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[ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो० २ ।
[प्रणश्रुति और शूद्रव स्मृति से वेदाध्ययन की फलतः नित्यता सिद्धि ]
इसके उत्तर में वेदान्ती विद्वानों का यह कहना है कि वेदाध्ययन काम्य होने पर भी उस को फलत: नित्यता में कोई विरोध नहीं है । आशय यह है कि नित्यविधि दो प्रकार की होती हैस्वरूपतः और फलतः । इन में पहली काम्य और नैमित्तिक विधि से भिन्न विधि है जिसके अफरण में प्रत्यवाय होता है। दूसरी वह जिसकी किसी अनुद्दिष्ट फल के लिये अनुमान द्वारा नित्यानुष्ठेयता सिद्ध हो। वेदाध्ययन की फलतः मित्यता ऋणश्रति और शद्रत्व 'स्मति से सिद्ध होती है। आशय यह है कि 'जायमानो वै.' इस ऋणधति में यह बताया गया है कि ब्राह्मण दम्पती से उत्पन्न होने वाला मनुष्य जन्मकाल से ही देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण इन तीन ऋणों से ग्रस्त होता है। इन से मुक्ति (१) देवप्रोति के लिये यज्ञानुष्ठान (२) पितृप्रोति के लिये पुत्रोत्पादन और (३) ऋषिप्रीति के लिये वेदाध्ययन करने से सम्पन्न होती है। इस से स्पष्ट है कि ब्राह्मण बालक पर जन्म से ही लदा हुआ ऋषिऋण यतः वेदाध्ययन से ही निवृत्त होता है अतः ब्राह्मण बालक के लिये वेदाध्ययन नित्यअनुष्ठेय है । एवं योऽनधीत्य०' इस स्मति से बताया गया है-जो द्विजवाह्मण वेदों का अध्ययन न कर अन्य कार्यों में श्रम करता है वह जीते ही सान्वय यानी-शसहित शीघ्र ही शूद्र हो जाता है। इस स्मृतिवचन से भी पूर्णतया स्पष्ट है कि यतः वेदाध्ययन के अभाव में ब्राह्मण शूद्र हो जाता है अतः शूद्रत्वप्राप्ति के परिहार के लिये वेदाध्ययन ब्राह्मण का नित्य अनुष्ठान कर्म है।
नन्वेवं स्वरूपत एव नित्यत्वमस्तु, तथा चाग्निहोत्रादिवत् काम्यत्वब्याघात इति चेत् ? किमिदं स्वरूपनित्यत्वम् ? यदि तावदवश्यकर्तव्यता, तदा तदुच्यत एव फलतः । अथाऽकरणे प्रत्यवायः, सोऽपीप्यत एव, अध्ययनाऽकरणे धर्मानवबोधेनोत्तरकर्माभावात् । अथ नैमित्तिकत्यम् ? तदयुक्तम् , अग्निहोत्रादिवद् निमित्ताऽश्रवणात् , फलतो नित्यत्वेन ऋणश्रुत्यायुपपत्ती निमित्तकल्पनानवकाशात् । अत एवाध्ययनाऽकरणनिपित्तको न प्रत्यवायः ।।
अथवा, तदकरणेऽपि प्रत्यवाय एव, 'विहितस्थाननुष्ठानात्' इत्यत्रावश्यकत्वेनानुगतीकृतयोः फलतो नित्य-नैमित्तिकयोर्विहितपदेनोपादानात् ।
[ स्वरूपनित्यत्व किस को कहते हैं ! ] उक्त प्रतिपादन के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि ''वेदाध्ययन को फलतः नित्य न मानकर स्वरूप से ही नित्य क्यों न मान लिया जाय, जिस से अग्निहोत्रादि के समान उसमें काम्यत्व का प्रभाव हो?" इस प्रश्न के संदर्भ में स्वरूपनित्यत्व के विषय में जिज्ञासा होती है कि वेदाध्ययन में जिस स्वरूपनित्यत्व के प्रभ्युपगम का प्रश्न प्रस्तुत है वह क्या है ? यदि अवश्यकतन्यतारूप हो तो वह फलतः नित्यता पक्ष में भी मान्य ही है । 'न करने में प्रत्यवाय' रूप हो अर्थात् जिसको न करने से पाप लगे वह स्वरूपतः नित्यविधि होती है यदि यह स्वरूपतः नित्यता का अर्थ हो तो वह भी फलतः नित्यता पक्ष में इष्ट हो है। क्योंकि वेव-अध्ययन न करने पर धर्म का प्रवबोध न होने से उत्तर कर्म का अनुष्ठान न होगा। अतः उत्तर फर्म के परित्यार से प्रत्यवाय-पापसंबन्ध होना अनिवार्य है ।