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स्था० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
अधिष्ठानतन्य और प्रमातृचतन्य का अभेद होने पर विशेषधर्मप्रकारक अधिष्ठान गोचर अज्ञान को वृत्ति होती है । किन्तु यदि उस अमेव को अविद्यावृत्तिनियम्य माना जायगा तो अविद्यावृत्ति में अविद्यावृत्ति को ही अपेक्षा हो जायगी।
यदि चैत्र-मंत्र उभय से दृश्यमान इदमंश में चैत्रीय अज्ञान से उत्पन्न रजत में मंत्र की अपरोक्षतापत्ति का परिहार करने के लिये यह कल्पना की आय कि इदमंशावच्छेदेन घेत्रीयाज्ञानीस्पन्न रजत के अपरोक्षज्ञान में इदमंशावच्छेवेन अधिष्ठानविषयक चत्रीय अज्ञान कारण है। अतएव उक्तापति नहीं हो सकती क्योंकि मैत्र को इदर्मशावच्छेवेन अधिष्ठानविषयक अज्ञान नहीं है ।"-तो इस कल्पना में अत्यन्त गौरव है क्योंकि पुरुष भेद से कार्यकारणभाव में भेद होता है। अतः सामान्यरूप से इदंविशेष्यक रजतत्वप्रकारक भ्रम के प्रति इदं विशेष्यक शुक्तित्वप्रकारक जानाभाव को कारण मानना ही उचित है। क्योंकि इस कार्यकारणभाव को स्वीकार करने पर क्षेत्र को 'इव रजतम्' इस भ्रमदशा में मैत्र को 'इवं रजतम' इस भ्रम की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उसे इदंविशेष्यक शुक्तित्वप्रकारक ज्ञान ही है, इसका प्रभाव नहीं है।
एवं भ्रमानुषितावपि पर्वते वह स्तसंसर्गस्य धोत्पत्तौ शुक्तौ रजतवत् तत्र तदपरीक्षवागतः । 'दृश्यमानप्रदेशावच्छेदेन वह्वयनुत्पत्तेर्न दोष' इति चेत् ? न, शुक्तिवानवच्छेदेनेदंत्वावच्छेदेन च शुक्नौ रजतोत्पादात् 'शुक्ति रजतं साक्षात्करोमि' इत्यप्रत्ययेऽपि शुक्तित्वपरित्यागेन 'इदं रजतं सादात्करोमि' इति प्रत्ययवदृश्यमानदेशावच्छेदपरित्यागेन प्रकते पर्वतवावछेदमादाय 'पर्वते बल्डिं साक्षात्करोमि' इति प्रसनात् ।-'यतत्त्रविषयिणी वृत्तिरिदत्वविषयिण्यपि, इदंत्वं च दृश्यमानप्रदेशावच्छिन्नत्वम् , तथा चैं पर्वतत्वं वहन्युत्पत्ति कथमच्छिन्द्यात् ?' इति चेत् । नन्वेवं 'अयं पर्वतो वद्धिमान्' इत्युल्लेखादेतद्देश एव बहन्युत्पत्तिर्वाच्येत्यतिसंकटम् । एतेन "पर्वतत्वेन ज्ञानादधिष्ठानज्ञानसिद्धिः, पक्षतापि पर्वतत्वेन" इति निरस्तम्, 'अयं पर्वतो वसिमान्' इति स्फुटमनुभवात् ।
[भ्रमानुमिति में यहि-अपरोक्षता आपत्ति ] भ्रम स्थल में अनिर्वचनीय विषय और विषय के संसर्ग की उत्पत्ति मानने पर जैसे शक्ति में रजतभ्रम स्थल में शुक्ति में अनिर्वचनीय रजत और उसके संसर्ग की उत्पत्ति होने से रजत अपरोक्ष होता है उसीप्रकार पर्वतत्वावच्छेदेन अह्निसाध्यक भ्रमात्मक अनुमिति स्थल में भी वह्निशून्य पर्वत में बह्नि और वह्निसंसर्ग की उत्पत्ति होने से उस स्थल में भी वह्नि में अपरोक्षस्व की आपत्ति हो जायगी। यदि यह कहा जाय कि-'अनुमिति स्थल में दृश्यप्रदेशावच्छेदेन वह्नि को उत्पत्ति न होने से यह दोष नहीं हो सकता-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसे शुक्तिस्वानवच्छेवेन और इदंत्वावच्छेदेन शुक्ति में रजत की उत्पत्ति होने से 'शुक्ति रजतं साक्षात्करोमि' अर्थात् 'शुक्ति रजत को देखता हूं इस प्रकार को प्रतीति न होने पर भी शुक्तित्व का परित्याग कर 'इदं रजतं साक्षात्करोमि'-'इस रजत को देखता हूँ इस प्रकार की प्रतीति होती है। उसी प्रकार उक्तभ्रमात्मक अनुमिति स्थल में अदृश्यमान देशरूप अवच्छेदक को छोड कर और पर्वतत्वावच्छेदक को