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स्था क० टीका एवं हिन्धी विवेचन ]
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किच, तत्र सत्त्वसंसर्गोत्पत्तिस्त्रीकारेऽपि सत्त्वांशेऽन्यथाख्यातिभिया सच्चान्तरोत्पत्तिरेव युक्ताऽभ्युपगन्तुम् । तथा च स्वयमसती तत्रोत्पद्यमाना सत्चा स्वसंबन्धोत्पत्तिमपेक्षते, सोऽपि स्वसंवन्धान्तरोत्पत्तिमित्यनवस्था । सत्स्वभावस्य च तस्य सत्यरजतवदुत्पत्तौ किनिबैचनीयत्वम् ? ! 'स्वानुपादाने समुत्पन्नत्वात तत्त्व' चेत् ? अहो ! व्याहताभिधायी देवानांप्रिया, यद् भावकार्य स्वानुपादानोत्पन्नमङ्गीकुरुये । 'अत्र प्रसिद्धोपादानत्यागादयं विशेष'श्चेत् ? उपादानत्याविशेषे का प्रसिद्धयप्रसिद्धिकृतो विशेषः ।
दूसरी बात यह है कि सत्त्वसंसर्ग की उत्पत्ति स्वीकार करने पर भी सत्त्वांश में अन्यथाख्याति का भय होगा। प्रत: रज्ज-सर्प में प्रत्य सत्व को उत्पत्ति ही मानना उचित होग सत्ता यदि रज्जुसर्प में स्वयं असत रहते हये उत्पन्न होगी तो उसके सम्बन्ध की भी उत्पत्ति माननी पड़ेगी और वह सम्बन्ध भी यदि उसमें असत् होते हुये ही उत्पन्न होगा तो उसके भी सम्बन्धान्तर को उत्पत्ति माननी पडेगी । याद उस स्थल में भी सरस्वभाव सर्प को ही उत्पत्ति मानी जायगी तो उसकी अनिर्वचनीयता क्या होगी? यदि यह कहा जाय कि-'अपने अनुपादान में उत्पन्न होने से उसकी अनिर्वचनीयता होती हैं तो यह व्याहतवचन वक्ता को देवानाप्रियता-यानी अज्ञता का सूचक होगा। क्योंकि इस कथन से अपने अनुपादान में भाषकार्य को उत्पत्ति का अंगीकार सिद्ध होता है जो सिद्धान्तविरुद्ध है। यदि यह कहा जाय कि-'रज्जुसादि की उत्पत्ति सर्वथा सर्पोपादान के अभाव में नहीं है किन्तु सर्प के प्रसिद्ध उपादान के अभाव में है, इसीलिये उसे अनुपादान में उत्पत्ति कहा जाता है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि रज्ज-सर्पस्थल में और अण्डजसपस्थल के उपादानत्व कोई विशेष नहीं है तब मात्र प्रसिद्धि-अप्रसिद्धिकृत क्या विशेष हो सकता है ?
किञ्च, एवं दण्ड-घटादौ दान-स्वर्गादौ च लोक-शास्त्रप्रसिद्धः कार्यकारणभावो भज्यते, भज्येत च कार्यात् कारणानुमानम , कारणाच्च कार्यानुमानादिकम् , अनिर्वचनीये व्यभिचारात् । विलक्षणदण्डत्वघटत्व-दानवस्वर्गवादिना कार्यकारणभावे चातिगौरवम् , वेदादौ दान स्वर्गादिपदानां सामान्यतो दानत्व-स्वर्गवाद्यवच्छिन्नोपस्थापकानां विलक्षणदानस्वस्वर्गवाद्यपस्थितये लक्षणापत्तिः, नानार्थत्वे च दानादिपदानां प्रतिपदं तात्पर्यग्रहाय प्रकरणाद्यपेक्षापत्तिः ।
तीसरी बात यह है कि यदि अनिर्वचनीय पदार्थ की उत्पत्ति मानी जायगी तो वण्ड और घटादि में लोकप्रसिद्ध एवं दान और स्वर्गादि में शास्त्रप्रसिद्ध कार्य-कारणभाव का भङ्ग हो जायगा जिसके फलस्वरूप घटादि कार्य से दण्डादिकारण के अनुमान का और चरम कारण से कार्यानुमान आदि का भङ्ग हो जायगा क्योंकि अनिर्वचनीय में व्यभिचार है-जैसे, अनिर्वचनीय घटावि दण्डादि के विना भी उत्पन्न होता है । अतः घटादिकार्य में दण्डादिरूप कारण का स्थाप्तिग्रह नहीं हो सकता। और इसीलिये दण्डादि में घटकारणता का निश्चय न होने से किसी में घटादि को चरमकारणता का निश्चय न होने से किसी कारण में कार्य का व्याप्तिग्रह न हो सकेगा। अतः चरम कारण से कार्यानुमान का भी भङ्ग हो जायगा। यदि उक्त दोषों के वारणार्थ सामान्य रूप से घट और दण्ड,