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[ शास्त्रवार्ता. स्त०८ लो०१
क्योंकि उक्त अनुभव में 'अहं' शब्द से अज्ञानावच्छिन्न चैतन्य का स्वरूपतः मुख्य-विशेष्यविधया अज्ञान विषयतानापन्नरूप में भी भान होता है । अतः अज्ञानविषयतानापन्नरूप में भी ईश्वर में प्रत्यक्षस्यापति दुर्वार है क्योंकि 'ईश्वरं न जानामि' इस रूप में ईश्वर का केवल प्रज्ञानविषयरूप में ही प्रत्यक्ष इष्ट है।
किन्तु विचार करने पर यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि 'अहं मां न जानामि' इस प्रतीति में ब्रह्म आदि विश्वप्रपश्व के अधिष्टानभूत अखण्ड चैतन्य का ही द्वितीयान्त अस्मत् पद से उल्लेख होता है, क्योंकि ब्रह्म की प्रत्यक्षयोग्यता साक्षात् अपरोक्षाद्रह्म इत्यादि श्रुति से सिद्ध है। अज्ञान विषयतोपहित वेतन्यरूप ईश्वर का उसमें प्रवभास नहीं होता। क्योंकि प्रशाततारूप उपाधि का स्फुरण होने पर भी ईश्वर के अयोग्य होने से प्रज्ञानविषयतोपहित ईश्वर का स्फुरण उसी प्रकार नहीं हो सकता जैसे घटशब्दाल्लेख्य प्रत्यक्ष में घट का स्फुरण होने पर भी चटोपाहत अाकाश का स्फुरण नहीं होता। इसी लिये उक्त प्रत्यक्ष में प्रथमान्त अस्मतपच से भी ईश्वर का उल्लेख नहीं हो सकता किन्तु उस से जीव का ही उल्लेख होता है क्योंकि यह साक्षिप्रत्यक्ष का विषय है।
आमासवादिनम्तु दर्पणादौ मुखान्तरोन्पत्ति स्वीकुर्वाणाश्चतन्यामासमज्ञानेऽभ्युपगच्छन्तस्तचादात्म्यापन्नं चैतन्यं जीवमाहुः । तत्स्वीकारश्च निरुपाधिकाध्यासमात्रे सादृश्यापेक्षणादाभासतादात्म्यापन्नेऽन्यसारयापन्ने चैतन्ये ताशाहकागभ्याससंभवाय । जन्याभ्यास एव निरुपाधिके सादृश्यापेक्षणाच्च नाभासाध्यासेऽपि तदपेचायामनवस्थापत्तिः, तस्यानादित्वात् । न चाज्ञानाध्यासेन सादृश्यसिद्धिः, जाइयेन तदापस्यसिद्धः । तद्धि जड़तादात्म्यम्, न चाज्ञान तादात्म्येनाभ्यस्तम्, संसर्गेणा ध्यस्तत्वात् 'अहमः' इति । अतोऽनाधाभासतादात्म्याध्यासेन जाड्यापच्या सादृश्ये सत्यहङ्काराध्यासो युज्यत इति । न चाभासे मानाभावः, 'आदर्श मुखम्' इति स्पष्टं मुखान्तगभासात् ! 'एकत्र क्लममन्यत्रापि प्रतीसंधीयते' इति न्यायेनाज्ञानेऽपि चैतन्यामासाङ्गीकागत् । एवमन्तःकरणादापि । अज्ञानगतचैतन्याभासस्तु जीवशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् , तत्तादात्म्यापभस्य जीवत्वादिति ।
[ अज्ञान में आभासित चैतन्य से अमिन चैतन्य ही जीव है-आमासवाद ]
वेदान्त दर्शन में जीव के प्रसङ्ग में एक प्रामासवाद नाम का मत प्रसिद्ध है । उसके प्रतिपादकों का कहना यह है कि जैसे दर्पणादि प्रतिबिम्रपाही द्रव्यों में मुखादि बिम्बभूत द्रव्यों से अतिरिक्त मुखादिरूपप्रतिबिम्ब की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार अज्ञान में ब्रह्मचैतन्य का प्राभास अर्थात् अतिरिक्त प्रतिबिम्ब होता है । उस चैतन्याभास से तादात्म्यापन चतन्य ही जीव है, जीव में अहंकार का निरुपाधिक अध्यास होता है । यह अध्यास अज्ञान में चैतन्याभास माने बिना सम्भव नहीं हो सकता,
रुपाधिक अध्यासमात्र में अध्यस्यमान पदार्थ के साइश्य को अपेक्षा होती है। किन्तु वतन्य में किसी का सादृश्य नहीं है । अतः उसमें सादृश्य को उपपत्ति के लिये अज्ञान में अतस्याभास मानना आवश्यक है। उसके मानने पर उसका तादात्म्यरूप अध्यास चतन्य में सम्भव होने से उसमें अहंकार के निरुपाधिक अध्यास की उपपत्ति में कोई बाधा नहीं होती। अज्ञान में बैतन्य का