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स्या क० टोहा एवं हिन्बो विधवन ।
विशिष्टनाशाद, युज्यतेऽनेनेति योजनं तासमाक्षाकारस्तस्मादपि, द्वितीयशक्तिनाशेन विशिष्टनाशाद, तत्रमावो= विदेहकैवल्यं तस्मात्, अन्ते - प्रारम्पक्षये, तृतीयशस्त्या सह निम्शेषमायानाशः, अभिध्यान-योजनाम्यां शक्तिद्वयनाशेन विशिष्टनाशापेक्षया भूयःशब्दोऽम्यासार्धक इति । तदेवं निरूपितमज्ञानम् ।
[ तस्यज्ञान के बाद आरब्धक्षय होने पर अज्ञाननियति यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि यद्यपि उक्त तीनों शक्ति अनादि है किन्तु एक साथ तीनों शक्ति का कार्य नहीं होता क्योंकि पूर्वशक्ति उत्तरशक्ति के कार्य को प्रतिबन्धक होती है। प्रारब्ध कर्म का क्षय हो जाने पर अन्तिम तत्वज्ञान से तस्स हितमूल प्रज्ञान की निवृत्ति होती है। जैसा कि 'तस्याभिध्यानादः' इत्यादि श्रुति से सिद्ध है। श्रुति में अभियान शब्द का प्रर्थ है अभिमुखध्यान, जो श्रवण, मनन और निदिध्यासन के परिपाक में एयवसिल होता है। तदनुसार इस श्रुति का अर्थ होता है कि आत्मा के श्रवण भनन और निदिध्यासन के परिपाक से पारमाथिक सस्व को प्रत्यायकशक्ति से विशिष्ट मूलाज्ञान को निवृत्ति होती है। और 'युज्यतेऽनेन जीवभावापादकोपाविनि तिमुखेन जीव: परमात्मना सह तादात्म्यं प्रतीयतेऽनेन' इस व्युत्पति से योजन शब्द का अर्थ हैतत्त्वसाक्षात्कार । तस्वभाव का अर्थ है विदेहकैवल्य, क्योकि तस्व केवल-अद्वितीय है। अतः तत्स्वकेवल का भाव कैवल्य हुआ और विव्हत्य उसका नान्तरीयफ है क्योंकि बेहसम्बन्ध का अत्यन्त उच्छेद होने पर ही सम्पन्न होता है। इसमें अन्त शब्द का अर्थ है प्रारब्धक्षय, विश्वमाया शब्द का अर्थ है विश्व को उत्पन्न करने वाली अविद्या, भूयः शब्द का अर्थ है अभ्यास, जिस से अविद्यानिवृत्ति की निःशेषता सूचित होती है। इस प्रकार उक्त अप्ति का अर्थ है कि ब्रह्म के अभिध्यान= श्रवण-मनननिविष्यासन के परिपाक से विश्व में पारमार्थिक सात्वतीति को उत्पन्न करनेवाली शक्ति से विशिष्ट अज्ञान का नाश होता है। एवं ब्रह्म के सत्त्वसाक्षात्कार से विश्व में व्यावहारिक सत्य की प्रसीति को उत्पन्न करनेवाली शक्ति से विशिष्ट अज्ञान का नाश होता है। और प्रारब्धकर्म का क्षय होने पर विश्व में प्रालिभासिक सत्व को प्रतीति उत्पन्न करने वालो प्राथवा तत्त्वसाक्षात्कार से बाधित विश्व के प्रतिभास को उत्पन्न करने वाली अविद्या का निःशेष नाश होता है। इस प्रकार यह अज्ञान का संक्षिप्त निरूपण है। ___ततो जीवेश्वरादिप्रपञ्चः। तत्र 'अविद्या प्रतिविम्वित चैतन्य जीव इति विवरणाचार्याः। सिद्धं चतत, "रूपं रूपं प्रतिरूपीवभव" इति श्रुतेः, "एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्" इत्यादिस्मृतेश्च । न चाऽमृतस्य प्रतिबिम्बऽयोगः, आकाशादेस्तदर्शनात् । नन्वविद्याच्छिन्न चैतन्यमेव जीवोऽस्तु । 'एवं सति सर्वनियन्तवमीश्वरस्य न स्यात्, जीवभावेनोपाध्यच्छिन्नस्य पुनस्वच्छेदान्तरासंभवात, घटाकाशादी तथादर्शनात, द्विगुणीकृत्य धृत्ययोगादिति चेत् ? न, विम्बचेतन्यस्यापीश्वरस्य प्रतिविम्बान्तद्विगुणीकृत्य वृश्ययोगाद । न हि जलगते स्वाभाविकाकाशे सत्यपि विम्बस्य दूरविशालाकाशस्य साभ्रनक्षत्रस्य जलान्तरवस्थानं संभवति, कल्पना तुमयत्र तुल्येसि घेत ? भना:-बिम्ब शुद्धमेव चैतन्यम्, अज्ञानप्रतिविम्वितं चैतन्यं साक्षि,