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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन }
होता है जिस प्रकार स्फटिक में लोहित्य के अवभास में जपापुष्प उपाधि होता है । अतः आस्मा में सुख-दुःखादि का अध्यास सोपाधिक अध्यास कहा जाता है। इसी प्रकार प्राणादि और उन के भूख-प्यास श्रावि धर्म भी श्रात्मा में अध्यस्त होते हैं-मन में प्राणादि का अध्यास निरुपाधिक और भूखप्यास का अध्यास सोपाधिक होता है। श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रिय और 'वा' आदि कर्मेन्द्रिय तथा उनके अधिरस्यादि और सूकत्यादि धर्म भी आमा में श्रध्यस्त होते हैं। तथा देह मौर: बेहधमं स्थूलस्थादि भी आत्मा में अध्यस्त होते हैं। इन्द्रिय और देह के अध्यास में अन्तर यह है कि इन्द्रियादि का आत्मा में तादात्म्याध्यास नहीं होता किन्तु संसर्गाध्यास होता है। इसीलिये 'अहं भोत्रम्' 'अहं चक्षुः ' स्यादि प्रतीति न होकर 'अहं सकर्णः, 'अहं चक्षुष्मान्' इत्यादि प्रतीति होती है। किन्तु बेह का वादात्म्येन भी अध्यास होता है। इसीलिये 'मनुष्योऽहं' यह प्रतीति होती है ।
ननु कथमज्ञानादीनामभ्यस्ततथा प्रतीतिः, न तावदभ्यक्षा, इन्द्रियाऽजन्यत्वात् नाप्यनुमितिः, लिङ्गाद्यननुसंधानेऽपि मात्रात् ? इति चेत् ? उच्यते, चिदात्मनोऽज्ञानोपहितस्य साचित्वेन तस्य माझ्यसंसर्गेमात्रमपेक्ष्याज्ञानादीनामाध्यासिक संसर्गभासकत्वात् तदवभासः । तेन यावद् विषयस 'अहमज्ञः, सुखी, दुःखी, मनुष्यः' इति भासमानत्वाद् न कदापि संदेहः । स चापरोक्षैकस्वभावः, अभ्यस्ताऽधिष्ठानयोरमेदेन संविदभिनत्वात् । संविदभेदो ह्यपरोचता नाम । स च नाऽनिर्वचनीयतादात्म्यस्वरूपः तादात्म्य संसर्गादीनामपरोक्षत्वाभावप्रसङ्गात्, तंत्र तादात्म्यान्तराभावात्, किन्तु - क्तलक्षण एवेति ।
[ अज्ञानादि की प्रतीति तदुपहित चैतन्यरूप साथि से ]
इस संदर्भ में यह प्रश्न होता है कि- अज्ञानादि की आत्मा में जो श्रध्यस्तरूप में प्रतीति होती है वह किस रूप में सम्भव हो सकती है ? क्योंकि उसे इन्द्रिय से अजन्य होने के कारण प्रत्यक्षात्मक और लिङ्गादि का ज्ञान न होने पर भी उत्पन्न होने के कारण अनुमितिरूप नहीं माना जा सकता । इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्तीओं का कहना है कि आत्मा में अज्ञानादि की प्रतीति अज्ञानोपहित चैतन्य रूप साक्षी से उत्पन्न होती है क्योंकि उसे अपने विषय की प्रतीति के जनन में अपने विषय के संसर्गमात्र की अपेक्षा होती है। अज्ञानादि का साक्षी में प्राध्यासिक संसगं होता है इस एवं उस संसर्ग का भातक होने से साक्षी अज्ञानादि का भी श्रवभासक होता है। साक्षी विषय की सत्ता जितने काल तक होती है उतने काल तक विषय का अवभासक होता है। इसलिये ग्रहमज्ञः, सुखी, दुःखी, मनुष्य:' इस प्रकार का साक्षीजन्य प्रत्यक्ष अज्ञातावि विषयों के प्रस्तिस्वकाल तक होने के कारण 'प्रमशो न वा' 'सुखी न वा' इस प्रकार का संदेह कदापि नहीं होता 1
साक्षिभास्य अज्ञानादि समस्त पदार्थ स्वभावतः अपरोक्ष होता है क्योंकि प्रध्यस्त अज्ञानावि और अधिष्ठानभूत चैतन्य इन में अभेद होने से संबिद् से अभित्र होता है और यह अपरोक्षता ही संविद् का अभेद है। अज्ञानादि में संविद का जो अभेद होता है वह अनिर्वचनीय तावात्म्यस्वरूप नहीं होता क्योंकि पfa वह अनिर्वचनीय होगा तो उस में अपरोक्षत्वाभाव प्रसक्त होगा। क्योंकि तादात्म्य में संविद्का अन्य तादात्म्य न होने से उस में संविद् अभवरूप अपरोक्षता नही हो सकती । श्रतः संविद्