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[ शास्त्रवार्ता स्त० ८ श्लो०१०
शास्त्र में उपलब्ध अवतदेशना का उक्त अर्थ न्याय से बाधित नहीं होता, क्योंकि घट-पादि पदार्यों के तत्वसूचक शास्त्र और प्रनमातादि का प्रामाण्य प्रमाण है। तथा संमार और मोक्ष में वास्तविक भेद है। अतः मोक्ष के लिये प्रेक्षावान् पुरुषों का यम-नियमादि के पालन में प्रयत्नशील होना युक्तिसङ्गत है। कारिका के उक्तार्थ का समर्थन करने के लिये व्याख्याकार ने यह कहा है कि कारिका के उत्तरार्ध में पठित 'तदर्थ' शब्द के पूर्व में यद्यपि संसार और मोक्ष दोनों का उल्लेख है तथापि तत् शव से मोक्ष का हो अतुकर्षण होता है। क्योंकि उसी के लिये यम-नियमादि के पालन का प्रयत्न अपेक्षित होता है। अथवा 'तस्पद' प्रसिद्धार्थ का बोधक होता है और मोक्ष सकलपुरुषार्थों में अग्रणी होने से प्रसिद्ध है इसलिये 'तदर्थ' शब्द का अर्थ 'मोक्षार्य' हो सकता है ।।६॥
विपक्षे वाधामाह
१० वी कारिका में अद्वैतवेशना को उक्त व्याख्या से विपरीत ध्याख्या को स्वीकार करने में बाधक उपस्थित किय
मृलं-अन्यथा तत्त्वतोऽबैते हन्त ! संसार-मोक्षयोः ।
सर्वानुष्ठानधैयर्यमनिष्टं संप्रसज्यते ॥१॥ __ अन्यथा - उक्तविपरीतव्याख्याने, 'हन्त' इति खेदे, संसार-मोक्षयोस्तस्यतोऽते= अविभागे सति सर्वानुष्ठानस्य = यम-नियमादेः, यय॑म् = निष्फलत्वम् , अनिष्टम् - परस्याप्यनभिपतम्, संप्रसज्यते प्राप्नोति । संसारनिवृत्यर्थः मोक्षार्थो वा मुमुक्षूणां सर्वोऽपि व्यापारः । स चाद्वैतवादे नोपपद्यते, संसारस्यासत्वेन नित्यनिवृत्तत्वात, मोक्षस्यापि सचिदानन्दरूपब्रह्मात्मस्य नित्यत्वेन निरयावासत्वात् । एवं च प्रपञ्चशून्यतायाः परमार्थत्वे नित्यमुक्ततापत्तिद्पणं मण्डनेनोक्तम् तत्र गत्वा स्वगृहे प्रत्यापत्तम् ।
अद्वैतवाद में यम-नियमादि की व्यर्थता ] यदि प्रवतवेशना का उक्त व्याख्यान न मान कर तास्विकदृष्टि से अत प्रतिपादन में ही उसका अभिप्राय माना जायगा तो खेव का विषय यह है कि संसार और मोक्ष में वस्तुतः अवंत हो जाने से यम-नियमावि समस्त अनुष्ठान निष्फल हो जायगा जो कि वेवान्ती को भी अभिमत नहीं है । प्रास्य यह है कि मुमुक्षु पुरुषों का सम्पूर्ण व्यापार संसारनिवृत्ति और मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही होता है । जो तात्त्विकरूप से अद्वैतवाद का अभ्युपगम करने पर नहीं उपपक्ष हो सकता है क्योंकि अवैत के सात्त्विकत्व पक्ष में प्रात्मा से भिन्न किसी भी वस्तु का अस्तित्व न होने से संसार असत् होने के कारण नित्यनिवृत है। अतः उसको नित्ति का प्रयत्न निरर्थक है। एवं मोक्ष भी उस मत में सच्चिदानन्वब्रह्मस्वरूप होने से नित्य सिद्ध है अतः उसकी प्राप्ति के लिये भी प्रयत्न की कोई सार्थकता नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रपश्चन्यता को परमार्थ सत मानने पर मण्डनमिश्र ने जो नित्यमुक्तता की आपत्तिरूप दोष बताया है यह वेदान्तीओं के गृह में जाकर पुन: अपने मीमांसागृह में प्रत्यावर्तन का सूचक है।
'अविद्यानिवृत्ययों मुमुक्षण यन' इति चेत् १ न, यतो न तनिवृत्तिः सती, नाय.