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शास्त्रवार्त्ता० स्त०८ श्लो०७
तथा स्वर्ग एवं दानादि में कार्यकारणभाव न मान कर विलक्षणघटत्य और विलक्षणदण्डत्वरूप एवं विलक्षणस्वर्गत्व और विलक्षणदानश्व रूप से कार्यकारणभाव माना जायगा तो अत्यन्त गौरव होगा क्योंकि दण्डादिसाध्य घटादि में दण्डादिसाध्यतावच्छेदक जाति की कल्पना कर के भिन्न-भिन कार्यकारणभाव की कल्पना करनी होगी । तथा वेदादि मे दत्व-स्वर्गत्यादि सामान्यधर्मावच्छिन के उपस्थापक दानस्वर्गादि पद से बिलक्षणदानत्वावच्छिन्न और विलक्षणस्वर्गत्वावच्छिन की उपस्थिति के लिये उन पदों की तत्तद्धर्मावच्छिन में लक्षण करनी पड़ेगी और दानादि पद अनेकार्थक हो जाने से प्रत्येक पद को अर्थविशेष में तात्पर्यज्ञान के लिये प्रकरणादि के अपेक्षा की आपत्ति होगी ।
किच, एवं चाधेऽपि व्यवहारापत्तिः, अनिर्वाच्यरजताभावज्ञानेऽपि रजतसामान्या भेदअमाऽनिवृत्तेः, रजतविशेषस्य ' इदं रजतम्' इति भ्रमविषयत्वे तद्रजतभ्रमेऽपि 'इदं रजतम् ' इत्युल्लेखापतेः । किञ्च, एवमिदंच्या चैत्राऽपरोक्षे इदम्शे उत्पन्नं रजतं तथा तत्र मैत्राऽपरीक्षे मैत्रस्याप्यपरोक्षं स्यात् । 'मैत्र- चैतन्या मेदेनानुत्पन्नखाद् नायं दोष' इति तु रिक्तं वचः, इदंवृत्त्या स्वाभिन्ने इदमंशचैतन्येऽध्यस्तत्वेन तस्य तदभिनत्वात् । 'अविद्यावृच्या तदभेदोऽपेक्षित' इति चेत् १ तादृशतदभेदस्याविद्यावृत्तिनियम्यत्व आत्माश्रयः । इदमंशावच्छेदेन चैत्रीय रजत इदमंशावच्छेदेन चैत्रीयाऽज्ञानहेतुत्वकल्पने चातिगौरवात्, सामान्यत एवेदं विशेष्यकरजतत्वप्रकारकभ्रम इदं विशेष्यक शुक्तिवत्रकारकज्ञानाभावस्य हेतुलौचित्यात् ।
इस प्रकार, 'नेदं रजतम्' इत्यादि रूप से शुक्तिरजतादि का बाध ज्ञान हो जाने पर भी 'इदं रजतम्' इस व्यवहार की आपत्ति होगी । क्योंकि बाध से अनिर्वचनीय रजत के अभाव का ज्ञान हो जाने पर भी रजतसामान्य के अभेद भ्रम को निवृत्ति नहीं होगी। एवं रजत विशेष को यानी अनिर्वचनीय रजत को 'इदं रजतम्' इस रअतसामान्यलेखी भ्रम का विषय मानने पर तरजतविषयक भ्रम में भी भ्रमविषयोभूत तद्जत का 'इदं तद् रजतम्' के समान ' इदं रजतम्' इस प्रकार उल्लेख की आपत्ति होगी ।
इसी प्रकार इदमाकार वृत्ति से चैत्र को जिस इदमंश का अपरोक्षज्ञान होने पर जो रजत उत्पन्न होता है, इदमाकार वृत्ति से मंत्र को उस इदमंश का अपरोक्षज्ञान होने पर मंत्र को भी उस रजत के अपरोक्षता की आपत्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि उस रजत की उत्पत्ति चैत्र चैतन्याभेदेन हुई है - मैत्रतन्याभेदेन नहीं हुई है, अतएव यह दोष नहीं हो सकता, क्योंकि अपरोक्ष चेतन्य et ध्यासिक अभेद ही विषय की अपरोक्षता होती है तो यह कथन युक्तिशून्य है । क्योंकि उक्तरजत मंत्र की इदमाकारवृत्ति द्वारा मंत्र चैतन्य से प्रभिन्न इदशचैतन्य में प्रध्यस्त होने से वह
चैतन्य से भिन्न हो जाता है । इस दोष के निवारणार्थ यदि यह कहा जाय कि अविद्या वृत्ति द्वारा तत्तच्चैतन्याभेद प्रातिभासिक पदार्थ की तसत्पुरुषीय अपरोक्षता के लिये अपेक्षित है। अतः उक्त स्थल में मंत्र को अधिष्ठान का साक्षात्कार रहने के कारण रजताकार अविद्यावृत्ति नहीं होती । अतः चंत्रीय प्रज्ञान से उत्पन्न प्रातिभासिक रजत में भी अविद्यावृत्ति द्वारा मंत्रचतन्याभेद न होने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती ।' -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रतिभासिक रजतादि में अविद्यावृत्ति द्वारा प्रमातृ चैतन्याभेव को श्रविद्यावृत्ति से नियम्य मानने पर आत्माश्रय होगा। क्योंकि
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