________________
१४३
स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
इसीलिये पुरुष एवेदं ० यह सब दृश्यमान विश्व पुरुषस्वरूप ही है' इस प्रकार के अर्थ को प्रतिपादन करने वाली जो श्रुतियाँ हैं उनके आपाततः प्रतीयमान अर्थदर्शन से गणधरों को जो संदेह हुआ था, भगवान महावीर ने स्वयं उसका निराकरण उन श्रुतियों को चित्तप्रसादरूप प्रयोजन के लिये आत्मा के अयंधावरूप यानी आत्मप्रशंसापरक बचन बता कर और उन श्रुतियों के अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये प्रपञ्श्वसत्यतावेदक अन्य श्रुति वाक्यों को दीखा कर किया। यह तथ्य विशेषावश्यक भाष्य के द्वितीयगण धरवादप्रकरण में स्फुट किया गया है ।
यत्तु - " पुरुष एवेदम् ० " इत्यादावीश्वरस्य सर्वावेशनिबन्धनः सर्वतादात्म्य व्यवहारः' इति नैयायिकादीनां समर्थनम्- तन्तु तदभिमतेश्वरनिरासाद् न शोभतेः शोभते तु सर्वतादात्यप्रतिपादकश्रुतीनां सर्वविषयतारूपावेशपरत्वम् निश्रयतः सर्वस्य सर्वज्ञत्वात् परमत्रापि स्वस्यैव सर्वात्मकत्वादन्यस्यानुपयोगित्वादनात्मप्रतिबन्धनिवृत्या साम्यसिद्धिरेव प्रयोजनमिति युक्तं पश्यामः ॥ ८
[ ईश्वर वेशवादी नैयायिकमत अशोभास्पद ]
नैयायिकादि उक्तार्थक श्रुतिवचनों का समर्थन यह कह कर करते हैं कि- 'ईश्वर का सम्पूर्ण विश्व में श्रावेश- संविधान विशेष संयोगविशेष है । इसलिये ईश्वर में सर्वतादात्म्यव्यवहार की सम्भाव्यता 'पुरुष एवेदम्' इत्यादि श्रुति से बतायी गयी है ।' उनका यह समर्थन उनको अभिमत ईश्वर प्रमाणशून्य होने से सर्वथा शोभाहीन = युक्तिहीन हैं। शोभायुक्त युक्तिसम्मत कथन तो यह है कि आत्मा में सर्वतात्म्य का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों का यह तात्पर्य लिया जाए कि प्रात्मा का सर्वत्र आवेश सर्वविषयकत्वरूप है। क्योंकि निश्चयनय से सभी सर्वश है, अर्थात् श्रव्यक्तसर्वज्ञता सर्व प्राणों में है । किन्तु इस कथन का भी प्रयोजन चित्तप्रसादरूप साम्य की सिद्धि ही है जो 'आत्मा ही सर्वात्मक है' इस कथन द्वारा आत्मान्य की अनुपयोगिता बता कर अनात्मा में वित्तप्रवृत्ति की निवृत्ति द्वारा सम्पन्न होती है ॥ ८ ॥
उक्तव्याख्यानस्य युक्तत्वमेव व्यवस्थापयन्नाह -
९ वीं कारिका में उक्त व्याख्यान की युक्तियुक्तता का समर्थन किया गया है
--
मूलं -- न चैतद्बाध्यते युक्त्या सच्छास्त्रादिव्यवस्थितेः ।
संसारमोक्षभावाच तदर्थं यत्नसिदितः ॥ ६ ॥
"
न च एतत् = उक्तव्याख्यानम् युक्त्या = न्यायेन बाध्यते । कुमः ? इत्याह--यतां = घटादिग्राहिणां शास्त्रादीनाम्, आदिनाऽनुमानादिग्रहः, व्यवस्थितेः = प्रामाण्योपपत्तेः । च = पुनः, संसारमोक्षभाषात् = संसारमोक्षविभागस्य ताविकत्वात् तदर्थं = [ स्वर्गरूपसंसार]-मोक्षार्थम्, तत्पदेन मोक्षस्यैवानुकणात् सकल पुरुषार्थाग्रणीन्येन पोक्षस्य प्रसिद्धत्वात् तत्पदस्य प्रसिद्धार्थत्वाद् वा तदर्थं = मोक्षार्थमिति वा, यत्मसिद्धितः = प्रेक्षायम-नियमादिव्यापारोपरत्तेः ॥ ६ ॥