________________
१२६ ]
[ शास्त्रवार्ता ० स्त०८ श्लो०७
अज्ञान में घटविषयता घटसम्पृक्कावरण की जनकतारूप है अतः वह श्रज्ञान का स्वभाव है, इसलिये स्वभाव के आश्रयभूत अज्ञान की निवृत्ति न होने पर उसके घटविषयतारूप स्वभाव की निवृत्ति शक्य है । विषय के प्रस्फुरण के प्रयोजकरूप में भी अज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि यदि विषयस्फुरण आत्मा का स्वभाव होगा तो उसमें विषय का प्रस्फुरणस्वभाव किसी अन्य निमित्त से ही मानना होगा । अतः उस अन्य निमित्त के रूप में अज्ञान की कल्पना न कर कर्म द्वारा ज्ञान के आवरण की कल्पना हो उचित है क्योंकि कर्म प्रदृष्ट दोनों मत में क्लृप्त है । यदि विषय का अस्फुरण आत्मा का स्वभाव होगा तो स्फुरण का प्रतिबन्ध मानना व्यर्थ है क्योंकि विषय का अस्फुरण स्वभाव से ही सम्पन्न होगा। दूसरी बात यह है कि स्फुरण के प्रतिबन्धक की निवृत्ति होने पर भी आत्मा विषय का स्कोरक नहीं हो सकेगा क्योंकि विषय का अस्फुरण उसका स्वभाव है क्योंकि जैसे दाह के प्रतिबन्धक मणि की निवृत्ति होने पर भी दाहकस्वभाव श्रग्नि में हो वाहजनकत्व देखा जाता है, प्रवाहक स्वभाव जल में नहीं देखा जाता ।
* एतेन -- "त्रिवादगोचरतापन्नं प्रमाणज्ञानं स्वप्रागभावव्यतिरिक्तस्वविषयावरणस्वनिव स्वदेशगत वस्त्वन्तरपूर्व कम्, अप्रकाशितार्थप्रकाशकत्वात् अन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावत् । अतीतत्वज्ञानं घटादिज्ञानं चोक्तसाध्यवदिति वेदान्तिनः । नेत्यपरे । इति विवादविषयतापनज्ञानानां पक्षत्वात् सुखादिज्ञाने विवादाभावेनाऽपचत्वाद् न बाधः ।
उक्त कारण से एवं आगे कहे जाने वाले कारण से वेदान्ती द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले निम्नोक्त महाविद्या अनुमान से भी अज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती ।
| वेदान्तीओं का अज्ञानसाधक महाविद्या अनुमान - पूर्वपक्ष | arrata का अज्ञानसाधक महाविद्या अनुमान इस प्रकार है
'बियाविषयीभूत प्रमाणज्ञान स्वप्रागभाव से भिन्न, स्वविषयावरण स्वनिवर्त्य, स्वदेशगत अन्य वस्तु पूर्वक होता है क्योंकि वह अप्रकाशित अर्थ का प्रकाशक होता है । जैसे-अन्धकार में प्रथमोपन प्रदीप की प्रभा अन्धकाररूप उक्त अन्य वस्तु पूर्वक होती है ।'
इस अनुमान से यह सिद्ध होता है कि विवादास्पद प्रमाणज्ञान के पूर्व ऐसी कोई वस्तु रहती है जो ज्ञान के प्रागभाव से भिन्न और उस ज्ञान के विषय का आवरण एवं उससे निवर्त्य, तथा उस ज्ञान का समानाधिकरण होती है । वेदान्ती का कहना है कि इस प्रकार जो वस्तु प्रमाणज्ञान पूर्व सिद्ध होती है वही अज्ञान है । श्रतोत्थ का ज्ञान और घटादि ज्ञान उक्त साध्य का श्राश्रय होता है - यह वेदान्तोओं का मत है और 'यह ज्ञान उक्त साध्य का श्राश्रय नहीं होता है' यह अन्य दार्शनिकों का मत है । इस प्रकार जिस ज्ञान में उक्त साध्य होने और न होने में वेदान्तो और अन्य दार्शनिकों के मध्य विवाद है, ऐसे विवादविषयीभूतज्ञान को ही पक्ष बनाने के अभिप्राय से प्रमाणज्ञानरूप पक्ष में विवादविषयत्व' विशेषण दिया गया है। जिसका अर्थ है 'साध्यसंशयविषयत्व ।' यदि पक्ष में यह विशेषण न दिया जाय तो सुखादिज्ञान भी पक्षान्तर्गत होगा। दूसरी भोर वेदान्ती के मल में सुखादि की प्रज्ञातसत्ता न होने से उसमें प्रज्ञानरूप उक्त अन्य वस्तु पूर्वकश्व रूप साध्य न होने से ..मपास्तम्' इत्यनेन दीर्घान्वयो बोध्यः ।
एतत्पदस्य 'स्त्रगृह.