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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त०८ श्लो० २
आपातज्ञान प्राप्त है और जिस का अन्तःकरण इस जन्म में अथवा पूर्वजन्म में पुन्यकर्मों के अनुष्ठान से विशुद्ध: = निष्पाप हो चुका है वह नित्य-अनित्य वस्तु का विवेक, भेदज्ञान आदि साधनचतुष्टय को प्राप्त करता है ।
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ननु ? कथं कर्मणां तत्तत्फलसाधनानामन्तःकरण शुद्धिहेतुत्वम् ? इति चेत् १ अत्र वदन्ति - नित्यानां तावत् कर्मण पापक्षयहेतुत्वमावश्यकम्, ज्ञानाऽज्ञानकृतानां सर्वपापान पुरुषेषु सच्चात्, तत्त्रयस्य सर्वदा सर्वाभीप्सित्त्वात् दुःखवत् पापस्यापि द्वेष्यतया तन्निवृतेः काम्यत्वात्, अहरहःकर्तव्यत्वेनावगतानां नित्यानां तेनैव फलवच्चात्, स्वर्गादनियतानुपस्थितिकत्वाद, प्रत्यवायप्रागभावस्य चाऽसाध्यत्वादिति । तदुक्तम्- 'घर्मेण पापमपनुदति' इत्यादि । यद्वा, तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन' इत्यादिश्रुत्वा तत्तत्फलसंयुक्तानामपि कर्म 'एकस्य तु संयोगपृथक्त्वम्' इति न्यायाद् विविदिषासंयोगस्य ज्ञानसंयोगस्य चा(चा) विधानात् तत्रान्तःकरण शुद्धेर्द्वारत्वम् ।
[ विहित कर्मों से अन्तःकरण शुद्धि की मीमांसा 1
पुण्यकर्मानुष्ठान से अन्तःकरणशुद्धि के विषय में यह प्रश्न होता है कि शास्त्र द्वारा तत्तत्कर्म ततत्फल के साधनरूप में विहित है। अतः जन के अनुष्ठान से तत्तत्फलों का ही उदय हो सकता है वे अन्तःकरण की शुद्धिरूप फल के हेतु कैसे हो सकते हैं ?
इस के उत्तर में वेदान्ती विद्वानों का यह कहना है कि नित्यकर्म को पापक्षयरूप अन्तःकरण शुद्धि का हेतु मानना श्रावश्यक है क्योंकि पुरुष में ज्ञान अथवा अज्ञान से किये गये अनेक पाप होते हैं; और उन का क्षय सभी को सर्वदा अभीष्ट होता है। क्योंकि दुःख के समान दुःखजनक पाप भी द्वेष का विषय होता है। अतः पाप की निवृत्ति सभी को काम्य होती है । 'अहरहः संध्यामुपासीत' इत्यादि विधिवचनों से प्रतिदिन कर्त्तव्यरूप में जो कर्म अवगत होते हैं वे नित्य कहे जाते हैं। उन का कोई अन्य फल नहीं होता । वे पापक्षय करने से ही फलवान् होते हैं । स्वर्गादि उन का फल नहीं माना जा सकता क्योंकि उन कर्मों के अनबोध के साथ स्वर्गादि को नियमतः उपस्थिति नहीं होती । उन कर्मों के न करने से प्रत्यवाय होता है अत एव प्रत्यवाय की अनुत्पत्ति का अर्थ है प्रत्यवाय का प्रागभाव और वह अनादि होने से साध्य नहीं हो सकता ।
शास्त्र भी पापक्षय को हो उन का फल बताता है। इस में 'धर्मेण पापमपनुदति' 'धर्म से पाप का क्षय करें' इत्यादि शास्त्रवचन साक्षी है ।
| संयोगपृथक्स्त्र न्याय से काभ्यकर्मों से अन्तःकरणशुद्धि की सिद्धि ]
aarat की ओर से उक्त प्रश्न का यह भी उत्तर ज्ञातव्य है कि 'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञ ेन दानेन तपसा नाशकेन' - ब्राह्मण (पाप) नाशक वेदाध्ययन-यज्ञ दान और तप से पूर्वोक्त आत्मा की जिज्ञासा (सन् प्रत्ययान्त विविदिषा शब्द से लभ्य ) अथवा ज्ञान (स्वार्थिक सन् प्रत्ययान्त विविदिषा शब्द से लभ्य) का सम्पादन करे' इस श्रुति से तत्तत्फल से संयुक्त कर्मो के साथ भी मीमांसकों के संयोगपृथक्त्व' न्याय से जिज्ञासा और ज्ञानरूप फल के सम्बन्ध का विधान है अतः rasi भी पापक्षयरूप अन्तःकरणशुद्धि के हेतु हैं ।