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स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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[ प्रतिविम्ब जीव का त्रिम्ब शुद्ध चैतन्य ही है-उत्तर ]
इस प्रश्न के उत्तर में प्रतिबिम्बवावी का कहना है कि ईश्वरचैतन्य प्रतिविन्य जीव का विन्य नहीं है किन्तु एकमात्र शुद्ध चैतन्य हो बिम्ब है। वही अज्ञान और तद्गत श्रावरणशक्ति और विक्षेप शक्तिमें प्रतिबिम्बित होता है। अज्ञानगत शुद्ध चैतन्य प्रतिबिश्व साक्षी होता है। आवरणशक्तिगत शुद्ध चैतन्यप्रतिबिम्ब जीव होता है और विक्षेपशक्तिगत चैतन्यप्रतिबिम्ब ईश्वर होता है ऐसा मानने में कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि जीब और ईश्वर की उपाधिभूत उक्त दोनों शक्ति व्यापक है प्रतएव उन में विद्यमान प्रतिबिम्व रूप जीव और ईश्वर भी व्यापक है । अतः ईश्वरब्रह्म में श्रुतिसिद्ध 'जीवान्तमित्व' का भी व्याघात नहीं हो सकता । प्रतिबिम्बवाद को इस व्याख्या में, ईश्वर में जीवान्तमि की उपपत्ति के लिये, जीव और ईश्वर के संविधान के लिये, चैतन्य के ईश्वर चैतन्यरूप face एवं जीवात्मक प्रतिबिम्ब रूप में द्विगुण वत्तन का प्रसङ्ग नहीं होता, किन्तु अवच्छेद पक्ष में वह दोष अवस्थित है ।
'अज्ञानावच्छिन्नं चैतन्यं जीवः' इति वाचस्पति मिश्राः । न चात्रेश्वरस्य सर्वान्तर्यामित्वानुपपत्तिः, अज्ञानोपाध्यवच्छिन्नं चैतन्यं जीवः, अज्ञानविषयतोपाध्यवच्छिन्नं चैतन्यं चेश्वर इत्युपाधेर्व्यापकत्वेनोपहितस्येश्वरस्यापि व्यापकत्वात् । न प तथाप्यज्ञान चैतन्यस्येश्वरत्वे 'अहं मां न जानामि' इत्यनुभवादीश्वरस्य प्रत्यक्षत्वापातः । न चाज्ञाततथा सर्वस्य साचिभास्यत्वादिष्टापति, अनुभूयमानस्य 'अहम्' इत्यज्ञानचैतन्यस्येश्वरस्य स्वरूपतः प्रत्यचत्वापातात् । इष्यते च 'ईश्वरं न जानामि' इत्येतावन्मात्रमेवेति चेत् न, 'अहं मां न जानामि ' इस्पत्राखण्डस्यैत्र' ब्रह्मा(च) धिष्ठानस्य चैतन्यस्यावभासनात् अज्ञात तोपहितचैतन्यस्येश्वररूपस्यानवभासनाद, अज्ञाततारूपोपाधिस्फुरणेऽप्ययोग्यत्वेन तदुपहिताऽस्फुरणात्, घटस्फुरणे घटोपहिताकाशाऽस्फुरणवत् ।
[ अज्ञानविशिष्ट चैतन्य ही जीव है - वाचस्पतिमिश्र ]
वाचस्पति के मतानुसार 'अज्ञानावच्छिन्न चैतन्य' ही जीव है । ऐसा मानने पर ईश्वर में सर्वान्तर्यामित्व की अनुपपत्ति की आशंका नहीं हो सकती, क्योंकि प्रज्ञानोपाधि से अवच्छिल चैतन्य जीव हैं और अज्ञानविषयतारूप उपाधि से अवच्छिन्न चेतन्य ईश्वर है । ईश्वर की यह उपाधि व्यापक है अतः उस से उपहित ईश्वर भी व्यापक है । अतः जीव के साथ उस का सम्बन्ध होने से वह जीव अन्तर्यामी हो सकता है ।
यदि यह कहा जाय कि “अज्ञानविषयता से अवच्छिन्न अथवा विषयतासम्बन्ध से अज्ञानाafter ear को ईश्वर मानने पर 'श्रहं मां न जानामि' इस अनुभव से ईश्वर में प्रत्यक्षत्व की श्रापति होगी। इस प्रावत्ति को यह कहकर इष्ट नहीं माना आ सकता कि 'अज्ञान के विषयरूप में सभी साक्षिभास्य है इसलिये ईश्वर में भो अज्ञानविषयरूप में साक्षिभास्यत्वरूप प्रत्यक्षत्य है'
१. 'व भ्रमाधि' इति पाठान्तरम् ।