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स्त्रिया स्त०८ श्लो०१
[वृत्ति का प्रयोजन आवरणाभिभव-मतान्तर ] वेदान्त दर्शन का वृति के सम्बन्ध में एक दूसरा प्रसिद्ध मत यह है कि वृत्ति का प्रयोजन है आवरण का अभिभव । उनका आशय यह है कि अवियोपहितचैतन्यस्वरूप जीव यद्यपि सर्वगत है फिर भी उसे सदा सब विषयों का अनुभव नहीं होता। इसका कारण यह है कि जितने भी विषय है। प्रत्येक तत्तद्विषय से अवच्छिन्न चैतन्य के उपर ब्रह्मविषयक अज्ञान का अखण्डावरण पड़ा हुआ है। वही विषयों के अनुभव और व्यवहार का प्रतिबन्धक होता है। अन्तःकरण की विषयाकार वृत्ति अनुभव और व्यवहार में उत्तेजक है। फलिस यह हमा कि अन्तःकरणवृत्तिविरहविशिष्ट प्रावरण अपने विषय के अनुभव और व्यवहार का प्रतिबन्धक है। जब विषयाकार अन्तःकरण की वृति इन्द्रिय मार्ग से विषयदेश में जाती है तब वृत्त्यवति और विषयावनिछन नैतन्य एक हो जाने से विषयावरिछन्न चैतन्यगतावरण अन्तःकरणवृति से विशिष्ट हो जाता है। अतः अन्तःकरणवृत्तिविरहविशिष्ट आवरणरूप प्रतिबन्धक का अभाव हो जाने पर प्रावरण से प्रतिबध्य विषयानुभव और विषयव्यवहार रूप कार्य की उत्पत्ति होती है।
[अभेदापत्ति पर पुनः आक्षेप-समाधान ] इस मत में यह प्रश्न होता है कि-"विषयावच्छिन्न चैतन्यगतआवरण विषयानुभवादि में प्रतिबन्धक होने पर अन्तःकरण की बत्ति उत्तेजक होती है। अतः अन्तःकरणवत्ति तथा तदात्मना अन्तःकरण का बहिनिगम मानना आवश्यक है। किन्तु विषय चंतन्य और प्रमातृचैतन्य में अमेवाभिव्यक्ति मानने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि अन्तःकरणवृत्ति से संश्लिष्ट घटादि विषय में अथवा विषयसंसृष्टान्त:करणवृत्ति में प्रमातृचतन्य हो प्रतिबिम्बित होकर * फल के रूप में घटादि का प्रकाशक हो सकता है।" इस प्रश्न का उत्तर यह है कि केवल संविद् ही वास्तव में अपरोक्ष होता है-प्रमातृचैतन्य भी साक्षी से सदा सम्बद्ध होने के कारण अपरोक्ष होता है। प्रतः संविद व प्रमातृचैतन्य का अभेद ही अपरोक्षस्व है। घटादि विषय में इस अपरोक्षत्व की उपपत्ति संविवरूप ब्रह्म में घटादि के अध्यस्त होने पर ही हो सकती है । और स्वावच्छिन्न चैतन्य में अध्यस्त घटादि ब्रह्माध्यस्त प्रमातृचंतन्याध्यस्त तभी बन सकता है जब घटाद्यवस्छिन्न चैतन्य और प्रमातृचैतन्य में अभेव हो । अतः वृत्तिनिर्गम के फलरूप में प्रमातचैतन्य और विषयचैतन्य की अभेदापत्ति मानना आवश्यक है। अतः उक्तरीति से घटादि की अपरोक्षता होती है।
* वेदान्त दर्शन में घटपटादि विषयों का ग्रहण दो साधनों से होता है-(१) घटाद्याकार अन्तःकरण की वृत्ति और (२) उस वृत्ति में प्रतिबिम्बित प्रमातृचैतन्य अथवा विषयचंतन्य। इस प्रतिबिम्बित चैतन्य की वेदान्तदर्शन में 'फल' यह परिभाषिकी संज्ञा है ।
इन दोनों साधनों में वृत्ति द्वारा घटादि के आवरण का भङ्ग होता है और वृत्तिप्रतिबिम्बत चंतन्य के द्वारा घटादि का स्फुरण होता है । इस की आवश्यकता इसलिये होती है कि घटादि प्रकाशानात्मक होने से केवल आवरण के दूर होने से प्रकाशित नहीं हो सकता । अतः उसके प्रकाश के लिये वृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यरूप प्रकाश की अपेक्षा होती है ।