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[ शास्त्रवार्ता स्त०८ श्लो. १०
और अनिवृत्तत्व परस्पर विरुद्ध धर्म हैं अत: एक में उसका सम्भव नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कायर के लिये यह भय अविद्या और ब्रह्म दोनों में समान है क्योंकि अविद्या को भी निवृप्ताऽनिवृत्त मानने पर यह भय उपस्थित हो सकता है कि एक ही अविद्या निवृत्त और अनिवृत्त दोनों कैसे हो सकती है? .. यदि यह कहा जाय कि-"प्रपञ्च अनित्य हे प्रतः ब्रह्म के कल्पित तादात्म्य के साथ प्रपन्न को तो निवृत्ति हो सकती है किन्तु ब्रह्म नित्य होने से उसकी निवत्ति नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि नित्ति रुपान्तरपरिणत उपादानस्वरूप होती है-इस मत में श्राविद्यक कार्यों की निवृत्ति रूपान्तर में परिणत अविचारूप होगी । प्रत; अनादि अविद्या के तादात्म्य की निवृत्ति न हो सकने से मोक्षाभाव का प्रसङ्ग होगा। यदि निवत्ति को अत्यन्ताभावबोधात्मक बाध रूप माना जायगा तो बोध निर्विषयक नहीं होता अतः जैसे अविद्या के प्रत्यन्ताभाव का बोध ब्रह्मरूपाविद्यात्यन्ताभाव को विषय करेगा उसी प्रकार उसके द्वारा अविद्यारूप ब्रह्मात्यन्ताभाय भी उसका विषय होना अनिवार्य होगा; क्योंकि ब्रह्मरूप अविद्या का अत्यन्ताभाव और अविद्यारूप ब्रह्मात्यन्तभाव दोनों समान वित्तिवेद्य है अर्थात एक सामग्री-ग्राह्य है। क्योंकि सादात्म्य परिणाम की कालिक निवृत्ति को हो प्रत्यन्ताभाव कहा जाता है। अविद्या में ब्रह्म को कालिकतादात्म्यपरिणति निवास है ।
वेदान्ती को ओर से उमत दोषों के कारण यदि यह कहा जाय कि-"अविद्यानिवृत्ति ध्वंस स्वरूप ही होती है किन्तु वह अनिर्वचनीय है और अनिर्वचनीयमात्र में ज्ञाननियत्व का नियम नहीं है क्योंकि उस नियम में अनिर्वचनीयत्व का अविद्याध्वंसातिरिषत में संकोच है अर्थात अविद्याध्वंसातिरिक्त अनिर्वचनीय में ज्ञाननिय॑त्व का नियम है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अविद्याध्वंस की निवृत्ति न होने पर मुक्ति में प्रविद्याध्वंस की सत्ता आवश्यक होने से अद्वैत में भी संकोच प्रावश्यक होगा। एवं मोक्षवशा में अविद्या कार्यों की अनन्तनिवसिनों का भी सदावहोने से उनस ज्ञाननिवर्त्यव नियम का और अद्वैत का अत्यन्त जघन्य संकोच मानना होगा। प्रतः प्रात्मा के सम्बन्ध में जो अक्त का कथन है और हग्दृश्य के सम्बन्धाभाष का कथन है उसका यह अभिप्राय मानना युक्तिसङ्गत होगा कि आत्मा मोक्षदशा में कर्मनिमुक्त हो जाता है । इसलिये कर्म की दृष्टि से वह उस समय अद्वैत और दृग् दृश्य के सम्बन्ध से रहित हो जाता है।
अपि च 'तत्त्वमसि'-आदिवाक्ये परोक्षत्व-भोक्तृत्त्वाभ्यामुपस्थितयोरभेदान्वयाऽयोग्यत्याद् यदि पदद्वयस्य चिन्मात्रे लक्षणा, एतद्वाक्पसामर्थ्यादेव च प्रपञ्चे पारमाथिकत्वाभावलाभः, भोक्तृत्त्वादेः पारमार्थिकत्वे तत्पदामैक्याऽसिद्धेोक्तृत्वादेः कल्पितत्वे भोग्यादेगपि कल्पितत्वादिति मन्यते तदा नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" इत्यत्र नित्यत्व-विज्ञानत्वाऽऽनन्दवादिनोपस्थितस्याप्य भेदान्धयाऽयोग्यत्वाद् नित्यादिपदाना निर्विशेषब्रह्मणि लक्षणयतद्वाक्यसामदेिव नित्यत्वादेरपारमार्थिकत्वात् तद्विनिमुक्तनिर्विशेषसिद्धापत्तिः । न च निविशेष शशविषाणवत सिध्यतीति शून्यतैव स्यात् । अथ नित्यानन्दादिपदार्थानां नाभेदविरोधः, तहिं तत्-त्वम्पदार्थयोरपि मा भूद् विरोधः । विशेषश्चेत , शशविषाणादिवाक्यतुल्यमेव तद् वाक्यं स्यात् । यदि चात्र दृढा भक्तिः, तदा जीवेश्वरयोः शक्त्या शुद्धस्वरूपेणवाभेद उप