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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ इलो० १
वतन का निषेध किया गया है । क्योंकि यदि सामान्यतः प्रत्यावर्तन के निषेध में उक्त श्रुति का तात्पर्य माना जायगा तो आवर्स के 'हम' इस विशेषण की उपपत्ति न हो सकेगी। इस मत में यतः जीव एक ही है अतः अभी तक मोक्ष का होना प्रसिद्ध है । वामदेवादि को जो शास्त्रों में मुक्त कहा गया है उसका तात्पर्य कल्पित बामदेवादि के काल्पनिक मुक्ति के प्रतिपादन में है । अथवा यह कहा जा सकता है - जीव का तात्पर्य बद्ध जीव के ऐक्य के प्रतिपादन में है किन्तु जीव नित्य मुक्त भी हैं । शास्त्रों में वामदेवrfat की नित्यमुक्त जीवों के रूप में चर्चा की गयी है ।
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यदि यह कहा जाय कि-'यदि अब तक किसी जीव की मुक्ति नहीं हुई तो भविष्य में भी जीव की मुक्ति होने का विश्वास नहीं होगा । फलतः मोक्षोपाय के अनुष्ठान में मनुष्य की प्रवृत्ति का उच्छेद हो जायगा' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेद प्रमाण होने से जीव की भावो मुक्ति पर विश्वास होना अनिवार्य है। दूसरी बात यह है कि जैसे अनेक जीववाव पक्ष में यह माना जा सकता है कि अनादिकाल में संसार में मोक्ष का प्रयत्न होते रहने पर भी ऐसे जीव हैं जो अभी तक मुक्त नहीं हुये, उसी प्रकार एकजीववाद में यह भी मानना सर्वथा युक्तिसंगत है कि अभी तक किसी की मुक्ति नहीं हुई। जीव का यह संक्षिप्त निरूपण है ।
तत्रान्तःकरणमध्यस्यते 'अहम्' इति, रज्ज्वामिव सर्पः । निरुपाधिकोऽयमध्यासः, उपाधरेनिरूपणात् । 'अइमश:' इति स्वहंकारा - ऽज्ञानयोरेक चैतन्याभ्यासात्, एका सिंबन्धाद् दग्धृत्वायो 'भयो । करणं स्मृतिप्रमाणवृत्तिसंकल्पविकल्पाहंवृरयाकारेण परिणतं चित्र-बुद्धि-मनो- ऽहङ्कारशब्देर्व्यवहियते । इदमेवात्मतादात्म्येनाध्यस्यमानमात्मनि सुख-दुःखादिस्वधर्माध्यासे उपाधिः, स्फटिके जपाकुसुममिव लौहित्यावभासे । एवं प्राणादयएतद्धर्माश्वाशनीया-पिपासादयः, तथा, श्रोत्रादयो वागादयश्च तद्धर्माश्च बधिरत्व- मृकत्वादयोऽध्यस्यन्ते, तथा देहस्तद्धर्माश्च स्थूलत्वादयः । तत्रेन्द्रियादीनां न तादात्म्याध्यासः, 'अहं श्रोत्रम्' इत्यप्रतीतेः, देहस्तु 'मनुष्योऽहम्' इति प्रतीतेस्तादात्म्येनाध्यस्यते ।
[ 'अहं' बुद्धि का उत्पादक अन्तःकरणाध्यास |
रज्जु में सर्प के समान जोव में अन्तःकरण का अध्यास होता है जिस से 'अहं' इस प्रकार बद्धि उत्पन्न होती है । यह अध्यास निरुपाधिक है क्योंकि इस के उपपादक उपाधि का निरूपण अशक्य है । अहंकार और अज्ञान का एक चैतन्य में प्रध्यास होने से दोनों का सामानाधिकरण्य हो जाता है । इसलिये 'अहमश:' इस प्रकार की बुद्धि होती है। यह उसी प्रकार उपपन्न होती हैजैसे एक अग्नि में दाहकत्व और अयस् लोह का सम्बन्ध होने से 'श्रयो दहति' लोह दाह करता है' इस प्रकार की बुद्धि होती है । अन्तःकरण स्मृतिरूप वृत्ति के प्राकार में परिणत होने पर चित्त, एवं प्रमाणभूतवृत्ति के प्राकार में परिणत होने पर बुद्धि, तथा संकल्प विकल्पात्मकवृत्ति के प्रकार में परिणत होने पर मन और 'अहमाकार' वृत्ति के आकार में परिणत होने पर अहंकार शब्द से व्यवहुत होता है - इस प्रकार अन्तःकरण के वृतिभेदमूलक घार भेद हैं। यह अन्तःकरण हो आत्मा में तादात्म्य से अध्यस्त होकर उस में सुख-दुःखादि अपने धर्म के अध्यास में उसी प्रकार उपाधि
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