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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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दूसरी बात यह है कि-'प्रज्ञान का अभ्युपगम न करने पर 'न जानामि' इन प्रतोतिओं में अनुगत विषय को अनुपपत्ति होती हैं-यह बात भी जैनष्टि से प्रसिद्ध है, क्योंकि जैन मत में 'सर्वात्मनास्वरूपज्ञानाभाव' ही 'न जानामि' इस प्रकार की सभी प्रतीतियों का अनुगत विषय है और यह अनुपपन्न भी नहीं है क्योंकि अनसनि-रान्ति पर्यायों द्वारा सर्वात्मना स्वरूपज्ञान सर्वविषयकज्ञान नियत है, अतः सर्वज्ञ को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को किसी भी पदार्थ का सर्वाश्मना स्वरूपज्ञान नहीं हो सकता। अतः असमात्र में सर्वात्मना स्वरूपज्ञानाभाव सम्भव होने से उसे न जानामि इस प्रतीति का अनुगतविषय मानने में कोई बाधा नहीं है। जैसा कि आगम-'आचाराङ्ग' नामक प्रथम अङ्ग में एकवस्तु के सर्वात्मना ज्ञान और सर्ववस्तुत्रों के ज्ञान में समध्यापकत्व के अभिप्राय से परमषि का यह बचनोद्गार उपलब्ध होता है कि-"जो एक वस्तु को (सर्वांश में) जानता है वह सम्पूर्ण यस्तुओं को जानता है और जो सम्पूर्ण वस्तुसों को जानता है वही एक वस्तु को (साँव में) जानता है।"
___ घटज्ञानादिनियर्त्यमपि मिथ्याज्ञानरूपं सम्यग्ज्ञानप्रागभावरूपं वाऽज्ञानं त्यतिरिक्तम् | परेषां तु घटादिज्ञानात् तदज्ञानाऽनिवृत्तिप्रसङ्गः, अनुगताज्ञानस्य चुक्तावेवनिवृत्तेः । न च घटज्ञाना(द )घटविपयतामात्रस्य निवृत्ति ज्ञानस्य, यथा परेषा घटनाशे घटसंबन्धनाशः सत्ताया इति वाच्यम् , दृष्टान्तस्यैवाऽसंप्रतिपत्तः। न हि घटनाशे स्वरूपात्मकपटसंवन्धनाशो न तु सत्तानाश इति जैनाः प्रतिपद्यन्ते, न चोत्पाद-व्यय-ध्रौव्यपरिगतरूपयहिस्कृतां सत्तामेव प्रमाणयन्तीति । न च घटविषयतानिवृत्तिरपि सुवचा, स्वभावभूताया घटसंपृक्तावरणजनकतारूपायास्तस्या निःस्वभाववतोऽनिवृत्ती निवतीयतुमशक्यत्वादिति । विषयाऽस्फुरणप्रयोजकतयापि न तसिद्धिा, विषयस्फुरणस्वभाव एवात्मन्यभ्युपगम्यमाने परनिमित्ततदस्फुरणस्वभावनिर्वाहाय तत्प्रतिबन्धकज्ञानावग्णकर्मकल्पनौचित्यात् । तदस्फुरणस्वभावे तु किं स्फुरणप्रतिवन्धकेन ? न हि प्रतिबन्धकनिवृत्यापि तदस्वफुरणम्भावस्य तत्स्फोरकस्वं नाम, मणिनिवृत्तावपि दाइकस्य दहनस्येवाऽदाहकस्याम्भसो दाहकत्वाऽदशेनादिति ।
घटज्ञानादि से जो प्रज्ञान निवत्त होता है वह सर्वात्मना स्वरूपज्ञानाभाव रूप प्रज्ञान नहीं किन्तु उससे मिथ्याज्ञानरूप प्रथया सम्यग्ज्ञान के प्रायभात्ररूप प्रज्ञान होता है। वेदान्ती के मत में घटाविज्ञान से संसारदशा में घटादि के अज्ञान की निवृत्ति न होने की अनिष्ट प्रसत्ति होगी। क्योंकि उनके मत में अज्ञान अनुगत है अत एव मुक्ति में ही उसकी निवृति हो सकती है। यदि यह कहा जाय कि घशान से अज्ञान को निवृत्ति नहीं होती किन्तु अज्ञान में घटविषयकत्व की निवृत्ति होती है, जैसे कि न्यायमत में घट का नाश होने पर घर की सत्ता का नाश नहीं होता किन्तु सत्ता के साथ घटसम्बन्ध का नाश होता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैन को यह दृष्टान्त मान्य नहीं है कि'घट का नाश होने पर उसके साथ घर के स्वरूपात्मक सम्बन्ध का तो नाश होता है किन्तु सत्ता को नाश नहीं होता।मरी बात यह है कि इनों को उत्पाद-ध्यय-प्रौय नियतस्वरूप से भिन्न सत्ता की प्रामाणिकता भी मान्य नहीं है । वेदासी की ओर से जो यह कहा गया कि घशान से अज्ञान की निवृत्ति नहीं होती किन्तु अज्ञान में घविधयकत्र को निवृत्ति होती है वह भी उचित नहीं है क्योंकि