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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ८ श्लो० २
संशयाविरोधिनं कल्पन्ताम् वेदानां स्वार्थे निश्चितप्रमाजनकत्वात् । वस्तुतः परेषामप्रामाण्यज्ञानस्थलेऽस्माकं दोपविशेषस्य लाघत्रादुत्तेजकत्वम् । अत एव व्यवसायसामर्थ्यात् तद्वचस्य तत्प्रकारकत्वस्य चानुपस्थितस्यापि 'जलमहं जानामि इति ज्ञानेऽवश्यं भानात् प्रामाण्यनिश्चयेऽप्यनभ्यासादिदोषात् तत्संशयः । दृश्यते च काशीस्थस्याप्यार्द्रा मरिचप्रस्य क्षेऽसंभावनादोषात् तत्संशयः, तद्वदधीताद् वेदान्तवाक्यादब्रह्मवोधेप्यसंभावनादोषाद् युक्तः संशय इति । हृदयमापातज्ञानवानिह जन्मनि जन्मातरे वाऽनुष्ठितकर्मभिर्विशुद्धान्तःकरणो नित्यानित्यादिविवेकं लभते ।
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[ आपात यानी संशयाविरोध ]
पूर्व में कहा गया था कि वेदान्त के विधिवत् अध्ययन से वेदान्त वाक्यों का आपाततः प्रबोध होता है । उसमें अर्थबोध की प्रापातता संशय की प्रविरोधमा रूप है । इस प्रकार वेदान्त के अर्थबोध को श्रापाततः कहने का अर्थ यह हैं कि वेदान्त वाक्य से जो अर्थावगम होता है वह सामान्य विशेष सभी प्रकार के धर्मों से मुक्त ब्रह्म का अवधारण स्वरूप होने पर भी संशय का विरोधी नहीं होता । अर्थात् वेदरन्त से श्रवगत ब्रह्मस्वरूप के विषय में अन्यथा संशय सम्भव रहता है ।
श्रापात के सम्बन्ध में यह कहना कि 'आपात' का अर्थ है एक कोटिक अनिश्चय यह ठीक नहीं है क्योंकि अनिश्चय यानी निश्चयभिन्नज्ञान अनेक कोटिक हो सिद्ध है; और यदि आपात का उक्त अर्थ बताने के लिये यत्किचित एक कोटिक अनिश्चय की भी कल्पना की जाय तो वह भी उचित नहीं है। उसकी अपेक्षा संशयाविरोधी निश्चय को ही कल्पना उचित है क्योंकि वेद अपने अर्थ के निश्वयात्मक प्रमाण के ही अनक होते हैं, अनिश्चय के जनक नहीं होते । वेदान्त से उत्पन्न ब्रह्मस्वरूप का निश्चय दोषवश प्रप्रामाण्य ज्ञान से अस्कन्दित होने के कारण संशय का अविरोधी हो जाता है । क्योंकि अप्रामाण्यज्ञान से अनास्कन्दित निश्चय ही अपने में प्रकारविधया भासमान धर्म के विरोधी धर्म को ग्रहण करने वाली समानधर्मिक बुद्धि का प्रतिबन्धक होता है । जैसे 'घट: रूपवान्' यह निश्चय अप्रमाण्यज्ञानाभाव दशा में ही 'घटो न रूपवान्' अथवा 'घट: रूपवान् न वा' इस बुद्धि का विरोधी होता है ।
[ प्रमानिश्रय प्रतिबन्धकता में दोषविशेष की उत्तेजकता ]
किन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि न्यायादि मत में ही अप्रामाण्यज्ञान प्रतिबन्धकता में उत्तेजक होता है, वेदान्तमस में नहीं । वेदान्त मत में अप्रामाण्यज्ञान सर्वत्र प्रतिबन्धकता में उत्तेजक नहीं होता; क्योंकि प्रमात्मक निश्चय की प्रतिबन्धकता में श्रप्रामाण्यज्ञान के स्थान में लाघव से दोषविशेष ही उत्तेजक माना जाता है। जैसे 'पर्वतो वह्निमान्' यह निश्चय स्व में अप्रामाण्यभ्रम का जनक दोष रहने पर 'पर्वतो वह्नयभाववान्' इस बुद्धि का प्रतिबन्धक नहीं होता । अतः उक्त बुद्धि के प्रति उक्त दोषाभाव विशिष्ट वह्नि निश्चय प्रतिबन्धक होता है । इस प्रतिबन्धकता में विरोध्यबुद्धि के प्रति अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित विरोधी प्रमात्मकनिश्चय को प्रतिबन्धक मानने की अपेक्षा लाघव स्पष्ट है क्योंकि श्रप्रामाण्य सदभाववति तत्प्रकारकत्व, तद्वति तत्प्रकारकत्वाभाव, निरषत्व