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स्या० कटोका एवं हिन्दी विवेचन ]
अतः यदि 'आदश मुखम्' इस भ्रम को उपहित मुखाधिष्ठान वाला न मानकर उपाधिमूतादर्शाधिष्ठानवाला माना जायगा तो 'लोहित: स्फटिकः' इस प्रसिद्ध सोपाधिक भ्रम के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि जैसे शुक्ति के अज्ञान से इदन्त्वेन ज्ञायमान शुक्ति में निरुपाधिक रजतभ्रम होता है उसी प्रकार संनिहित जपाकुसुम में जपाकुसुमत्व के अज्ञान से लोहित्यमात्ररूप से गृहीत जपाकुसुमरूप उपाधि में स्फटिक का तादात्म्यभ्रम होता है। इस प्रकार वह भ्रम भी उपहित में उपाधिधर्म का ग्राहक न होने से सोपाधिक न हो सकेगा। यदि अधिष्ठान को ही उपाधि मारकर 'आदर्श मुखम' और 'लोहितः स्फटिकः' इन में सोपाधिकत्व की उपपत्ति को जायगी तो भ्रम मात्र के साधिष्ठान होने से सोपाधिक हो जाने के कारण निरुपाधिकभ्रम का उच्छेद हो हो जायगा।
दूसरी बात यह है कि प्रादर्श में दृश्यमान मुख ओर ग्रीवास्थ मुख में ऐक्याध्ययसायरुप 'आदर्श मम मुखम्' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा होती है। अतः आदर्श में ग्रीवास्थमुख से भिन्न मुख की उत्पत्ति मानना असङ्गत है।
[ प्रत्यभिज्ञा होने पर भी उपाधि रहने पर भेदाध्यास । यदि यह कहा जाय कि-"यदि आदर्श में दृश्यमान मुख और ग्रीवास्थ मुख में ऐपयप्राहिणी प्रत्यभिज्ञा होती है तब तो उसी से दर्पण में दृश्ामागुर, और नीलाममुह में ऐगय में श्रवार को निवृत्ति हो जायगी। अतः जो मुख में भेदभ्रम-द्वित्वग्रह होता है उसी की भी निति हो जाएगी।" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सोपाधिकभ्रम की निवृत्ति में उपाधि निवृत्ति की पुष्कल यानी घरम कारण होती है। मुख में प्रादर्श के सम्मुखीन मनुष्य को जो भेदाध्यास होता है वह प्रादर्शीपाधिक होता है । अत एव दर्पणस्थ ओर ग्रीवास्थ मुख में ऐक्य को प्रत्यक्षात्मक प्रत्यभिज्ञा होने पर भी जब तक उपाधि है तब तक भेदाध्यास का अनुवर्तन अपरिहार्य है। अतः युक्तिसंगत यही है कि 'आदर्श मुखम्' इस भ्रमात्मक बुद्धि में बिम्ब भूत मुख ही अधिष्ठान है । उसो में आदर्श में दृश्यमान मुख और ग्रोधास्यमुख में ऐदय के अज्ञान से भेद का अध्यास होता है। इस प्रकार प्रज्ञान में चैतन्य का प्रतिबिम्ब होने पर भी उसे प्राभास रूप-बिम्बभूत चैतन्य से भिन्न नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने में कोई प्रमाण नहीं है।
इस संदर्भ में प्रज्ञान में चैतन्याभास के समर्थन करने के लिये जो यह बात कही गयी कि अज्ञान में चतन्याभास न मानने पर जीव चैतन्य में किसी का सादृश्य न होने से उस में अहंकार का निरुपाधिक अध्यास न हो सकेमा-वह बात महत्व-हीन है क्योंकि चैतन्य में अज्ञान के अनादिसिस अध्यास से अज्ञान का परिच्छिन्नत्व चैतन्य में प्रा जाता है । अतः परिच्हिनस्वरूप से चैतन्य में अज्ञान का सादृश्य होने से उस में अहंकार का निरुपाधिक अध्यास चतन्याभास के प्रभाव में भी सम्भव है।
सच जीवोऽज्ञानबहुत्ववादे हिरण्यगर्म-विराडादिभेदेन नाना 'तदेक्येऽपि तच्छक्ति मेदान तक्षान्तःकरणमेदाद् वा नाना' इत्यप्याहुः । अज्ञानभेदे प्रत्यज्ञानमावरणविक्षेपशक्तिकल्पने गौरवम, तदैक्ये त्वेकत्रैव तावच्छक्तिकल्पनालाघवम् । न च तावत्यः शक्तय एव सन्तु, किमज्ञानेन ? इति वाच्यम् तासां साश्रयत्वनियमात् । चैतन्यं च न तदाश्रयः,