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[ शास्त्रयाता० स्त० लो०१
आवरणशक्तिप्रतिबिम्बभूतो जीवः, विक्षेपशक्तिप्रतिविम्बभूतश्चेश्वर इति न किश्चिद् दूषणम्, उपाधिभूतस्य शक्तिद्वयस्य व्यापकतया तत्प्रतिविम्बयोजौवेश्वरयोरपि व्यापकत्वात्, जीवान्तर्यामित्वस्य ब्रह्मणः श्रुतिसिद्धस्याऽब्यास्तत्वादिति ।
[ जीव-ईश्वरादि प्रपञ्च संबंधी विवरणाचार्य मत ] अज्ञान से जोव- ईश्वरादि सम्पूर्ण प्रपञ्च निष्पन्न होता है। उन में, जीव के विषय में विवरणाचार्य का यह मत है कि अविद्या में प्रतिबिम्बित ब्रह्म चैतन्य जीव है और यह बात श्रुति एवं स्मृति से सिद्ध है। जैसे-रूपं रूपं प्रतिरूपी बभूव' यह श्रुति स्पष्ट उद्घोष करती है कि ब्रह्म चैतन्य रूप रूप में अर्यात् प्रत्येक प्रज्ञान व्यक्ति में अनादिकाल से प्रतिरूपी अर्थात् प्रतिबिम्बित है। एवं स्मृति भी अतिस्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित करती है कि-जैसे जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र जल के एकस्वअनेकत्व के अनुसार एकानेकरूप दृष्टिगत होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचैतन्य एकानेक प्रज्ञान में प्रतिबिम्बित होने से एकानेक रूप में परिज्ञात होता है।
इस संदर्भ में यह शंका नहीं की जा सकती कि ब्रह्म अमूर्त है इसलिये उस का प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता, क्योंकि प्राकाश-रूप आदि अमूर्त पदार्थों का भी प्रतिविम्ब होता है ।
[ अविद्यावच्छिन्न चैतन्यरूप जीव होने की आशंका ] इस प्रसङ्ग में किसी का यह प्रश्न है कि अविद्यावच्छिन्न चैतन्य को ही जीव माना जाय, अविद्या में चैतन्य का प्रतिबिम्ब मानने को क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न के विरुद्ध यदि यह शंका को जाय कि-"अविद्यावच्छिन्न चैतन्य को जीव मानने पर ईश्वर में मनियन्तृत्व को हानि होगी। पयोंकि जीवभाव से अविद्यारूप उपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य, ईश्वरभाव से उपाध्यन्तर से अबछिन्न नहीं हो सकता। अर्थात् चतन्य ईश्वरभाव से अविद्यासमष्टि रूप उपाध्यन्तर से अवच्छिन्न होकर जोव के आधारभूत एक एक अज्ञान प्रात्मक उपाधि में नहीं रह सकता । क्योंकि ऐसा मानने पर चैतन्य के द्विगुण यानी द्विधा वर्तन की प्रसक्ति होगी और विगुणपर्सन मान्य नहीं है क्योंकि घटाकाशादि में द्विगुणवर्तन नहीं होता । आशय यह है कि घर में आकाश का वर्तन घटायमिनाकाशरूप में ही होता है । अन्यावच्छिन्नाकाश के रूप में नहीं होता।"-तो यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि उक्त दोष प्रतिबिम्ब पक्ष में भी समान है। क्योंकि बिम्बभूत ईश्वर चैतन्य का भी प्रतिबिम्ब अधिष्ठान में द्विगुणवर्तन यानी प्रतिबिम्ब तथा बिम्ब रूप में वर्तन प्रयुक्त है । क्योंकि स्वाभाषिक आकाश के साय दूरस्थ अभ्रनक्षत्रयुक्त बिम्बभूत विशालाकाश का जल के मध्य में अवस्थान सम्भव नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि जल के सीमित होने से जलान्तर्गत आकाश भी सीमित है और उपर का आकाश जो जल में प्रतिबिम्बताफाश का बिम्ब है वह दूरस्थ है, और प्रतिबिम्बाकाश से विशाल है तथा अभ्र-मेघ और नक्षत्र से युक्त है। प्रतः जैसे उस का अवस्थान जल में नहीं होता क्योंकि ऐसा मानने पर जल में प्राकाश के द्विगुणवर्तन को प्रसक्ति होती है, उसी प्रकार जिम्बभूत ईश्वर चैतन्य का मी प्रतिबिम्बभूत जीव के साथ वर्तन नहीं हो सकता। यदि इसका समाधान प्रतिबिम्ब में बिम्ब के कल्पिलवर्तन से किया जाय तो यह समाधान अवच्छेव पक्ष में भी सम्भव है अतः अविथा अवछिन्न चैतन्य को ही जीव मानना उचित है।