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स्वा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन
यदि यह कहा जाय कि स्वरूपतः नित्यत्व नैमित्तिकस्वरूप है तो यह अध्ययनविधि में नहीं घट सकता क्योंकि अग्निहोत्रादि के समान अध्ययनविधि में निमित्त का श्रवण नहीं है । तथा फलत: नित्य होने से भी उक्त ऋणभूति आदि को उपपत्ति सम्भव होने से निमित्त की कल्पना भी नहीं की जा सकती । अध्ययन नैमित्तिक न होने से ही उसके कारण से प्रत्यवाय नहीं होता ।
अथवा अध्ययन के अकरण में भी प्रत्यवाय होता हो है क्योंकि 'विहितस्याऽननुष्ठानात्.' इस वचन में फलतः नित्य और नैमित्तिक दोनों का श्रावश्यकत्वरूप से अनुगम करके विहितपद से ग्रहण होता है । अर्थात् 'विहितस्या' का 'आवश्यकस्य श्रननुष्ठानात्' में तात्पर्य है । अतः पलतः नित्य अध्ययन के प्रावश्यक होने से उस का अनुष्ठान न करने पर प्रत्यचाय होता है ।
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अर्थाधफलकत्वं तु प्रकृतस्वाध्यायविधेग्युक्तम्, श्रवणादिविधेः साधनचतुष्टय संपनाधिकारवश्रवणात् अनन्तर दृष्टा हरहा कर्तव्य ब्रह्मयज्ञाद्यर्थावशप्तेरेव तत्फलत्वात् । ' स्वाध्यायोSध्येतव्यः' इत्यत्राध्ययन संस्कृतेन स्वाध्यायेनार्थावबोधं भावयेदित्यर्थात्, संस्कारवााप्तिः, इति श्रुतिपरित्यागाऽयोगात क्षत्रियस्य निषादेष्ट्यादिवाक्याध्ययनेऽर्थावबोधस्य निष्प्रयोजनखेनावासिफलत्वावश्यकत्वाच्चेति दिग् ।
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[ वेदाध्ययन का फल वेद प्राप्ति ]
इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि स्वाध्यायविधि को जो अर्थावबोधफलक बताया गया है वह प्रकृत में सङ्गत नहीं है, क्योंकि प्रकृत में स्वाध्यायविधि का अर्थ है वेदान्ताध्ययनविधि । उसे अर्थावबोधफलक कहना उचित नहीं है। क्योंकि वेदान्त का अध्ययन श्रवणादि में उपयोगी है और sarafafa का अधिकारी श्रुति के अनुसार साधनचतुष्टय से सम्पन्न पुरुष है । वेदान्त का अर्थावबोध श्रवणादि के अधिकार नियामकों में श्रुत नहीं है । अतः अनन्तरपूर्व में उक्त प्रतिदिन कर्तव्य ब्रह्मयज्ञादि रूप अर्थ की प्राप्ति हो बेदान्त का फल है। क्योंकि ब्रह्मयज्ञ में वेदान्त पठनीय होने से उस के अध्ययन बिना ब्रह्मयज्ञ की सम्पन्नता नहीं हो सकती । दूसरी बात यह है कि 'स्वा ध्यायोsध्येतव्य:' इस विधिवचन का 'अध्ययन संस्कृतस्वाध्याय वेद से प्रर्थावबोध प्राप्त करें यह अर्थ होता है । प्रध्ययन से वेद के संस्कार का अर्थ है - श्रध्ययन से वेद की प्राप्ति । अतः इस श्रुतिवचन से ज्ञात होने वाले वेदप्राप्तिरूप वेदाध्ययन के फल का परित्याग उचित नहीं है । एवं निषाद = एक विशेष जाति के शूद्र के लिये विहित इष्टि याग आदि से सम्बन्धित वेदवाक्यों के अध्ययन से, उन वाक्यों से अर्थबोध प्राप्त करना क्षत्रिय के लिये निष्प्रयोजन है। क्योंकि उस का याजन और अध्यापन एवं उस वेदभाग से वर्णित यज्ञादि में भी उसका अधिकार नहीं है । किन्तु अध्ययन विधि के अनुसार उस बेवभाग का भी अध्ययन क्षत्रिय के लिये अनुष्ठेय है | अतः वेद की अवाप्ति को ही अध्ययन का फल मानना आवश्यक है ।
आपातता च वेदान्तवाक्यार्थावगमस्य निःसामान्यविशेषत्र ह्मावधारणरूपस्यापि संशयाविरोधितैव । यश्वेक कोटिका निश्चयरूपतैवाऽऽपाततेति तन्न, अनिश्चयरूपस्यानेकको टिकत्वेन क्लृप्तत्वात् । 'अनिश्चयमपि किञ्चिदेककोटिकं कल्पयिष्याम' इति चेत् १ निश्चयमेव कश्चित्