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स्था० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
निविशेष्यकत्वादि बहु प्रकार का होने से और उनका कोई अगुगमक रूप न होने से पृथक पृथक तत्तदप्रामाण्यज्ञानाभाव का प्रतिबन्धकतायच्छेदक कोटि में प्रवेश करने में गोरव है और दोष का उक्त अप्रामाण्य ज्ञानों में यफिश्चित अप्रामाण्यभ्रमजनकत्वरूप से अनुगम कर एक दोषाभाय का प्रतिबन्धकतावच्छेदक कोटि में प्रवेश सम्भव होने से लाधय है।
[ अप्रामाण्यज्ञान की उत्तेजकता असंमवित ] यह भी ज्ञातव्य है कि प्रतिबन्धकता में अप्रामाण्यज्ञान सर्वत्र उत्तेजत हो भी नहीं सकता क्योंकि अनेक बार अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित विरोधी निश्चय के रहने पर भी दोषवश प्रतिबध्य बुद्धि का उदय हो जाता है। जैसे 'इदं जलम्' इस व्यवसाय से तत्त्व: तद्विशेष्यकत्व-जलत्ववद्विशेष्यकत्व एवं तत्प्रकारकरव-जलस्वप्रकारकत्य की उपस्थिति न होने पर भी उस व्यवसाय के 'जलमहं जानामि' इस अनुषसाय में stशानाश जलस्वद्विशेष्यत्व और जलत्वप्रकारकत्व का भान होने से उक्त ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय हो जाता है। अर्थात यह अनुव्यवसाय ही व्यवसाय में प्रामाण्यनिश्चयात्मक होता है तथा उन में अप्रामाण्यज्ञान नहीं रहता। इस प्रकार अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दितप्रामाण्य का निश्चय हो जाने पर भी उक्त 'इदं जले' इस ज्ञान में अनभ्यासदोषवश प्रामाण्य का संशय होता है। आशय यह है कि एक ही व्यक्ति को 'इदं जलम्' इस ज्ञान के समानविषयक ज्ञानों का पुनः पुनः उदय होकर जब इस प्रकार के शान में प्रामाण्य निश्चय हो जाता है तब उस के बाद पुनः जब इस प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है और उस में निश्चितप्रामाण्य वाले पूर्वज्ञान के समानविषयकत्वरूप साजात्य का निश्चय ही
य हो जाता है तो यह निश्चय दशा हो अभ्यास कहा जाता है; और इस स्थिति के पूर्व की स्थिति को अनभ्यास कहा जाता है। यह अनभ्यास ही ज्ञान में अप्रामाण्यसंशय का उत्पादक दोष होता है । इसीलिये जब भी 'इदं जलम्' इत्यादि रूप में कोई ज्ञान पहली बार उत्पन्न होता है तो उस के अनुच्यवसाय से उस ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय हो जाने पर भी अनभ्यासवश उस ज्ञान में प्रामाण्य का सशय होता है। प्रामाण्यसंशय में अप्रामाण्यज्ञानानारकन्दित प्रामाण्य निश्चय को प्रतिबन्धक न मानकर अनभ्यास दोषानास्कन्वितप्रामाण्यनिश्चय को प्रतिबन्धक मानना प्रावश्यक है।
(असम्भावना दोष रहने पर संदेह का सम्भव ) एवं यह भी देखा जाता है कि काशीस्थ व्यक्ति को जिसे मरिच में आवत्व बुद्धि के पोनः पुन्य से मरिच में आईता के प्रत्यक्ष में प्रामाण्यनिश्चय हो जाने से उस में अप्रामाण्यसंशय न उसे भी कभी विशेषकारण से 'मरिचमान न सम्भवति' इस प्रकार की बुद्धिरूप असम्भावना दोष के उपस्थित होने पर मरिच में आद्रता का अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित प्रत्यक्ष रहने पर भो मरिच में पात्रता का संदेह होता है । उस के अनुरोध से उस प्रत्यक्ष को भी अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित मातानिश्चयत्वरूप से आर्द्रत्व संशय का प्रतिबन्धक न मान कर असम्भावनादोषानास्कन्दितआर्द्रतानिश्चयत्वरूप से ही प्रतिबन्धकता मानना उचित है ।
तो इस प्रकार से असम्भावना दोष से आर्द्रमरिच के प्रत्यक्ष में काशीस्थ व्यक्ति को भी अप्रामाण्यसंशय होता है उसी प्रकार अधीतवेदान्तवाक्य से अद्वितीय ब्रह्म का बोध होने पर भी 'ब्रहा में अद्वितीयत्वादि सम्भव नहीं है। इस प्रकार भी बुद्धिरूप असम्भावना दोष से ब्रह्म में अद्वितीयस्वादि का संशय होना युक्तिसङ्गत है। इस प्रकार जिस मनुष्य को वेदान्तवाक्य से अद्वितीय ब्रह्म का