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[ शास्त्रवाता० स्त० ८ श्लो. १
नोपनी
शुक्ति-रजत में 'इदं रजतं सत्' प्रतीति होती है, उस में रजतांश में शुक्तिसत्ता का ही भान होता है क्योंकि वह रजत प्रातिभासिक होने से उस की का भान मानने पर अन्यथाख्याति का अनिष्ट प्रसंग होने का संभव भी नहीं है क्योंकि उस का संसर्ग अनिर्वचनीय है और कोई भी ज्ञान अन्यथाख्याति सब होता है जब उस में भासित होनेवाला धर्म और उस का संसर्ग दोनों अनिर्वचनीय नहीं होते।
[ अनिर्वचनीय रजतसंसर्ग की उत्पत्ति पर आक्षेप समाधान ] यदि यह कहा जाय कि-"जैसे ह्रवादि में अग्नि को भ्रमानुमितिस्थल में हृदादि में पाकशाला प्रसिद्ध अग्नि के अनिवंचनीय सम्बन्ध मात्र को उत्पत्ति मानने से उक्त भ्रमात्मक अनुमिति अन्यथाल्यातिरूप न होकर अनिर्वचनीयख्यातिरूप होती है उसी प्रकार 'इदं रजतम' इस अपरोक्षश्रमस्थल में पुरोत्तिशुक्ति के साथ प्रापणादि देशान्तर में प्रसिद्ध रजत के (अनिर्वचनीय) संसर्गमात्र की उत्पत्ति मानने से ही उक्तभ्रम में अन्ययाख्यातिरूपता का निराकरण होकर अनिर्वचनीयस्यातिरूपता सिद्ध हो सकती है । अतः शुक्तिदेश में आपणस्थ रजत के अनिर्वचनीय संसर्गोत्पत्ति न मानकर अनिर्वचनीयरजत को उत्पत्ति मानने का कोई प्रयोजन नहीं है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शुक्तिदेश में रजत को उत्पति न मानने पर अनुमोयमान अग्नि के समान रजत भी परोक्ष हो जायगा शुषित-रजतस्थल में शुक्ति और सत्ता को अपरोक्षता इदमंश के समान प्रमाणजन्यवृत्ति से ही होती है।
अन्ये तु, तत्रापि वह युशे शुक्तिसम्भाशे चान्यथाख्यातिर्मा भूदिति बद्ध युत्पत्ति रजते सत्तान्तरोत्पति चाऽचक्षते । तदुक्तम्-"अथवा त्रिविधं सत्यम्" इति ।
[ हद में अनिर्वचनीय अग्नि की उत्पत्ति का प्रतिपादक मतान्तर ] अन्य विद्वानों का यह कहना है कि-हवावि में वह्नि की भ्रमात्मकानुमिति वह्नि अंश में और 'इदं रजतं सत्' यह भ्रमात्मक प्रतीति शुक्ति-सत्ता अंश में अन्यथास्याति न हो इसलिये ह्रदावि में प्रनिर्वचनीय वह्नि को और रजत में अनिर्वचनीय सत्ता की उत्पत्ति होती है । इस कथन के समर्थन में अभियुक्त बेदान्ती के 'प्रथवा त्रिविधं सत्त्वम्' इस चिरन्तन बंधन का उद्धरण देते हैं। जिस का आशय यह है कि सत्ता तीन प्रकार की होती है । १. पारमार्थिक २. व्यायहारिक ३, प्रातिभासिक । पारमाथिक सत्ता केवल ब्रह्म की है । व्यावहारिक सता अज्ञान और प्रज्ञान से ब्रह्म में अध्यस्त होने वाले आकाशादि पदार्थों की होती है। प्रातिभासिक सत्ता भ्रमविषयीभूत शुक्ति-रजतादि की होती
शक्तिरजत में होने वाली सतप्रतीति शक्ति रजत की हो प्रातिभासिक सत्ताको विषय करती है।
नन्वेवं सुखादिवदपरोक्षत्वे रजताफारा तिर्न स्यात्, तत्र हीदमंशावच्छिमग्रमचैतन्याभिन्ने प्रमातचैतन्ये 'रजतम्' इति तत्प्रमातृचैतन्यमिदमाकावृत्तिप्रतिफलिततयेदमंशे प्रमाणमपि, तत्रैव विषयेऽभिव्यस्ततया फलपति जताशे शुद्धसादिरूपं, न तु प्रमाणं वा फलं वा प्रमाता वा, तदाकारप्रमाणवृत्त्यमावादेव, इति रक्तवृत्तः क्वोपयोगः? इति चेत् ?