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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
सती, नापि सदसती द्वैवप्रसङ्गानुद्देश्यत्व विरोधेभ्यः, ज्ञानजन्यत्वाच्च । 'अस्तु तह्य निर्वचनीया, जन्यत्वात्, तदुक्तम्-जन्यत्वमेव जन्यस्य मायिकत्व समर्पकम्' इति चेत् १ न, अनिर्वचनीयस्य ज्ञाननिवस्वनियमाङ्गीकारेण तन्निवृत्तिपरम्पराप्रसङ्गात् अथ सदद्वैतव्या कोपादसत्येव सा, असवेऽपि तस्या उद्देश्यत्यज्ञानजन्यत्वादि कल्पयिष्यत इति चेत् ? नन्वेवमविद्यायसस्येव कार्यजननी कल्प्यतामिति कृतान्तव्याकोपः । कल्प्यादर्शन संत्रासस्तूभयत्र तुल्यः 1 पञ्चकारखाश्रयणं स्वत्वन्ताऽप्रसिद्धम् ।
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'अस्तु तर्हि चैतन्यात्मिकाऽविद्यानिवृत्तिरिति चेत् ! मदुक्तमेवेत्थं चैतन्यस्य सदा सच्वेन तदर्थप्रयत्नवैकल्यं दूषणम् । अथ तचज्ञानोपलक्षितं चैतन्यमज्ञाननिवृत्तिः तच्च न तवज्ञानतः प्रागस्ति, उपलक्षणस्वस्य संबन्धाधीनत्वात् काकसंबन्धो हि गृहस्य काकोपलचितत्वमिति तन, काकोपलचितत्वस्याप्येकान्ते काकसंबन्धोत्तरं तदा हितस्वभावा (न) नुवृत्त्याऽसंभव - दुक्तिकत्वात्, अनेकान्त एव तदुक्तेः 'अयं छत्री' इत्यादाविव योगतत्वपर्यवसानात् विश्व ज्ञानोपलक्षितत्वस्यापि सच्चेऽद्वैतव्याघातः असत्व उद्देश्यत्वानुपपत्तिः, मिध्यात्वे ज्ञाननिवर्त्य - स्वापत्तिः, चिन्मात्रत्वे चोक्तदोषानतिवृत्तिरिति न किञ्चिदेतत् ।
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[ अविद्यानिवृत्ति के लिये मोक्षार्थी का प्रयत्न अयुक्त ]
यदि यह कहा जाय कि "मुमुक्षुओं का प्रयत्न अविद्यानिवृत्ति के लिये होता है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विद्यानिवृत्ति का स्वरूप दुर्बच है। जैसे अविद्यानिवृत्ति को सत्-असत् अथवा सदसत् (उभयात्मक ) नहीं माना जा सकता। क्योंकि, उसे सत् मानने पर ब्रह्म से भिन्न सत्पदार्थ के अभ्युपगम से द्वंत प्रसङ्ग होगा । असत् मानने पर वह मुमुक्षु के प्रयत्न का उद्देश्य न हो सकेगी और सत् असत् उभय मानने पर विरोध का प्रसङ्ग होगा अर्थात सत्त्व असत्व विरुद्ध धर्मो के एकत्र समावेश की प्रसक्ति होगी। साथ ही प्रविद्यानिवृत्ति ज्ञानजन्य है अतः वह सत् श्रसत् या उभयात्मक नहीं हो सकती क्योंकि सत् या असत् आदि जन्य नहीं होता ।
| अविद्यानिवृत्ति अनिर्वचनीय नहीं हो सकती ]
यदि यह कहा जाय कि- 'उक्तदोष के कारण श्रविद्यानिवृत्ति अगर सत् या असत् नहीं हो सकती तो उसे अनिर्वचनीय माना जा सकता है क्योंकि वह जन्य है और यह कहा गया है कि जन्यत्व ही जन्य वस्तु के मायिकत्व मायाजन्यत्व अनिर्वचनीयत्व का बोधक है ।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अनिर्वचनीय में ज्ञाननिघत्व का नियम है । अतः श्रविद्यानिवृत्ति और उसकी भी निवृत्ति की परम्परा रूप अनवस्था का प्रसङ्ग होगा । यदि यह कहा जाय कि 'सद्वैतवाद के sana भय से अविद्यानिवृत्ति असत् ही है और असत् होने पर भी उसमें उद्देश्यत्व और ज्ञानजन्यत्यादि कल्पित है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर भी कहा जा सकता है कि प्रविद्या भी असत् ही है और प्रपश्वजनकत्व उसमें कल्पित है और ऐसा मान लेने पर वेदान्तसिद्धान्त का व्याघात होगा। यदि यह कहा जाय कि 'कल्पनीय असत् पदार्थ में कार्यजनकत्व के अवर्शन के भय से