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[ शास्त्रवा०ि स्त०८ श्लो० १
सकती और 'उस के सभी व्यावर्तक स्वरूपों का नाश हो जाता हैं यह घात प्रमाण के अभाव में मान्य नहीं हो सकती। एवं यह बात भी अप्रमाणिक होने से मान्य नहि हो सकती कि-'उपासना के परिपाक के पूर्व उपासना का लिगशरीर संकधित रहता और उपासना के बल से सहयलोक में पहुंचने पर विकसित हो जाता है । बहालोक में उसके लिंगशरोर का यह विकास हो हिरण्यगर्भ के साथ सायुज्य है।'-क्योंकि संकोच-विकास अत्यन्त प्रप्रामाणिक है ।
[सायुज्य = उपास्य-उपासक का अनिर्वचनीय तादात्म्य-सिद्धान्त मत ]
इस प्रकार सायुज्य के उक्त सभी लक्षण दोषग्रस्त होने से सिद्धान्तवेत्ता विद्वानों ने सायुज्य का अर्थ यह बताया है कि जैसे संसारदशा में देहादि में जीव का अनिर्वचनीय तावारम्य होता है उसी प्रकार ब्रह्मलोक में पहुंचे हुये अपने ही लिंगशरीर से युक्त उपासाक का हिरण्यगर्भ के सम टिलिंगोपेत हिरण्यगर्भ में अनिर्वचनीय तादात्म्य उत्पन्न होता है। यह तावात्म्य ही उसकी उपासना के फलस्वरूप उपास्य और उपासक में मेवज्ञान के निरोधरूप दोष से उत्पन्न होता है । उस स्थिति में उपासक को हिरण्यगर्भ के साथ उस अनिर्वचनीय तावात्म्य को जो प्रतीति होती है वह अप्रातिभ यानी भावनाजन्य न होने से उपासनादशा में होनेवाली हिरण्यगर्भोऽहं इस प्रकार की प्रातिभ यानी भावनाजन्य प्रतीति से विलक्षण होती है। इस प्रकार उपासना के फलस्वरूप उक्त प्रतीति काविषयभूत उपासक और हिरण्यगर्भ का 'अनिर्वचनीय तावात्म्य हो हिरण्यगर्भ के साथ उपासक का सायुज्य है। ___ अन्यस्तूपासनाया अपरिपाके हिरण्यगर्भसालोक्यादि गछति ।पर्यस्त्वहैव श्रवणादिपरिपाकोत्प. मज्ञानोमुच्यते । अपरन्तु श्रवणादिपरिपाकेऽपि प्रारब्धप्रतिबन्धेनानुत्पनझानस्तनाशे शरीरनाशाद् योन्यन्तरगतोगर्भस्थदेहाभिव्यक्तौ प्रथममेव 'अहं ब्रह्मास्मि' इति प्रत्ययं लभते वामदेवषत् । अन्य: पुनः साधनसंपन्नः श्रवणाद्यभ्यासे क्रियमाणे मध्ये मृतः श्रवणाधभ्याससामोबुद्धपूर्वशुभकर्मफलानि पहुकालं मुक्त्वा शुचीनां श्रीमती योगिनां वा कुले उत्पमा पूर्वाभ्यासवशेन पुनः प्रारब्ध. श्रवणाद्यभ्यासपरिपाकलब्धज्ञानो विमुच्यत इति । एवं विराडाद्युपासकानां विराडादिसायुज्यप्रामिः, प्रतीकोपासकानां च विद्युल्लोकप्राप्तिाख्येया ।
[ उपासना के परिपाक-अपरिपाक, पूर्णता-अपूर्णता का विविध प्रभाव ]
अन्य व्यक्ति जिसे हिरण्यगर्भ की उपासना का पूरा परिपाक नहीं हया वह हिरण्यगर्भ के साथ सालोक्यादि अन्य मुक्ति को प्राप्त करता है । जो व्यक्ति आत्मश्रवण-मननावि के अभ्यास में निरन्तर च्याप्त रहता है उसे श्रवणादि के परिपाक से इस लोक में ही आत्मतत्त्वज्ञान की प्राप्ति होने पर शीघ्र विदेहमुक्ति प्राप्त होती है।
कोई व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका प्रारब्धकर्म श्रवणादि का परिपाक होने पर भी अवस्थित रहता है ऐसे व्यक्तिओं को प्रारब्ध रूप प्रतिबन्धकवश प्रात्म तस्व का साक्षात्कार नहीं उत्पन्न होता। जब भोग से प्रारब्ध का नाश होकर विद्यमान शरीर का नाश होता है तश्च अन्य योनि में पहुंचने पर गर्भस्य देह के पूर्ण होते ही सर्व प्रथम उन्हें गर्भावस्था में 'अहं ब्रह्माऽस्मि' इस प्रकार ब्रह्मात्मैक्य बुद्धि