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स्पा० क० टोक एवं हिन्दी विवेचन ]
तस्माद् यथावस्थितलिङ्गस्यैवोगसकस्योपासनाफलं समष्टिलिङगे हिरण्यगर्भे देहादारिवानिर्वचनीयतादात्म्यम् उपासनादशायां 'हिरण्यगर्भोऽहम्' इति प्रातिभप्रत्ययाद् विलक्षणस्य सायुज्य. दशायामप्रातिभस्य तत्प्रत्ययस्य फलभूतस्य विषया-इति वदन्ति ।
[ सायुज्य = उसरे स्वरूप में किसी एक का अवस्थान-तृतीय मत ]
अपर विद्वानों के मत से सायुज्य का अर्थ है कि किसी एक का दूसरे के स्वरूप से अषस्थान । इस के अनुसार हिरण्यगर्भ के साथ जीव के सायुज्य का अर्थ है जीव को हिरण्यगर्भ के स्वरूप की प्राप्ति। उन के कहने का प्राशय यह है कि जैसे अद्वितीय ब्रह्म ही पाप्मन् यानी अविद्या के सङ्ग से जीवभाव को प्राप्त होता है और ब्रह्म के प्रखण्ड साक्षात्कार से प्रविद्या प्रादि की निवृत्ति होने पर जीवभाव को प्राप्त चैतन्य जोवभाव को त्यागकर अपने ब्रह्मस्वरूप से प्रवस्थित होता है। उसी प्रकार वास्तव में एक हो अपरिच्छिन्न लिङ्ग है जो हिरण्यगर्भ का लिङ्ग है और वही परिच्छिन्न लिङ्गसमूह का मूल होने से समष्टिलिङ्ग कहा जाता है। वह अपरिच्छिन्नलिङ्ग पाप के प्रासङ्गरूप दोष से भ्रमवश
वश परिच्छिन्न होकर अनेक हो जाता है उन परिच्छिन्न लिडों से युक्त चंतन्य ही जीव है । जब जीव हिरण्यगर्भ को उपासना से पापसंगात्मक दोष को नष्ट कर देता है तो उस का परिच्छिन्नलिङ्ग नष्ट हो जाता है और वह हिरण्यगर्भ के अपरिच्छिन्नरूप से अवस्थित हो जाता है। हिरण्यगर्भ के अपरिच्छिन्न लिङ्ग शरीर से जीव का यह अवस्थान हो हिरण्यगर्भ के साथ जीव का सायुज्य है ।-किन्तु विचार करने पर यह भी समीचीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि जब लिङ्ग एक ही होगा तो हिरण्यगर्भ के अन्तिम होने पर जीव को क्रममुक्ति ही सम्भव हो सकेगी। फलतः प्रात्मा के श्रवण-मनन प्रादि का अनुष्ठान निरर्थक होगा क्योंकि श्रवणादि से प्रक्कममुषित होती है और उक्त मत में क्रममुक्तिफलक उपासना बोधक वषयों के प्रामाण्य के अनुरोध से क्रममुषित मानना अनिवार्य है।
यदि यह कहा जाय कि-"उपनिषद का तात्पर्य क्रममुक्ति के होप्र तिपादन में है-ग्रक्रममुक्ति उपनिषद् का अभिमत नहीं है तो यह कहना उचित नहीं हो सकता । क्योंकि उस स्थिति में उपासना सम्बन्धी विचार हा कर्तव्य होने से ब्रह्मविचार व्यर्थ होगा।
सायुज्य = अपरिच्छिन्न लिंग की प्राप्ति-चीथा मत ] यहि यह माना जाय कि-'अपरिच्छिन्नलिङ्ग एक नहीं किन्तु अनेक है । जीव को उपासना से अपरिहिछन्न लिड का त्याग होने पर अपरिच्छिन्न ब्रह्मलोक में अपरिच्छिन्नलिजकी प्राप्ति होती है और इस अपरिच्छिन्नलिङ्ग का लाभ ही हिरण्यगर्भ का सायुज्य है"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में सारूप्य में सायुज्यशब्द को लक्षणा माननी पड़ती है। क्योंकि हिरण्यगर्भ के अपरिच्छिन्न लिङ्ग के सदृश अपरिच्छिन्नलिङ्ग की प्राप्ति सारूप्य से भिन्न नहीं हो सकती।
[ सायुज्य = अपरिच्छिन्न लिग के साथ तादात्म्य-पांचवाँ मत ] यदि यह कहा जाय कि उपासना द्वारा ब्रह्मलोक में पहुंचने पर उपासक के परिच्छिन्नलिङ्ग का त्याग नहीं होता किन्तु उसका अपरिच्छिन्नलिङ्ग के साथ तादात्म्य हो जाता है"-तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि कोई एक वस्तु अपने सभी रूप के रहते हुए अन्य वस्तु से अभिन्न नहीं हो