्यों निवृत नहीं होता? अथवा यह भी प्रश्न होगा कि-- वेदान्त का ज्ञाता होने पर भी उसके अपने ही मोक्ष अनवाप्त है, ऐसे भ्रम को निवृत्ति नहीं होती है तो उपदेश द्वारा श्रवणादि साधनों में अन्य पुरूषों को प्रवत्त करने से वह पञ्चक क्यों नहीं होगा ?" Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १४६ अथ द्विविधोऽस्माकं समाधिः- लयपूर्वका, बाधपूर्वकश्च । सत्र पञ्चीकृतपञ्चभूतकार्य व्यष्टिरूपं समष्टिरूपविराट्कार्यत्वात तब्यतिरेकेण नास्ति, तथा समष्टिरूपमपि पञ्चीकृतपञ्च भूतात्मक कार्यमपञ्चीकृतमहाभृतकार्यत्वात् तव्यतिरेकेण नास्ति, तत्रापि पृथिवी शब्द-स्पर्श रूप-रस-गन्धाख्यपञ्चगुणा गन्धेतर चतुगुणात्मकाऽकार्यत्वात् तद्व्यतिरेकेण नास्ति । आपश्च गन्धरसेतरत्रिगुणात्मकतेजाकार्यत्वात् तद्वतिरेकेण न सन्ति । तदपि गन्ध-रस-रूपेतरद्विगुणवायुकार्यत्वात् तन्यतिरेकेण नास्ति । स च शब्दमात्रगुणाकाशकार्यत्याद तद्वयतिरेकेण नास्ति । स च शब्दगुण आकाशो 'बहु स्याम्' इति परमेश्वरसंकल्पात्मकाहंकारकार्यत्वात् तद्वतिरेकेण नास्ति । सोऽपि मायेक्षणरूपमहत्तत्वकार्यत्वात् , तद्वयतिरेकेण नास्ति । तदपि मायापरिणामत्वात् तयतिरेकेण नास्ति । इत्यनुसन्धानन विद्यमानऽपि कार्यकारणात्मकं प्रपञ्चे चैत्रन्यमात्रगोचरो यः समाधिः स लयपूर्वक इत्युच्यते । अयं च सुषुप्तिवत् सबीजः, तत्त्वमस्यादिवेदान्तमहावाक्यार्थज्ञानाभावेनाविद्यातत्कार्यस्याऽक्षीणत्वात् । एवं चिन्तनेऽपि कारणसत्त्वेन पुनः कृत्स्नप्रपञ्चदर्शनाद् । वेदान्तमहावाक्यार्थज्ञानेनाविद्यानिवृत्तौ साक्षिक्रमेण तत्कानिवृत्तेहेन्वभावेन पुनरनुस्थानात् । वाधर्वस्तु निर्षीजः समाधिः, तत्र लयपूर्व कसमाधावनवाप्तत्वभ्रमनिवृत्तावपि पीजसथात् पुनस्तदुस्थानात प्रवृत्तिः । बाधपूर्वकसमाधौ तु कुलालचक्रभ्रमवत् पूर्वसंस्कारवशा• देव । उपदेशस्तु शमादिसंपत्यर्थमेव, नानवाप्तत्वभ्रमनिवृत्त्यमिति न तद्वैफल्यमिति चेत १ न, [प्रश्नद्वय के उत्तर में समाधि की प्रक्रिया ] इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्ती की ओर से यह कहा जा सकता है कि घेदान्तमत में समाधि दो प्रकार को होती है एक लयपूर्वक, दूसरी बाधपूर्वक । जैसे पश्चीकृत पवमूतों का व्यष्टिरूप कार्य समष्टिरूप विराट का कार्य होने से समष्टि से अतिरिक्त नहीं होता और समष्टि भी अपञ्चीकृत महाभूतों का पञ्चीकृत पञ्चभूतात्मक कार्य होने से अपश्चीकृत महाभूतों से अतिरिक्त उसको भी सत्ता नहीं होती। अपञ्चीकृतमहाभूतों में भी शव रूप रस-गन्ध-स्पर्श इन पांच गुणों से युक्त पृथ्वो, गन्ध से भिन्न शम्दादि चार गुणों संयुक्त जल (-अप) का कार्य होने से जल से भिन्न उसको भी सत्ता नहीं है। एवं गन्ध और रस से भिन्न मान्दादि तीन गुणों से युक्त तेज का कार्य होने से तेज से भिन्न जल की भी सत्ता नहीं है। एवं गन्ध-रस-रूप से भिन्न शब्द और स्पर्शरूप दो गुणों से युक्त वायु का कार्य होने से वायु से भिन्न तेज को भी सत्ता नहीं है । तथा शब्दमात्रगुण वाले आकाश का कार्य होने से आकाश से भिन्न बायु की भी सत्ता नहीं है । एवं 'एकोऽहं बटु स्यां'-मैं अकेला बहुत बन जाउँ'-परमेश्वर के इस संकल्परूप अहंकार का कार्य होने से इस प्रकार से भिन्न आकाश की भी सत्ता नहीं है । एवं परमेश्वर को मायारूप शक्ति की ईक्षणात्मक वृत्तिरूप महत तत्व का कार्य होने से उस ईक्षण से भिन्न अहंकार को भी सत्ता नहीं है और माया का परिणाम होने से माया से अतिरिक्त ईक्षण को भी सत्ता नहीं है। इस प्रकार के ज्ञान से कार्य-कारणात्मक प्रपन्च के विद्यमान होते हुये भी चैतन्यमात्र मोचर जो समाधि होती है अर्थात् मुमुक्ष का चित्त कार्यकारणात्मक प्रपत्र के Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] [ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०१० रहते हुये भो उक्त अनुसंधान द्वारा जब चैतन्यमात्र में अवस्थित हो जाता है तो चित्त की यह चैतन्यमात्र गोचर अवस्था को ही लयपूर्वक समाधि कही जाती है। क्योंकि चित्त की यह अवस्था स्थूल-सूक्ष्म तत्तत्कार्यों का तत्तस्कारणों में लय के अनुसंधान से सम्पन्न होती है। यह समाधि सुषुप्ति के समान सबोज होती है। क्योंकि इस समाधि में 'तत्त्वमसि' आवि वेदान्त के महावाक्यों का अर्थज्ञान न होने से विद्या और अधिद्या के कार्य का क्षय नहीं होता। अतः उक्त रीति से कारण में कार्यलय का चिन्तन होने पर भी कारण के स्वरूपतः बने रहने से सम्पूर्ण प्रपञ्च का पुनः प्रत्यक्ष दर्शन होता है । यह तो हुयी लयपूर्वक समाधि की बात ।। किन्तु जो समाधि वाषपूर्वक होती है वह निर्बोज समाधि होती है क्योंकि वेदान्त के महान वाक्यार्थ ज्ञान से अविद्या की नियत्ति होकर साक्षिक्रम से जब उसके कार्यों की मिवत्ति हो जाती है तब अविद्यारूप हेतु का अभाव हो जाने से इस समाधि से समाहितव्यक्ति का पुनरुत्थान नहीं होता। कहने का आशय यह है कि लयपूर्वक समाधि में चैतन्यात्मक मोक्ष में अनवाप्तत्वभ्रम की निवृत्ति हो जाने पर भी विद्यारूप बीज विद्यमान रहने से इस समाधि से मुमुक्ष का पुनरुत्थान होकर व्यवहार में उसकी प्रवृत्ति होती है। किन्तु बाधपूर्वक समाधि में अविद्यारूप बोज विद्यमान न रहसे से समाधिस्थ ममक्ष का इस समाधि से पुनरुत्थान होकर व्यवहार में प्रवार नहीं होती। किन्तु पुनरुत्थान के विना ही पूर्व संस्कार के कारण ही उसी प्रकार प्रवृत्ति होती है जैसे कुलाल द्वारा हटवण्ड से चक को घूमाने पर उत्पन्न धेगास्यसंस्कार से बाद में दण्डप्रयोग के विना भी चक्र का भ्रमण होता है । अत: वेदान्तश्रवण से ही मोक्ष में अनवाप्तत्व भ्रम की निवृत्ति होने के कारण प्रथम प्रश्न निरवकाश है। दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि वेवान्तश्रवण करने पर भी अनवाप्तत्यभ्रम से युक्त वेदान्ती दूसरों को श्रवणादि साधनों का ओ उपवेश करता है वह प्रप्राप्तत्वभ्रम की निवृत्ति के लिये नहीं किन्तु शमदभादि की सम्पत्ति के लिये करता है। जिससे मुमुक्ष शम-दमादि से सम्पन्न होकर बाधपूर्वक समाधि में पहुँच सके । अतः श्रवणातिरिक्त साधनों के अनुष्ठान का उपदेश विफल न होने से वह वश्चक नहीं कहा जा सकता।" ___ अमावचोघातिरिक्ता विद्यानिवृत्यभाव उक्तोमयसमाधिविशेषस्यैवा सिद्धा, कल्पितानुलोमविलोमक्रमवभिवृत्तिमात्रस्य विशेषाऽहेतुत्वात , तादृशक्रमस्यैवानियभ्यत्वात् , विविक्तप्रत्ययस्वरूपमात्राद् विशेषे सर्वज्ञानचरमक्षण एव मुक्तिरिति बदन सौगत एव विजयेत । [समाधिय में विलक्षणता की असिद्धि ] किन्तु वेदान्तीओं का यह उत्तर व्यास्थाकार की दृष्टि में समीचीन नहीं है। उनका यह कहना है कि जब अज्ञानात्यन्ताभाव के बोध से अतिरिक्त अविद्यानिवृत्ति का अभाव है तो उक्त समाधिदय में इस प्रकार का लक्षण्य, कि लयपर्वक समाधि में अविद्यानिवत्ति नहीं होती ती और बाधपूर्वक समाधि में अविद्या की निवृत्ति होती है,-संगत नहीं हो सकता। कारण अनुलोम और विलोमक्रम को कल्पना से युक्त निवृत्तिमात्र वैलक्षण्य का हेतु नहीं हो सकता क्योंकि उस क्लम का ही कोई नियामक नहीं है। यदि विविक्तप्रत्यय-अविद्यादि से अनुपहित चैतन्य को केवल स्वरूप से ही अविद्यादिउपहित चैतन्य से विलक्षण मान कर मोक्षस्वरूप माना जायगा तो 'सर्वज्ञ के ज्ञान का चरमक्षण ही मुक्ति Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ ०० टीका एवं वी] है' इस सिद्धान्त के समर्थक बौद्ध की ही विजय होगी। क्योंकि बौद्धमत में भी सर्वज्ञ ज्ञान के चरम क्षण को किसी अन्य प्रकार से सर्वज्ञ के पूर्वज्ञान से विलक्षण न बता कर स्वरूपमात्र से ही विलक्षण माना जाता है और वही बात उक्त रीति से वेदान्त में भी नित्य चैतन्य को मोक्षस्वरूप मानने पर बलवान होती है। किश्च निवृत्तानवाप्तत्वभ्रमस्यापि पुनस्तद्मोदयादेव प्रवृत्तिरित्यपूर्वेयं प्रेचावता । अपिच, शमाद्यर्थोऽप्युपदेशो व्यर्थ एव, मुक्तिसाधनतायां तस्थाऽप्रामाण्यात् । अथ तवज्ञानसाधनताय तत् प्रामाण्यम्, तच स्वत एव फलरूपम्, अत एव न तद् विधेयमिति चेत् न, तत्वज्ञानस्य सुख-दुःखहान्यन्यतरत्वाभावेन स्वतः फलरूपत्वानुपपत्तेः । न च दुःखहा निरूपमेव तत्वज्ञानमिति स्वतः फलम् एकस्य भावाऽभावोभवरूपत्वविरोधात् अविरोधे वा भावाइभावकरम्बितो भयवस्त्वापत्तेः । किञ्च तत्वज्ञानेऽपि मुमुक्षयैवेच्छा जायमाना तस्य स्वतः फलत्वं व्याद्दन्ति । यदि च तत्र स्वरसत एवेच्छा तदा वटादावपि तथैव सा स्यादिति घटादेरपि स्वतः फलत्वापत्तिरिति न किञ्चिदेतत् । [ भ्रमनिवृत्ति के बाद पुनः अमोदय से प्रवृत्ति की उपहास्यता- उत्तरपक्ष ] उक्त रोति से नित्यचैतन्यात्मक मोक्ष के लिये इच्छा और प्रवृत्ति का उपपावन करने वाले वेदान्ती की यह अपूर्व [ उपहसनीय] बुद्धिमत्ता प्रकट होती है कि मुमुक्षु लयसमाधिलीन होने पर उसके मोक्ष में अप्राप्तश्वभ्रम की निवृत्ति हो जाने पर भी पुन: श्रप्राप्तत्व भ्रम का उदय होता है और उससे उसकी प्रवृत्ति होती है । दूसरी बात यह है कि अप्राप्तत्वभ्रम की निवृत्ति के समान समाधि के लिये भी उपदेश व्यर्थ है क्योंकि शमादि की मुक्तिसाधना में कोई प्रमाण नहीं है। यदि यह कहा जाय कि 'शमादि की मोक्षसाधनता भले प्रामाणिक न हो किन्तु तत्वज्ञानसाधना प्रामाणिक है और तत्त्वज्ञान स्वतः फलरूप होने से विधेय नहीं हो सकता, अतः उसका उपाय होने से शमादि विधेय हो सकता है। अतः शमादि के लिये उपदेश व्यर्थ नहीं हो सकता ।' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि तत्त्वज्ञान सुख अथवा दुःखाभावरूप न होने से स्वतः फल नहीं हो सकता। यदि कहा जाय कि- 'तत्वज्ञान दुःखहानिरूप होने से हो स्वतःपल है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एकवस्तु में भावाऽभाव उभयरूपता वेदान्तमत में विरुद्ध है । यदि भावाभावरूपता में विरोध न माना जायगा तो भावाभावमिश्रित उभयवस्तु की प्रापत्ति होगी अर्थात् दुःखहानिस्वरूपेण अभात्रात्मक और तत्त्वज्ञानात्मना भावात्मक एक वस्तु और तत्त्वज्ञान स्वरूपेण भावात्मक एवं दुखहानिस्वरूपेण अभावात्मक इस प्रकार उभयवस्तु को प्रापति होगी । इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह कि यतः तत्त्वज्ञान की इच्छा मोक्षेषामूलक होती है । छतः वह स्वतः फलरूप नहीं हो सकता। क्योंकि जिस वस्तु की इच्छा अन्य वस्तु से जन्य नहीं होती वही स्वतः फलरूप होती है। यदि तत्त्वज्ञान की इच्छा मोक्षेच्छापूर्वक न होकर नैसर्गिक होगी तो घटादि में भी उसी प्रकार नैसर्गिक इच्छा मानने से घटादि में भी स्वतः फलत्व की आपत्ति होगी । अतः वेदान्तो का उक्त कथन महत्वशून्य है । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ [ शास्त्रवाता० स्त० ८ श्लो० १० अपिच, एवमभ्रान्तपुरुषकृतिमाध्यत्वरूपं पुरुषार्थत्वमपि मोक्षस्यानुपपन्नमेव । न चाभिलपितत्वमात्र तत्, बलवदनिष्ठाननुवन्धित्वभ्रमजन्येच्छाविषये विषभक्षणेऽतिव्याप्तेः, अभ्रान्तेच्छाविषयत्वं तु न मुक्तावपि, अनवाप्तत्वभ्रमजन्येच्छाविषयतादेव न चाभिलषितत्वमात्रसम्वेऽपि चन्द्रोदये पुरुषार्थत्वं व्यवहियते, लक्ष्शीकृतं च तादृशव्यवहारालम्बनमेव तदिति । एसेन 'नानवाप्तत्वभ्रमजन्या मोक्षेच्छा, अवामत्वज्ञानस्येच्छाप्रतिवन्धकस्य दोषेण प्रतिबन्धादेव तदुदयात्' इत्युक्तावपि न क्षतिः, वस्तुतोऽविवेके सत्यनवाप्तत्वज्ञानम् , तस्मिंश्च सति न मुमुना, इति न यावदधिकारसंपत्तिरेव वेदान्तिनः । [वेदान्तमत में मोक्ष पुरुषार्थ की अनुपपत्ति ] यह भी ज्ञातव्य है कि वेदान्तमत में मोक्ष में पुरुषार्थत्व भी अनुपपन्न ही रहता है क्योंकि पुरुषार्थत्व भ्रमाऽजन्यपुरुषकृतिसाध्यतारूप है जो मोक्ष के नित्य प्राप्त होने से सम्भव नहीं है । अभिलषितत्वमात्र को पुरुषार्थत्व नहीं कहा जा सकता । क्योंकि बलयत् अनिष्ट के अजनकत्व का भ्रम होने पर विषभक्षण भी अभिलषित हो जाता है, अतः उसमें पुरुषार्थत्व की प्रतिव्याप्ति होगी। यदि भ्रमाजन्येच्छाविषयत्व को पुरुषार्थत्व माना जायगा तो वह भी मुषित में सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि मुक्ति की इच्छा वेदातमत में मोक्ष में अप्राप्तवभ्रम से ही उत्पन्न होती है। दूसरी बात यह है कि अभिलषितत्व मात्र 'चन्द्रोदय में भी होता है किन्तु उसमें पुरुषार्थत्व का व्यवहार नहीं होता और लक्ष्य वही है जो पुरषार्थत्वव्यवहार का विषय है। अतः अभिलषितत्व को पुरुषार्थत्व मानने पर चन्द्रोदय में उसकी प्रतिध्याप्ति अनिवार्य है। प्रमाजन्येच्छाविषयत्व को पुरुषार्थत्व मानने पर मोक्ष में प्रसक्त अव्याग्ति का परिहार करने के लिये यदि यह कहा जाय कि 'मोक्ष को इच्छा अनवाप्तत्वभ्रम से नहीं होती किन्तु इच्छाप्रतिबन्धक प्राप्तत्व ज्ञान का दोषवशप्रतिबन्ध होने से प्राप्तत्वज्ञानाभाव से ही मोक्षरछा का उदय होता है तो यह कथन उक्त दोषप्रदर्शन में क्षतिकारक नहीं है, क्योंकि पुरषार्थव्यवहाराविषयीभूत चन्द्रोदय में पुरुषार्थत्व की प्रतिव्याप्ति तस्वस्थ रहती है। वस्तुस्थिति यह है कि प्रनवाप्तत्वभ्रम से मोक्षच्छा का समर्थन ही नहीं हो सकता क्योंकि अनवापरावभ्रम अविवेक रहने पर ही होगा और अविवेक रहने पर मोक्षच्छा हो नहीं सकती। अतः मोक्ष को नित्य चतन्यात्मक मानने पर उसका सम्भव न होने से वेदान्ती वेदान्ताध्ययन के पूर्वोक्त यावदधिकारों से सम्पन्न नहीं हो सकेगा क्योंकि यावदाधिकारों में मुमुक्षा का भी संनिवेश है-और मुमुक्षा उक्तरोति से सम्भव नहीं है। किञ्च, अज्ञानात्यन्ताभाययोधोऽप्यज्ञाननिचिरूपो यद्यधिष्ठानात्मकः, तदा तस्य तत्वज्ञानजन्यत्वादधिष्ठानस्यापि तञ्जन्यत्वं प्राप्तम् । यदि चातिरिक्तिः, तदा तम्भिवृत्तिनिवृत्यादिपरम्पराप्रसङ्गो दुनिरः । अथ संप्रज्ञातसमाधिस्थलीयात्माकारवृत्युत्तरं निरोधसमाधिना वृत्तिं विनैवात्मानुभव, तदा चित्तस्य निरुद्धवृत्तिकत्वेन दर्शनाऽहेतुत्वेऽपि स्वतः सिद्धस्यास्मदर्शनस्य दुर्निवारत्वाजल-तन्दुलादिपूर्णतापगमेऽपि घटस्य वियत्पूर्णतावत् स एवाशानवाधरूपः, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टोका एवं हिन्दी विवेचन ] ममापि पनाहगति दिनदनित्तरायपस्य सह निरोधसंस्कार: स्वप्रकृती लये स्वरूपप्रतिष्ठः पुरुषो भवतीति चेत् ? न, तस्य प्रकृतिलयहेत्वभावात् , स्वात्मिकाया अविद्यानिवृत्तेः स्वलयेऽहेतुत्वात् , लयस्य शनिवंचनाच्च । तथाहि-लया कि धंसो या, बाधो वा, कार्यरूपपरित्यागेन कारणरूपेणावस्थानं वा १ । नायः, मिथ्याभूतस्यात्यन्तामावस्यैवोपगमात् । न द्वितीयः, बोधानुपरमेनाऽनिमोक्षापातात् । नापि तृतीयः, चित्ताभावात् । [अज्ञानात्यन्ताभावयोध का क्या स्वरूप है ?] दूसरी बात यह है कि अज्ञान के अत्यन्ताभाव के बोध को हो अज्ञाननिवृत्ति बताया गया है, किन्तु वह बोध यदि अधिष्ठानस्वरूप होगा तो वह बोध तत्त्वज्ञानजन्य होने के कारण अधिष्ठान में भी तत्त्वज्ञानजन्यत्व को आपत्ति होगी। यदि वह बोध अधिष्ठान से अतिरिक्त होगा तो अद्वैतवाबके भङ्गापत्ति का परिहार करने के लिये उसको भी निवृत्ति माननी होगी। फिर उस निवृत्ति के रह जाने पर उससे भी अद्वैतभङ्गापत्ति का उत्थान हो सकता है, अत: उसकी भी निवृत्ति माननी होगी। इस प्रकार निवृत्ति परम्परा को कल्पना आवश्यक होने से दुनिवार अनयस्था प्रसक्त होगी । यदि यह कहा जाय कि-सम्प्रज्ञातसमाधि में प्रात्माकारवृत्ति के बाद जब निरोधसमाधि-- प्रसम्प्रज्ञात समाधि होती है तब प्रास्माकारवत्ति के बिना हो प्रात्मानुभव होता है । उस समय चित्त निरुद्धवृत्तिक होने से यद्यपि दर्शन का हेतु नहीं होता फिर भी आत्मा के स्वतःसिद्ध दर्शन को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। यह दर्शन ठीक उसी प्रकार होता है जैसे जल अथवा तण्डुलादि से पूर्ण घट जलादि से रिक्त करने पर आकाश से पूर्ण होता है। यह दर्शन हो अज्ञान का बोध है । इस दर्शन का भी निरोधसमाधिजन्य संस्कारों के साथ अपनी प्रकृति में लय होता है क्योंकि वह भी चित्तपरिणाम के प्रवाह में पड़ा हुआ निर्वत्तिकचित्त का परिणामरूप ही होता है। इस प्रकार आत्मदर्शन का भी लय हो जाने से पुरुष अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अपनो प्रकृति में आत्मदर्शन के लय का कोई हेतु नहीं है । यदि यह कहा जाय कि 'अविद्यानिवृत्ति हो उसके लय का हेतु है ' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि अविद्यानिवृत्ति को उसका हेतु कहना स्व को स्वलय का हेतु कले समान हो जाता है। । लय की व्याख्या वेदान्ती के लिये दुःशक्य । दूसरी बात यह है कि लय का निर्वचन भी नहीं हो सकता क्योंकि उसे १. ध्वंसरूप, २. बाघरूप अथवा ३. कार्यरूपरित्यागपूर्वककारणरूपावस्थानात्मक नहीं माना जा सकता। लय को १. ध्वंसस्वरूप न मानने का कारण यह है कि ध्वंस के स्थान में मिथ्याभूत वस्तु के अत्यन्तभाव का उपगम कर उसे अस्वीकृत किया जा चुका है। २. बाघ को लयस्वरूप न मानने का कारण यह है कि बाध को बाध्यमानवस्तु के अत्यन्ताभाव का बोधरूप बताया जा चुका है । अतः बोध की निवृत्ति न होने पर मोक्षामान की प्रसक्ति होगी क्योंकि बोधात्मक ही अविद्या का कार्य अवशिष्ट रह जायेगा । यदि उसकी निकृति होगी तो अज्ञानबाध तद्रूप होने से अज्ञानबाघ की निति प्रसक्त होने के कारण पुनः मोक्षाभाव की प्रसक्ति होगी। ३. लय का तृतीयस्वरूप भी नहीं माना जा सकता Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ [ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो०१० क्योंकि वह तभी सम्भव हो सकता है जब वित्तपरिणामों की नियत्ति हो कर चित्त का स्वरूप से अवस्थान हो । किन्तु मोक्षदशा में वित्त का अवस्थान ही नहीं होता। अथाविद्यापर्यन्तत्वाल्लयस्य न दोषा, लोयते तु सुषुप्ती, "तनिगृहितं न लीयते" इति गौडोक्तं तु निरोधे चित्तवृत्यभावो न लयकृतः, किन्तु निग्रहकृत इत्यभिप्रायेणेति चेत् ? अपमतमेतत्, लयस्य कार्यक्रमेण निवृत्तिरूपत्वात् , अत्र तु कारणक्रमेण निवृत्तेरभिधानात् । अधात्र कारणक्रमेण बाधरूपनिवृपयुत्तरं कार्यक्रमेण लय इति नापमतम् । स च बाधक्रमेणार्थसिद्ध इति न हेत्वनुपपचिरिति चेतन, अविद्याध्वंसत्वस्यैव तत्वज्ञानजन्यतावच्छेदकत्वौचित्याव । बाधेनैव वंसापलापे घटादेरपि प्रपश्चस्य ध्वंसाभावे सूक्ष्मतया स्वरूपेणावस्थानस्य सुवचत्वे मुक्तावप्पनुवृत्तिप्रसङ्गः । 'कारणरूपमेव सूक्ष्मता, नान्येति चेत ? तहिं प्रपञ्चकारणमविद्या स्वरूपतो न नष्टा, कार्यात्मना तु नष्टेति निवृत्पऽनिवृत्यास्मकतया वस्त्वस्तु । एवं भ्रमापि साक्षित्वादिरूपेण मुक्ती नष्टमनष्टं च ब्रह्मरूपेण वस्त्वस्तु । तथा च 'औदयिकादिभाधानप्पलसंसारितया निवर्तमान सिद्धत्वनोत्पधमानं द्रव्यतयाऽनुगतमात्मद्रव्यमेव मुक्तावतिष्ठते, कर्म च संसारनियन्धनोदयादिभावालम्बनतया निवर्तमान द्रव्यतयाऽनुगतमेव ततः पृथगभावपर्यायेणोत्पद्यते' इत्याह तमतमेवाकामेनाप्युपगन्तव्यम् । अनष्टायां खल्वविद्यायां मुक्तावप्यद्वैतस्यावश्यव्याघाते निमर्थ संसारदशायामात्मनि साक्षाज्ञानसुखादिप्रतीतीनामनिर्वचनीयज्ञानाबालम्बनतयाऽन्तःकरणधर्माणामेव ज्ञान-सुखादीनां परम्परासंबन्धदोषेण अमत्वं कल्पनीयम् ? । “कामः, संकल्पः, विचिकित्सा, श्रद्धा, धृतिः, अश्रद्धा, अधृतिः, ही, धीः, भीः एतत् सर्व मन एव" इति श्रुतेभविमनोऽभिप्रायेणैव घटमानत्वात् । 'मनःपदस्य मनाकरणके लक्षणयैतदुपपत्तिः" इत्यन्ये । [लय कारणक्रम से नितिस्वरूप नहीं है ) यदि यह कहा जाय कि-'मोक्षावस्था में चित्त नहीं रहता, अतः निरुद्धवत्तिक चित्त के परिणामरूप प्रात्मवर्शन का चित्त में लय भले न हो, किन्तु अविद्या में लय हो सकता है क्योंकि सभी लय अविद्यापर्यन्त होता है-प्रतः इसमें कोई दोष नहीं हो सकता। क्योंकि, सुषुप्ति में चित्तान्त का अविद्या में लय होने से यह कोई नवीन कल्पना नहीं है । ऐसा मानने में गौडपाव के इस कथन का कि-चित्त का निग्रह होता है, लय नहीं होता'-कोई विरोध नहीं हो सकता। क्योंकि उन के उक्त कथन का भी अभिप्राय यह है कि विरोधसमाधि में जो चित्तवृत्ति का अभाव होता है वह लयजन्य नहीं होता किन्तु निग्रहणन्य होता है।" किन्तु व्याख्याकार यशोविजयजी का कहना है कि बाधापूर्वक समाधि में चित्त का लय अविद्या में होता है यह मत अपसिद्धान्त है। क्योंकि कार्यक्रम से जो निवत्ति होती है उसी को लय कहा जाता है। किन्तु बाधपूर्वक समाधि में कार्यक्रम से निवृत्ति न बताकर कारणपूर्वक निवृत्ति बतायी गयी है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १५५ [मुक्ति में प्रपञ्च की सूक्ष्मरूप से सत्ता की आपति] यदि यह कहा जाय कि -"बाधपूर्वक समाधि में भी कारणक्रम से वाधरूपनिवृत्ति होने पर कार्यक्रम से लय होता है अतः निरुद्धवृत्तिक चित्त के परिणामरूप प्रात्मदर्शन का अविद्या में लय मानना अप नहीं हो सकता। कहने का प्राशय यह है कि विद्यादि कारणों का बाध. अविद्यादि के ध्वंसरूप न होकर अविद्यादि के अत्यन्ताभाव के बोधरूप है। अत: इस बोध के हो जाने पर भी अविद्यादि का ध्वंस न होने से कारण में कार्य का लय हो सकता है। अतः बाधपूर्वक समाधि में भी अविद्या में उक्तआत्मदर्शन का लय में सम्भव है और यह कार्यक्रम से होने वाला लय बाधक्कम में अर्थतः सिद्ध होता है । अर्थात जिस कारण के अत्यन्ताभाव के बोध के बाद जिस कार्य के प्रत्यन्ताभाव का बोध होता है उस कार्य का उस कारण में लय अर्थत: गृहीत हो जाता है। इसलिये 'बाधपूर्वक समाधि में आत्मदर्शन का अपनी प्रकृति में लय, के हेतु की अनुपपत्ति नहीं है-" तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अविद्याध्वंसत्व को ही तत्त्वज्ञान का जन्यतावच्छेदक मानना उचित है। क्योंकि यदि अत्यन्तामाष बोधरूप धाध से हो ध्वंस का अपलाप किया जायगा तो यह भी कहा जा सकता है कि घटपशविरूप प्रपञ्च का भी ध्वंस नहीं होता किन्तु सूभरूप से स्वरूपावस्यान होता है । फलतः मुक्ति में भी प्रपञ्च का सूक्ष्मरूप से अनुवर्तन प्रसात होगा। [ वेदान्ती को जैन मत में प्रवेश की आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-"सूक्ष्मता कारणरूप ही है अन्य नहीं है अत: मुक्ति में प्रपञ्च के कारणस्वरूप का अनुवर्तन होने पर भी कार्यस्वरूप के अनुवर्तन का प्रसङ्ग नहीं हो सकता"- तो इस कथन से यह निष्कर्ष निकलेगा कि प्रपञ्च का कारण अविद्या मोक्षकाल में स्वरूपतः नहीं नष्ट होती किन्तु कारणरूप से ही नष्ट होती है। इसके फलस्वरूप निवृत्ति-अनिवृत्ति उभयात्मकवस्तु का अस्तित्व प्रमाणित होगा। इसी प्रकार ब्रह्म भी साक्षित्वादिरूप से मुक्ति में नष्ट होता है और ब्रह्मरूप से अनिष्ट रहता है इसप्रकार नष्टानष्ट उभयात्मक वस्तु सिद्ध होगी और इन सब के परिणामस्वरूप यह तथ्य प्राप्त होगा कि-औदयिकादि भाव यानो कर्म के उदय-क्षयोपशमादि से निष्पन्न भावों से निर्मितसंसारीरूप से निवत्तमान और सिद्धत्वरूप से उत्पद्यमान तथा द्रव्यरूप से वोनों दशा में अनुगत आत्मद्रव्य हो मुक्ति में अवस्थित होता है। एवं उस अवस्था में संसार के उत्पादक औयिकादि भाव के आलम्बनरूप से कम निवृत्त हो जाने पर अकालिक अवस्थाओं में द्रव्यरूप से अनुगत अात्मनध्य हो कर्मपृथाभावरूप पर्याय से उत्पन्न होता है । इस प्रकार वेदान्तमत में इच्छा न होने पर भी प्रार्हसमत का हो अभ्युपगम सिद्ध होता है । [ज्ञान सुखादि आत्मा के धर्म है । इससे अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि मुक्ति दशा में भी अविद्या का माश नहीं होगा तो उस दशा में अद्वैत का व्याघात अवश्य होगा। तो जब मुक्तिक्शा में असव्याघात होने वाला ही है तो संसार बशा में आरमा में होने वाली ज्ञान-सुखादि को साक्षात् प्रतीतियों के सम्बन्ध में यह व्यर्थ कल्पना क्यों की जाय कि 'ये प्रतीतियां अनिर्वचनीय ज्ञानादिको विषय करती है?. क्योंकि, ज्ञानसुखावि अन्तःकरण के ही धर्म हैं, परम्परासम्बन्धरूप दोष से आत्मा में उनका भ्रम होता है ?' कामः संकल्प:' इत्यादि श्रति में जो यह बताया गया है कि काम-संकल्प-विचिकित्सा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता० स्त०८लो. १० (=संशय)-श्रद्धा-ति-अश्रद्धा-प्रति-लज्जा-बुद्धि-भय' ये सब मन ही है, वह उक्त श्रुति में मनः पद को भावमनस् परक मानने से ही उपपन्न होता है। अतः उससे यह निस्कर्ष निकालना कि'कामादि अन्तःकरण के धर्म है आत्मा के नहीं'-उचित नहीं है। क्योंकि उक्तधर्म भावमनःस्वरूप होमे से एवं भाव मन आत्मपरिणामविशेष स्वरूप होने से आरमाधित है अतः उक्त श्रुति उन धों को आस्मनिष्ठ मानने से प्रतिकल नहीं है । अन्य विद्वानों का कहना है कि उक्त श्रुति में मनस् पद 'मनःकारणक' में लाक्षणिक है अतः उक्त श्रुति से यही सिद्ध होता है कि काम संकल्पादि धर्म मनःकारणक यानी मनोगन्य हैं न कि यह सिद्ध होता है कि वे धर्म मनोनिष्ठ हैं प्रात्मनिष्ठ नहीं है।' अयादतश्रुत्यनुरोधादनाशेऽप्य विद्याया बाधितत्वेन तस्या अताविकत्वादद्वैततपवाव्याकोप इति चेत् । न, सदा तस्या बाधाऽविषयत्वेन चाधितत्वाऽयोगात् । प्रनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं चाविद्यायामिवाविधानिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं ब्रह्मण्ययि तुल्यम् , अन्यथा तु तत्तादात्म्यापश्या संसारितापतिः। एतेन 'प्राक् पश्चात् वा घटादेः 'नास्ति' इति प्रतीतेत्यन्ताभावेनैवोपपचौ प्रागभावे से वा मानामावा, असत्वं चात्यन्ताभावादेव' इति निरस्तम्, अनुत्पन्नाप्रच्युताया अविद्याया अत्यन्तामावोपगमे ब्रह्मणोऽपि तत्प्रसङ्गस्य दुनिवारत्वात् , प्रागभाव-ध्वंसापलापे प्राक्-पश्चादिति प्रयोगस्यैशनुपपत्ता, प्रतियोगिना पुनरुत्पत्ति-पुनरुन्मजनादिप्रसङ्गाश्च । ___ यदि यह कहा जाय कि-'अद्वैत श्रुति के अनुरोध से मोक्ष बशा में अविद्या का यद्यपि नास नहीं होगा किन्तु बाधित होने से यह असात्त्विक हो जाती है अतः प्रतितत्त्व का व्याघात नहीं हो सकता"- "-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मोक्षदशा में अविद्या बायका विषय नहीं होती है अतः उस का बाधित होना युक्तिसङ्गत नहीं है। यदि 'ब्रह्मनिष्ठप्रत्यन्ताभाव का प्रतियोगी होने से अचिया को बाधित' कहा जायगा तो प्रविद्यानिष्ठात्यन्ताभाव का प्रतियोगी होने से ब्रह्म में भी बाधितत्व की प्रसक्ति होगी। यदि अविशा में ब्रह्म का अत्यन्ताभाव न माना जायगा तो ब्रह्म में विद्यातादात्म्य को आपत्ति होने से संसारिता को प्रापसि होगी। वेदान्ती की ओर से यदि यह कहा जाय कि-"घटादि की उत्पत्ति के पूर्व तथा घटादि के बाद जो 'घटो नास्ति' यह प्रतीति होती है उसकी उपपत्ति घटात्यन्ताभाव से हो जाती है अतः प्रागभाव ओर ध्वंस में कोई प्रमाण नहीं है। उक्त समयों में घटादि का प्रागभाव या ध्वंस न मानने पर भी जो घटादि का असस्थ होता है वह उन समयों में उसके अत्यन्ताभाव होने से ही होता है। इसी प्रकार अविद्या का प्रागभाव एवं ध्वंस है ही नहीं, और असरव इसके अत्यन्ताभाव से युक्त है"-तो यह कथन भी निरस्त प्रायः है क्योंकि जन्म और बिनाश से रहित होने पर भी अविद्या का यदि प्रत्यन्ताभाव माना जायगा तो ब्रह्म के भी प्रत्यन्ताभाष के प्रसङ्गका वारण न हो सकेगा। दूसरी बात यह है कि यदि प्रागभाष एकां ध्वंस का अपलाप किया जायगा तो 'पूर्व' और 'पश्चात्' का प्रयोग भी उपपन्न न हो सकेगा क्योंकि प्रागभाव और ध्वंस मानने पर ही तत् के प्राग Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] भावाधिकरणकालरूप अर्थ में 'ततः प्राक' और तत् के ध्वसाधिकरणकालरूप धर्म के अभिप्राय से 'ततः पश्चात् ' इस प्रयोग की उपपत्ति हो सकती है। तथा इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि प्रागभाव का प्रभ्युपगम न किया जायगा तो उत्पन्न को पुनः उत्पत्ति का और ध्वंस का अभ्युपगम न करने पर मुद्गराविप्रहार के बाद भी घटादि के उन्मज्जन की प्रसक्ति होगी । अथ स ब्रह्मात्मकत्वाद् ब्रह्मणः स्वात्यन्ताभावः १, ब्रह्म तु न सर्वात्मकमिति तदेव सर्वात्यन्ताभावरूपम्, अत एव ब्रह्मसिद्धौ 'असर्वम्' इति ब्रह्मविशेषणमुक्तमिति चेत् १ न, व्याघातात् सर्वधर्मप्रतियोगितोपरक्या भावात्मकतया ब्रह्मणः सर्वस्वानपायात्, ब्रह्मस्वरूपवत् सर्वस्य ब्रह्माभिनत्वेऽनुच्छेदापाताच | 'नोच्छिद्यत एव ब्रह्मरूपेण सर्वम्, प्रपञ्चरूपेण चोच्छिद्यते' इति चेत् ? ब्रह्मापि संसाररूपेणोच्द्यिते नोच्द्यिते च ब्रह्मरूपेणेति तुल्यम् । 'नैकमेव निवर्तते, न निवर्तते चेति' चेत् १ न, रूपान्तरपरिगतोपादानरूपनिवृत्तिवादेऽनाद्यविद्यातादात्म्यानियाऽनिर्मोक्षापातस्य तदवस्थस्यात् । बाधरूपनिवृत्तिवादे च तस्य निर्विषयत्वाभावेन ब्रह्मरूपतदत्यन्ताभावविषयकेण तेन समानसं वित्संवेद्यतयाऽविद्यारूपत्रह्मात्पन्ता • मानोऽपि विषय क्रियेत । त्रैकालिकी तादात्म्यपरिणामनिवृत्तिरेव खत्वत्यन्ताभावः । अथास्त्वविद्याया ध्वंस एव स चानिर्वचनीयः, न चानिर्वचनीयस्य ज्ञाननिवर्त्यत्वनियमः, अविद्याध्वंसातिरिक्ते तत्संकोचादिति चेत् न, तथापि मुक्तौ तत्समयेऽद्वैतसंकोचावश्यकत्वात् तरकार्य निवृत्तीनामप्यनन्तानां तदा सस्ये तावतीषूक्त नियमाद्वैतसंकोचस्यातिजघन्यत्वाच मुक्तावद्वैतवचनस्य दृग्- दृश्य संयोगोपरतिवचनस्य च कर्मेनमुक्तत्वाभिप्रायेणैवोपपादयितुं युक्तत्वादिति दिगु | I afa यह शंका की जाय कि- " सम्पूर्ण विश्व ब्रह्मात्मक है अतः ब्रह्म का अश्यन्ताभाव कहाँ होगा ? किन्तु सर्व ब्रह्माश्मक होते हुए भी ब्रह्म सर्वात्मक नहीं है अतः ब्रह्म सर्वात्यन्ताभाव स्वरूप होने का अभ्युपगम सम्भव होने से ब्रह्म सर्वात्यन्ताभावरूप हो सकता है। और ब्रह्म में सभाव सम्भव होने से ही ब्रह्मसिद्धि ग्रन्थ में 'असद' इस शब्द से सर्वात्यन्ताभाव को ब्रह्म का विशेषण बताया गया है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने में व्याघात है क्योंकि ब्रह्म यदि सम्पूर्ण धर्मो की प्रतियोगिता से उपरक्त अभाव से अभिन्न होगा तो उसमें सर्वरूपता का अपाय नहीं हो सकता । यदि सर्व को ब्रह्म से अभिन्न माना जायगा तो ब्रह्मस्वरूप के समान उसके अनुच्छेद की आपत्ति होगी । यत्र यह कहा जाय कि "ब्रह्मरूप से सर्व का उच्छेद नहीं हो होता केवल प्रपश्वरूप से ही उच्छेष होता है" तो यह ठोक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर स के समान ब्रह्म के विषय में भी यह बात कही जा सकती है कि ब्रह्म का भी संसाररूप से उच्छेद हो जाता है और ब्रह्म रूप से उच्छेष नहीं होता । यदि ऐसा कहने में यह भय प्रदर्शित किया जाय कि- "ब्रह्म एक ही है अतः उस एक ही को ग्रह नहीं कहा जा सकता कि वह निवृत्त भी होता है और अनिवृत भी होता है क्योंकि निवृसरच Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ [ शास्त्रवार्ता स्त०८ श्लो. १० और अनिवृत्तत्व परस्पर विरुद्ध धर्म हैं अत: एक में उसका सम्भव नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कायर के लिये यह भय अविद्या और ब्रह्म दोनों में समान है क्योंकि अविद्या को भी निवृप्ताऽनिवृत्त मानने पर यह भय उपस्थित हो सकता है कि एक ही अविद्या निवृत्त और अनिवृत्त दोनों कैसे हो सकती है? .. यदि यह कहा जाय कि-"प्रपञ्च अनित्य हे प्रतः ब्रह्म के कल्पित तादात्म्य के साथ प्रपन्न को तो निवृत्ति हो सकती है किन्तु ब्रह्म नित्य होने से उसकी निवत्ति नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि नित्ति रुपान्तरपरिणत उपादानस्वरूप होती है-इस मत में श्राविद्यक कार्यों की निवृत्ति रूपान्तर में परिणत अविचारूप होगी । प्रत; अनादि अविद्या के तादात्म्य की निवृत्ति न हो सकने से मोक्षाभाव का प्रसङ्ग होगा। यदि निवत्ति को अत्यन्ताभावबोधात्मक बाध रूप माना जायगा तो बोध निर्विषयक नहीं होता अतः जैसे अविद्या के प्रत्यन्ताभाव का बोध ब्रह्मरूपाविद्यात्यन्ताभाव को विषय करेगा उसी प्रकार उसके द्वारा अविद्यारूप ब्रह्मात्यन्ताभाय भी उसका विषय होना अनिवार्य होगा; क्योंकि ब्रह्मरूप अविद्या का अत्यन्ताभाव और अविद्यारूप ब्रह्मात्यन्तभाव दोनों समान वित्तिवेद्य है अर्थात एक सामग्री-ग्राह्य है। क्योंकि सादात्म्य परिणाम की कालिक निवृत्ति को हो प्रत्यन्ताभाव कहा जाता है। अविद्या में ब्रह्म को कालिकतादात्म्यपरिणति निवास है । वेदान्ती को ओर से उमत दोषों के कारण यदि यह कहा जाय कि-"अविद्यानिवृत्ति ध्वंस स्वरूप ही होती है किन्तु वह अनिर्वचनीय है और अनिर्वचनीयमात्र में ज्ञाननियत्व का नियम नहीं है क्योंकि उस नियम में अनिर्वचनीयत्व का अविद्याध्वंसातिरिषत में संकोच है अर्थात अविद्याध्वंसातिरिक्त अनिर्वचनीय में ज्ञाननिय॑त्व का नियम है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अविद्याध्वंस की निवृत्ति न होने पर मुक्ति में प्रविद्याध्वंस की सत्ता आवश्यक होने से अद्वैत में भी संकोच प्रावश्यक होगा। एवं मोक्षवशा में अविद्या कार्यों की अनन्तनिवसिनों का भी सदावहोने से उनस ज्ञाननिवर्त्यव नियम का और अद्वैत का अत्यन्त जघन्य संकोच मानना होगा। प्रतः प्रात्मा के सम्बन्ध में जो अक्त का कथन है और हग्दृश्य के सम्बन्धाभाष का कथन है उसका यह अभिप्राय मानना युक्तिसङ्गत होगा कि आत्मा मोक्षदशा में कर्मनिमुक्त हो जाता है । इसलिये कर्म की दृष्टि से वह उस समय अद्वैत और दृग् दृश्य के सम्बन्ध से रहित हो जाता है। अपि च 'तत्त्वमसि'-आदिवाक्ये परोक्षत्व-भोक्तृत्त्वाभ्यामुपस्थितयोरभेदान्वयाऽयोग्यत्याद् यदि पदद्वयस्य चिन्मात्रे लक्षणा, एतद्वाक्पसामर्थ्यादेव च प्रपञ्चे पारमाथिकत्वाभावलाभः, भोक्तृत्त्वादेः पारमार्थिकत्वे तत्पदामैक्याऽसिद्धेोक्तृत्वादेः कल्पितत्वे भोग्यादेगपि कल्पितत्वादिति मन्यते तदा नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" इत्यत्र नित्यत्व-विज्ञानत्वाऽऽनन्दवादिनोपस्थितस्याप्य भेदान्धयाऽयोग्यत्वाद् नित्यादिपदाना निर्विशेषब्रह्मणि लक्षणयतद्वाक्यसामदेिव नित्यत्वादेरपारमार्थिकत्वात् तद्विनिमुक्तनिर्विशेषसिद्धापत्तिः । न च निविशेष शशविषाणवत सिध्यतीति शून्यतैव स्यात् । अथ नित्यानन्दादिपदार्थानां नाभेदविरोधः, तहिं तत्-त्वम्पदार्थयोरपि मा भूद् विरोधः । विशेषश्चेत , शशविषाणादिवाक्यतुल्यमेव तद् वाक्यं स्यात् । यदि चात्र दृढा भक्तिः, तदा जीवेश्वरयोः शक्त्या शुद्धस्वरूपेणवाभेद उप Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १५६ पाद्यताम् । न हि सोऽयं देवदतः' इत्यत्रापि शुद्धाभेदे लक्षणा स्वारसिकी, तत्त्वेदंताभ्यां पर्यायभेदोपरक्तस्यैवोलतासामान्याख्यस्याभेदस्य शक्तितः प्रत्ययात् , प्रत्यभिज्ञायास्तत्समानाकारामिलापस्य च भेदाभेदमाहितयैव समर्थनात् , उक्तवाफ्याद् भेदा-ऽमेदयोः समारोपव्यवच्छेददर्शनाच । किञ्च, एवमेकतरविशेषणं न प्रयुञ्जीत, 'सोऽस्ति' इत्यादिनाऽप्यभेदस्य प्रतिपादयितु शक्यत्वात् , विशिष्टाभेदप्रत्यायनार्थमुक्तप्रयोगसमर्थनं तु भेदाभेदवादिनः शोभते, न वखण्डार्थप्रतीतिवादिन इति न किश्चिदेतद् अनन्तदेवोदितम् ।। यह भी ज्ञातव्य है कि 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य के सम्बन्ध में यदि यह माना जायगा कि तत्पद से परोक्षत्वरूप से उपस्थित चैतन्य और 'त्वम' पद से मोक्तृत्वरूप से उपस्थित अंतन्य में अभेदान्वय की योग्यना न होने से दोनों पदों की चिन्मात्र में लक्षणा होती है और इस वाक्य के सामर्थ्य से ही प्रपश्व में पारमार्थिकत्वाभाव का लाभ होता है क्योंकि भोक्तृत्वारि के पारमार्थिक होने पर तत्पदार्थ और त्वम पदार्थ का ऐक्य नहीं सिद्ध होता । और मोक्तृत्वादि को कल्पित मानने पर भोग्यादि भी कल्पित होता है ।-"तो नित्यं विज्ञामानन्दं ब्रह्म' इस वाक्य के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकेगा कि नित्पाविपनों से नित्यत्व-विज्ञानत्व और मानन्द त्वरूप से उपस्थित अर्थ में अमेदान्बय योग्यता नहीं होती अतः नित्याटि पदों को विशेष ब्रह्म में लक्षणा होती है। और इस वाक्य के सामर्थ्य से ही नित्यत्वादि में अपारमार्थिकत्व सिद्ध होने से नित्यत्वादि धर्मों से रहित निविशेष ब्रह्म की सिद्धि होती है। फलतः जैसे निर्विशेष होने से शशविषाण सिद्ध नहीं होता उसी प्रकार निविशेष ब्रह्म की भी सिद्धि न हो सकने से शून्यबाद की आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-नित्य-आनन्दादि पदों से उपस्थाप्य अर्यों में प्रभेद का विरोध नहीं है"-तो यह भी कहा जा सकता है कि तत्पदार्थ और त्वम् पदार्थ के भी अभेद में विरोध नहीं है । यदि विरोध होगा तो शशविषाणादि वाक्यों के समान यह वाक्य भी बाध्यार्थक होगा। यदि इस बाक्य के प्रति दृढभक्ति हो तो तत और स्वम पद की लक्षणा न मान कर शक्ति द्वारा जं ईश्वर में शुद्धस्वरूप से ही अमेव को उपपत्ति करना उचित है। क्योंकि 'सोऽयं देवदत्तः' इस वाक्य में भी तत् और इदं पदों को शुद्ध अमेद में स्वारसिक लक्षणा नहीं होती। क्योंकि शक्ति द्वारा ही तप्ता और इदन्तारूप पर्यायमेव से उपरक्त विशिष्ट में ही कर्वतासामान्यरूप अभेद की प्रतीति होती है एवं प्रत्यभिज्ञा और उसके समानाकार अभिलाप का उन्हें भेदाभेदग्राही मानकर समर्थन होता है । तथा उक्त वाक्य से केवल भेद और अभेद के समारोप का व्यवच्छेद अनुभवसिद्ध है। दूसरी बात यह है कि यदि उक्तवाश्य से लक्षण द्वारा प्रभेव का ही प्रतिपादन अमीष्ट होगा, तो 'स' 'अयं इन दोनों विशेषणों में किसी एकतर विशेषण का प्रयोग न करना ही उचित होगा क्योंकि केवल 'सोऽस्ति' अथवा केवल 'अयमस्ति' इतनेमात्र से भी अमेव का प्रतिपादन हो सकता है। इसके उत्तर में अनन्तदेव का यह कथन कि-विशिष्ट अर्थों के अभेदबोधनार्थ दोनों विशेषणपदों से घटित उक्त वाक्य का प्रयोग आवश्यक है-निरर्थक है क्योंकि यह कथन उक्तवाक्य से मेदामेवबोष मानने के पक्ष में ही उचित हो सकता है-अखण्डार्थप्रतीति मानने के पक्ष में उचित नहीं हो सकता।' एतेन 'गौरश्वः' इत्यादिकं जातितोऽथं प्रत्यायति, पचति-पठति' इत्यादिकं तु क्रियातः, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० [ शास्त्रवा० स्त०८ श्लो० १० 'शुक्लः कृष्णः' इत्यादिकं गुणतः, “धनी गोमान्' इत्यादिकं च संवन्धत इति । ब्रह्म तु जाति-क्रिया गुणसंबन्धरहितं मुख्यया वृत्या न केनापि शब्देन प्रतिपादयितुं शक्यते, परन्तु यथाकथश्चिल्लक्षणयैव वसि इत्यादिवाक्यात साधा, तत्रापि तात्पर्यस्य नियामकत्वाद् । निर्दोषत्वमहिम्ना वृत्ति विनैव वा ततस्तद्धोध इति मधुसूदनाभिप्रायोऽपि निरस्तः। अस्य खलु तपस्थिनो 'यथा कथञ्चित्' इति वदतो लक्षणायां संशय एव । न हि बहुप्रसिद्धथनारूढपदसंबन्धरूया शक्याथसंवन्धरूपा या लक्षणा ब्रह्मणि घटते । न चाखण्डार्थप्रतीतिर्लक्षणया क्वचिद् दृष्टेति । न चास्य महात्मन उत्तरसपाधानपाणिनाऽपि विवेकलोचनमाच्छादयतो दोपदस्योर्ने भयम् । न हि वृत्ति विना क्वचन शब्दात् प्रतीतिः प्रादुर्भवन्ती दृष्टा । यदि च निर्दोपत्वमहिम्मा शाब्दसामग्रीमतिपत्यैव शब्दाद् ब्रह्म बोधयेत् तदा शब्दमतिपयवासी स्वातन्त्र्येण तद्बोधयन कुतो न प्रमाणान्तरतामास्कन्देत १ । न च निर्दोपत्यमत्रा विद्यानिवृत्तिरूपम्, तस्याः फलत्वात् , तृतीयप्रतिपत्ती भावाच । तिस्रो हि ब्रह्मगि प्रतिपत्तयः, आद्या शब्दात् , द्वितीया शब्दात् प्रतिपद्य संतानवती, तृतीया तु निविकल्पकसाक्षात्काररूपेति । किन्तु श्रवणादिजन्यप्रतिबन्धकाष्टनिवृत्तिरूपम् । न च श्रवणादिकं वेदान्तवाक्यार्थबोधार्थ विधीयते, येन तत्र सा द्वारं स्यात्, किन्वात्मसाक्षात्कारार्थम् , “आत्मा वा रे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इति श्रुतो 'अग्निहोत्रं जुहोति, यवागु पचति' इतिवदार्थक्रमस्य वलयच्यात , श्रवण-मननादिभिरात्मा द्रष्टव्य इत्यर्थात् । प्रस्तुत विषय में मधुसूदन सरस्वती का यह अभिप्राय है कि-"शब्द शवित द्वारा जातिविशिष्ट-क्रियाविशिष्ट-गुणविशिष्ट और सम्बन्धविशिष्ट का ही बोधक होता है जैसे गो-अश्व इत्यादि शब्द से गोत्व अश्वत्वादि जातिविशिष्ट अर्थ का बोध होता है और पचति' 'पति' पाचकपाठक इत्यादि शब्द से पाक और पटन क्रियाविशिष्ट का बोध होता है । एवं शुक्ल-कृष्ण प्रादि शब्द से शुक्ल-कृष्ण आविरूप गुण से विशिष्ट अर्थ का बोध होता है, तथा धनी गोमान्' इत्यादि शब्द से धन और गौ के स्वामित्व सम्बन्ध से विशिष्ट अर्थ का बोध होता है । किन्तु बह्म जातिक्रिया-गुण और सम्बन्ध से रहित है अत: मुख्यपत्ति शक्ति द्वारा किसी भी शब्द से उसका बोध नहीं हो सकता । अतः 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य से यथाकविन-जिस-किसी प्रकार लक्षणा से ही बोध होता है और उस लक्षणा में भी तत्वमस्यादि वाक्य का ब्रह्मबोधविषयक तात्पर्य नियामक है । अथवा यदि लक्षणा को उपपत्ति में कठिनाई हो तो यह कहा जा सकता है कि यतः 'सत्वमसि' आदि वाक्य से ब्रह्मबोध का उदय होने में कोई दोष नहीं है अतः इस निर्दोषत्व की महिमा से वृत्ति के बिना भी उस ब्रह्म का बोध होता है।" किन्तु यह अभिप्राय भी निरस्तप्रायः है। क्योंकि लक्षणा के सम्बन्ध में यथाकथविद् शब्द का प्रयोग कर बेचारे ने लक्षणा में स्वयं ही संशय प्रकट कर दिया है। क्योंकि जिस अर्थ में जिसकी बहुत प्रसिद्धि न हो उस अर्थ के साथ उस पद के सम्बन्ध को अथवा पर के शक्यार्थ के सम्बन्ध को Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक० टका एवं हिन्दी विवेचन ] हो लक्षणा कहा जाता है और वह सम्बन्ध सामान्य से शून्य ब्रह्म में घट नहीं सकता है । तथा लक्षणा से अखण्डार्थप्रतीति कहीं इष्ट नहीं है। इसी प्रकार विवेकनेत्र को बन्द कर दूसरे समाधान को हाथ में लेने पर भी दोषतस्कर से महात्मा (मधुसूदन) के भय की निवृत्ति नहीं हो सकती क्योंकि वृत्ति के विना शब्द में कहीं भी प्रतीति का प्रादुर्भाव नहीं देखा जाता। यदि निर्दोषत्व को महिमा शाब्दबोधसामग्री की अपेक्षा न कर के ही शब्द द्वारा ब्रह्म का बोधक होगी तो वह शब्द की भी उपेक्षा कर स्वतन्त्ररूप से ही अर्थ का बोधक होकर अतिरिक्त प्रमाण क्यों नहीं हो जायगा ? दूसरी बात यह है कि जिस निर्दोषत्व को महिमा से ब्रह्मबोध की उत्पत्ति अभिमत है वह अविद्यानिवृत्तिरूप नहीं मानी जा सकती क्योंकि अविद्या को नियत्ति ब्रह्मबोध का फल है जो ब्रह्म की तीसरी प्रतिपत्ति होने पर निष्पन्न होती है । जैसे, ब्रह्म को तीन प्रतिपत्ति होती है-पहली प्रतिपत्ति शब्द से होती है। दूसरी प्रतिपत्ति शम्दजन्य प्रतिपत्ति के बाद मनन द्वारा ध्यानसंतत्यारमक निविध्यासनरूप होती है। और तीसरी प्रतिपत्ति निर्विकल्पक साक्षात्कार रूप होती है। इस तृतीय प्रतिपत्ति के बाद ही विद्या को निवृत्ति होती है यह ब्रह्मबोध का फल होने से बहाबोध में प्रयोजक नहीं हो सकती। अतः तत्त्वज्ञान के प्रतिबन्धको भूत अष्ट की श्रवण-मननादि से जो निवृत्ति होती है उसोको निर्दोषाव को महिमा मापागा। विमुपह इस आदि वेदान्त पाषय से अर्थबोष की उपपत्ति में श्रवणादि का द्वार नहीं हो सकती क्योंकि वेदान्त वाक्य से अर्थबोध के लिये श्रवणादि का विधान नहीं है। किन्तु प्रात्मसाक्षात्कार के लिये उसका विधान है अतः जैसे 'अग्निहोत्रं जुहोति' 'यवाणु पचति'-'अग्निहोत्र हवन करे' यवागु का पाफ करे' इस वाक्य में शब्दक्रम से यद्यपि अग्निहोत्र में हवन का प्राथम्य और यवागुपाक का आनन्तर्य प्राप्त होता है किन्तु ऐसा मानने पर अग्निहोत्र हवन के लिये साधनान्तर को अपेक्षा होती है और अग्निहोत्र हवन के अनन्तर किये जाने वाले यवागुपाक की निरर्थकता होती है। अतः शब्दक्रम से अर्थक्रम को बलवान् मानकर यवागुपाक में प्राथम्य और अग्निहोत्र हवन में आनन्तयं का निर्धारण होता है। उसी प्रकार 'आत्मा वारे ! दृष्टव्यः श्रोतव्यः' इस श्रुति का यदि शब्दकम के अनुसार अर्थबोध माना जायगा तो आत्मदर्शन का प्राथम्य और श्रवणादि का आनन्तर्य विदित होता और उस स्थिति में आत्मदर्शन के अन्य साधन की जिज्ञासा होगी और आत्मदर्शन से अनन्तर क्रियमाण श्रवणादि की निष्प्रयोजनता होगी प्रतः इस वाक्य में भी शब्दक्रम की अपेक्षा प्रयक्रम को बलवान मान कर इसका भी यही अर्थ करना होगा कि श्रवण-मनमादि के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करना चाहिये। इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार के लिये हो श्रषणादि का विधान होने से श्रवणादिजन्य प्रतिबन्धकादृष्टिनिवृत्ति आत्मसाक्षात्कार में द्वार हो सकती है किन्तु ब्रह्मबोध में द्वार नहीं हो सकती। अत्रापि श्रवणं न वेदान्तानामेव "श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यः" इत्यत्र श्रुतिपदस्य प्रमाणशब्दपात्रपरत्वात् , अन्यथा नियमा-ऽदृष्ट कल्पनागौरवात् । न ष गौरवेण मुख्यार्थत्यागेऽविद्याप्रयुक्तिभयाद् रूढित्यागः स्यादितिधाच्यम् , विशेष्यतावच्छेदकप्रकारेण विशिष्ट. वाचकपदेन बोधे लक्षणाऽभावात् । अत एवं विनायि लक्षणां श्येनादाविष्टसाधनतायोधः । अत एव 'न प्रमाणमात्रपरत्वम् , श्रुतिपदशक्तो मुख्य विशेष्ये प्रमाणत्वस्य साक्षादप्रकारस्वात, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ८ श्लो० १० तन्मात्रेण तद्बोधने लक्षणापत्तेः' इति मिश्रोतः। अत एव श्रवणे वेदान्त्युक्तरीत्या नियमविधिरपि न न्याय्यः । इस संवर्भ में यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रात्मसाक्षात्कार के लिये जो श्रवण दिहित है वह केवल वेदान्तवाक्यों का ही श्रवण नहीं है क्योंकि 'श्रोतव्यः श्रुतिवारयेभ्यः' इस वाक्य में श्रुतिपद अपौरुषेय प्रमाणशब्दपरक न होकर प्रमाणशब्दमात्र परक है अतः प्रमाणशाच स्वरूप सभी वाक्यों के श्रवण के विधान में उक्त श्रुति का तात्पर्य है । यदि ऐसा न माना जायगा तो वेदान्तधाक्य समान अन्य प्रमाण शब्द से भी श्रवण को प्राप्ति होने के कारण अन्य प्रमाणशब्दों की निवृत्ति के लिये श्रवण विधायक श्रति को नियम-विधि मानकर 'वेदान्तवाक्यों से ही आत्मा का श्रवण करना चाहिये' यही उस श्रतियाक्य का अर्थ करना होगा। प्रतः इस पक्ष में नियम विधि प्रयुक्त अष्टको कल्पना का गौरव होगा क्योंकि नियतविधि से किसी दृष्टसाधन की मि न होने से अदृष्ट द्वारा ही उसकी सार्थकता होती है। यदि यह कहा जाय कि-'नियमाप्ट को कल्पना से प्रयुक्त गौरव के भय से श्रुतिशब्द के मुख्यार्थ का त्याग किया जायगा तो शक्ति द्वारा निशेष्य का बोध करने के लिये विशेष्य में विशिष्टवाचकपद के शक्ति को अविद्या भ्रम को प्रयुक्ति होगी। अतः इस भय अर्थबोध को उत्पत्ति के लिये रूविशान्ति का हारमा होगा!" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विशिष्टवाचकपद से विशेव्यतावच्छेदकप्रकारेण विशेष्यमात्र के बोध के लिये लक्षणा की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि विशेष्य भी विशिष्ट की कुक्षि में प्रविष्ट होता है। अत एव जब विशिष्ट के शक्याथ होने पर विशेष्य का भी शक्यार्थ होना अनिवार्य है तो अपौरुषेयत्व विशिष्ट प्रमाणशब्द में अति शब्द की शक्ति होने से प्रमाणशब्दरूप विशेष्य में भी श्रुतिशब्द का शा ब्दरूप विशेष्य में भी श्रुतिशब्द की शक्ति आवश्यक है। इसलिये प्रमाणशब्दमात्र का बोध श्रुतिशब्द की शक्ति से हो सम्पन्न हो जाने से प्रमाणशब्द में श्रुतिशब्द की लक्षणा मानने की आवश्यकता नहीं है और प्रमाणशबद में श्रुति शब्द का शत्ति ज्ञान भ्रमात्मक भी नहीं होगा क्योंकि विशिष्ट के विशेषण और विशेष्य से अतिरिक्त न होने से विशिष्ट में शक्ति का अभ्युपगम विशेषण-विशेष्योभय की शक्ति के अभ्युपगम में पर्यवसित होता है। इसीलिये अर्थात् विशिष्ट वाचकपद से विशेष्य का बोध शक्ति से हो सम्भव होने के कारण 'श्येनेन अभिचरन यजेत' इस वचन से बलवनिष्ठाननबन्धित्वविशिष्ट इष्टसाधनत्व के बोधक विधिप्रत्यय की इष्ट साधनस्व में लक्षणा के बिना भी श्येनादि में सष्टसाधनत्व का बोध होता है। अत एव 'श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यः' इस यचन में श्रतिशब्द प्रमाणशब्दमात्रपरक है किन्तु प्रमाणमात्रपरक नहीं है क्योंकि मिश्र ने यह कहा है कि श्रुतिपद की शक्ति में मुख्यविशेष्य में प्रमाणत्व के साक्षात् प्रकार न होने से प्रमाणत्वमात्ररूप से प्रमाणसामान्य का बोध मानने पर प्रमाणत्वविशिष्ट में श्रुतिपद की लक्षणा की आपत्ति की होगी । इसीलिये वेदान्ती की उक्ति रीति से श्रवण में नियमविधि भो न्यायसंगत नहीं है। नन्वेवमपि शाब्दबोधस्यैव तत्प्रयोजकत्वाय नियमा-ऽदृष्ट कल्पनावश्यकत्वाद् विशिष्टवाचकश्रुतिपदजन्योपस्थितिसंकोचस्याऽन्याय्यत्वात् । संन्यासाधिकारवत एव श्रवणस्य नियम्यत्वाच्च न नियमविधरन्यायपत्यमिति चेत ? न, तथाप्यामदर्शनार्थ तद्विधिसिद्धेने तज्जन्य Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] , } दुरितनिवृत्तिसाध्यो वाक्यार्थयोवः । वाक्यार्थबोधोऽपि प्रकृतो विषयस्यापरोक्षत्वादात्मदर्शन रूपः स्वीकिथत इति चेत् प्रक्रियामात्रमेतत् । न हि विषयगेत्यः- परोक्षत्व निबन्धनं प्रतिभासस्य परोक्षत्वमपरोक्षत्वं वा एकत्र विषय उभयप्रतिभासानुपपत्तिप्रसङ्गात् विषयस्वरूपा परावृत्तेः । अथ वृत्तिधर्म एव परोक्षत्वमपरोक्षत्वं वा, तद्विषयतया च विषयपरोक्षत्वा परोक्षत्वव्यवहार इति चेत् ? न, सर्वज्ञानानां स्वाशे प्रत्यचत्त्रोपगमविरोधात् । अथ वृत्तेः स्वाकारवृत्तिमन्तरेण भासमानत्वात् शुद्धसाक्ष्यपरोक्षत्वम् घट- बहुन्यादिविषयांशे तु ज्ञः ततयाऽज्ञानतया चा साक्ष्यपरोक्षत्वं नैयायिकानां मानसप्रत्यक्षस्वतुल्यम्, स्वरूपेणापि प्रमाणतोऽपरोक्षत्वं च घटादेरेव विषयचैतन्य प्रमाद चैतन्ययोग्भेदेन तस्य फलव्याप्यत्वात्, न तु बहुन्यादेः, तत्र वृत्तेर्वहिर्निःसरणाभावेनामेदाभिव्यक्त्यभावात् प्रकृते चैकस्यैव चैतन्यस्य शब्दवोधितस्य प्रमातृत्वेन विषयत्वेन चाभेदात् स्वरूपतोऽप्यपरोक्षत्वमिति चेत् १ न, देशविशेषावच्छिमपर्वतस्येाखण्डत्वाविशिष्टस्य चैतन्यस्य तत्त्वायोगात् । अन्यथा 'अहं ज्ञानवान्, ज्ञानसामग्रीतः ' इत्यत्राप्यनुपितित्वमुच्यते । विश्व, कर्मणि स्पष्टत्वं यदि ज्ञानधर्मः, तदा सर्वत्र तत्प्रसङ्गः । यदि च कारणज्ञानस्पतः तनिमित्तम्, तदाऽनवस्था । न चैकान्व एकस्यां परोक्षत्वापरोक्षत्वादिकं कर्तृकर्म क्रियाविभागो वा संभवीति न किञ्चिदेतत् । , यदि यह कहा जाय कि - "श्रुति शब्द को उक्त वाक्य में प्रमाणसामान्यपरक न मान कर प्रमाणशब्दसामान्यपरक माना जायगा तो भी शब्दजन्य बोध हो आत्मसाक्षात्कार का प्रयोजक है इसकी उपपत्ति के लिये नियमादृष्ट की कल्पना आवश्यक होगी। तो जब नियमादृष्ट की कल्पना आवश्यक ही है तब उक्त वाक्य में श्रुतिशब्द को मुख्यार्थपरक मानना ही न्यायसंगत है न कि अपयत्वविशिष्टप्रमाणशब्दवाचकश्रुतिपदजन्योपस्थिति में संकोच करना व्यायसङ्गत है । तथा संन्यासादि में अधिकृत पुरुष के लिये ही श्रवण का नियमन करना भी आवश्यक है इसलिये श्रवणविधि को नियमविधि मानने में कोई अन्याय नहीं है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि श्रवणादि की विधि को नियमविधि मानने पर भी आत्मदर्शन के लिये ही श्रवणादि की विधि है यह सिद्ध हो जाता है । श्रतः वाक्यार्थबोध, श्रवणादिजन्य दुरितादृष्टनिवृत्ति से साध्य नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि "तत्वमसि " वाक्यार्थबोध भी ब्रह्मरूप विषय के अपरोक्ष होने से आत्मदर्शनरूप ही है अतः उसकी उत्पत्ति में श्रवणादिजन्य दुरितनिवृत्ति द्वार हो सकती है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विषय के परोक्ष होने से वाक्यजन्यबोध भी अपरोक्ष होता है' यह वेदान्ती की केवल प्रक्रिया कल्पनामात्र है । क्योंकि प्रतिभास को परोक्षता और अपरोक्षता विषय की परोक्षता और अपरोक्षता से नहीं होती, क्योंकि ऐसा मानने पर एक विषय के परोक्ष और अपरोक्ष उभयविध प्रतिभात को उनुपपत्ति होगी; क्योंकि विषय के स्वरूप में परावर्तन नहीं होता अर्थात् १. क ' । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ [ शास्त्रवाती स्त० ८ दलो०१० विषय का स्वरूप कभी परोक्ष और कभी अपरोक्ष नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि परोक्षत्व और अपरोक्षत्व विषय का धार्म न होकर वृत्ति का हो धर्म है, परोक्ष-अपरोक्षवृत्ति का विषय होने से हो विषय में परोक्षस्व और अपरोक्षस्व का व्यवहार होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सभी ज्ञान को जो स्वांश में प्रत्यक्ष माना जाता है उसका विरोध होगा। यदि यह कहा जाय कि-"वत्ति स्वाफारवृत्ति के बिना भासमान होने से शुद्ध साक्षी द्वारा अपरोक्ष होती है किन्तु घट-वह्नि आदि विषयों में साक्षी प्रयुक्त अपरोक्षता, ज्ञान और अज्ञान के विषयरूप में ठीक उसी प्रकार होती है जैसे नयायिक के मत में घटादि विषय में ज्ञान विशेषणतया मानस प्रत्यक्ष की विषयता होती है। आशय यह है कि मन आभ्यन्तरेन्द्रिय है अत एव वह आत्मा और आत्मा के योग्य विशेष गुणों तथा तमतजाति का ही प्रत्यक्ष जनक है । घटपटादि पदार्थ बाह्य होने से मनोग्राह्य नहीं है अत एव मानस प्रत्यक्ष में घटपटावि का भान स्वत त्ररूप से न होकर ज्ञानादि के विशेषणरूप में ही 'घटमहं जानामि' 'घटज्ञानवान प्रह' इत्यादिरूप में होता है ठीक यही स्थिति वेदान्त मत में घटवह्नचादि बाह्य पदार्थों की है । क्योंकि साक्षिजन्य प्रत्यक्ष में वह भी साक्षिग्राहाजान प्रोर अज्ञान के विशेषणरूप में हो भासित होता है। स्वरूप से भी अर्थात-स्वतन्त्र रूप से भी प्रमाण द्वारा अपरोक्षता घटादि में ही होती है । क्योंकि घट के इन्द्रियसंनिकृष्ट होने पर घटाकार वृत्त्यात्मना प्रमातृचैतन्य का विषय देश में बहिर्गमन होने से विषय और अन्तःकरणरूप उपाधिओं के एक होने के कारण विषय-चतत्य और प्रमालचतन्य में अभेट होता है। अत: वह वत्तिप्रतिबिम्बितचेतन्यरूप फल का व्याप्य अर्थात विषय होता है। ति आदि का ज्ञान अब अनुमान से होता है तब अनुमानप्रमाण से उसको प्रतिपत्ति होने पर भी उसमें प्रमाणाधीन अपरोक्षता नहीं होती क्योंकि उस दशा में अनुमानजन्य वह चाकारवृत्ति का बहिनिस्सरण हो कर विषय देश में गमन नहीं होता अत एव विषय-चैतन्य और प्रमागृचैतन्य में प्रभेद को अभिव्यक्ति न होने से उसमें फलव्याप्यता नहीं होती। किन्तु तत्त्वमस्यादि शब्द से जब ब्रह्मचैतन्य का बोध होता है तो वही चैतन्य प्रमाता और विषय उभयरूप होने से अभिन्न हो जाता है। अत एव शब्द से उसका बोध होने पर भी उसमें स्वरूपतः अपरोक्षता हो सकती है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पर्वत के चक्षः संनिकृष्ट होने पर भी जैसे पृष्ठदेशविशेष यिशिष्टपर्वत अपरोक्ष नहीं होता उसी प्रकार तत्वमस्यादिवावयजन्यकोष स्थल में प्रमातृचैतन्य और विषयभूतत्वतन्य में ऐवय होने पर भी प्रत्रहत्वादिविशिष्ट चैतन्य अपरोक्ष नहीं होता। क्योंकि अखण्यत्वादि धमों में नैसगिक अपरोक्षयोन्यता नहीं होती। यदि प्रमाता और विषय के अभेदमात्र से यदि तत्त्वमस्यादिशब्दजन्यबोध को अपरोक्षज्ञानरूप माना जायगा तो शान सामग्रीरूप हेतु से जो 'अहं ज्ञानवान्' इस प्रकार प्रहमर्थ में ज्ञान की अनुमिति होती है उसको अनुमितिरूपता का उच्छव हो जायगा क्योंकि उस ज्ञान के भी विषय और प्रमाता में ऐक्य होने से उसमें भी अपरोक्षज्ञानरूपता अपरिहार्य होगी। इसके अतिरिक्त विषयअंश में प्रतीयमान स्पष्टता यदि जान का धर्म होगा तो सभी ज्ञान में स्पष्टता का प्रसङ्ग होगा। प्रत एष सभी ज्ञान के अपरोक्ष हो जाने से कोई भी ज्ञान परोक्ष न होगा। __ यदि यह कहा जाय कि-"विषय में जो स्पष्टता का व्यवहार होता है उसका निमित्त होता है व्यवहार के कारणीभूत ज्ञान की स्पष्टता । अर्थात् जो व्यवहार स्पष्ट ज्ञान से होता है वह व्यवहीयमाण पदार्थ की स्पष्टता को विषय करता है। इसीलिये जब किसी विषय के प्रत्यक्षशान से उस Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का एहि-दो विदेषन विषय का व्यवहार होता है तो वह विषय का स्पष्टतया व्यवहार होता है; और जब परोक्षज्ञान से विषय का व्यवहार होता है तो विषय का स्पष्टतया व्यवहार नहीं होता।"-तो यह कहना ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने में अनवस्था होगी। अमवस्था इस प्रकार,-विषय के स्पष्टतथा व्यवहार के कारणीभूतज्ञान में भी स्पष्टता का व्यवहार होता है। अतः उस व्यवहार के लिये उस व्यवहार क कारणीभूत स्पष्ट ज्ञान को कल्पना करनी पड़ेगी। इसी प्रकार उसमें भी स्पष्टता व्यवहार के अनुरोध से उसके भी कारणीभूत स्पष्टज्ञान की कल्पना करनी पड़ेगी । अतः अनवस्था होगी। दूसरी बात यह है कि-'तन्य एका ही ऐसा है कि उपाधि भेद से भी उसमें भेव नहीं होता।'ऐसा एकान्तवाद मानने पर प्रत्यक्षादि स्थल में उसी में अपरोक्षता और अनुमिति आदि स्थल में उसीमें परोक्षता का अभ्युपगम उचित नहीं है। और इसी प्रकार एकान्तबाद में कर्तृ-कम-क्रियाभाव का भी स्वीकार नहीं हो सकता। क्योंकि कर्म-कर्म-किया भाव भी परस्पर विरुद्ध है। अतः यदि अन्तःकरण विषय और वृत्तिरूप उपाधि के भेद से भी यदि चतन्य में भिन्नता न मानी जायगी, तो उसमें अन्तःकरणावच्छेदेन कर्तृत्व, विषयावच्छेदेन कर्मत्व, और वृत्यवछेदेन क्रियात्व को उपपत्ति न हो सकेगी। अस्माकं त्वनेकान्ताद् नायं दोषः, प्रचलतरज्ञानावरण वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमविशेषात् क्वचिद् विषये विज्ञानस्य स्पष्टत्वम् , तद्विपर्ययात्तु क्वचिदस्पष्टत्वम् । अनुमानाद्याधिक्येन नियतवर्णसंस्थानाधवगाइनेन विशेषप्रकाशनं हि स्पष्टत्वम् , तदुक्तम् "अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद् वैशधं मतं बुद्धैरवेशद्यमतः परम् ॥१॥" इति । 'प्रतीत्यन्तगव्यवधानेन प्रकाशनं स्पष्टत्वम्' इति त्वीहादीनां संदेहादिभ्यः समुपजाय. मानत्वेन निरस्तं देव सूरिभिः। तदिह शब्दादुद्भवदात्मज्ञानं न कथमप्यपरोक्षम् , अस्पष्टत्वात् , इति केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष मेवात्मदर्शनमेष्टव्यम् । तत्र च श्रवणस्य ज्ञान विज्ञानादिक्रमेजोपयोगः, अत श्वोपरतिपदार्थस्य चारित्रस्य न तदङ्गस्यम् , श्रवणस्यैव तदुपका रिवात । अत एव च गृहस्थानां स्त्रीणां च तत्र तत्रोक्तस्तदाधिकारोऽपि संगच्छने । श्रवणादिरिधिश्व मुक्त्यर्थमेव, सम्यग्दृष्टिमधिकृत्य सर्वेषामपि कर्मणां तदर्थमेव विधानात, विधिसामदेिवेहलोकाद्यनिषेधप्राप्तेः । विहितं च मुक्तिपरम्पराकारणमान्तरालिककारणोपनायकतयच तज्जनयेदिति कि नात्मश्रवणमात्मदर्शनहेतुः स्यात् ? : उपकारिकारणं चैतत् , तेन न प्रत्येकबुद्धादीना श्रवणाभावेऽपि ज्ञानानुपपत्तिः । न च प्राग्भवीयश्रवणादिकमेव तेषां कल्पनीयम् , मरुदेव्यादौ तदभावात, इत्यन्यत्र समयपरमार्थविस्तारः। ___ हाँ, हमारे जैन मत में यह दोष नहीं हो सकता। क्योंकि जैन मत में वस्तु की अनेकान्सरूपता मान्य है । अतः ज्ञान के प्रबलतरावरण एवं विषयग्रहणसामर्थ्यरूप बीर्य के प्रबलतर अन्तराय १. प्रमागानयतत्त्वालोकालडकारे द्वितीयपरिच्छेदे। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रवा०ि स्त० ८ श्लो०१० भूत कर्मों के क्षयोपशमविशेष से कहों पर विज्ञान किसी विषय में स्पट होता है, और जिस विषय में उक्त क्षयोपशम का विषय है उस विषय में अस्पष्ट होता है। क्योंकि अनमानादि के विष से अधिक नियतवर्ण और संस्थानादि द्वारा वस्तु के विशेष प्रकाशन को ही स्पष्टता कहा जाता है। जैसा कि एक कारिका में बताया गया है कि अनुमानावि से अगृहीतरूप ही वस्तु का विशेष रूप है उस रूप से वस्तु को ग्रहण करना ही बुद्धि का वंशय है। और ऐसे रूप से वस्तु को ग्रहण न करता हो बुद्धि का अवैशध है। स्पष्टता के इस निर्वचन के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान ही स्पष्ट ज्ञान होता है और उसका विषय होने से हो वस्तु में स्पष्टता कर व्यवहार होता है। कुछ लोगों ने स्पष्टता का निर्वचन इस प्रकार किया है कि प्रतीत्यन्तर के व्यवधान के विना जो वस्तुस्वरूप का प्रकाशन है वही स्पष्टता है, जैसे, अबधि मनःपर्याय और केवलज्ञान किसी अन्य प्रतीति के व्यवधान दिना वस्तु का विशेषरूप से प्रकाशक होता है किन्तु देवसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक के दूसरे परिच्छेद में स्पष्टता की इस परिभाषा का यह कहकर खन किया है कि द्वाविज्ञान भी अंशत: स्पष्ट होता इस परिभाषा के अनुसार उसमें स्पष्टता को अनुषपत्ति होगी क्योंकि वह संशयादिपूर्वक होने से प्रतोत्यन्तर के व्यवधान द्वारा ही वस्तुस्वरूप का ग्राहक होता है। इस प्रकार विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वमस्यादि वाक्य से होने वाला आत्मज्ञान कथमपि अपरोक्ष नहीं हो सकता क्योंकि वह अस्पष्ट होता है। अत: केवलजानरूप सर्व विषयक प्रत्यक्षात्मक प्रात्मदर्शन हो मुमुक्षु के लिये अभिमत है। इस ज्ञान में श्रवण का उपयोग ज्ञान-विज्ञानादिकम से मनन और अनुध्यान कम से होता है। इसीलिये चारित्ररूप उपरति पदार्थ श्रवण का अंग नहीं होगा क्योंकि श्रवण ही चारित्र का उपकारक-अङ्ग होता है। ऐसा मानने से ही जस ग्रन्थ में श्रवण में बताये गये गृहस्थ और स्त्रीवर्ग के अधिकार की संगति होती है। श्रवणादि की विधि मुक्ति के लिये ही है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि को अधिकारी मानकर सभी कर्मों का मोक्ष के लिये ही विधान है। विधान के सामर्थ्य से ही ऐहलौकिक और पारलौकिक प्रों के निषेध अर्थात् उन अर्थों में वैराग्य को अवगति होती है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि जो मुक्ति का परम्परया कारण होने से विहित होता है वह प्रान्तरालिक कारण का उपस्थापक होकर ही मुक्ति का जनक होता है। अतः आत्मश्रवण आत्मदर्शन का हेतु क्यों नहीं होगा? अर्थात् प्रात्मश्रवण आत्मदर्शन का हेतु होमा न्यायसंगत ही है। और यह भी ज्ञातव्य है कि यतः आत्मश्रवण उपकारी-पारम्परिक कारण है अतः प्रत्येकबुद्ध (उपदेश के चिना भी चारित्रग्रहण में समर्थ पुरुषों) को श्रयण के बिना भी ज्ञान की अनुपपत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि उन्हें भी पूर्वजन्म का श्रवणादि सम्पन्न रहता है अतः आत्म श्रवण सभी के लिये आत्मदर्शनोपयोगी है-तो यह उचित नहीं है क्योंकि मरवेधी आदि जिन्हें प्रथम मनुष्यजन्म में ही आत्मदर्शन द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हो गयी उनमें पूर्वजन्म के श्रवणादि की कल्पना सम्भव नहीं है। इस विषय में सिद्धान्त का सारतस्थ विस्तार से अन्यत्र वणित है । अपि च स्वमतेऽपि परस्य श्रवणादिजन्यप्रतिबन्धकादृष्टनिवृत्तिरूपनिदोषत्वमहिमा न शब्दात् शुद्धब्रह्मवोधे हेतुः, उत्पत्तौ प्रामाण्यस्य म्यतस्त्वभङ्गापत्तेः । ज्ञानसामान्यसामग्रीजन्यत्वं हि तत्, न चोक्तार्थवाक्यार्थप्रमाया निर्दोषत्वजन्यत्वे युज्यत एतत् । श्रवणादेः प्रतिवन्धकनिवर्तकस्वात् , प्रतिवन्धकाभावस्य च तुच्छतया हेतुत्वादेव गेहेनर्दिभिः परै रेतद् Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टोका एव हिन्दी विवेचन ] दोपपरिहारादिति स्वगृहतत्वमेव न प्रेक्षितं क्षुत्वामकुक्षिना तपस्विना, ततः सम्भ्यगुत्प्रेचितं शाक्यसिंह विनेयेन यत् 'प्रबलदोपमाहात्म्यात् 'खरविषाणम्' इत्यादिवाक्यादलीकस्याखण्डस्य खरविषाणस्येव वेदान्तवाक्यात् परेषां कुत्रासनादोषमाहात्म्यादलीकस्याखण्डस्य ब्रह्मणो बोधः' इति । एवं च सर्वस्य स्वरूपसत्तादिधर्मसंकीर्णस्य, पररूपासंकीर्णस्यैव चोपलम्भाद् व्यवहारस्य च प्रतियोगिप्रतिपत्तौ तथैवोदयात्, सदसदात्मकमेव जगत् । तदाहुवृद्धा"सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वसत्यं स्यात् स्वरूपस्याप्यसंभवः ।" न तु सदाद्यद्वैतमेवेति व्यवस्थितम् ॥१०॥ 5 चार्वाकीयमतावकेशिषु फलं नैवास्ति बौद्धोक्तयः कर्कन्धूपमितास्तु कण्टकशतैरत्यन्तदुःखप्रदाः । उन्मादं दधते रसः पुनरमीवेदान्ततालद्रुमाः गीर्वाणद्रुम एव तेन सुधिया जैनागमः सेव्यताम् ॥ १ ॥ न काश्वाः सुगततनयैर्नापि शशके केनद्वितवैर्भ महिमा यस्य विदितः । मरालाः सेवन्ते तमिह जैनयतयः सरोजं स्याद्वादप्रकरमकरन्दे कृतधियः ॥ २ ॥ क्वचिद्भेदच्छेदः कचिदपि हताऽमेदरचना क्वचिद् नात्मख्यातिः क्वचिदपि कृपास्फातिविरहः । कलङ्कानां शङ्का न परसमये कुत्र तदहो । श्रिता यद् स्याद्वादं सुकृतपरिणामः स विपुलः ||३|| यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया आजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाथ विद्या प्रदाः । १६७ प्रेम्णां यस्य च सम पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरस्तेन न्यायविशारदेन रचितस्तर्कोऽयमभ्यस्यताम् ॥४॥ ।। इति पण्डित श्रीपद्य विजयसोद न्यायविशारद पण्डितयशोविजयविरचिताय स्याद्वादकल्पलतानाम्न्यां शास्त्रवातसमुच्चयटीकायामष्टमः स्तबकः ।। इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि आत्मतत्त्वज्ञान में प्रतिब घक अदृष्ट की श्रवणादि से निवृत्तिरूप जो निर्दोषता होती है उसकी महिमा वेदान्त मत में भी शब्द से शुद्धब्रह्मबोध में हेतु नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा मानने पर ग्रामाण्य की उत्पत्ति में स्वतस्त्व का भङ्ग हो जायगा क्योंकि प्रामाण्य की उत्पत्ति में स्वतस्त्व ज्ञानसामान्यसामग्रीजन्यत्वरूप ही होता है और वह तत्त्वमस्यादि वार्थ की प्रमाको निर्दोषत्वजन्य मानने पर युक्तिसंगत नहीं हो सकता । इस बात को भी दृष्टि में रखना आवश्यक है कि शब्द किञ्चिद्धर्मविशिष्ट का ही वाचक होने से शब्द से शुद्धब्रह्म का बोध कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न के समाधान की भूख से कृश कुक्षि तपस्वी मधुसूदन ने तत्त्वमस्यादिवाक्यजन्थबोध को निर्दोषत्वजन्य बताते हुये अपने घर की इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि अग्ने घर के भीतर गर्जन करने वाले उनके अन्य बन्धुओं ने प्रामाण्य की उपपत्ति में स्वतस्त्व मङ्ग को आपत्तिरूप दोष का यह कह कर परिहार किया है कि-'श्रवणादि से प्रतिबन्धक की निवृत्ति होती है । प्रत: प्रतिबन्ध का भाव तुच्छ होने से ब्रह्मबोध का हेतु नहीं होता। इसलिये ब्रह्मबोध को दोषाभावजन्य Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शास्त्रबार्ता० स्त०८ प्रो० 10 कह कर प्रामाण्य को उपपत्ति में स्वतस्त्वभङ्ग का आपावान उचित नहीं है।' इसलिये शाक्यसिंह बुद्ध के अन्तेवासोने ठीक ही उत्प्रेक्षा की है कि जिस प्रकार 'खरविषाणम्' इत्यादि वाक्य से प्रबलदोषवश अलीक प्रखण्ड खरशृङ्ग का बोध होता है उसी प्रकार कुबासना के दोषवश वेदान्तीनों को घेवान्त वाक्य से अलीक अखण्ड ब्रह्म का बोध होता है। इस उत्प्रेक्षा से स्पष्ट है कि वेवान्तीयों का ब्रह्म खरशृङ्ग के समान अलीक है। उपरोक्त सभी विचारों की समीक्षा करने से यह सुनिश्चित निस्कर्ष प्राप्त होता है कि संसार की जो भी वस्तु उपलब्ध होती है वह स्वरूपसत्तादि धर्मों से संकीर्ण=युक्त प्रौर पररूप से असंकीर्णशून्य होती है और वस्तु जिन परधर्मों से शून्य होती हैं उन परधर्मरूप प्रतियोगी का ज्ञान रहने पर पररूप शून्यतया उसका व्यवहार भी होता है / अतः सारा जगत् सत्-असत् उभयात्मक ही है / जसा कि जैन विद्वानों ने कहा है संसार को प्रत्येक रस्तु दाहा से सन् गौर पररूप से असत् होती है / यदि केवल सत् ही माना जायगा तो सर्वरूप से सत्त्व को प्रापत्ति होगी और यदि वस्तु को असत् ही माना जायगा तो स्वरूप से भी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकेगा। अत: यह सिद्ध होता है कि सदद्वैत-विज्ञानाद्वैतशन्यातादि सर्वविध अद्रत प्रप्रामाणिक है॥१०॥ व्यख्याकार ने तीन श्लोकों से इस स्तबक का बड़े सुन्दर ढंग से उपसंहार किया है / पहले श्लोक में कहा है कि चार्वाक का मत भवकेशो=वन्ध्यवक्ष जसा है जिससे किसी प्रकार के फल को आशा नहीं की जा सकती। बौद्ध के समस्त बचा अदरी वृक्ष के समान है जो संकड़ों कीटों से संकीर्ण होने के कारण अत्यन्त दुखदायी है। और वेदान्त के सिद्धान्त तालवक्ष के समान है जो अपने रस से मनुष्य में केवल उन्माद पैदा करते हैं। केवल जैनागम ही ऐसा शास्त्र है जो मनुष्य के लिये देववृक्ष-कल्पवृक्ष समान है अत एव अपना कल्याण चाहने वाले प्रत्येक मनुष्य को उस शास्त्र का हो आश्रय लेना चाहिये। दूसरे श्लोक में यह कहा है कि जैन सिद्धान्त सरोज-कमल के समान है जिसका महत्त्व न तो काककल्प धार्थकों को ज्ञात है-और न खरगोश जैसे बौद्धमतावलम्बो को ज्ञात है, न बकसदृश अद्वैतवेदान्तोओं को झात है- किन्तु सम्पन्न जैन यतिओं को जो उसे स्यावाद के मकरन्द रस से भरा हुमा देख कर उसका अनन्यभाव से आसेवन करते हैं। तीसरे पय में व्याख्याकार ने यह कहा है कि अन्य दर्शनों पर दृष्टि डालने पर यह ज्ञात होता है कि फिली दर्शन में भेद का खण्डन किया गया है असे अद्वैतवेदान्त में; और कहीं अभेदवाद का खण्डन फिया गया है, जैसे द्वैतवादो दर्शन में; किसी दर्शन को आत्मा का ही परिचय नहीं है जैसे बौद्ध दर्शन को; किसी में कृपासोन्दर्य का विरह है-जैसे निरीश्वरवादी सांस्य और मीमांसा दर्शन में। इस प्रकार आश्चर्य है कि ऐसा कोई भी परदर्शन नहीं है जिसमें इस प्रकार कलंक शंका नहो। अतः जिन लोगों ने स्याद्वाद दर्शन का आश्रय लिया है वह उनके सुकृत समूह का महान और सुन्दर परिणाम है। [ यस्यासन्० इस श्लोक का अर्थ प्रथम स्तबक में देख लेना] - 8 वां स्तयक समाप्त : वह ज्ञान कवलस नम: