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[ शास्त्रवाती स्त०८ श्लो०१
त्वम् , घटादानप्यनाश्वासात । न च प्रमाणवेद्य एव देहा, अज्ञानविषयत्वेन कदाचित 'अहं मनुष्यो नया' इति संदेहापत्तेः । किञ्च, अस्य ब्रह्मण्य ध्यस्तत्वे घटादिवद् न केवलसाचिधेद्यत्वम् , जीवाध्यस्तत्वे च सुखादिवदन्यापक्षत्त्वभंग इति चेत् ? अत्राहु:-एक एवायं जीवो देहत्वेन ब्रह्मण्यव्यस्तः, न जीधे, 'अहं देहः' इत्यप्रतीतेः । तादात्म्याभिनिविष्टमनुष्यत्वेन जीवेऽभ्यस्तो न ब्रह्मणि, 'अहं मनुष्यः' इति प्रतीतेः । तेनैव च रूपेण केवलसाधिवेधत्वम्, प्रमाणपनपक्षपात, देवत्वेन प्रमाणवेद्यत्वम् । एवमन्तःकरणादिरपि तच्चादिना ब्रह्मण्यध्यस्तः, अहन्त्यादिना जीव इति सिद्धमज्ञानोपहितचैतन्यरूपसाक्षिवेद्यत्त्वं देहस्य ।
[ रजतवृत्ति की अपेक्षा, देहपर्यन्त अज्ञानादि की नहीं ] इस प्रकार शुक्तिरजतावि और प्रज्ञानादि में केवलसाक्षिवेधता यद्यपि समान है तथापि उक्त रोति से शक्तिरजतादिविषयक विद्यावत्ति की अपेक्षा होती है किन्त अज्ञान से लेकर देह पर्यन्त साक्षिभास्य विषयों की वृत्ति अपेक्षित नहीं होती, क्योंकि वे सब बाह्म चैतन्य में अध्यस्त न होकर अन्तश्चैतन्य में ही प्रध्यस्त होते हैं । अत एव शरीरावच्छेवेन 'अहमज्ञः' 'अहं मनुष्यः' इत्यादि प्रतीति को उपपत्ति में कोई बाधा नहीं हो सकती।
[शरीर केवलसाक्षिवेद्य कैसे ?] वेह के विषय में यह प्रश्न होता है कि "वह घटादि के समान चक्षुर्ग्राह्य होने से प्रमाणवेद्य है, अतः वह केवल साक्षिवेद्य कैसे हो सकता है ? यदि स्वप्नज्ञान में चक्षुह्यत्व के समान देह में कल्पित चक्षुह्य माना जायगा तो घटादि के सम्बन्ध में भी प्रास्था नहीं हो सकेगी, क्योंकि घटादि के विषय में भी कहा जा सकता है कि घटादि का चक्षह्यत्व कल्पित है, फलतः व्यावहारिक घटादि भी स्वप्नघटादि के समान हो जायगा । देह प्रमाणवेद्य ही है साक्षिवेद्य नहीं है-यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसे प्रमाणेकवेद्य मानने पर वह प्रमाणजन्यव्यापार के प्रभाव दशा में अज्ञान का भी विषय होगा। अतः कदाचित् मनुष्य को अपने विषय में भी 'अहं मनुष्यो न वा' इस संदेह को आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि देह ब्रह्म में अध्यस्त होता है, अतः जैसे ब्रह्म में अध्यस्त घटादि केवल साक्षिवेश नहीं होता उसी प्रकार देह भी केवल साक्षिवेद्य नहीं हो सकेगा। यदि उसे जोव में प्रध्यरत माना जायगा तो जैसे एक जोवगत सुखादि अन्य को अपरोक्ष नहीं होता उसी प्रकार एक जीव का देह भी अन्य को अपरोक्ष न हो सकेगा। इस प्रकार देह में केवल साक्षिवेधत्व एवं केदल प्रमाणवेद्यत्व दोनों सम्भव न होने से देह के अप्रत्यक्षत्व की आपत्ति अनिवार्य है।"
[भिन्न भिन्न रूप से जीव ब्रह्म में अध्यस्त] इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्तीओं का कहना है कि जीव एक ही है जो देहत्त्व रूप से ब्रह्म में अध्यस्त होता है-जीव में नहीं । अतएव 'अहं वेहः' यह प्रतीति नहीं होती है । एवं ब्रह्म में अध्यस्त देह के तादात्म्य से अभिनिविष्ट मनुष्य के रूप से जीव में प्रध्यस्त होता है, ब्रह्म में नहीं होता, इसीलिये 'प्रहं मनुष्यः' यह प्रतीति होती है । अथवा 'अहं देहः' इस प्रतीति के होने से उक्त प्रकार से ब्रह्म में