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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन
आभास अनादि है अतः उस अध्यास के निरुपाधिक होने पर भी उस के लिये सादृश्य की अपेक्षा न होने से सादृश्य की उपपत्ति के लिये श्रनेक चैतन्याभासों की कल्पना प्रयुक्त अनवस्था की प्रापत्ति नहीं होती क्योंकि सादृश्य की अपेक्षा निरुपाधिक जन्य अध्यास में ही होती है ।
यदि यह शंका की जाय कि चैतन्य में प्रज्ञान का अनादि अध्यास है हो, अत एव अज्ञान के सादृश्य से चैतन्य में अहंकार का निरुपाधिक प्रध्यास हो सकता है । अतः सादृश्य के लिये अज्ञान में सन्याभास की कल्पना निष्प्रयोजन है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अज्ञान जड है । अत एव चैतन्य में उसके सादृश्य की आपत्ति यानी प्राप्ति असिद्ध है । क्योंकि अज्ञान जड होने से उस का सादृश्य जडतादात्म्यरूप होगा और यह चैतन्य में तब सम्भव होता यदि उस में अज्ञान तादात्म्यसम्बन्ध से अध्यस्त होता । किन्तु वह तादात्म्यसम्बन्ध से चैतन्य में अध्यस्त नहीं है अपितु तादात्म्य भिन्नसम्बन्ध से अध्यस्त है इसलिये 'अहमज्ञानम्' ऐसी प्रतीति न होकर 'अहमज्ञः 'मै अज्ञानी हूं, इस प्रकार की प्रतीति होती है। किन्तु जब अज्ञान में चैतन्य का आभास माना जाता है तब उस चैतन्याभास का चैतन्य में तादात्म्याध्यास होने से चंतव्य में जाड्य संभव होने से न्याभासरूप जड का तादात्म्यलक्षण सादृश्य उपपन्न होने से चैतन्य में अहंकार का अध्यास उपपन्न हो सकता है ।
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यह भी नहीं कहा जा सकता कि- ' श्राभास में बिम्बभिन्न प्रतिबिम्ब में कोई प्रमाण न होने से अज्ञान में जड़ चैतन्याभास नहीं माना जा सकता ।' क्योंकि 'आदर्श मुखम् = आदर्श में मुख हैं' इस यथार्थ प्रतीति के अनुरोध से आदर्श में ग्रीवास्थमुख से भिन्नमुख की उत्पत्ति सिद्ध होती है । क्योंकि यदि प्रतिबिम्बभूतमुख प्रीवास्थमुख से भिन्न न होगा, तो उस में ग्रीवास्यत्व का ही ज्ञान होता, आदर्शवृतित्व का ज्ञान न होता । तो जब इस प्रकार एक स्थान में बिम्ब से भित्र प्रतिबिम्ब का होना सिद्ध है तो ओ बात एक स्थान में सिद्ध होती है, अन्यत्र भी इसी प्रकार की बात मानना युक्तिसङ्गत है । इस न्याय से ज्ञान में भी चैतन्य से भिन्न चैतन्याभास माना जा सकता है । और जैसे अज्ञान में चैतन्य से भित्र चैतन्याभास स्वीकार्य हो सकता है उसी प्रकार श्रन्तःकरणादि में भी तन्य का श्राभास होता है किन्तु अन्तःकरणगत चैतन्याभास जीव शब्द का प्रवृत्ति निमित्त नहीं होता किन्तु अज्ञानगत चैतन्याभास हो जीव शब्द का प्रवृत्ति निमित्त होता है क्योंकि अज्ञानगतचैतन्याभास तादात्म्यापन्न तन्य ही जीव है ।
प्रतिबिम्बवादे तु न मुखान्तरोत्पत्तिः सुखेऽधिष्ठानभेदमात्रस्य द्वित्वापरपर्यायस्यादर्शस्वत्वभ्य चानिर्वचनीयस्योत्पत्यैव निर्वाद्वात् । अधिष्टाने मुखे कतिपयावयवावच्छेदेनेन्द्रिय संनिकर्षादपरोक्ष भ्रमोपपत्तेः । ननु - आदर्श एवाधिष्ठानमस्तु तत्र मुखाभावाऽज्ञानेन यदि मुखमपरोक्षम् तदा तत्संसर्गस्य, अन्यथा तस्यैवोत्पत्योपपत्तेः सुखाधिष्ठानत्वस्यानुभवाननुसारित्वादिति चेत् न, सोपाधिक- निरुपाधिकभ्रमव्यवस्थाविप्लवप्रसङ्गात् । 'लोहितः स्फटिकः ' इत्यत्रापि शुक्त्यज्ञानाद् रजतश्रमबजपाकुसुमत्त्राज्ञानाल्लोहिते तस्मिन् स्फटिक तादात्म्य आमस्य सुवचत्वात् । अधिष्ठानस्योपाधित्वे च सर्वभ्रमाण सोपाधिकत्वप्रसङ्गः प्रत्यभिज्ञानाच्च न सुखान्तरोत्पत्तिः । ननु एवं ततोऽज्ञाननिवृत्ती मेदभ्रमोऽपि निवर्तेतेति चेत १ न, सोपाधिक
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