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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
सर्वाकार का कल्प्यते, श्रुत्युक्तजगत्का खनिहाय च । अन्यथा कार्यानुकूलज्ञानादिमत्वरूपतदनुपपत्तो, स्वरूपज्ञाने भेदाभावेनाधागधेयभावाऽसंभवात् इत्याहुः ।
[घट साक्षात्कार प्रतीति शरीरावच्छेदेन क्यों १] उक्त प्रतिपादन के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि-'घट का साक्षात्कार-अपरोक्षज्ञान घटदेश में ही होता है तो शरीरावच्छेदेन 'घटं साक्षात्करोमि' = 'मैं घट को साक्षात् कर रहा हूं', यह प्रतीति कैसे होती है ? क्योंकि घर तो बाह्यदेश में ही अपरोक्ष है, शरीरदेश में अपरोक्ष है नहीं।'-इस प्रश्न का उत्तर यह है कि साक्षात्कारत्व विषय का धर्म नहीं होता, किन्तु वृत्ति का धर्म होता है और यह धर्म उसी वृत्ति में रहता है जिस का विषय अपरोक्ष रहता है। इस प्रकार वृत्ति का साक्षात्कारत्व अपरोक्षचंतन्य में वृत्ति को अध्याततामूलक नहीं होता, क्योंकि यदि वृत्ति का साक्षात्कारत्व अपरोक्षचैतन्य में वृत्ति के प्रध्यस्त होने से माना जायगा तो सभी वृत्तियों में साक्षास्कारत्व की प्रापत्ति होगी, बयोंकि सभी वत्तियां अपरोक्षचंतन्य में ही प्रध्यस्त होती है। अतः वाक्यादि से भी साक्षात्कारात्मकवत्ति को आपत्ति होगी । वृत्तिगत साक्षात्कारत्व प्रनुमितित्व के समान साक्षिगम्य होता है। उक्त विचार का निष्कर्ष यह है कि इदमवच्छिन्न चैतन्य में उत्पन्न शुक्ति-रजत इदमंशावच्छेदेन हो अपरोक्ष होता है । क्योंकि तदवच्छेदेन ही यह चैतन्य में विद्यमान होता है । क्योंकि यह नियम है कि जो यदवच्छेदेन चैतन्य में विद्यमान होता है वह यदि प्रत्यक्षयोग्य होता है तो तदवच्छेदेन ही इसकी अपरोक्षता होती है। अतः जैसे सुख तत्तच्छरीरप्रदेशाचच्छेदेन विद्यमान होने से तत्तदवच्छेयेन अपरोक्ष होता है उसी प्रकार शुक्तिरजत का भी इदमंशावचोदेन ही अपरोक्ष होना न्यायसंगत है। अतः शरीरावच्छेदेन जो 'इदं रजतम्' इस प्रकार का भान होता है वह रजताकार अविद्यावत्ति का अनुमापक होता है। क्योंकि उस वृत्ति के बिना 'इदं रजतं पश्यामि' इस प्रकार की प्रतीति सम्भव नहीं है, क्योंकि इदमाकारवृत्ति के विषय रूप में शरीर में रजत का अवभास नहीं हो सबाला क्योंकि वह रजताकार नहीं होती।
[ ईश्वर में सर्वाकार एक मायावृत्ति का स्वीकार ) इसी प्रकार ईश्वर में भी माया को साकार एक बत्ति मानना प्रावश्यक है, क्योंकि ईश्वर में अध्यस्त बस्तु जब विद्यमान है तब जोय में विद्यमान सुखादि के समान ईश्वर साक्षि से उस की अपरोक्षता हो सकती है किन्तु प्रतीतानागत का भान नहीं हो सकता । प्रतः उस के लिये प्रतिकल्प के आरम्भ में कल्पान्त तक रहने वालो सर्वाकार मायावति मानना आवश्यक है । श्रुति ने ईश्वर को जगतकर्ता कहा है । यह जगत्कर्तृत्व भी मायावृत्ति ले ही उपपम हो सकता है। यदि मायावृत्ति न मानी जायगी तो सर्वकार्यानुकुल ज्ञानादिमत्वरूप सर्वकार्नु स्व की उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ईश्वरसाक्षि रूप ज्ञान का ईश्वरचतन्य के साथ भेद नहीं है अतः उस के साथ आधाराधेय भाव संभव न होने से उस को लेकर ईश्वर कार्यानुकूल ज्ञानादि का प्राश्रय नहीं हो सकता।
तदेवं केवलसाक्षिवेद्यत्वे तुल्येऽपि रजतादौ वृत्तिरपेक्षिता, नानानादौ देहपर्यन्ते । ननु कर्थ देहस्य केवलसाक्षिवेद्यत्वम्, घटादियश्चक्षुर्गावत्वेन प्रमाणवेद्यत्वात् ? न च तत्र स्वप्नवचक्षुधि