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[ शास्त्रवास० स० ८ श्लो० ५-६
पक्ष के विषय में अन्य वादीओं का यह कहना है कि यदि हंसापत्ति के भय से ब्रह्म से for fair का अस्तित्व नहीं है किन्तु ब्रह्ममात्र का ही अस्तित्व है तो लोकसिद्ध मेदबुद्धि अकारणक हो जायगी। क्योंकि अतपक्ष में भेद बुद्धि के कारणीभूत विषय का अस्तित्व नहीं है ॥४॥ vat कारिका में उपर्युक्त आपत्ति के वेदान्तो अभिमत उत्तर का परिहार किया गया हैपराशयं परिहरति
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वायाभेदरूपापि भेदाभासनिबन्धनम् | प्रमाणमन्तरेणैतदवगन्तु न शक्यते ॥ ५ ॥
अथ सेंच - अविद्या अभेदरूपापि सन्मानाऽभिनापि भेदाभासनिबन्धनम् = अविद्यमाननीलादिप्रतिभासकारणम् । एतत् परोक्तम् प्रमाणमन्तरेण = एतदर्थनिश्चायकप्रमाणं विना अवगन्तुं न शक्यते, प्रमेयव्यवस्थितेः प्रमाणाधीनत्वात् ॥ ५ ॥
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उक्त आपत्ति के उत्तर में यदि कहा जाय कि "अविद्या ब्रह्म से अभिन्न स्वरूप होते हुये भी भेदप्रतीति यानी अविद्यमान नीलादिविषयों के प्रतिभास का कारण होती है ।" तो यह कथन प्रमाण शून्य होने से नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि किसी भी वस्तु की स्वीकृति प्रमाण के अस्तित्व पर निर्भर होती है ॥ ५ ॥
ast कारिका में प्रमाण के भावाभाव दोनों पक्ष में, वेदान्त मत में दोष बताया गया हैतद्भावाभावयोरुभयतो दोषमाह
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भावेऽपि च प्रमाणस्य प्रमेयव्यतिरेकतः ।
ननु नाईतमेवेति तदभावेऽप्रमाणकम् ॥ ६ ॥
भावेऽपि च = उपगमेऽपि च प्रमाणस्य = उक्तार्थनिश्चायकस्य प्रमेयव्यतिरेकतः = तस्य प्रमेयभिन्नत्वाद् हेतोः, ननु = निश्चितम् अद्वैतमेवेति न प्रमाणप्रमेयद्वैविध्यध्यवस्थानात् । तदभावे = प्रमाणानभ्युपगमे अप्रमाणकमद्वैततच्चम्, तथा को नाम विनोन्मत्तं श्रद्दधीत ११ ।। ६ ।।
'लोक में अनुभूयमान भेदबुद्धि विषयजन्य नहीं, प्रविद्याजन्य होती है इस अर्थ में यदि किसी प्रमाण का अस्तित्व होगा तो ब्रह्मभिन्न प्रमाण का अस्तित्व होने से ब्रह्माद्वैतवाद का भङ्ग हो जायगा और यदि उक्त अर्थ में प्रमाण का प्रभाव होगा तो श्रद्वैत का भङ्ग होगा अर्थात् अद्वैतवाद निष्प्रमाणक हो जायगा और निष्प्रमाण वस्तु उन्मत्त को छोड़कर कोई समझवार व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता ॥ ६॥
७वीं कारिका में वेदान्ती की इस उक्ति का निराकरण किया गया है कि उपर्युक्त उपालम्भ ऐसी बात पर दिया जा रहा है जो वेदान्त मत में नहीं मानी जाती | क्योंकि, वेदान्त मत में विद्या में ब्रह्म का व्यावहारिकभेद एवं प्रमाण- प्रमेयादि का विभाग कर उनमें भी व्यावहारिकभेद पूर्वोक्त रीति से स्वीकार किया गया है और यह कहा गया है कि व्यावहारिकरूप में पूरे प्रपश्व का