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[ शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो० १
सान
भ्रमनिवृत्ताघुपाधिनिवृत्तः पुष्कलकारणत्वात् । भेदाभ्यासे दर्पणस्योपाधित्वान, सत्यपि प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञाने यावदुपाधि मेदाऽध्यासानुवृत्तेः । तस्माद् मुखमधिष्ठानं तत्र च भेदोऽध्यस्यते इति स्थितम् । एवं चाज्ञानादौ प्रतिविम्बे सत्यपि नाभासान्तरम्. मानाभावात्, अज्ञानाध्यासेन परिच्छिन्नत्वापत्त्यैव सादृश्यसंभवादिति विशेषः ।
[ आदर्श में अन्य मुख की उत्पसि नहीं होती-प्रतिबिम्बयाद ] आभासवाद के समान जीव के सम्बन्ध में प्रतिबिम्बवाद के नाम से भी एक मत वेदान्तसम्प्रदाय में प्रसिद्ध है। उस मत के समर्थकों का यह कहना है कि प्रतिबिम्बग्राही द्रव्यों से बिम्ब से मिन्न प्रतिबिम्ब की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु बिम्भमूत पदार्थ ही उन द्रव्यों में ज्ञात होता है, अत: आदर्श में ग्रीवास्थमा के भिन्नमा की उत्पति नहीं होनी किन्तु आदर्श के प्राभिमुल्यरूप दोष सहकृत प्रज्ञान से मुख में ग्रीवास्थत्व के ज्ञान का प्रतिबन्ध हो जाता है और उस मुखरूप अधिष्ठान में हो अनिर्वचनीय प्रादर्श सम्बन्ध और उसी में उस के अनिर्वचनीय भेव को -जिसे शब्दान्तर से द्वित्व नाम से भी अभिहित किया जाता है- उत्पत्ति हो जाती है । इसलिये उस एक हो मुख में द्विस्व प्रौर आदर्शवत्तित्व को प्रतीति होती है। यह प्रतीति परोक्षभ्रमरूप न होकर अपरोक्ष भ्रमरूप होती है। क्योंकि आदर्श के सन्मुख स्थित मनुष्य के चक्षु की किरण आदर्श में प्रतिहत होकर जब उस मनुष्य की ओर लौटती है तब उस के मुख के कतिपयभाग के साथ चक्षु का
ता है । अतः 'प्रादश मुखम' इस भ्रम में मुख का इन्द्रिय संनिकर्ष से भान होता है। अत एव यह मुख का अपरोक्ष भ्रम है। यदि आदर्श में अन्य मुख की उत्पत्ति होती तो वह मुख अनिर्वचनीय होता अतः उस मुख में आदर्श सम्बन्ध की होने वाली बुद्धि मुख अंश इन्द्रियजन्य न होने से मुख अंश में परोक्षरूप होती।
[ भ्रम का अधिष्ठान मुख नहीं आदर्श है-शंका ] इस पर यह शंका हो सकती है कि 'आदर्श मुखम्' इस भ्रमात्मक ज्ञान का अधिष्ठान मुख नहीं है, किन्तु आदर्श हो है । और उस में यद्यपि मुखभाव है फिर भी उस का ज्ञान न होने से प्रादर्श में मुखज्ञान उत्पन्न होता है। इस ज्ञान के सम्बन्ध में यदि यह अनुभव हो कि 'यह ज्ञान मुखांश में अपरोक्ष है तो आदर्श में बिम्बमूत मुसा के अनिर्वचनीय संसर्ग की हो उत्पत्ति मान्य होगी। यदि ऐसा अनुभव न हो किन्तु उक्त प्रतीति मुखांश में भी परोक्ष ही हो तो प्रादर्श में अनिर्वचनीय मुखांतर को भी उत्पत्ति हो सकती है । इस के अतिरिक्त इस प्रतीति को आदर्शाधिष्ठान वाली मानना इसलिये भी उचित है कि मुख में उस प्रतीति की अधिष्ठानता अनुभवधिरुस है। क्योंकि प्रत्येक प्रादर्शदृष्टा व्यक्ति को यही अनुभव होता है कि 'मैं आदर्श में मुख देखता हूं न कि मुख में आदर्श सम्बन्ध देखता हूं।'
[सोपाधिक-निरुपाधिक श्रम विभाग उच्छेद की आपत्ति-समाधान )
किन्तु यह शंका उचित नहीं है क्योंकि यदि 'प्रादर्श मुखम्' इस प्रत्यक्ष को आदाधिष्ठान घाला माना जायगा तो सोपाधिक और निहाधिक भ्रम की व्यव सा का लोप हो जायगा, क्योंकि जिस ज्ञान में उपहितवस्तु में उपाधिगत धर्म का भान होता है वही सोपाधिक भ्रम होता है।