________________
स्था० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
हो जाती हैं और वह उसी अवस्था में मुक्त हो जाते हैं ऐसे मुक्तों में वामदेव ऋषि का नाम शास्त्रों में चिरचित है । दूसरे कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो शमदमादि साधनों से सम्पन्न होते हैं और श्रवणमननादि के अभ्यासकाल के मध्य में ही मर जाते हैं वे श्रवणादि श्रभ्यास के सामर्थ्य से उद्बुद्ध हुये पूर्वोपार्जित शुभकर्मों के फलों का स्वर्गलोक में लम्बे समय तक भोग कर पवित्र चरित्रोपेत धार्मिक श्रीमन्तों के कुल में प्रथवा (कर्म) योगीओं के कुल में जन्म पाते हैं और पूर्वजन्म में किये श्रवणादि के अभ्यास से पुनः नये जन्म में भी श्रवणादि का अभ्यास प्रारम्भ करते हैं और उस का परिपाक होने पर मुक्त जाते हैं । हिरण्यगर्भ के उपासकों के समान विराट् प्रावि के उपासकों को भी विराट आदि के सायुज्य की प्राप्ति होती हैं । किन्तु जो हिरण्यगर्भादि की साक्षात् उपासना न कर उन के प्रतीकों की उपासना करते हैं उन्हें ब्रह्मलोकादि से होन कक्षा वाले विद्युल्लोक की प्राप्ति होती है।
३६
I
अन्ये स्वनैक्याद तदुपहितं जीवमेकमेवाङ्गीकुर्वन्ति । तेषामुपासकानां क्रममुक्तिफलश्रवणमवादमात्रम् । चित्तैकाये तूपासनोपयोगः कर्मानुष्ठानवत् । न चिन्तिमप्रत्ययोत्यन्या फलमुपासनम्, जीवैकत्वेऽप्यन्तः करणभेदेन प्रमादमेदाद वोपासनोपपत्तिः केषाञ्चित् प्रमातृणामनुष्ठितोपासनापरिपाके ब्रह्मलोकं गतानां यावत्कल्पमवस्थाय कल्पान्तर आवृतेः "हमें मानवमावर्त नावर्तते" इति श्रुतौ 'इयम्' इति विशेषणादेतत्कल्प एवानावृत्तिपर्यवसानात्, अन्यथैतद्विशेषणानुपपत्तेः । वाम दीनां मुक्तस्वभवणं काल्पनिकाभिप्रायम्, नित्यमुक्तत्वाभिप्रायं वा । न चानाश्वासः श्रुतेः प्रामाण्यात्. अनेकजीववादेऽद्ययावत् कस्यचिदमुक्तत्त्रवत् एक जीववादे सर्वस्य तत्त्वोपपत्तेः । तदेवं निरूपितो जीवः ।
[ उपाधिभूत अज्ञान एक होने से जीव भी एक ]
वेदान्तदर्शन में जोवनानात्व पक्ष के समान जीवैश्य पक्ष भी एक प्रसिद्ध पक्ष है जो वेदान्तदर्शन का सिद्धान्तदक्ष बहा जा सकता है इस पक्ष के समर्थक विद्वानों का कहना है कि ब्रह्मविषयक अज्ञान एक हो है और उस से उपहित चैतन्य ही जीव है । अत: उपाधि एक होने से जीव भी एक ही है। इस मत में क्रममुक्ति मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि मुक्त होने वाला जीव एक हो है अतः उपनिषदों में जो उपासकों को उपासना से प्राप्त होने वालो क्रममुक्ति का वर्णन है वह अर्थवादमात्र है अर्थात् उसका तात्पर्य फल की सुलभता बताकर फलोपाय के अनुष्ठान में जीव को प्रवृत करने के लिये है । इस मत में कर्मानुष्ठान के समान उपासना का भी फल है 'वित्त की एकाग्रता का सम्पादन' अन्तिम श्रात्मतत्त्व साक्षात्कार का उत्पादक होने से यह कर्मानुष्ठान फलप्रद है - ऐसा नहीं । इस पक्ष में यद्यपि जीव एक है तथापि वह अज्ञानोपहित चैतन्यरूप में प्रमाता नहीं होता, किन्तु अन्तःकरणोपहित चैतन्य के रूप में प्रमाता होता है। अतः अन्तःकरण के भेव से प्रमाता का भेद हो जाता है और इस भेद के द्वारा उपासना आदि की सार्थकता होती है । फलतः कुछ प्रमाता अनुष्ठित उपासना का परिपाक होने पर ब्रह्मलोक में जाते हैं और वर्तमान कल्प की पूरी अवधि तक वहाँ रहकर नये कल्प में वहाँ से मनुष्यलोक में लौटते है ।
ऐसा मानने में इमं मानवमावर्त्त नावर्त्तते' इस श्रुति का कोई विरोध भी नहीं होता क्योंकि इस श्रुति में सामान्यरूप से प्रत्यावर्त्तन का निषेध न कर 'इ' शब्द से वर्त्तमान कल्प में ही प्रत्या