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स्या-क० टोका एवं हिन्दी बियेचन ]
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चतुर्पखे उपास्योपासकयोस्वस्थानम्-इति केचित् । तन्न, सायुज्यशब्दस्य तादात्म्ये रूढत्वात् , योगाद् रूढलीयस्त्वात् । परिच्छिमलिङ्गस्योपासकस्याऽपरिच्छिालिङ्गोत्पादः' इत्यन्ये । तदपि न, सारूप्यलक्षणापत्तेः, परिच्छिमलिङ्गनाशे मानाभावाच ।
[हिरण्यगर्मादि की उपासना ने इनक शाम्ननों की शामि]
वेवान्त सम्प्रदाय के मूलभूतग्रन्थ उपनिषदों में हिरण्यगर्भादि की उपासना के विधायक अनेक वाक्य उपलब्ध होते हैं। जिन में भिन्नकम से उपासकों को मोक्षप्राप्ति का वर्णन है । वह वर्णन जीवभेद मानने पर ही उपपन्न होता है। अर्थात् उपासक विभिन्न उपासना के अनुसार उत्तरोत्तर उत्कृष्ट-उत्कृष्टतर स्थितियों में पहुंचता हुआ अन्त में मोक्षसाधन की परिपूर्णता होने पर मुक्ति प्राप्त करता है।
हिरवयगर्भ की उपासना का फल बताते हुए कहा गया है कि जो कोई मनुष्य वेद का अध्ययन और वेवार्थ का परिज्ञान करके नित्य-नैमित्तिक कमों का अनुष्ठान करते हये मरधुन होने तक केवल हिरण्यगर्भ की निरन्तर उपासना करता है-उपासना का परिपाक होने पर मृत्युकाल में उसे 'अहं हिरण्यगर्भः=मैं हिरण्यगर्भहूँ इस प्रकार हिरण्यगर्भ के साथ अपने ऐक्य का दृढ बोध उत्पन्न होता है और वह उसी समय वेह का परित्याग कर उपनिषदों में वर्णित 'प्रनि:' प्रादि मार्ग से ब्रह्मलोक में पहुंच कर हिरण्यगर्भ के साथ सायुज्य प्राप्त करता है।
* उपनिषदो में मुमुच के लिये दो प्रकार की उपासनाओं का वर्णन है-निगुण ब्रह्मोपासना बार सगुण ब्रह्मोपासना ! इनमें सगुण ब्रह्म की उपासना के हिरण्य-गर्भ-विराट् आदि उपास्य के भेद से अनेक भेद बताये गये हैं । सगुण उपासना को क्रममुक्ति का उपाय कहा गया है । क्रममुक्ति के चार स्वरूप हैं - (१) सालोक्य (२) सामीप्य (३) सारूप्य (४) सायुज्य । (१) उपासक अपनी प्रथमोपासना का परिपाक होने पर वर्तमान देह का त्याग कर उपास्य के लोक
में पहुंचता है। इसो को सालोक्य कहा जाता है-जिसका अर्थ है उपास्य को समानलोकता
अधील पास्य के लोक में निवास प्राप्त करना। (२) सामीप्यः -प्रथमोपासना से अधिकतर उत्कृष्ट उपासना का परिपाक होने पर उपासक को
उपास्य का सामीप्य प्राप्त होता है। अर्थात् वह उपास्य के लोक में पहुंचकर उपास्य के
समीपवर्ती हो जाता है। (३) दूसरी उपासना से भी अधिकतर उत्कृष्ट उपासना के परिपाक से उपासक उपास्य का सारूप्य
प्राप्त करता है। सारूप्य का अर्थ ह उपास्य के शरीर के समान लावण्य तारुण्यादि सम्पन्न
शरीर की प्राप्सि। (४) सर्वोत्कृष्ट उपासना के परिपाक के फलस्वरूप उपास्यदेव के साथ सायुज्य प्राप्त करता है ।
सायुज्य का अर्थ है तादात्म्य । यह तादात्म्य वास्तव न होकर बौद्धिक होता है अर्थात् उपासक अपने को उपास्य से अभिन्न अनुभव करने के लिये अधिकृत हो जाता है।
निर्गुण ब्रह्मोपासना से प्राप्तव्य मोक्ष उक्त चतुर्विध मोक्ष से भिन्न है। उसके दो भेद हैंजीवन्मुक्ति मोर विदेह मुक्ति । दोनों ही जीव ब्रह्म के ऐक्य के साक्षात्कार से प्राप्त होती है।