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स्वा० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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[ तत्रमसि वाक्य में उपासनार्थता का संदेह ]
यदि यह कहा जाय कि -'परं चापरं च' इस श्रुति में ब्रह्मपद और ओंकारपद का सामानाधिकरण्य उपासनार्थ है । क्योंकि निर्गुण ब्रह्म की उपासना शक्य नहीं है । अत एव इस श्रुति में ओंकार रूप आलम्बन में ब्रह्म को उपासनीय बताते हुये ब्रह्मप्रतीक का उपदेश किया गया है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे देवता की साक्षात् पूजा सम्भव न होने से देवता के प्रतीक रूप काळ या पाषाण में देवबुद्धि से पूजा का विधान होता है ।' -किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि इस संदेह की निवृत्ति फिर भी नही हो सकतो कि 'तत्त्वमसि' इस वाक्य में भी तत् और त्वम् पद का सामानाधिकरण्य अद्वैत बोधनार्थ नहीं है किन्तु उपासनार्थ है, क्योंकि दूसरी श्रुतियों में जीव और ईश्वर का मेव बताया गया है। इसी प्रकार 'तनेदं पूर्ण०' इस श्रुति में सम्पूर्ण प्रपख को ब्रह्मात्मक कहा गया है और 'सर्वगन्ध: सर्वरस:' इस श्रुति में ब्रह्म को सर्वात्मिक कहा गया है अतः इस से भी अद्वैत की प्रामाणिकता में संदेह अनिवार्य है ।
किञ्च, अनाकलितनयानां परेषां न क्वापि निायिका श्रुतिः, तत्र तत्र प्रदेशे विरुद्धा भिधानात नानासंप्रदायाभिप्रायव्याकुलतयैकव्याख्यानाऽव्यवस्थितेश्च । ननु युक्ति सिद्ध एवार्थे संप्रदायेन श्रुति शक्तितात्पर्यमवधार्यते, अन्यत्र 'यजमानः प्रस्तरः' इतिवदुपचार एव । युक्तिश्च प्रपञ्चासत्य एवोपदर्शितदिशा, इत्यद्वैतश्रुतीनां प्रामाण्यम् । अत एवानधिष्ठानस्य शून्यस्याभ्यासाऽयोगेन ब्रह्मरूपेण रूपवच्चात् सर्वस्य ब्रह्मात्मकत्वेऽपि ब्रह्मणो न सर्वान्मकत्वम्, सर्वस्वभावस्य सर्वस्माद् वियोजयितुमशक्यत्वेनानिर्मोचापातादिति-अत आह— प्रतीश्या ध= अनुभवेन च विश्चिन्तयतां यदुत - 'नाद्वैतम्' इति ।
[ वेदों का अर्थ सुनिश्चित नहीं है ]
इसके अतिरिक्त यह ज्ञातव्य है कि नयदृष्टि की उपेक्षा कर देने पर वेदान्तीनों की कोई भी श्रुति किसी भी अर्थ का निश्चायक नहीं हो सकती, क्योंकि उसके विभिन्न भागों में परस्पर विरुद्ध अर्थ का अभिधान किया गया है। दूसरी बात यह कि वेदान्त दर्शन के भी विभिन्न सम्प्रदाय हैं, जिन्होंने अपने अपने अभिप्राय अनुसार श्रुति के अर्थ की कल्पना कर उसे ऐसी स्थिति में डाल दिया है जिससे उसका कोई एक सुव्यवस्थित व्याख्यान नहीं हो सकता ।
[ युक्तिसंगत अर्थ में वेदवाक्य प्रमाण होने की शंका ]
यदि यह कहा जाय कि प्रमाणिक सम्प्रदाय युक्ति से अनुमोदित अर्थ में ही श्रुतिवचन की शक्ति और तात्पर्य का अवधारण करता है । जैसे 'यजमानः प्रस्तरः' यहां यह युक्ति के आधार पर निश्चय किया जाता है कि प्रस्तर पद औपचारिक है । अतः प्रपश्व की असत्यता के पक्ष में जो युक्ति प्रदर्शित की गयी है उसको दृष्टि में रखते हुये अद्वैत में श्रुति का प्रामाण्य निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है । यतः युक्तिसिद्ध अर्थ में हो श्रुति का तात्पर्यावधारण उचित है इसीलिये सब में ब्रह्मात्मकता और ब्रह्म में सम्पूर्ण विश्वात्मकता के प्रतिपादक श्रुतिवचनों के अर्थ निर्णय में कोई कठिनाई नहीं हो सकती। क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में ब्रह्मात्मकता के पक्ष में यह युक्ति है कि विश्व का