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[ शास्त्रवा० स्त०८ इल०१
शक्तस्य प्रपञ्चोपादानत्वात, तस्य च सत्यत्वेनाऽतथात्वात् । ततः शक्तिभेदेन तदुपहितजीवमेदः, तत्तजीवगततत्वज्ञानेन जीवोपाधिशक्तिनाशाद्' मुक्त्युपपत्तेः । एवमन्त:करणभेदेऽपि भाव्यम्, केवलमत्र "तन्मनोऽकुरुत" इति श्रुतेरन्तःकरणास्य जन्यत्वाजीवस्य सादित्वप्रसङ्ग इति नातीव प्राज्ञानामादरः।
[जीव संख्या से अनेक है ] जोवनी संकाय निषा में भी शान्तसम्प्रदाय में कई मत उपलब्ध होते हैं । जैसे-एकमत यह है कि अज्ञान अनेक है और अज्ञानोपाधिक चैतन्य जीव है । अतः अज्ञानरूप उपाधि के भेद से जीव अनेक हैं और उपाधि के उत्कर्ष अपकर्ष के तारतम्य से हिरण्यगर्भ-विराट' इत्यादि उस के अनेक भेद हैं। दूसरा मत यह है कि अशान एक है किन्तु उसको आवरण-विक्षेपक्तियां अनेक हैं और उन शक्तिकों से उपहित चैतन्य जीव है । अत: अज्ञानशक्तिरूप उपाधि से सपाहत होने के कारण जीव में शत्तिभेदरूप उपाधिभेद-मूलक अनेकत्व है। तीसरा मत यह है कि अज्ञान से उत्पन्न होने वाला अन्तःकरण अनेक है। यही ज.व की उपाधि है। अतः अन्त करण के भेद अनेक हैं । इन मतों में मध्यम मत प्रथम और तृतीय मतों की अपेक्षा अधिक युक्तिसङ्गत है, क्योंकि प्रथम मत में अज्ञान भी अनेक है और उसकी आवरण विक्षेपशत्तियां भी अनेक हैं, प्रतः इस मत में गौरव है। मध्य मत में अज्ञान एक हो है केवल उस को शक्तियों में अनेकत्व है अतः पूर्वमत की अपेक्षा इस मत में लाघव है । यदि यह शंका की जाय f-'यदि लाघम के आधार पर ही मत को जीवित रखना है. तब तो इस की अपेक्षा यह मानने में अधिक लाशय होगा कि अज्ञान का अस्तित्व ही नहीं है केवल आवरण और विक्षपशक्ति का ही अस्तित्व है । अतः अज्ञान को मान्यता गौरवग्रस्त होने से असङ्गत है'-किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि उस शक्ति में आश्रयसहितत्व का नियम है । चैतन्य को शक्तियों का आश्रय नहीं माना जा सकता, पयोंकि आवरणविक्षपेशक्तियों से जो युक्त है बही प्रपन्च का उपादान होता है किन्तु चैतन्य नित्य होने के कारण प्रपञ्च का उपादान नहीं हो सकता । अतः शक्तियों के आश्रयरूप में एक अज्ञान का अभ्युयगम अनिवार्य है । अज्ञान को शक्तिरूप उपाधि के भेद से उस से उपहित चैतन्यरूप जीव में भेद होता है । जिस जोष को जब तत्वज्ञान होता है तब उस जीव की उपाधि मूल अज्ञानशक्ति का नाश होने से उस जीव की मुक्ति होती है । अन्तःकरण के जीवोपाधिक्षपक्ष में भी इसी प्रकार व्यक्तिगत मोक्ष की उपपत्ति होती है। किन्तु 'अन्तःकरणोपहित चैतन्य जीव है' यह तृतीय मत केवल इसलिये प्राज्ञ पुरुषों द्वारा आदरणीय नहीं होता, कि इस मत में 'तन्मनोऽकुरुत (बा ने मन)(अन्तःकरण) का निर्माण किया' इस श्रुति के अनुसार अन्तःकरण के जन्य होने से अन्त:करणोपहित जीव में सादित्य का प्रसंग होता है ।
जीवभेद एवं क्रममुक्तिफलानां हिरण्यगर्भायपासनावाक्यानामुपर्णतः । तथाहि-क्रश्चिद् वेदार्थाभिज्ञो नित्यायनुतिष्पमापरणाभ्यस्यमानकेवलहिरण्यगर्भोपासनायाः परिपाके मरणकाले 'अहं हिरण्यगर्भः' इति प्रत्ययोद्रेके देहं विसृज्यार्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकं गतो हिरण्यगर्भसापुज्यं गच्छति । सायुज्यमत्र 'सयुजो भावः' इति व्युत्पत्या भूतावेशन्यायेन हिरण्यगर्भशरीरे