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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो० ३
अध्यस्त होने से व्यावहारिक और प्रामाणिक है और जो ब्रह्म में अध्यस्त प्रामाणिक पदार्थ होता है वह अविद्यावृत्ति का विषय नहीं होता।" किन्तु इस शंका से भी कोई क्षति नहीं है क्योंकि श्राकाश का प्रत्यक्षज्ञान सम्भव न होने पर भी अनुमितिरूप ज्ञान हो सकता है। और इस प्रकार भ्रम से पूर्व आकाशरूप अधिष्ठान के परोक्ष होने पर भी भ्रम दशा में उसकी अपरोक्षता हो सकती है। क्योंकि जो अधिष्ठान भ्रम के पूर्व अपरोक्ष होता है उसी अधिष्ठान में अपरोक्षश्रम होता है - यह नियम नहीं है । अतः frfaara सिद्ध है कि मनुष्य केशादि से असंकीर्ण भी आकाश को अविद्यावृत्ति द्वारा केशादि से संकीर्ण जैसा प्रत्यक्ष देखता है ।
तीसरी कारिका में उक्त दृष्टान्त की दान्तिक यानी दृष्टान्त द्वारा संवेध ब्रह्म में योजना बतायी गयी है ।
दान्तिक योजनामाह
मूल - तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया ।
कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते || ३ ||
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तथेदं = सातादपरोक्षम्, अमलं = सजातीयमेदरहितम्, निर्विकल्पं विजातीयमेदविकल्पविकलम् ब्रह्म अविद्यया हेतुभूतया कलुपत्त्रमित्रापन्न = सजातीय भागिव, , भेदरूपं = विजातीय भेदभाव प्रकाशते । अविद्यानिवृत्तौ च शुद्धब्रह्मप्रतिपत्तिः । तथाहि - कश्चित् खलु नित्याध्ययनविधिना सम्यगधीतवेदान्तो वेदान्तवाक्यानामापाततोऽर्थमवगच्छति ।
[ अविद्या से ब्रह्म में भेद प्रतीति ]
[ जिस प्रकार केशादि से प्रसंकीर्ण आकाश अविद्यावृत्ति से केशादि से संकीर्ण दोखता है ] उसी प्रकार श्रमल = सजातीय भेद से शून्य, निर्धकल्प = विजातीयभेद से शून्य ऐसे ब्रह्म में सजातीयभेद और विजातीय भेदरूप कलुषत्व को प्राप्त जैसा प्रतीत होता है, तथा अविद्या की निवृति होने पर शुद्ध ब्रह्म का बोध होता है । जैसे कोई मनुष्य- जिसने 'स्वध्यायोऽध्येतव्यः - वेदाध्ययन करना चाहिये। इस नित्य विधि के अनुसार वेदान्त का सम्यक् अध्ययन किया है वह आपाततः वेदान्त वाक्यों का अर्थबोध प्राप्त करता है ।
ननु कथमध्ययनविधेर्नित्यत्वम्, स्वाध्यायाध्ययनस्यार्थबोधफलकत्वात् ? न ह्यध्ययनयावघातादिवदुत्तरत्वङ्गत्वम् श्रुत्याद्यसच्चात् । तदवश्यं फले कल्पनीये न विश्वजिद्वत् स्वर्गः फलम् , स्वर्गोपस्थितेस्तस्य प्रकृतकर्मफलतायाश्च फल्पनायां गौरवात् । न चार्थवादिक पितॄणां पयःकुल्याप्राप्त्यादि 'यद् वचोऽधीते' इत्याद्युक्तं तत्फलम् तस्य ब्रह्मयज्ञार्थवादत्वात्, दृष्टे संभवत्यष्टकल्पनानुपपत्तेश्वार्थावबोधस्यैव फलत्वात् । न च विधिर्वैयथ्यम्, नियमविधिस्वादुपदेष्ट्रादीनां साधनत्वेनाध्ययनस्य पक्षप्राप्तेः । तस्मात् काम्यत्वाद् न नित्यत्वमध्ययनस्येति चेत् ?