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[ शास्त्रधास्ति०८इलो०७
प्रध्यास अधिष्ठान के विना तथा शुन्य में नहीं हो सकता किन्तु सदब्रह्म में ही हो सकता है। प्रतः ब्रह्म के सत्तात्मकरूप से विश्व का सत्तावान् होना युक्तिसंगत है। इस अभिप्राय से सम्पूर्ण विश्व की ब्रह्मात्मकता युक्तिसिद्ध है किन्तु ब्रह्म की सर्वात्मकता युक्तिसिद्ध नहीं है क्योंकि यदि ब्रह्म सर्वात्मक होगा तो सब से उसका पृथयकरण शक्य न होने से मोक्षाभाव को प्रापत्ति होगी। इस प्रकार जो युक्तिसिद्ध अर्थ है वही उक्त श्रुतियों का अभिप्रेत है।
(अद्वैतवाद में अनुभववाध अनिवार्य ] किन्तु दिनार का वह है दि नेयम्तीओं के उस उत्तर से भी उनके प्रवत सिद्धान्त की सुरक्षा नहीं हो सकती क्योंकि प्रतीति यानी लोक सिद्ध अनुभव के आधार पर चिन्तन करने से अद्वत की उपपत्ति नहीं होती।
तथाहि-अनुभूयन्ते तावदविगानेन घटादयो भावा मृद्-घटादिरूपेण भेदा-ऽभेदात्मका अवग्रहाद्यात्मनोपयोगेन । तत्र च स्वयमेकमेव चैतन्यं प्रमाण-फलस्वरूपम् , एकामेव च पदशक्ति पदार्थाशे सातामन्वयांशे पाऽज्ञाता स्वीकुर्वाणः परः कथमेकमर्थ द्विरूपमनुभवन्नपि प्रत्याचक्षीत ? यदि च त्रयां परित्यज्य 'अभेदस्यैवालोचनम्' इति परापेक्षतया भेदस्य मिथ्यात्वं ब्रूयात् , तदा प्रत्यक्षं चक्षुर्व्यापारसमनन्तरभावि वस्तु भेदमधिगच्छदेवोत्पद्यते, यती भेदो भावस्व माव इति भावमधिगच्छता कथं नाधिगम्येत ? । न च भेदः 'इदमस्माद्व्यावृत्तम्' इति कल्पनाविषय एव, अभेदस्यैव 'इदमनेन समानम्' इति कल्पनाविषयत्वात् । भेदस्य विविक्तपदार्थस्वरूपस्य पराऽसमिश्रितत्वात्, स्वस्वरूपव्यवस्थिताना भावानां कल्पनाशानमन्तरेण योजनाभावात्, अन्यथा व्यवहाराऽनिर्वाहात। तदुक्तम्-"अनलायनलं पश्यन् न तिष्ठेद् नापि प्रतिष्ठेत" इति ।
कहने का अभिप्राय यह है कि घट-शराब कपालादि भाव पदार्थ म रूप से परस्पर अभिन्न और घटकपालादि रूप से परस्पर भिन्न निर्विवाद रूप से अनुभूत होते हैं। अतः उनके अवग्रहइहा-अवाय-धारणा रूप उपयोग से भेदाभेद दोनों सिद्ध है। एवं वेदान्त में एक ही चैतन्य को अन्तःकरणवृत्ति से अवच्छिन्न चैतन्यरूप में प्रमाण और वृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यरूप में फल माना गया है । एवं इसीप्रकार वेदान्तसम्प्रदाय में यह भी माना गया है कि पद की शक्ति अन्वितार्थ में होती है और यह अर्थ में ज्ञात होकर और सम्बन्धांश में अज्ञात होकर एक पदार्थ से सम्बद्ध अपर पदार्थ के शब्दबोध का प्रयोजक होती है। इस प्रकार कूल्जशक्तिवाद का अभ्युपगम कर में ज्ञातत्व और अज्ञातत्व बोना का अभ्युपगम किया गया है। तो इसप्रकार मनुष्य को जब उभयात्मक एक अर्थ का अनुभव होता है तो वह वस्तु को अनेकान्तरूपता का प्रत्याख्यान कैसे कर सकता है ?
यदि वेदान्तपक्ष को प्रोर से लज्जा का परित्याग कर यह कहा जाय कि परानपेक्ष प्रत्यक्षप्रभेदमात्र का ही होता है। भेव का प्रत्यक्ष परापेक्ष प्रतियोगी सापेक्ष होता है अतः परापेक्ष होने से भेव मिथ्या है । तो इसके उत्तर में यह भी कहा जा सकता है कि पक्षसंनिकर्ष के बाद जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह संनिकृष्ट वस्तु में इतरवस्तु के भेद को विषय करके ही उत्पन्न होता है क्योंकि मेद यह