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[ शास्त्रवार्ता स्त० - इलो०३
[ मृत्युकाल में फलोन्मुख कर्मों की प्रारब्धता ] वेदान्तदर्शन का साम्प्रदायिक सिद्धान्त यह है कि-पोक्त मत ठीक नहीं है, क्योंकि प्रारब्ध यह कोई एक कर्म नहीं है, क्योंकि एक फर्म से भोजनादिजन्य सुख और क्षुधादिजन्य दुःख का भोग नहीं हो सकता और एक कर्म में अनेकविध सुख-दुःख को जनकता युक्तिविरुद्ध भी है। यदि यह कहा जाय'भोजनाविजन्य सुखादि कर्मजन्य नहीं होता किन्तु स्वाभाविक-दृश्यकारणमात्रजन्य होता है-तो यह युक्तिसङ्गत नहीं है, क्योंकि कोई भी कर्म साक्षात् सखादि का हेतु नहीं होता किन्तु सुख दुःखादि के दृष्ट कारणों के सम्पादन द्वारा ही सुखादि का हेतु होता है। भोजनादि के प्रभाव में जो सुख का प्रभाव होता है वह भी भोजनादि के सम्पादक फर्मविशेष के अभाव से ही होता है। अतः भोजनादि दृष्ट कारणों से सुखादि की उत्पत्ति मान कर कर्म में सुस्वादिजनकता का खप्न नहीं किया जा सकता। अतः यही मानना युक्तिसङ्गत है कि केवल एक कर्म ही प्रारब्ध नहीं होता किन्तु पूर्वअन्म के प्रायणकाल - मत्युकाल में जिन कर्मों को फलोन्मुखवृत्ति का उद्बोधन हुआ है वे सभी छोटेबडे कर्म प्रारब्ध होते हैं, जिनसे विभिन्न क्षणों में न्यूनाधिक अथवा अल्प सुख अथवा दुःख की प्राप्ति होती है।
[तत्वज्ञानी को नये देहधारण की अनुपपत्ति ] अब तत्त्वज्ञानी को देहान्तर की प्राप्ति मानने पर ज्ञानोत्पादक देह के नाशकाल में ही कर्मों को प्रारब्धता प्राप्त होगी और उसके लिये यदि पूर्वसश्चित कर्मों का ज्ञान से नाश नहीं मानेंगे तो तत्त्वज्ञान से सश्चित कर्मों का नाश बताने वाली श्रुति का बाध होगा। यदि तत्त्वज्ञान से सश्चित कर्मों का नाश माना जायगा तो प्रारयता प्राप्त करने वाले कर्मों का अभाव होने से अन्य मनुष्य के प्राप्ति कैसे होगी? क्योंकि वह शरीर प्रतिक्षण में होनेवाले क्षुवादिजन्य दुःखादि से भरा होता है, अतः कर्म के विना उसको उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिये यही मानना उचित है कि तत्वज्ञान से सभी सश्चित कर्मों का नाश होता है। सप्तजन्मप्रद कम की भी, अन्तिम तत्त्वज्ञान से अज्ञान और अज्ञान के समस्त कार्यों की निवृस्ति होने पर, निवृत्ति हो जाती है। क्योंकि अज्ञान ही समस्त कार्यों का उपादान कारण होता है और उपादान कारण का नाश होने पर निराधार कार्य का अस्तित्व नहीं हो सकता, इसलिये तत्त्वज्ञानी को देहान्तर प्राप्ति नहीं होती। इन्द्रादि तत्वज्ञानीओं को जो देहान्तर की प्राप्ति होती है वह उनके प्रारब्ध कर्म से ही होती है, क्योंकि उनके प्रारब्ध कर्म का तत्त्वज्ञानोत्पादक देह में तत्त्वज्ञान से नाश नहीं होता। किन्तु सर्वसाधारण तत्वज्ञानी के विषय में ऐसी कल्पना नहीं की जा सकतो. नयोंकि सर्वसाधारण तत्वज्ञानी के प्रतिक्षण भोग प्र तत्तत्कर्म प्रारब्धरूप होने में तथा वे देहान्तर का आरम्भक होने में कोई प्रमाण नहीं है । इन्द्रादि के तत्तत्कर्मों की प्रारब्धता में उनके देहान्तरप्राप्ति का बोधक शास्त्र ही प्रमाण है। सभी तत्वज्ञानी को देहान्तर और देहान्तरप्रापक सामर्थ्य की कल्पना करने में गौरव भी है।
ततश्च ज्ञानिदेहारम्भकेष्वनेकजन्मप्रदेवनेकेषु सुकृत-दुष्कृतेषु सत्स्वपि न जन्मान्तरमेतम्य सुवचम् , ससि देहे देहान्तराऽयोगाद । तन्नाशानन्तरं तदुपगमे च "यं यं पापि स्मरन भावम्" इति स्मृतेर्दैवान्तरविषयान्तिमप्रत्ययस्यावश्यकत्वाज्ज्ञानिनापि तदापातात् । तता प्रायणकाले उत्पादितदेहान्तर विषयान्तिमप्रत्ययत्वं प्रारब्धत्वम्, इति ज्ञानिदेहारम्भकाणा