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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
आशय यह है कि जिन कर्मों का शास्त्र में एकाधिक फल बताया गया है उन के सम्बन्ध में मीमांसा दर्शन में 'एकस्य तभयत्वे संयोगपथवत्वमएस सत्र से यह व्यवस्था की गई है कि एककम शास्त्र में पांदे उभय से सम्बद्ध असाये गये हो, तो दोनों फलों के साथ उस कर्म का पृथक पृथक्क सम्बन्ध होता है । अर्थात शास्त्रोक्तफलों में जिस फल की कामना से जब वह कर्म अनुष्ठित होता है तब वह उस फल का साधक होता है। उस व्यवस्था के आधार पर प्रकृत में काम्य कमों के सम्बन्ध म भी यह मानता उचित है कि जो कर्म अन्य फल के साधनरूप में विहित हैं वे उस फल की कामना से अनुष्ठित होने पर उस फल के साधक होते हैं और विविदिषा अथवा ज्ञान की कामना से अनुष्ठित होने पर विचिदिषा किंवा ज्ञान के साधक होते हैं । अन्तःकरणशुद्धि यह विविदिषा और ज्ञान के उदय में वेदविहितकर्मों का द्वार है ।
न च प्रकरणान्तरे प्रयोजनान्यत्वमिति न्यायाद् यत्र प्रकरणान्तरपनुपादेयगुणश्च, तत्र 'मासमग्निहोत्रं जुहोति', 'आग्नेयं निर्व पेव ऋद्धिकाम' इत्यादाविव कर्मान्तरत्वनियमादत्रापि तत्प्राप्तिरिति वाच्यम, यज्ञादिसंबद्धविधेरत्राऽश्रवणात , प्रसिद्धानामाख्यातासमानाधिकरण व्यवहितपरामर्शसमर्थसुबन्तपरामृष्टानां कर्मणां फलसंवन्धमात्र विधानोपपत्तावपूर्वविध्यकल्पनात् । अत एव 'सर्वेभ्यो दर्श-पूर्णमासी' इत्यादौ सर्वसंबन्धमापरत्वाद् न कर्मान्तरत्वम् । उक्त च "सर्वकामार्थता तस्मादप्राप्तेह विधीयते" इति ।
[अन्तःकरणशुद्धिफलक यज्ञादि काम्यकर्म यज्ञादि से भिन्न हैं ? ] फलान्तर के उद्देश से विहित कर्मों को अन्तःकरणशुद्धिफलक मानने पर यदि यह कहा जाय कि-'तमेतं वेदानुवचनेन ' इस श्रुति में जिस यज्ञादि को चर्चा है उस को अन्य फल के उद्देश से विहित यागादि से भिन्न कर्म मानना उचित है। क्योंकि मीमांसा का यह न्याय है कि 'प्रकरणान्तरे प्रयोजनान्यत्वम्' अर्थात्-अन्य प्रकरण में कर्म का प्रयोजन मेद उस कर्म के कर्मान्तरत्व से होता है । इस के अनुसार, जो कर्म पूर्व प्रकरण में विहित कर्म के नाम से अन्य प्रकरण में भी विहित होता है और उस में पूर्व प्रकरण में उक्त कर्मगुण का उपादान नहीं होता वह कर्म पूर्व प्रकरण के कम से भिन्न कर्म होता है। जैसे 'मासमग्निहोत्रं जुहोति' = 'मास पर्यन्त अग्निहोत्र हवन करे।' एवं 'आग्नेयं निर्वपेत् ऋद्धिकामः'='ऋद्धि सम्पत्ति का इच्छुक व्यक्ति आग्नेय याग का निर्वाप-अनुष्ठन करे' इन प्रकरणान्तरगत वाक्यों से विहित अग्निहोत्र एवं आग्नेयादि 'यावज्जीवमग्निहोत्रं जुयात्' इत्यादि अन्यप्रकरणगत वाक्यों में विहित अग्निहोत्रादि से भिन्न कम होते हैं तो जैसे वहां प्रकरणान्तर और अप्रतिपादित गुणत्व के कारण कर्मभेद होता है उसी प्रकार 'तमेतं वेदानुवचनेन' इत्यादि प्रकरणान्तर के वचन से चचित यज्ञादि का भी कर्म प्रकरण में विहित अग्निहोत्रादि से भेव आवश्यक है अतः उस वचन से अन्य फल के उद्देश से विहित कर्मों में अन्तःकरणशुद्धिफलकत्व का अभ्युपगम युक्तिसङ्गत नहीं है।'
[कर्मान्तरत्व की कल्पना अस्वीकार्य ] तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'तमेतं.' इत्यादि वाक्य में यज्ञादि से सम्बद्ध विधि का श्रवण नहीं होता। अत: प्रख्यात का असमानाधिकरण-तिप्रत्ययार्थ से अन्वितार्थ का अबोधक और व्यवहित