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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ८ इलो० १
[ सायुज्य उपास्य के देह में सहावस्थान- एक मत ]
यह सायुज्य क्या है ? इस सम्बन्ध में विद्वानों के अनेक मत हैं । कुछ लोगों का कहना है कि 'सयुओ भाव:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सायुज्य का अर्थ है एक शरीर में अवस्थान । क्योंकि "युनक्ति प्रवर्त्तयति स्वाधिष्ठातारं यत् तत् युक् - शरीरम् तस्य श्रात्मनि प्रवृत्त्याधायकत्वात्, समानं क ययोः तौ सयुज" इस व्युत्पत्ति के अनुसार सयुज् शब्द का अर्थ है एक शरीर में अवस्थित साधुज्य की इस के अनुसार दर के चतुर्मुख शरीर में उपास्य हिरण्यगर्भ का और उन के उपासक का सहायस्थान होता है । फलतः एक ही शरीर उपास्य और उपासक दोनों क्रियाशील होते हैं। यह स्थिति भूतावेशन्याय से सम्भव होती है । प्राशय यह है कि जैसे कोई भूत-प्रेतात्मा किसी जीवित मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है उसी प्रकार हिरण्यगर्भ का उपासक उक्त रीति से हिरण्यगर्भ के शरीर में अवस्थित होता है। किन्तु सायुज्य की यह व्याख्या समीचीन नहीं है, क्योंकि सायुज्य शब्द तादात्म्य में रूढ है और रूदि समुदायशक्ति योग यानी श्रवयवशक्ति से बलवती होती है। अतः सायुज्य शब्द से उषत अवयवप्रयं का बोध न मानकर तादात्म्यरूप रूढ अर्थ का बोध मानना ही उचित है ।
[ अधिक शक्ति संपन्न लिंगशरीर की प्राप्ति-सायुज्य, दूसरा मत ]
अन्य विद्वानों के मत में सायुज्य का अर्थ है परिच्छिन लिंग शरीर का त्याग कर अपरिच्छिन लिंग शरीर की प्राप्ति । तात्पर्य यह है कि उपासक उपासना का परिपाक होने पर उक्त रीति से जब ब्रह्मलोक में पहुंचता है तब उसका पहले का लिंग शरीर जो प्राप्तव्यलिङ्ग शरीर की पेक्षा अल्पशक्तिक होने से परिषि कहा जाता है उस का त्याग कर देता है और मये परिच्छिल अधिक शक्ति सम्पल लिङ्ग शरीर को प्राप्त करता है । किन्तु यह व्याख्या भी ठीक नहीं है क्योंकि सायुज्य शब्द का उक्त अर्थ सारूप्यात्मक है । श्रतः यह सायुज्य शब्द को लक्षणा से ही प्राप्त हो सकता है और अभिधा की अपेक्षा लक्षणा बिलम्ब से अर्थ बोधक होने के कारण निन्द्य वृत्ति है | अतः प्रशस्तवृत्ति से अर्थबोध सम्भव रहने पर निवृत्ति से अर्थबोध का अभ्युपगम अनुचित है । तथा दूसरी बात यह है कि ब्रह्मलोक में उपासक के परिच्छिन्नलिङ्गशरीर का नाश होता है उस में कोई प्रमाण नहीं है और आत्मतत्वसाक्षात्कार के पूर्व उस का नाश सम्भव ही नहीं है । क्योंकि वह ब्रह्मविषयक मूलाज्ञान मूलक है अत एव मूलाज्ञान के रहते उस का नाश अशक्य है ।
परे तु - 'अपरिच्छिन्नमेकमेव समष्टिलिङ्गं पाप्माऽऽसङ्गादिदोषेण भ्रान्त्या परिच्छितां तपासनया पाम दिनिवृत्तौ स्वरूपेणावतिष्ठते, तेन जीवस्य ब्रह्मभाववद् हिरण्यगर्भ सायुज्यम्' इत्याहुः । तदपि न, लिङ्गस्यैकत्वेन तस्य हिरण्यगर्भान्तिमतस्त्रज्ञानेन नाशे क्रममुक्रिफलसम
पासवाक्यमादिह श्रवणाद्यनुपपत्तेः । क्रममुक्तिपात्राङ्गीकारे उपासनाविचारस्यैव कर्तव्यत्वेन ब्रह्मविचारस्याऽकिश्चित्करत्वप्रसङ्गाच्च । अपरिच्छिन्नलिङ्गानेकत्वेऽपि सायुज्य शब्ददय सारूप्ये लक्षणापतिः । परिस्थि परिच्छिन्नेन तादात्म्यमिति चेत् १ न, सर्वरूपे स्थितेऽन्यस्यान्यात्मतानुपपत्तेः, नाशे मानाभावाच्च । संकोच विकाशवक्षस्त्वत्यन्ताऽप्रामाणिकः ।