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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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[ अध्ययनविधि नित्य न होने की आशंका ] स्वाध्याय के अध्ययनविधि के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि वह विधि नित्य कसे हो सकती है ? जब कि स्वाध्याय-वेद का अध्ययन अर्थबोध-फलक होता है। क्योंकि वहो विधि नित्य होती है जिस का सन्ध्यावन्दमादि के समान कोई पल नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि-वेदाथबोध भी वेदाध्ययन का फल नहीं है क्योंकि-वेदान्त का अध्ययन तण्डल के प्रवधातादि के समान अपने अनन्तर होने वाले यज्ञ का अङ्ग है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेदाध्ययन में यज्ञ को अङ्गता की बोधक कोई धुति आदि प्रमाण है नहीं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-वेवाध्ययन बेद से विहित है अत एव उस का कोई न कोई फल अवश्य कल्पनीय हैं, अतः जैसे 'विश्वजिता यजेत' विश्वजित् याग को इस विधि के कारण उस याग का 'स्वर्ग' फल माना जाता है उसी प्रकार वेदाध्ययन का भी स्वर्ग फल माना जा सकता है। क्योंकि अध्ययन विधि से अथवा उस के किसी शेष वाक्य से स्वर्ग को उपस्थिति नहीं होती। अतः स्वर्ग की उपस्थिति और उममें वेदाध्ययन रूप प्रकृत कर्म के फलत्य की कल्पना में गौरव है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'यद् वचोऽधीते, इत्यादि शास्त्रवचन से पितरों के श्राद्ध के समय थेदपाठ का विधान है अतः उसके अर्थवाद वाक्यों में पितरों क सम्बन्धी पयःकुल्या 'दुग्ध की नहर' आदि का उसके फस्ट रूप में जो वर्णन है उस के आधार पर उस घेदपाठ का उक्त फल माना जाता है वही वेदाध्ययन सामान्य का फल है।"-क्योंकि उक्त फल का बोधफ धायय ब्रह्मयज्ञ का अर्थवाद है । प्रत एव उस अर्थवाद में वर्णित फल ब्रह्मयज्ञ का ही फल हो सकता है, वेदाध्ययन का नहीं हो सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'पुण्य हो वेदाध्ययन का फल है, क्योंकि जब उसका अर्थबोधरूप फल सम्भव है, तो दृष्ट फल सम्भव होने पर अदृष्ट फल को कल्पना असङ्गत है:-इस न्याय से अर्थबोध को ही वेदाध्ययन का फल मानना उचित है। यदि यह कहा जाय-यदि अर्थबोध ही वेदाध्ययन का फल हो तो उसका विधान व्यर्थ है क्योंकि विधान के विना भी वेवाध्ययन करके वेदार्थबोधरूप फल प्राप्त किया जा सकता है । तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्तविधि नियमविधि है जिसका आशय यह है कि वेदाध्ययन से ही वेदार्थबोध प्राप्त करना चा इस नियम विधान की प्रावश्यकता इसलिए होती है जिससे अर्थबोध के अन्य साधन-उपदेष्टा के उपदेश धवण आदि से बेद अध्ययन पाक्षिक न हो जाय अर्थात वेवार्थ जिज्ञासु वेद का अध्ययन न कर उपदेष्टादि के द्वारा प्रकारान्तर से वेदार्थबोध को प्राप्त करने में प्रवत्त न हो। प्रश्नकर्ता के कथन का निष्कर्ष यह है कि वेदाध्ययन यतः अर्थबोधफलक है अतः वेदार्थ जिज्ञासु के लिये काम्य होने से नित्यविधि रूप नहीं हो सकता; क्योंकि नित्यविधि काम्य नहीं हो सकती।
अत्र वदन्ति-काम्यत्वेऽपि फलतो नित्यत्वमविरुद्धम् । अत एव 'जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिऋणवान् भवति-१. यज्ञेन देवेभ्यः, २. प्रजया पितृभ्यः, ३. ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यः' इति ऋणश्रुतिः ।
"योऽनधीत्य द्विजो वेदानन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीवन्नेव शुद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥१॥" इति स्मृतिश्च ।