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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
[अनुमिति में अग्नि की परोक्षता का उपपादन ] धूमादि वर्शन से पर्वत में अनुमीयमान वह्नि आदि परोक्ष ही होता है क्योंकि लिंगजन्य अनुमिति रूप अन्तःकरणवृत्ति शरीर के भीतर ही होती है। उस का बहिर्देश में गमन नहीं होता। उस से प्रमातृचैतन्यगत अप्रत्यक्ष वाह्न आदि के असस्थापावक अज्ञानमात्र की ही निवृत्ति होती है, प्रमातृचैतन्य और विषयचैतन्य में अभेदाभिव्यक्ति नहीं होती।
__ शुक्त्यवसिछन्न चैतन्य के प्रज्ञान से जो शुक्ति-रजत प्रादि उत्पन्न होता है और अनिर्वचनीय होता है यह प्रमातचेतन्याभिन्न इदमवच्छिन्न चैतन्य में अध्यस्त होने से प्रमातचैतन्य में भी अध्यस्त हो जाता है । अत एव प्रमातृचैतन्य में अध्यस्त सुखादि के समान साक्षी द्वारा अपरोक्ष होता है ।
[ भ्रमस्थल में 'इदं' अंश की अपरोक्षता ] प्राशय यह है कि इचमंश की अपरोक्षता के लिये इदमाकार वृत्ति का इवं देश में गमन होता है। तब वृत्त्यात्मना प्रमातृचंतन्य का भी गमन होता है। प्रतः प्रमातृचतन्य और इदमवच्छिनचैतन्य को प्रवच्छेदक उपाधियों एकवेशस्थ हो जाने से दोनों चैतन्य में अभेद हो जाता है। जिसके कारण इदमवच्छिन्नचेतन्य में अध्यस्त इवमा अपरोक्षमूत प्रमातृचैतन्य में अध्यस्त होने के कारण घटादि के समान अपरोक्ष होता है । फलतः, जब इवमपिछलचैतन्य प्रमातृचैतन्य से भिन्न हो जाता है तो इदमच्छिन्नचैतन्य में अध्यस्त शुक्तिरजत भी प्रमातृचैतन्य में अध्यस्त हो जाता है । अतः जिस प्रकार प्रमातृचतन्य में अध्यस्त सुखादि का जीपसाक्षी से साक्षात सम्बन्ध होने के कारण बह प्रत्यक्ष होता है उसी प्रकार रजत के साथ भी साक्षी का साक्षात् सम्बन्ध हो जाने से उसका भी साक्षीजन्य अपरोक्षानुभव होता है। यह शंका को जाय कि रजत इदमवच्छिन्न चैतन्य में प्रध्यस्त होता है अतः 'अत्र रजतम्' प्रतीति होनी चाहिये किन्तु 'इवं रजतम्' नहीं होनी चाहिये तो इस का उत्तर यह है कि इदं में रजत तादात्म्यतिरिक्त सम्बन्ध से अध्यस्त न होकर तादात्म्यसम्बन्ध से ही प्रध्यस्त होता है, अत: 'अत्र रजतम्' यह प्रतोति न होकर 'इथं रजतम्' यह प्रतीति होती है।
* अज्ञान अथवा अज्ञानगतावरण के दो भेद होते हैं-१. असत्त्वापादक और २. अभानापादक । असत्त्वापादक अज्ञान अथवा अज्ञानावरण प्रमातृचैतन्य में रहता है और अभानापादक विषयचैतन्य में रहता है । अतः असत्त्वापादक की नियत्ति शरीर के भीतर उत्पन्न अन्तःकरण को विषयाकारवृत्ति से होती है किन्तु विषयचैतन्यगत अभानापादक आवरण को निवृत्त करने के लिये वृति का विषय देश में गमन आवश्यक होता है । अनमानादि स्थल में अनमीयमान वह्नि आदि के देश में अनुमित्यात्मक अन्तःकरण की वृत्ति मार्ग ना होने से बाहिर नहीं जा सकती। किन्तु प्रत्यक्षस्थल में विषयदेश में इन्द्रिय का गमन होता है, अतः इन्द्रिय रूप मार्ग से अन्तःकरणवृति का बाहर हो सकता है। जहां प्रत्यक्ष रममाण पक्ष में साध्य की अनुमिति होती है वहाँ वह्नि के आश्रयभूत पक्षात्मक देश के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने से वहाँ अनुमित्यात्मक वृत्ति के होने पर भी पक्षाकार वृत्ति का ही निर्गम होता है किन्तु साध्याकारवृत्ति का निर्गम नहीं होता। क्योंकि तत्तदिन्द्रिय मात्र तत्तदिन्द्रियजन्य अन्तःकरणवृत्ति का ही मार्ग होती है। साध्याकारवृत्ति लिङ्गजन्य होती है-इन्द्रियजन्य नहीं होती अतः इन्द्रियमार्ग से उस का बहिर्गमन नहीं होता।