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या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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भाव का स्वभाव है तो फिर यह सोचने की बात है कि जब मनुष्य को किसी भाव का प्रत्यक्ष होगा तो उसके स्वभावभूत मेद का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होगा ? अतः अभेद का ही प्रत्यक्ष परानपेक्ष होता है और भेद का प्रत्यक्ष परापेक्ष हो होता है यह कहना नियुक्तिक है। इस पर यदि यह कहा जाय कि- "भेद 'इदमस्माद्वावृत्तम्' 'यह इससे भिन्न हैं- इस कल्पना-परापेक्षबुद्धि का ही विषय है" - तो अभेद के सम्बन्ध में भी यही बात इस प्रकार कही जा सकती है कि "प्रभेद 'इदमनेन समानम् ० ' इस कल्पना = परपेक्षबुद्धि का ही विषय है ।" सत्य यह है कि भेव विविक्तपदार्थस्वरूप है, उसमें पर का मिश्रण नहीं है । किन्तु अपने स्वरूप में व्यवस्थित भाव का योजन यानी नर की प्रवृत्ति प्रथवा निवृत्ति का विषय भवन, कल्पनात्मकज्ञान अर्थात् इष्टवस्तु को भिन्नता और प्रभिन्नता के ज्ञान के बिना नहीं होता, क्योंकि उक्त ज्ञान के बिना लोकव्यवहार उपपन्न नहीं हो सकता। जैसा कि कहा गया है कि श्रग्नि का अर्थी अतल को स्वरूपतः देखते हुए भी जब तक उसे अनलभिन्न अथवा अनलाभिन्न रूप में ग्रहण नहीं करता तब तक उसके सम्बन्ध में न तो प्रवृत्ति करता है और न निवृत्ति करता है ।
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एतेन "आहुविधाद प्रत्यक्षम् ०" इत्यादि, निरस्तम् । विधातृत्वं हि भावस्वरूपग्राहित्वमिति प्रतिनियतार्थं प्रतिभासादेव भेदग्रहणाविरोधात | भिन्नत्वेन ग्रहणं त्वभित्वेनैव परापेक्षमौचरकालिकं न विशेत्स्यते । एतेन च इतरेतराभावरूपत्वाद् न भेदः प्रत्यक्षविषयः इत्यभ्यपास्तम्, भावस्वरूपग्रहणे तत्प्रतिभासनात् वस्तुनो देश-कालादिभेदाद् भेदेऽनवस्थाभिधानं स्वमेदेऽपि समानम् |
[ प्रत्यक्ष केवल विधाता होने के विधान का प्रतिकार ]
इसलिये 'प्रत्यक्ष विधाता होता है अर्थात् विधिरूप में ही वस्तु को ग्रहण करता है इतरनिषेधरूप में नहीं, यह कथन भी निरस्त हो जाता है । क्योंकि विधातृत्व का अर्थ है भावस्वरूप का ग्रहीता होना, भावस्वरूप का 'प्रतिनियत' प्रथं होता है और प्रतिनियत का फलतः प्रयं है इतरव्यावृत्त । अतः प्रत्यक्ष भावस्वरूप के प्रतिभास से ही उसमें भेद का ग्रहण भेदभान मानने में कोई विरोध नहीं है। आशय यह है कि यदि प्रत्यक्ष से वस्तु का ग्रहण होता है तो उसके इतरभेदात्मकस्वरूप का भी वस्तु के रूप में ग्रहण होता ही है। किन्तु उसका इतरभिन्नरूप से ग्रहण परापेक्ष होता है और प्रतियोगी की उपस्थिति होने पर वस्तुग्रहण के उत्तरकाल में वह होता है । अभवग्रहण भी इसी ढंग से सम्पन्न होता है। प्रर्थात् किसी वस्तु का जब ग्रहण होता है तब उस वस्तु में अभेद भी उस वस्तु के रूप में गृहीत होता है, किन्तु वस्तु का स्वाभिन्नत्वरूप से ग्रहण स्वग्रहण के उत्तरकाल में होता है । अतः वस्तु ग्रहण के साथ मेवग्रहण और वस्तुग्रहण के बाद इतरभिन्नत्वरूप से उसका ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है ।
[ भेद प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति की शंका का निरसन ]
उक्त कारण से ही यह मत भी निरस्त हो जाता है कि 'भेद परस्पराभावरूप है, इसलिये भेद के लिये अपेक्षणीय दो वस्तु में किसी एकमात्र के प्रत्यक्ष के साथ भेद भी प्रत्यक्ष का विषय होता है ऐसा नहीं हो सकता । तथा भेद नियमतः प्रतियोगीघटितमूत्तिक हैं, जैसे घटभेद-पटभेद इत्यादि ।