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होने से देत का अर्थ है मेद और जिसमें भेद न हो वह है अद्वत । कहने का तात्पर्य यह है कि अद्वैत शब्द की अनेक व्युत्पत्ति की जा सकती है किन्त सभी के अनुसार ब्रह्म को अद्वैत कहने से उसकी परमार्य रूप में एकमात्रता सूचित होती है।
[ एकमात्र ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता का उपपादन ] व्याख्याकार ने ब्रह्म को अद्वैत कह कर जो प्रबैत शब्द की व्युत्पत्ति की है उसकी, ब्रह्म के प्रतित्व समर्थन में उक्त हेतु से अभिन्नार्थकता प्रतीत होती है। अर्थात्-व्याख्याकार ब्रह्म को प्रखंत कह कर ब्रह्म को भेवरहित बताना चाहते हैं । उनका प्राशय यह है कि मूल ग्रन्थकार ने अद्वैत शम्द से ब्रह्म का मेदराहित्य यह अर्थ बताकर सूचित किया है कि ब्रह्म से भिन्न कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो ब्रह्म को भिन्न सिद्ध कर सके: क्योंकि नोल-पीतादि जो अन्यों को भेवकरूप से अभिमत है वह भी ब्रह्ममात्र ही है-ब्रह्म से अतिरिक्त उनकी सत्ता नहीं है। इस कथन का समर्थन ध्याख्याकार ने यह कहते हुये किया है कि जैसे निसर्गतः अनवच्छिन्न-अपरिमित प्रकाश का घट-पटादि उपाधिनों से भेव नहीं होता, उसी प्रकार नीलपीतादि पदार्थों से भी निसर्गतः निस्सीम होने से ब्रह्म का भी भेद नहीं हो सकता। इस कथन से यह स्पष्ट है कि ब्रह्म में ब्रह्म का भेद कथमपि सम्भव नहीं है। फलतः वह सजातीयद्वितीय से रहित है।
[ब्रह्म स्वगत द्वितीयभेद से भी शून्य है ] इस के अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि वह केवल सजातीय द्वितीय से हो रहित नहीं है अपितु विजातीय और स्वगत द्वितीय से भी रहित है । अर्थात-जैसे ब्रह्म से अतिरिक्त ब्रह्म की कोई सजातीयवस्तु न होने से उसमें सजातीय भेद का अभाव है उसी प्रकार ब्रह्म से विजातीय भी किसी की परमार्थसत्ता न होने से उसमें घिजातीय भेद का भी अभाव है एवं ब्रह्म के निरंश और निधर्मक होने से इसमें कोई ऐसी भी यस्तु नहीं है जो धर्मरूम से या घटकरूप से अथवा आश्रितरूप से ब्रह्म गत कहा जाय और ब्रह्म उस से भिन्न हो । अतः ब्रह्म में स्वगत का भी भेद नहीं है, जैसा कि वृक्ष में वृक्षगत शाखा-पत्रादि का और रूपस्पर्शादि का भेद होता है। इस प्रकार ब्रह्म सजातीय विजातीय और स्वगत, इन तीनों के भेद से शून्य है । इस विविध शून्यता को बताने के लिये ब्रह्म के विषय में 'एकमेवाद्वितीयम्' इन शब्दों का प्रयोग उपनिषदों में किया गया है। इस तथ्य का निरूपण करते हुये व्याख्याकार ने वेवान्तीनों की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया है कि
किञ्च, भेदस्य वस्तुस्वभावत्वे तस्यैकस्यानेकवृत्तित्वाद् वस्तुनामपि भेदो न स्यात् । नैकस्मादमिनमभिन्नस्वभावं भिन्नं युज्यते । अर्थान्तरत्वे च तस्य वस्त्वरूपत्वात् स्वरूपेण मावा न व्यावृताः स्युः । कल्पितात्तु मेदात् कल्पितमेव नीलादिनानात्वम्, न तु पारमार्थिकम् । अप परापेक्षं वस्तुनो भिन्नत्वं, स्वरूपेण वेकत्वमिति न दोष इति चेत् न, न हि वस्तु स्वहेतुपलोदितं स्वभावव्यवस्थितये परमपेक्षत इति पुरुषप्रत्ययधर्म एव परापेक्षत्वमिति न ततो वस्तुभेदः । यदि च भेदस्वरूपो भावः प्रतियोग्यपेक्षः स्यात् । स्वहेतोरविकलस्य तस्योत्पत्तिर्न