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शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०७
[ विद्यां च इत्यादि श्रुति के अन्य अर्थ की कल्पना |
यदि यह कहा जाय कि उक्त वचन में यह कहा गया है कि श्रवणमननादिरूप अविद्या से मृत्यु का प्रतिक्रमण यानी मृत्यु शब्द से निर्दिष्ट अविद्या की निवृत्ति कर के मनुष्य विद्या से उपलक्षित
भूत की प्राप्ति करता है । अर्थात् जैसे रक्तकुसुम की उपाधि के संविधान में रक्त दीखाई पड़ता स्फटिकमणि उपाधि के निवृत्त होने पर अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित हो जाता है । उसी प्रकार आत्मा जिस अविद्यारूप उपाधि से अन्य स्वरूप प्रतीत होता है उसकी निवृत्ति होने पर वह बिना किसी अन्य प्रयत्न, अपने विशुद्ध स्वरूप में अवस्थित हो जाता है | श्रवणादिरूप अविद्या से आत्मfare for it froत्त और उसकी निवृत्ति होने पर निवर्तक श्रवणादिरूप अविद्या की भी निवृत्ति उसी प्रकार होती हैं जैसे दूध का अजीर्ण, दूध को जीर्ण कर स्वयं भो जीर्ण हो जाता है। एवं
रूप में प्रयुक्त विष, श्राक्रामक विष को शान्त कर स्वयं भी शान्त हो जाता है और कतकचूर्णादिरूप रज जलव्याकीर्ण अन्य रजकणों को शान्त कर स्वयं भी शान्त हो जाता है। यह भी शंका कि"यदि अविद्या असत्य है तो उससे उक्त कार्य नहीं हो सकता क्योंकि असत्य से किसी कार्य को उत्पति नहीं होती । "-ठीक नहीं है क्योंकि माया से इन्द्रजाल से उत्पन्न पुष्प फलादि श्रसत्य वस्तु से प्रीति की और सर्पादि से भय की उत्पत्ति एवं रेखा अङ्कादि से संकेतित सत्य वस्तु की प्रतिपसि देखी जाती है ।
[ साध्य और सिद्ध में भेद होने से अद्वैतवाघ |
किन्तु वेदान्ती के इस लम्बे कथन से भी उसके अद्वैत सिद्धान्त की सुरक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त उत्तर से यह संशय होता है कि- 'तत्त्वमसि' आदि महायात्रयों से उक्त श्रत अबाधित है अथवा उक्त उपनिषद् वचन के विद्या और अविद्या पद का ज्ञान और कर्म अर्थ लेने से जो ज्ञानकर्म से अतिरिक्त मुक्ति को सिद्धि का बोध होता है उससे उक्त श्रद्वैत हो बाधित है ? क्योंकि अद्वैत सिद्ध वस्तु है और मुक्ति को उक्त वचन में विद्याविद्या से साध्य बताया गया है अतः साध्य और सिद्ध ये दो भिन्न वस्तुओं के होने से अद्वैतबाव को प्राप्ति अनिवार्य है ।
एवं 'हे ब्रह्मणी०' इत्यादि श्रुति यह कहती है कि ब्रह्म दो हैं पर और अपर । मुमुक्षु को दोनों का ज्ञान करना चाहिये । अतः यह शंका होती है कि इस श्रुति द्वारा जाने गये जीव और ब्रह्म का भेद सत्य है अथवा 'तस्वमसि' वाक्य द्वारा ज्ञात जीव-ब्रह्म का अभेद सत्य है ! इसी प्रकार 'परं चापरं च०' यह श्रुति यह प्रतिपादन करती है कि ओंकार हो पर और अपर ब्रह्म हैं । अतः संशय हो सकता है कि इस श्रुति के अनुसार शब्दब्रह्म अद्वैत है अथवा पूर्वोक्त निर्गुण ब्रह्म ब्रत है !
न च 'ष' च०" इत्यादावुपासनार्थे सामानाधिकरण्यम्, निर्गुणब्रह्मण उपासितुमशक्यत्वात् एतदालम्बने "ब्रह्मोपासितव्यम्" इति प्रतीकोपदेशात्, यथा देवतायाः साक्षात्, पूजाया असंभवात्, तलाउने दारुण्यश्मनिवा पूजाविधानं तद्बुद्धयेति वाच्यम्; "तत्वमसि " इत्यादावेवोपासनार्थं तद् भविष्यति, जीवेश्वरयोरभेदश्रुतेरिति संशयाविगमात् । एवं- "तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् "इति श्रुतेः सर्वस्य त्रात्मकत्वं वा, "सर्वगन्धः, सर्व रसः ०" इत्यादिश्रुतेर्ब्रह्मात्मकत्वं वा ? इत्याद्यूह्यम्