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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
तजन्मभोगप्रदत्वावच्छेदेनैव प्रारब्धत्वात् तज्जन्मभोगसमाप्तावज्ञाननिवृत्तेर्न देहान्तरम् 1 न चेदेवम्, उत्क्रमणस्यावश्यकत्वाद् 'न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति' इति श्रुतिसंकोचः । इति न ज्ञानिनो जन्मान्तरम्, किन्तु प्रारब्धक्षयेऽज्ञाननिवृत्तौ चिन्मात्रमेवावशिष्यत इति ।
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अयं वेदान्तिनां सर्वः संप्रदायो निरूपितः ।
स्वैरं यत्राग्रहग्रस्ताः पतन्त्येते तपस्विनः ॥ ३ ॥
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पूर्वोक्त कारण से तत्त्वज्ञानी के बेहारम्भक अनेक जन्मप्रद अनेक सुकृत- दुष्कृत रहने पर भी'तत्वज्ञानी को जन्मान्तर प्राप्ति होती है- यह कथन कहना कठीन है। क्योंकि तत्वज्ञानोत्पादक देह से हार नहीं होता और उसके बाद यदि बेहान्तर का उपगम माना आयगा तो "यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते क्लेवरं । तं रामेति कौन्तेय ! सदा तद्भावभावितः ।”–मृत्यु के समय मनुष्य जिन-जिन भावों का स्मरण करता है उन उन भावों से भावित होने के कारण मृत्यु के बाद उस भाव को प्राप्त करता है' - ( भगवद्गीता में कुन्तीपुत्र अर्जुन के प्रति श्रीकृष्णोक्ति ) इस स्मृति वचन के अनुसार तत्त्वज्ञानी को भी देहान्तर विषयक अन्तिम प्रत्यय श्रावश्यक होगा । afe मृत्युकाल में जिस कर्म से बेहान्तरविषयक प्रक्तिम प्रत्यय उत्पन्न होता है उसी को प्रारब्ध कहा जाता है, इसलिये तत्त्वज्ञानी के देहारम्भक कर्म उस जन्म में भोगप्रद होने से उसी जन्म के लिये प्रारब्ध होते हैं । अतः उस जन्म के भोग की पूर्ति होने पर अज्ञाननिवृत्ति हो जाने से तत्त्वज्ञानी को बेहान्तर की प्राप्ति नहीं होती । यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो तत्त्वज्ञानी का भी प्राणोत्क्रमण = लिङ्गशरीर का मृत देह से निकलकर नवीन स्थूल देह प्राप्ति के लिये उर्ध्वगमन मानना होगा । अतः 'न तस्य प्राणाः उत्क्रामन्ति = तत्वज्ञानी का प्राणोत्क्रमण नहीं होता' यह श्रुति यात अर्थ में प्रमाण न हो सकेगी किन्तु उस में संकोच करना पड़ेगा । इसलिये यही मानना उचित है कि ज्ञानी को जन्मान्तर नहीं होता किन्तु प्रारब्ध का क्षय = तत्त्वज्ञानोत्पादक देह के आरम्भ कर्मों का नाश होने पर अज्ञान की निवृत्ति होने से चिन्मात्र ही अवशिष्ट रहता है। तत्वज्ञानी की यह चिन्मात्रता हो मोक्ष है ।
इस प्रकार वेदान्तीओं के पूरे सम्प्रदाय का वर्णन किया गया। जिस में आग्रह प्रस्त होने से ये तपस्वी स्वेच्छया कूद पड़ते हैं ।। ३ ।।
एतन्निराकरणवार्तामाह -
अत्राप्यन्ये वदन्त्येवमविद्या न सतः पृथक् । तव तन्मात्रमेवेति भेदाभासोऽनिबन्धनः ॥ ४ ॥
अत्रापि = अद्वैतपक्षे अन्ये = वादिनः वदन्ति यदुत अविद्या न सतः - ब्रह्मणः पृथक् = तत्वान्तरम्, द्वैतापत्तेः । तच्च = सच, तन्मात्रमेव = सन्मात्रमेव इति हेतोः, भेदाभासः = मेदाध्यवसायः अनिबन्धनः- जनकविषयाभावादकारणः ॥ ४ ॥
[ वेदान्तमतनिरसन- उत्तरपक्ष प्रारम्भ ] चौथी कारिका में वेदान्तमत के निराकरण की वार्त्ता का उपक्रम किया गया है